वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 23
From जैनकोष
येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनाऽऽत्मनि।सोऽहं न तन्न सा नासौ नैको न द्वौ न वा बहु:।।23।।आत्मतत्त्व–मैं जो हूँ वह किसी इंद्रिय द्वारा जानने में न आ सकने वाला हूँ। इस इंद्रिय के बहुत भीतर की जानने की तो बात तो क्या कहें, ये इंद्रियां स्वयं को भी नहीं जान पातीं। ये आंखें आंखों को भी नहीं जान पातीं। यह रसना रसना के रस को भी नहीं जान पाती। फिर यह अंतर की बात का तो पता क्या लगायें ? इनकी बहिर्भूत वृत्ति है। यह मैं आत्मा अपने ज्ञानस्वरूप के द्वारा ही सम्वेदन में आ सकने वाला हूँ। जिस रूप से मैं अपने आपको अनुभव में लेता हूँ उस रूप का परिचय क्या बताया जाय ? लेकिन मोही जीव कहा करते हैं कि जगत् के प्राणी कोई स्त्री है, कोई पुरूष है, कोई नपुंसक है पर यह मैं आत्मतत्त्व इन तीनों बातों से परे हूँ।
आत्मा की पुरूष स्त्री नपुंसक पर्याय से रहितता–जो पुरूष, पुरूषशरीर में रहकर अपने को पुरूष, मर्द, मनुष्य मानते हैं वे अभी मोह में पड़े हुए हैं। मैं पुरूष नहीं हूँ। जो जीव स्त्री शरीर में रहकर अपने को स्त्री रूप में मानते हैं उनका आत्मा अभी मोह में पड़ा हुआ है। यह आत्मा स्त्री नहीं है। यों ही नपुंसक देह भी बहुत हैं। लगता है ऐसा कि नपुंसक तो थोड़े हुआ करते हैं क्योंकि मनुष्यों में दृष्टि डाल रहे हैं ना, या पशु पक्षियों पर दृष्टि डाल रहे हैं, तो नपुंसक कहो, हिजड़ा कहो कितने इस जगत् में मिलते हैं? पशु और पक्षियों में तो कभी देखने को मिले ही नहीं। इससे कुछ ऐसा सोच रक्खा है कि नपुंसक थोड़े होते हैं। पर नपुंसक अनंतानंत हैं, पुरूष और स्त्री तो असंख्यात ही हैं पर नपुंसकों का अंत नहीं आ सकता है इतने भरे पड़े हुए हैं विश्व में। जितने एकेंद्रिय जीव हैं, पृथ्वी है, जल है, अग्नि है, हवा है, पेड़ हैं, निगोद हैं, ये क्या पुरूष हैं अथवा स्त्री हैं ? ये सब नपुंसक हैं। और वनस्पतिकायिक जीव अनंतानंत हैं। दो इंद्रिय सब नपुंसक, तीन इंद्रिय तथा चारइंद्रिय नपुंसक, पंचेंद्रिय में भी नारकी चुकता नपुंसक और तिर्यंचों में और कुछ मनुष्यों में नपुंसक होते हैं। ऐसे इस नपुंसकदेह को धारण करने वाला यह जीव अपने को नपुंसकरूप अनुभव करता है, किंतु यह आत्मा जैसे न पुरूष है, न स्त्री है, ऐसे नपुंसक भी नहीं है।आत्मदया का यत्न–सब उपदेशों में प्रमुख बात यह है कि थोड़ी अपने आप पर दया तो कीजिए। विषयों में, कषायों में, विकल्पों में, पर की याद में, चिंता में, शल्यों में बहुत बहुत अपने प्रभु को सताया, अब कुछ करूणा करके इतना तो देखो कि मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, मुझमें तो शरीर भी नहीं है, मैं शरीर से रहित हूँ। जैसे मकान में रहता हुआ पुरूष क्या अपने को मकानमय मान लेता है ? नहीं। अरे उसका तो यह विश्वास है कि मैं मकान से अलग हूँ। इस प्रकार ज्ञानी पुरूष जिस देह में रहता है, क्या अपने को देहरूप मानने लगता है ? मैं काला हूँ, मैं गोरा हूँ, मैं लंबा हूँ, ठिगना हूँ, क्या इन रूपों में ज्ञानी अपने को मानता है ? देह में बसता हुआ भी देह से मैं अत्यंत जुदा हूँ, यों ज्ञानी देखता है और उसके इस निरखने के क्षण में उसे देह का भान भी नहीं रहता।