वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 99
From जैनकोष
कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव, ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गल: पुद्गलोऽपि ।
ज्ञानज्योतिर्ज्वलितमचलं व्यक्तमंतस्तथोच्चैश्चिच्छक्तिनां निकरभरतोऽत्यंतगंभीरमेतत् ।।99।।
835―मोक्षमार्गविधायी भेदविज्ञान का दिग्दर्शन―सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में परिपूर्ण स्वतंत्र सत् हैं, उनमें परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं, लेकिन यहाँ अज्ञानी जीव में कर्ता कर्म का आशय बन रहा सो अब उस सिलसिले में कौन से भ्रम में यह कर्ताकर्म का आशय बन रहा? पर भ्रम यह है कि पदार्थ हैं यहाँ दो, जीव और कर्म । जीव ने कर्मबंधन किया था तो उसमें प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग इन चारों का बंधन था । अब उदय में आया तो उसका अनुभाग खिला और उस अनुभाग का कर्म में विकास हुआ उसका प्रतिफलन हुआ उपयोग में, तो यह जीव अपने ज्ञानस्वरूप की सुध भूलकर उस छाया में लग गया कि यह मैं हूँ, तो यह कर्ता बन गया । ज्ञाता कब होता है कि कर्म उदय में आ रहे हों तो भी यह प्रतीति में रखे कि मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञाता हूँ और यह छाया प्रतिफलन जो कुछ हो रहा है ये सब परभाव हैं, यहाँ ऐसा ज्ञान हुआ कि यह कर्मरस है, यह मैं ज्ञानमात्र हूँ तो वह ज्ञाता कहलाता है । तो जिस काल में इस जीव को सही ज्ञान हो गया कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, मात्र ज्ञाता हूँ तो इससे पहले जो कर्ता बन रहा था तो अब कर्ता नहीं बनता, क्योंकि एक अचलित स्वरूप का ज्ञान बन गया । उसकी अचल ज्ञानज्योति प्रकट हो गई । साक्षात् जानता है कि ये सब कर्मरस हैं, यह मैं ज्ञानमात्र हूँ । भेदविज्ञान तो और बहुत से लोग करते हैं । देहातों में देहाती लोग भी भेद विज्ञान की बात करते हैं । शरीर निराला है, जीव निराला है । शरीर छोड़कर जाना पड़ता है । हंसा निकल जाता है, शरीर पड़ा रह जाता है, छोटे-छोटे लोग भी बात करते हैं, मगर वास्तविक भेदविज्ञान नहीं बनता, कब तक नहीं बनता, जब जब तक कि यहाँ भेद न जान लें कि मैं तो ज्ञप्ति क्रिया वाला हूँ और ये सब कर्मरस हैं । तो कर्मरस में, विभाव में और अपने स्वरूप में जब तक अंतर नहीं पहिचाना तब तक यह जीव ज्ञानी नहीं कहलाता ।
