वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 2
From जैनकोष
जयंती यस्यावदतोऽपि भारती विभूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनीहितु:।शिवाय धात्र सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नम:।।2।। संकलात्मदेव―यह समाधितंत्र का दूसरा छंद है। पहिले छंद में सिद्ध भगवान को नमस्कार किया था और इस छंद में अरहंत भगवान् को नमस्कार किया जा रहा है। उन शरीर सहित परमात्मा को नमस्कार हो। शरीर सहित परमात्मा हैं। अरहंत और शरीर रहित परमात्मा हैं सिद्ध। तो देव में दोनों आये―अरहंत भी देव हैं और सिद्ध भी देव हैं और गुरु में आते हैं तीन, आचार्य, उपाध्याय और साधु। देव और गुरु का समुदाय परमेष्ठी कहलाते है। उन अरहंत प्रभु को नमस्कार है, जो बोलते नहीं हैं, पर उनकी दिव्यध्वनि बिना चाहे खिरती है। कैसी प्राकृतिक लीला है कि अरहंत भगवान बोलते नहीं हैं, जानते अवश्य हैं। जैसे यहाँ कोई प्रश्न करता है तो जवाब दिया जाता है, ऐसा प्रश्नोत्तर भगवान् नहीं किया करते हैं। उनकी तो समय पर उनकी ओर से दिव्यध्वनि खिरती रहती है। वहाँ प्रश्न करने वाला प्रश्न करता जाय, पर भगवान् प्रश्नकर्ता को नहीं देखते हैं और न भगवान् वहाँ जवाब देते हैं। ऐसा ही मेल है प्रकृति का और भव्य जीवों के भाग्य का कि समय पर उनकी दिव्यध्वनि खिर जाती है।
नियोग―जैसे यहाँ भी करीब-करीब ऐसी पद्धति है कि समय पर प्रवचन हो तो अच्छा चलता है और हो समय पर ही। कोई आये 12 बजे दोपहर को, और कहे कि महाराज थोड़ा प्रवचन कर दो तो वह बात नहीं आती है और उनका तो अलौकिक, विलक्षण बहुत ही ऊँचा काम है। समय आया और दिव्यध्वनि झरने लगती है। उस दिव्यध्वनि का सब श्रोतावों को ज्ञान हो ऐसा तो है नहीं। ध्वनि का ज्ञान गणधर देवों को है, उनके इशारे वह गणधर देव ही समझते हैं। पर जैसे कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि बड़े पुरूष को देख लेवें तो बहुत सी शंकाएँ तो देखे ही दूर हो जाती हैं, और फिर अरहंत का जहाँ अविरल धारा से उपदेश चलता है, दिव्यध्वनि से वह सुनने को भी मिले तो साक्षात् प्रभु के दर्शन और प्रभु की दिव्यध्वनि का श्रवण जब दोनों बातें मिल गयी हैं तो उनकी शंकाओं का समाधान स्वयमेव हो जाता है। भारती विभूति―भगवान् की भारती को विभूति बताया है। जगत् में संत पुरूषों की, अरहंत पुरूषों की जो वाणी है वह विभूति है। उसके सदृश्य और क्या विभूति होगी ? एक साधारण नेता का व्याख्यान कराना होता है तो कितना बड़ा मंडप सजाते हैं, कितना श्रृंगार करते हैं, कितना श्रम करते हैं, लोगों को जुड़ाते हैं और वह बड़ा पुरूष आध घंटा, पौन घंटा बोलकर चला जाता है। तो बतावो उनका आध घंटा, पौन घंटा का व्याख्यान यहाँ इतना मूल्य रखता है, इतना श्रम, श्रृंगार होता है, मंडप बनता है, तो अरहंत भगवान् की जहाँ दिव्यध्वनि सुनना है, वहाँ की तो रचनाएँ मनुष्यों के वश की ही नहीं हैं। वहाँ तो देव और इंद्रों के द्वारा रचनाएँ होती हैं। वह भारती भी बड़ी विभूति है तब तो उस उपदेश के लिए इतना श्रम, इतना व्यय लोग प्रसन्नता से किया करते हैं। पूर्वापर नमस्कार―इस प्रकरण में न बोलते हुए भी जिस प्रभु की भारतीरूप विभूति बिना चाहे जयवंत प्रवर्तती है उस अरहंत देव को नमस्कार किया गया है। पूर्व श्लोक में अपने मूल प्रयोजन को ध्यान में रखकर कहा गया