आत्मपरिचय का प्रसाद–भैया ! बहुत-बहुत बसे अब तक परतत्त्वों में, अब जरा सर्वविकल्पों को तोड़कर एक बार भी इस अपने सच्चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व का अनुभव तो करिये। एक सेकेंड की भी यह कमाई अनंतकाल तक के लिए संकटों से दूर कर देगी और आनंदमय बना देगी। जब कि रात दिन के किए जाने वाले परपदार्थविषयक श्रम इस जीव को केवल क्लेश के ही कारण हुए। मैं क्या हूँ-जब तब इसका निर्णय न होगा तब तक धर्म किया ही नहीं जा सकता। यों तो चंद्र सूर्य के ग्रहण के समय में छोटे लोग भी, भिखारी जन भी लोगों को उपदेश दे जाते हैं-धर्म करो, धर्म करो―उनकी दृष्टि में पाव डेढ़ पाव अनाज का दान करना ही धर्म है। धर्म का स्वरूप कहीं बाहर रक्खा है क्या ? धर्म किसी चीज के लेनदेन में रक्खा है क्या ? धर्ममय आत्मतत्त्व के जान लेने पर बाह्यपरिग्रहों से ममता हट जाती है और कोई सामने कार्य होने पर, धार्मिक प्रसंग आने पर अथवा कोई परोपकार की बात आने पर त्याग करते हुए विलंब नहीं लगता, पर धर्म में उस परपदार्थ को छोड़ना नहीं है, किंतु उस परपदार्थ में ममता का न होना धर्म है। जिसके प्रताप से परपदार्थों का त्याग बन गया है।आत्मानुभव धर्म–धर्म आत्मा का स्वरूप है। आत्मा सब एक प्रकार के हैं। जब देह स्वयं आत्मा का नहीं है तब उन आत्मावों में ऐसा भेदभाव निरखना जाति के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, गोष्ठियों के नाम पर तो ये भेदभाव की निरखन हैं, आत्मदर्शन में बाधा देने वाली कड़ी दीवारें हैं। हम अपने आपको उस रूप अनुभव करें जिस रूप अनुभव करने में व्यक्ति भेददृष्टि में, नहीं रहता न अपना पता रहता है, न अन्य जीव भी हैं, इस प्रकार पता रहता है। सर्व में घुलमिलकर केवल चैतन्यस्वरूप मात्र का अनुभव होता है। मैं क्या हूँ―इसका निर्णय करने में आपका वर्षों का समय गुजर जाय तो भी पहिले निर्णय कर लीजिए। धर्मपालन की धुनि जिस रूप में लोग कर रहे हैं दया करके इसे स्थगित कर दीजिए और पहिले ‘मैं क्या हूँ’ इसका निर्णय बना लीजिए। प्रथम तो इसके यथार्थ निर्णय में ही धर्म मिलेगा। और फिर धर्म की प्रगति के लिए जो कुछ कार्य करना होता होगा, वह सब क्षण में हो जायेगा।धर्मतत्त्व के स्वत: निर्णय का उपाय–कोई पुरूष यदि कुछ इस विसम्वाद में पड़ गया हो कि मैं कहां जाऊं, सभी जगत् में लोग अपनी-अपनी गा रहे हैं―यह धर्म है, यों करो, यों करो, किसकी मानें ? ऐसी स्थिति में एक काम करना आवश्यक है। क्या ? कि तुम किसी की मत मानो, जिस कुल जिस मजहब में उत्पन्न हुए हो, एक बार उसका भी सबकी तरह एक निषेध कोटि में शामिल कर दो। यह मैं आत्मा ज्ञानमय हूँ ना, जाननहार हूँ ना, जानन की इसकी प्रकृति है ना, फिर मुझे क्या जरूरत है कि मैं कोई सहारा तककर उस सहारे की रस्सी से ही धर्म का निर्णय करने जाऊं ? मुझे ज्ञात हो गया है कि मेरे को मेरे से अतिरिक्त अन्य जितने भी चेतन अचेतन परिग्रह हैं, पदार्थ हैं ये मेरे नहीं है। इसका निर्णय तो प्राय: सबके है। एक यह पक्का विचार बना लीजिए किसी क्षण 10–5 सेकेंड के लिए कि मुझे किसी भी अन्य पदार्थ को अपने चित्त में नहीं बसाना है, और मेरे ही घट-घट में बसा हुआ प्रभु मुझे अपने आप जो निर्णय देगा बस वह तो मुझे मान्य है और किस-किस की बात का सहारा तकूं ? यदि सच्चाई के साथ सर्व बाह्यपदार्थों को अपने चित्त से अलग कर दिया जाय और इस सत्य के आग्रह से कि अपने आप मेरे घट में जो दर्शन होगा वह मुझे प्रमाण है। मुझे नहीं कुछ सोचना है, नहीं कुछ बोलना है, नहीं कुछ चेष्टा करना है। मैं तो सर्वविकल्पों को भुलाकर लो यहाँ बैठा हूँ। ऐसी स्थिति हो कि किसी भी परपदार्थ का संकल्प और विकल्प न रहे, सच जानो अंतर के घट में विराजमान ईश्वर सही रूप में साक्षात् दर्शन देगा। और तब यह परिणाम हो जायेगा कि ओह इस प्रकार का विकल्प बनाना यह है धर्म।