836―कर्म का कर्मरूप न रहने का तात्पर्य―जब इसने जान लिया यथार्थस्वरूप तो एक तो स्पष्ट ज्ञान हो गया और फिर चेतन की शक्तियों का इतना विकास होता है कि जिस व्यापक प्रकाश के कारण यह ज्योति गंभीर हो जाती है । तब यह जीव कर्ता नहीं रहा, था पहले कर्ता, पर अब कर्ता नहीं रहा और ये पौद᳭गलिक कर्म भी कर्म नहीं रहे । ज्ञान ज्ञान ही रह गया, कर्म कर्म ही । एक तो जिस आत्मा में पहले कर्तापना था उसका विनाश होकर ज्ञातृत्व आया, ऐसे ही पुद᳭गल कर्म में पहले कर्मत्व था, अब इस ज्ञानज्योति के कारण उनका कर्मत्व दूर हो गया, एक तो यह बात । दूसरे उस वस्तु में, उस पुदगल कर्म में चाहे कर्मत्व नहीं मिटा फिर भी ज्ञान में तो अकर्मत्व आ गया । जैसे यहाँ चतुर लोग दूसरे की गाली सुन लेते हैं और उसका जवाब नहीं देते तो उसका अर्थ लोग यह लगाते कि उसने गाली दी और इसने नहीं ली । अरे गाली लेवे तब तो क्रोध आये तब तो बिगाड़ होवे । जब उसने गाली ली ही नहीं तो वह गाली या तो देने वाले के पास वापिस हुई अर्थात् गाली देने वाला शर्मिंदा हुआ या बीच में ही खतम हो गई, ऐसे ही जब कर्मरस उदय में आता है और उनको हम लेवें नहीं, उनसे विरक्त रहें, उन्हें स्वीकार न करें, उनके मात्र ज्ञाता रहें तो कर्मरस, इसने स्वीकार नहीं किया, इस कारण कर्मरस अब यहाँ नहीं रह पाता । अथवा होते हुए भी कर्मरस उदय मैं आया तब भी हमने उसको लिया नहीं, ज्ञान में उपयोग में अपनाया नहीं, लिया नहीं, तो ऐसी स्थिति में पुद्गल पुद्गल ही रहा, जीव जीव ही रहा ।
837―कर्म परिचय और उसका बहुरूपियापन ज्ञात होने पर बहुरूपियापन का निष्क्रमण―कर्म क्या चीज है? जैसे जगत में ये पदार्थ दिखते हैं नाना प्रकार के भींट पत्थर आदिक तो ये तो स्थूल पुदगल हैं, आंखों से दिखने आने वाले पुद᳭गल हैं, पर जो कार्मणवर्गणा जाति के पुद᳭गल हैं वे कर्मरूप न हों तो भी जीव के साथ एक अवगाह रूप रहा करते हैं, याने इस जीव के साथ जो कर्म बंधे हैं, अभी वे तो बंधे हैं मगर उससे भी अधिक विस्रसोपचय कर्मवर्गणायें इस जीव के साथ लगी हैं, देखो जीव के साथ जो कर्मपरमाणु लगे हैं, कार्माणस्कंध लगा है उसमें दो तरह हैं―एक कर्मरूप बन चुके वे भी लगे हैं और जो कर्मरूप नहीं बने हैं जो कर्म रस बनने के उम्मीदवार हैं वे भी लगे हैं तो हमने यह जान लिया कि ये पौद्गलिक हैं ये मेरे कर्म नहीं हैं, इन्हें मैं नहीं करता मैं तो अपने ज्ञान की परिस्थितियों को ज्ञान के परिणमनों को ही करता रहता हूँ । तब कोई ऐसा जानकर कि ये तो कर्म बहुरूपिया है नाना रूप भेषों को बदल-बदल कर इस नाट᳭य भूमि में आते हैं और इस जीव के विभावों को भी जान ले कि ये भी बहुरूपिया है, तो बहुरूपिया जान लेने पर फिर वह बहुरूपिया नहीं रहता । अपने स्वरूप में आ जाता है, अथवा रहा आये तो कितने दिन रहा आयेगा । जैसे कोई वृक्ष जड़ से कट गया तो हरा तो कुछ दिन वह रहता है, पर यह बतलावो कि कितने दिन तक वह हरा रह सकेगा? यहाँ भी जब कभी कोई बहुरूपिया आपकी दूकान पर आता है, और आप उसे अगर पहचान जाते हैं कि यह तो अमुक व्यक्ति है, इसने बहुरूपिया का भेष बनाया है तो फिर उस बहुरूपिया की दशा देख लो, पहले तो वह