है कि मैं इस शुद्ध आत्मा को नमस्कार करता हूँ। जिसने आत्मा को आत्मारूप जाना और पर को पररूप जाना और इस जानन के फल में अविनाशी असीम ज्ञानानंद भोग रहे हैं, ऐसे विशेषणों सहित सिद्ध को नमस्कार किया गया था। ज्ञानवान् पुरूष विशेषण भी बोलता है तो अपने प्रयोजन की सिद्धि माफिक बोलता है। जैसे यहाँ लौकिक पुरूष धनी पुरूष को यदि कुछ कहेगा तो ऐसा विशेषण लगाकर कहेगा जिससे कुछ अर्थ प्रयोजन सिद्ध होता है और त्यागी को कोई विशेषण बोलेगा तो ऐसे विशेषण बोलेगा जिससे धर्मपालन का प्रयोजन पूरा होता है। तो सिद्ध का चूंकि वह आदर्शमात्र है, वे हमारे किसी काम नहीं आते, वे तो लोक के शिखर पर आनंदरसलीन हुए अपना परिणमन करते हैं, तब उनको नमस्कार किया गया है उनका आदर्श बताकर और वे किस उपाय से ऐसे सिद्ध बने हैं उस उपाय को विशेषित करके पुकारा था। यहाँ अरहंतदेव के वंदन के प्रकरण में नमस्कार करते हुए विशेषण दे रहे हैं कि जिसकी अलौकिक दिव्यध्वनि बिना चाहे, बिना बोले जयवंत प्रवर्तती है। सुखार्थिता के पूरक अरहंत भगवान्―देखो सभी लोग सुख चाहते हैं। सुख मिलता है यथार्थ ज्ञान से। यथार्थ ज्ञान होता है शास्त्रों के अध्ययन से और शास्त्र आए हैं दिव्यध्वनि से और दिव्यध्वनि आयी है अरहंत भगवान् से। इस कारण जिसे सुख चाहिए, जिनेंद्रदेव के मार्ग में लगना है उसको अरहंत भगवान् का शरण लेना चाहिए। ऐसे ये अरहंतदेव शिवस्वरूप हैं, कल्याणमय हैं, आनंद के निधान हैं और भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग में लगाते हैं इसलिए वे धाता हैं, ब्रह्मा हैं और उनका ज्ञान पूर्ण विशुद्ध समस्त लोक में स्पष्ट झलकता है इस कारण वे सुखस्वरूप हैं। अपनी चर्चा―यह चर्चा दूसरे की नहीं है, खुद की है और ऐसे उत्कृष्ट सत्यस्वरूप को भूल गए हैं इसलिए आज यह दुर्दशा है। अरे ! मनुष्य हुए तो क्या है ? यदि मोह ममता में ही रंगे हैं तो पशुवत् हैं। यह सब चर्चा जहाँ भगवान् के स्वरूप की की जा रही है। वहाँ यह ध्यान में रखो कि यह हमारी चर्चा है, दूसरे की नहीं है। जैसे कोई खोटी चर्चा किए जाय तो जितने आदमी बैठे हैं वे सब सोचेंगे कि यह हमारा लक्ष्य करके बोल रहे हैं। कैसे भाषण में अगर परस्त्रीगमन के त्याग का उपदेश किया जा रहा है कि परस्त्री सेवन मत करो और उसका दोष दिखाया जा रहा है तो अगर 10, 20 जितने परस्त्रीगामी बैठे हों वे सबके सब यही सोचेंगे कि आज महाराज ने देखो हमारा लक्ष्य करके यह बात कही है, और कहो महाराज को सताने पर भी उतारू हो जाय कि हमको क्यों ऐसा कहा है ? तो जब कोई अच्छी बात कही जा रही हो, अरहंत का, सिद्ध भगवान् का स्वरूप, उनके गुणों की बात कही जा रही हो तो भी हम सबको वह बात भी अपने पर घटा लेनी चाहिए। प्रभु की शिवस्वरूपता―भैया !खोटी बातें तो किसी किसी में हैं और यह स्वभाव वाली बात सबमें है। तो यह भगवान् की चर्चा है या हम आपकी खुद की बात है कि ऐसे महान् हैं हम आप, और ऐसे सुख समुद्र हैं हम आप। ज्ञानघन हैं हम आप। दु:खों का कुछ काम नहीं है। क्लेश अंश भी नहीं हैं, कृतार्थ हैं, शिवस्वरूप हैं, कुछ करने को बाकी नहीं रहा। ऐसी अलौकिकता की बात प्रभु की गायी जा रही है तो समझो कि हमारी बात कही जा रही है। वह भगवान् शिव है, असीम अशुद्ध निर्मल ज्ञान आनंदमय है। अरे ऐसे ही तो हम आप हैं। व्यर्थ का मोह मचा रखा जिससे कि इतनी