विलीन संकल्पविकल्पजालता–धर्म की स्थिति में मुझे अनंत आनंद प्राप्त हुआ। मैं जैसा चैतन्यस्वरूप से हूँ और मैं जैसा अपने आप अपने में अपनी सी साधना से अनुभव करता हूँ वह मैं आत्मतत्त्व न मैं पुरूष हूँ, न स्त्री हूँ और न नपुंसक हूँ और इतना ही नहीं, मैं बहुत भी नहीं हूँ। मैं दो हूँ क्या ?दो भी मैं क्या-क्या मानूं ? एक मैं हूँ और एक क्या इस मुझ में किसी द्वैत का प्रवेश नहीं है। यह मैं केवल हूँ। अच्छा तो मैं दो न सही तो एक तो होऊंगा। अरे यह मैं एक भी नहीं हूँ। मैं तो हूँ एक का बुदबुदा, एक का तरंग। भेदभाव यहाँ नहीं उठ सकता। अनेक की दृष्टि आशय में रक्खे तो एक का देखना बन सकता है। किसी टोकनी में एक ही आम रक्खा हो और किसी से कहें कि जरा देखना तो उस टोकरे में कितने आम पड़े हैं ? तो देखने वाला कहता है कि उसमें तो एक आम है, उसने कैसा जाना कि यह एक आम है। वह जानता है कि दो भी हुआ करते हैं, 4 भी होते, 5 भी होते, 50 भी होते, अनेक भी होते। आम अनेक नहीं हैं इसलिए केवल वह एक है। यह मैं एक हूँ ऐसा संकल्प विकल्प जाल भी विलीन हो जाता है ऐसे शुद्ध नय में यह आत्मस्वरूप अनुभूत होता है। यह मैं न बहुत हूँ, न दो हूँ न एक हूँ, ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व हूँ।धर्म की सुगम कला–भैया ! कहां तो ऐसा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप और कहां रातदिन यह बसाये हुए कि मैं तीन चार बच्चों वाला हूँ। ओह कितना अंतर है यथार्थ ज्ञान में व अज्ञान में ? प्रकाश में और अंधेरे में जितना अंतर है उतना ही अंतर ज्ञानी और अज्ञानी की वृत्ति में है। हे श्रेष्ठ मन वाले भव्य आत्मन् ! जरा सी सुगम कला है, आंखें बंद किया, इंद्रियों का व्यापार रोका, किसी पर का चिंतन न किया, क्षण भर विश्राम से बैठ गए कि उस आनंद को भराता हुआ यह प्रभु अंतरंग में दर्शन देता है पर यह बात तभी संभव है जब हम मोह ममता से कुछ गम खायें।
यथार्थस्वरूप के जानने की प्रेरणा–जीव आनंदमय है फिर भी व्यर्थ की परेशानी लाद रक्खी है। है यह अकेला परिपूर्ण स्वतंत्र सारभूत उत्कृष्ट कृतार्थ लेकिन यह अपने स्वरूप को भूला हुआ है, जो अनहोनी बात है उसे होनी में शामिल कर रहा है। कोई चेतन अचेतन पदार्थ मेरा नहीं हो सकता। भगवान् भी नहीं जान रहे हैं कि यह घर अमुक भक्त का, चंद का, दास का है, प्रसाद का है किंतु यह मोही छाती पीटकर कहता है कि यह घर मेरा है। यह इस जानकारी में भगवान से भी बढ़ा बनने की कोशिश करता है। भगवान् तो सीधी सादी बात, पूरी-पूरी बात जानता है। धोखा, दगा, छल, कपट, अलाबला वह भगवान् नहीं जानता, पर यह मोही जीव अनहोनी को भी होनी करने का यत्न करता है। सोच लो जो बहुत बढ़कर चढ़ेगा वह ऐसा गिरेगा कि चिरकाल तक भी उसका उत्थान नहीं हो सकता। यह मैं चितस्वरूप मात्र हूँ, न पुरूष हूँ, न स्त्री हूँ, न नपुंसक हूँ, देह से भिन्न ज्ञानमात्र हूँ। ज्ञानमात्र हूँ यह बार-बार उपयोग सहित भावना चले तो इस शुद्ध आत्मतत्त्व का दर्शन हो सकता है।मैं आत्मतत्त्व क्या हूं–इस संबंध में गत श्लोक में वर्णन आया, उस ही संबंध में यहाँ भी बता रहे है कि वह आत्मतत्त्व जो कि हमारे आपके लिए उपादेयभूत है और क्या-क्या विशेषताएं रखता है ?