बड़ी अपनी ऐंठ में रहेगा, मगर जब दुकानदार द्वारा कह दिया जाता कि तुम तो फलाने चंद हो तो फिर वह अपनी मिजाज में नहीं रहता । बहुरूपिया फिर आपके सामने बहुरूपियापन पेश नहीं करता, सीधे वहाँ से आगे की रास्ता नापता है ठीक ऐसे ही इन विभाव और कर्मों की पोल खुल गई, सत्य तथ्य ज्ञात हो गया फिर यह विरूप कैसे रह सकेगा? वह अपने असली स्वरूप में आ जायेगा । तो संसार के दुःखों से छूटने का उपाय पदार्थों के सहज स्वरूप का परिचय पा लेना है । इसके बिना कोई उपाय नहीं कि यह जीव उत्तरोत्तर ज्ञानानंद प्रकाश पाये और कर्म रहित हो जाये । हां तो एक अंधेरा चल रहा था इस जीव की उपयोग भूमि पर दमादम बड़ी चोट और धक्के से यह नाटक चल रहा था । कब तक खेल रहा, जब तक कि उन पार्ट करने वाले तत्त्वों का सही परिचय नहीं पाया यह आत्मा दर्शक है, देखनहार है मगर उन द्रव्य कर्मों का और भाव कर्मों का जब तक वह स्वरूप नहीं ज्ञान में आया था तब ही तक तो यह दर्शक आत्मा दृष्टा उन विभाव कर्मों से चिपट रहा था, पर जैसे ही सही तत्त्व का बोध हो गया तो वे विभाव और कर्म कांतिहीन हो गए । अब वे अपनी शान न बना सके । फल यह होगा कि वह अपना भेष छोड़कर सही स्वरूप में सामने आयेगा । वह सही स्वरूप क्या ? कर्म का स्वरूप तो कर्म पुदगल, पुद्गलवर्गणायें, वह पुद᳭गल के नाते से ज्ञात होता है तो जब तक कोई कर्ता है तब तक ही कर्म में कर्मत्व गहरा होता जाता हम करे नहीं तो कर्मपना कहाँ से आये?
838―स्वरूपसुध बिना जीव की विडंबना―यह जीव और अजीव कर्ता और कर्म के भेष में उपयोग पर नच रहा है, जीव कर्ता और पुदगल कार्माणवर्गणा कर्म । पुद्गलकर्म कर्ता तो जीव के रागादिक भाव कर्म । यों अज्ञान से कर्ता कर्म भाव चलता है जिसमें यह जीव दुःखी रहता है करने के विकल्प स्वयं कष्टरूप हैं । इस असार संसार में करने को क्या पड़ा है बाहर में सो सही सार रूप में बतावे एक भी बात बताओ जो बाहर में कोई करने की चीज पड़ी हो । क्या पड़ा है? कोई कहे कि मकान पड़ा है, अरे ! तो तू उस मकान का करने वाला कौन ! और अचानक इस भव को छोड़ गए तो अब तेरा उससे वास्ता क्या? क्या पड़ा है बाहर में करने को सही बताओ? पुत्र मित्रों को खूब बड़ा बना देना यह करने को पड़ा है क्या? अरे ! एक तो तू कर नहीं सकता, उनका जैसा कर्मोदय है उसके अनुसार सांसारिक बात बनती है और फिर मानो बन भी जाये तो उसमें तूने क्या किया । यह तो मोह में अपनी शान समझ रहा है बेवकूफ बनकर । किसी के मानो चार लड़के हैं―बड़ी ऊंची-ऊंची पोस्ट पर हैं―कोई मिनिस्टर है, कोई डाक्टर है, कोई कलेक्टर हे, कोई मास्टर है, अब उस सेठ की कोई प्रशंसा करे कि साहब इन सेठजी का क्या कहना है । इनके चार लड़के हैं, चारो ही बडे ऊंचे-ऊंचे पोस्ट पर हैं―कोई मिनिस्टर, कोई कलेक्टर, कोई