बड़ी बात का खोज मिटा दिया। व्यर्थ की बातों में असली बात खो दी। बतावो इस 40-50 वर्ष की जिंदगी में अब तक मोह किया पर आज हाथ में क्या है ? कौन सा लाभ रक्खा है कि जिससे कहा जाय कि हां हमने इतनी बात तो बढि़या बना ली। जैसे धनसंचय करते हैं तो वहाँ यह दिखता है कि लो अब हो गए 1200) चलो अब और थोड़ा कर लेंगे, अब 1600) हो गए। तो जैसे, वहाँ दिखता है कि हमने इतनी विभूति पा ली, तो मोह करके बतावो कि कितना क्या पा लिया ? तो व्यर्थ के मोह में इतनी बड़ी हानि कर रहे हैं, इसका ख्याल इस मोही जीव को नहीं होता। प्रभु की सुगमस्वरूपता―प्रभु सुगम है, उत्तम अवस्था वाला है, उत्कृष्ट उनका विकास है, ऐसा ही हम आपका स्वभाव है, उसका आदर नहीं करते तो भिखारी बने हुए हैं। न अपन ज्ञानधन खोता, तो भिखारी क्यों बना होता ? एक ही बात है। आशा किए जा रहे हैं, किसकी ? दूसरे हाड़ मांस चाम की, पर्याय की। बतावो यह मोही जीव आत्मा से प्रेम करता है या शरीर से, एक निर्णय तो बतावो। शरीर से प्रेम करता है यदि मोही तो जब आत्मा चला जाता है फिर क्यों नहीं शरीर से प्रेम करता। तो इससे ही सिद्ध हुआ कि शरीर से तो प्रेम किया नहीं मोही ने और क्या आत्मा से प्रेम किया ? आत्मा को तो जानता ही नहीं। और आत्मा तो सब एकस्वरूप हैं। तो किस आत्मा से प्रेम करे ? तो यह आत्मा से भी प्रेम नहीं करता। फिर क्या कर रहा है ? कुछ समझ में नहीं आता है। न आत्मा से मोह करता, न शरीर से मोह करता और कर रहा है मोह, बिगाड़ रहा है सर्वस्व कैसी एक बेमेल बात बन रही है ? फिर उसी-उसी के सब हामी बन रहे हैं। बुरा कौन कहेगा ? चोर-चोर ही जहाँ रहते हों वहाँ बुरा कहने वाला कौन है ? सभी चोर बैठे हैं। कौन बुरा कहे कि तू चोर है। सभी मोही बैठे हैं संसार में, कौन किसको कहे कि तू व्यर्थ का काम कर रहा है। न शरीर से प्यार करता है न आत्मा से प्यार करता है और कुछ धुन कर ही रहा है। तो एक इस ज्ञानघन आत्मस्वरूप को भूल जाने से यह अपने आपको ऐसी दुर्दशावों में लिए जा रहा है।
प्रभु की विष्णुरूपता एवं जिनरूपता―भगवान् अरहंतदेव की चर्चा है जिनकी मूर्ति बनवायी जाय, जिसमें अरहंत की स्थापना की है। अरहंत भगवान् की चर्चा क्या है, वह है अपनी चर्चा। प्रभु विष्णु है, सर्वत्र व्यापक है। भगवान् का ज्ञान लोक-अलोक सबमें फैला हुआ है। प्रभु के ज्ञान में कुछ भी बात अज्ञात नहीं है। ऐसे ये अरहंतदेव हैं और जिनस्वरूप है। रागादिक दोषों को विषयकषायों को जिसने जीत लिया उसे जिन कहते हैं। प्रभु अरहंतदेव जिन हैं, अभी उनके शरीर लगा है, पर भगवान् हो गए हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंत आनंद, अनंत वीर्य उनके प्रकट हो गया है, उन्हें सकलात्मा कहते हैं। जिसे कोई सद्गुण ब्रह्म कहते हैं। उनकी सदृशता कुछ मिलायी जा सकती है तो कहना चाहिये सगुण, साकार, सशरीर तो हुए अरहंत और निर्गुण, निराकार, अशरीर हुए सिद्ध। नमस्कार की पूर्वापरता में प्रयोजन―यहां सर्वोत्कृष्ट अवस्था होने के कारण प्रथम सिद्ध को नमस्कार किया है और अब यहाँ अरहंत को नमस्कार किया जा रहा है। कहीं अरहंत को पहिले नमस्कार किया गया है, बाद में सिद्ध को नमस्कार किया है। वहाँ दृष्टि है उपकार की। अरहंतदेव के द्वारा यह मोक्षमार्ग चला, दिव्य उपदेश हुआ लोगों को दर्शन का लाभ प्राप्त हुआ। इस कारण अरहंतदेव परम उपकारी हैं और इस नाते से अरहंत को पहिले स्मरण किया, फिर पीछे सिद्ध को स्मरण किया और कोई पुरूष गुरु का ही स्मरण करले पहिले और पीछे अरहंत सिद्ध का स्मरण करले तो यह भी संभव है, उल्टा नहीं है। यह तो भक्ति की बात है। जिससे साक्षात् उपकार हो वह पहिले ध्यान में आये। अरहंत और सिद्ध का राज तो गुरु ने बताया। जैसे लोग कहते हैं-‘गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी वा गुरु की जिन गोविंद दियो बताय।।’ तो शुद्ध आशय हो तो कैसा ही कुछ कर लो, उसमें कोई अंतर नहीं आता है। यहाँ पहिले सिद्ध को नमस्कार किया है, उसके पश्चात् अरहंतदेव को नमस्कार किया जा रहा है। प्रभुदेह की परमौदारिकता―ये अरहंतदेव सशरीर हैं। अरहंतदेव का शरीर हम आपकी तरह क्षुधा से पीड़ित, जरा देर से प्यास लग जाय, थक जाय, पसीना निकले, बदबू निकले ऐसा नहीं है। उनका भी शरीर ऐसा ही था जब अशुद्ध अवस्था में थे। और जब उन्हें केवलज्ञान हुआ तो उस अलौकिक अतिशय के प्रसाद से उनका शरीर परमौदारिक हो गया। उनके क्षुधा, तृषा नहीं है। थोड़ी बात तो यहीं देख लो, प्राय: खूब खाने वाले, दो चार बार चाट पकौड़ा जो चाहे खूब खायें उनका शरीर और एक तपस्या करने वाले साधुजन कई दिन तक उपवास करते हैं, किसी दिन अल्प आहार ले लिया, उनका शरीर आपको प्राय: अच्छा मिलेगा। खूब खाने वाले लोग, कई बार खाने वाले लोग पसीने से लथपथ हो जाते हैं, बदबू आने लगती है, उनके मल मूत्र में भी बदबू आती है, और उपवास करने वाले लोग कदाचित् अल्प आहार करलें तो उनके शरीर में बदबू नहीं आती। और तो जाने दो, मलमूत्र में भी वैसी बदबू नहीं रहती। उत्तमदेह की ऋद्धिसमृद्धता―जब आत्मानंद जिनके अधिक रहता है और तपस्या भी बहुत चलती है उनके तो पसीना मल मूत्र, उनके वचन उनकी दृष्टि सब औषधिरूप बन जाते हैं। उनके शरीर से स्पर्श की हुई हवा जिस रोगी के लग जाय उसका रोग मिट जाता है। फिर बतावो अरहंत भगवान् जिसके चारों घातिया कर्ममल पाप दूर हो गए हैं, जिसने अपने ज्ञान से द्रव्यगुण पर्याय सारे जाना, तीन काल संबंधी सब कुछ जाना और अनंत दृष्टि है, जिसको अनंत अनाकुलता अव्याबाध परम सुख है ऐसे अरहंत भगवान् का शरीर परमौदारिक होता है इसमें क्या संदेह है ? ऐसे दिव्य तेजोमय परमौदारिक शरीर में रहने वाले जो परमात्मा हैं उन्हें अरहंत भगवान् कहते हैं। सकलनिकल परमात्मरूपता―देवता के विषय में अरहंत सिद्ध देव जैसी यह जोड़ी सब जगह प्रसिद्ध है। कोई लोग कहते हैं अल्ला खुदा। यहाँ कहते हैं अरहंत और सिद्ध। कोई कहते हैं सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म। कोई कहते हैं साकार परमात्मा और निराकार परमात्मा। ये सब जोड़ियां यह सिद्ध करती हैं कि कोई परमात्मा होता है तो पहिले शरीर सहित है, पीछे शरीर रहित हुआ तो वह दोनों विधि में परमात्मा हुआ। यों ही मान लो कि अल्ला तो है अरहंतबोधक और खुदा है सिद्धबोधक। अर्थ कैसे निकला ? अल्ला शब्द निकला है संस्कृत के अल्य: शब्द से। अल् धातु से बनता है अल्य:। जो अरहंत शब्द का बाधक है। और खुदा मायने खुद, जो खुद रह गया है, अकेला रह गया है वह हुआ खुदा। खुदा से सिद्ध का रूप समझ लो। सगुण और निर्गुण अरहंत सिद्ध, साकार निराकार में अरहंत सिद्ध। तो यहाँ निराकार स्वरूप को पहिले श्लोक में नमस्कार किया है और इसमें साकार स्वरूप को नमस्कार किया जा रहा है।