डाक्टर, कोई मास्टर, तो उस बात को सुनकर वह सेठ खुश होता है उसमें वह अपनी प्रशंसा समझता है, पर दी गई वास्तव में उसको गाली । अरे उस प्रशंसा करने वाले ने क्या कहा कि इन सेठ जी के लड़के तो ऊंचे-ऊंचे पोस्ट पर हैं पर यह सेठ तो कोरे बुद्धू हैं, इनमें कोई गुण नहीं है । अगर सेठ में कोई गुण होता तो उसके गुण की बात कही जाती कि सेठ जी बड़े दानी हैं, धर्मात्मा हैं ऐसा तो नहीं कहा गया, मगर वह सेठ उसमें अपनी प्रशंसा समझता है । ऐसे ही वहाँ संसार में जो-जो बातें प्रशंसा की की जा रही हैं वे सब इस आत्मा को गाली हैं, एक बात को क्या, सभी बातों में लगाओ यह तो एक मोटी गाली है । कोई कहे कि साहब इन्होंने अपना बड़ा मकान बनाया तो यह तो एक गाली हो गई । यह जीव तो अमूर्त है, अकर्ता हे । सिद्ध प्रभु की तरह है और उसे कहते हैं कि इसने मकान बनाया मायने इसमें अज्ञान है, इसने मकान बनाने का विकल्प किया है, यह अंधेरे में है, इसकी ऐसी चेष्टा हुई है, बताओ गाली दी कि नहीं? मगर यह खुश हो रहा । कोई तो बात बताओ ऐसी जो आत्मा को गाली रूप न हो दुनिया की प्रशंसा में ? कोई कहे कि इसके इतने लड़के हैं, इसका इतना कुटुंब है, इसके ऐसे-ऐसे रिश्तेदार हैं तो उसका अर्थ क्या हुआ कि यह जीव कितना अज्ञानी बना फिर रहा है कि कुछ थोड़े से जीवों को इसने अपना मान लिया है, उससे यह अपना महत्त्व समझता है, यों दी तो गई गाली, पर अब उसका कोई समझने वाला हो तो समझे । मगर यह सुनकर खुश होता । दुनिया की जितनी प्रशंसा है वह सब इस आत्मा के लिए गाली है क्योंकि आत्मा तो मात्र ज्ञाता है । और उसका कार्य तो केवल ज्ञाता द्रष्टा रहना है, प्रतिभास मात्र रहना है । यह स्वरूप सुध से चिगा तो इसकी नाना विडंबनायें होती हैं, उनकी लोग प्रशंसायें करते हैं वह आत्मा के लिए गाली है, निंदा है, सही-सही प्रशंसा कौन करता है कि साहब यह आत्मा बड़ा पवित्र है, अकर्ता है, ज्ञाता द्रष्टा रहता है, विभावों से विरक्त रहता है, अपने ज्ञान स्वरूप को निहारने में ही इसका समय लगता है, ऐसी प्रशंसा आपकी किसी ने की क्या? आप तो कहेंगे कि हम ऐसे हैं ही नहीं, क्यों करेगा कोई ऐसी प्रशंसा? हैं और नहीं की बात तो दूर रहो दुनिया के लोग इस मूर्त शरीर को निरखकर, इसको ही सर्वस्व जानकर इसकी प्रशंसा करते हैं और यह भी ऐसा ही समझकर अपने आपमें खुश हो रहा है । इसने भेद नहीं जाना ।
839―अंतर्ज्ञान बिना सर्वदा कष्टरूपता―मैं चैतन्य ज्योति मात्र हूँ, अन्य रूप नहीं हूँ, ऐसा इसने अपना अंतस्तत्त्व नहीं माना । और यही कारण है कि अब तक इन सारे कामों से आटोमेटिक संसार की लीला इसकी चल रही है । इसने तो किया विभावों में प्रेम अपना मानकर मैं तो यह ही हूँ इन विषय इच्छा कषायों रूप अपने को माना, तो इसने विभावों को अपनाया और ओटोमेटिक क्या हो गया ? ये हुए आत्मा के एक क्षेत्रावगाह में जो कार्माणवर्गणायें विस्रसोपचय पड़ी हैं वे लंबी स्थिति के कर्मरूप बन गई । सारी नहीं बन गई । जो कर्म बाँधे थे वे उदय में आयेंगे तो उनका फल भोगना पड़ेगा । क्या भोगना पड़ता जन्म लिया, शरीर बना, शरीर में रम गया फैल गया, अब शारीरिक कष्ट, वाचनिक कष्ट और मानसिक कष्ट और उन कष्टों में विह्वल हुआ, आकुलित हुआ, संक्लेश किया तो उसमें और कर्म बाँधे, परंपरा बन गई, इसका जन्ममरण चल रहा । अज्ञान का यह फल है । जन्म के समय में जो जन्म लेता है वह तो रोता है और यहाँ दूसरे लोग हँस रहे । मोह ममता में इसके लड़का हुआ, लड़का हुआ ऐसा कह कर सभी लोग हँस रहे, पर वह जन्म लेने वाला बच्चा रो रहा, उसे गर्भ में दुःख, गर्भ से निकलते समय दुःख, वह तो बेचारा रोता हुआ निकलता है पर यहाँ ये लोग खुशियां मनाते । पर कुछ पता भी है, उस बच्चे के कारण जिंदगी भर दुःखी रहे, उसके पीछे बड़े-बड़े शल्य रहें । आखिर उससे मोह करके कौनसा लाभ लूट लिया जायेगा? जैसे यहाँ कोई लोग रोते हैं कि साहब हमारा तो सारा जीवन दुःख ही दु:ख में गया, और अपनी दुःख की कहानी भी सुनाते, तो वैसे ही जरा अपनी भी पूरी कहानी सुनाओ ना? तुम एक जिंदगी की ही कहानी क्यों सुनाते? अनादिकाल से लेकर अब तक अज्ञान भाव में रहने के कारण सारा अनंत काल दुःख ही दुःख में गया । अच्छा तो कहानी सुनने सुनाने से मिलेगा क्या? एक यह उपाय बनावे कि यह मोह जो दु:खरूप है उसको नष्ट करें ।
840―सम्यग्ज्ञान से सर्व संकटों का परिहार―देखो हम आप सबकी जिंदगी यों दुःख दु;ख में ही गई । करीब-करीब सब विवेकी जनों ने यह सोच रखा था कि भाई अभी 5 वर्ष की और देर है, इसके बाद तो हम सारे झंझटों से निपट लेंगे ओर धर्मसाधना में ही अपना सारा समय लगायेंगे, मगर होता क्या है कि वह सोचा हुआ सारा समय भी गुजर जाता है, पर झंझटों से निपट नहीं पाते, बल्कि नई-नई उल्झनें ओर सामने खड़ी हो जाती । मान लो किसी ने मन ही मन में यह सोच रखा था कि हम धन का परिमाण रखकर अपने जीवन में चलेंगे, पर चित्त स्वच्छंद होने से वह उस परिमाण को नहीं रख पाता । फल यह होता है कि जीवन भर वह धनार्जन करते रहने के लिए दु:खी रहा करता है । कोई सोचे कि हम 10-5 साल में सारे झंझटों से निपट लेंगे तो वह निपट नहीं सकता, क्योंकि उसके अज्ञान बसा है, मोह लगा है । जिसके अज्ञान बसा है, मोह लगा है उसका कष्ट कभी दूर नहीं होता । अब बताओ ये कष्ट कैसे दूर हो? तो कहते कि ये कष्ट थोड़े-थोड़े करके दूर नहीं हो सकते, एक जिंदगी के कष्ट दूर नहीं हो सकते, किंतु सदा के लिए कष्ट दूर होना सुगम है । तो फिर एक भव के ही कष्टों को दूर करने की क्यों चिंता करते? सदा के लिए यह जीव संसार संकटों से दूर हो जाये, वह चिंतन कीजिए । वह उपाय यह ही है कि तुम समग्र पदार्थों को स्वतंत्र-स्वतंत्र सत् जानो । चूंकि दूसरों पर अधिकार नहीं, एक की दूसरे में क्रिया नहीं, एक का दूसरे में प्रवेश नहीं, सर्व जीव अपने आपमें स्वतंत्र-स्वतंत्र सत् हैं । इसका फल क्या होगा? मोह न रहेगा । यह मेरा है, यह ख्याल न रहेगा, क्योंकि ज्ञान जग गया ना? जिस किसी भी पदार्थ का ज्ञान हो जाता उसे भूलते हैं क्या कभी या उससे उल्टा सोचते हैं क्या कभी? जैसे जान तो ली गाय पर उसे कभी ऐसा भी सोचते क्या कि जानने में तो गाय आ रही है पर वह कहीं भैंस या गधी वगैरह न बन जाये? ऐसा नहीं सोचते । उसे तो उसके प्रति दृढ़ निर्णय है, ठीक ऐसे ही जब अपने आत्मा के सहज स्वतंत्र स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तब कोई चिंता की गुंजाइश है क्या? कभी कोई शल्य की गुंजाइश है क्या? जान लिया, ऐसा जब सही ज्ञान हो जाता तब यह जीव कर्ता नहीं रहता ।
841―सहज स्वरूप के सुपरिचय से कर्तृकर्मत्व संबंधरूप विपत्ति का विनाश―कर्ता यह जीव था अज्ञान तक । और, सही ज्ञान हो जाने पर फिर कर्म कर्म नहीं रहता, यह कर्म तो कार्माण वर्गणा द्रव्य है, यह मेरा काम नहीं है, यह तो स्वतंत्र पदार्थ है, उनकी उनमें परिणति होती है, यह ज्ञान रहता है । कर्म है मेरा यह काम है, मैंने यह कर दिया―यह ज्ञान नहीं । तो जिस समय यह यथार्थ ज्ञान हो जाता, ज्ञान तो ज्ञान ही ज्ञान रहता, उसमें कोई विकल्प तरंग या भ्रम की बात नहीं आती, और ये कर्म पुदगल, इसकी निगाह में कर्म है ऐसा ज्ञान नहीं रहता । तो जहाँ यह ज्ञान हुआ वहाँ ये जीव और अजीव दोनों अपने कर्ता कर्म का भेष छोड़कर इस उपयोग से निकल जाते हैं, जो अज्ञान में इस उपयोग में कर्ता कर्म के भेष में ये भाव कर्म, द्रव्य कर्म लदे हुए थे, जिससे कि आकुलित हो रहे थे, अब उनका यथार्थ स्वरूप जान लिया गया है अत: वे अपना कर्ता कर्म छोड़कर भाग गये । बहुरूपिये का बहुरूपियापन पहिचान लिया गया है, यह तो हमारा पड़ोसी है, यह तो अमुक लड़का है, फिर वह बहुरूपियापन बताने को सामने खड़ा रहेगा क्या? निकल जायेगा, ऐसे ही कर्ता कर्म भेष जो पहिचान लिया, यथार्थता जान ली तो कर्ता कर्म को छोड़कर ये विभावभाव सब इस जीव से निकल जाते हैं । अब यह ज्ञानी अंतरात्मा निर्भार होकर अपने ज्ञानस्वरूप का निर्विकल्प होकर निर्विघ्न अनुभव करता रहता है । है तो यह उपयोग रूप । बस इसी में विवेक है कि हम उपयोग को किस बात में लगायें और किसमें अपना उपयोग फंसायें कहाँ आश्रय करें? इसका सही निर्णय करना एक महान कार्य है । इन विभावों में अपना उपयोग न लगावें पर भावों में न लगावें और अपना जो सहज चैतन्यस्वरूप है उसमें ही अपने उपयोग को जुटाते रहें यह ही एक मुक्ति का मार्ग है और इस उपाय से नियम से सर्व कर्मों से छुटकारा होगा ।