वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 35
From जैनकोष
रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनो जलम् ।स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं स त्तत्त्वं नेतरो जन:।35।अलोलचित्त व लोलचित्त परिणाम―जिसका मनरूपी जल रागद्वेषादिक तरंगों से चलित नहीं होता है, अलोल रहता है वह ही पुरूष आत्मा के मर्म को देख सकता है। दूसरा रागद्वेष की तरंगों से खिंचा हुआ पुरूष आत्मा के मर्म को नहीं जान सकता। बड़ी तपस्याएँ भी कर ली जायें किंतु अंतर से रागद्वेष नहीं हटते तो अहो आत्मतत्त्व को देखना तो दूर रहा, यदि बुद्धिपूर्वक रागद्वेष बसाया हो और साधु भेष रखकर जगत् में अपनी मान्यता का विस्तार किया हो तो वह उनके लिए अहित की बात है और ऐसे कपटभाव का फल अत्यंत निम्नकोटि की गति में पहुंचना है।निजदर्शन का कारण स्वच्छता और निस्तरंगता―जैसे किसी निर्दोष जल वाले तालाब में कोई पुरूष अपने चेहरे को देख लेता है तो उस पानी में अपना चेहरा दिखने के वहां दो कारण हैं–एक तो पानी में गंदगी का न होना, दूसरे पानी में लहरें न उठना। कोई पानी लहरों से तो दूर है किंतु गंदा है वहां अपनी छाया नहीं दिख सकती है। पानी गंदा तो रंच भी नहीं है पर लहरें चल रही हैं उसमें भी अपना प्रतिबिंब नहीं दिखता है। ऐसे ही मोह की तो गंदगी न हो और रागद्वेष की तरंगें न उठें ऐसा चित्त में, ज्ञान में आत्मा का तत्त्व, परछायी स्वरूप दिख सकता है।मोहांध की गरीबी―मोह भाव जैसा अंधकार इस लोक में दूसरा कुछ नहीं है। बतावो, न कुछ संबंध, सब पराये, सब भिन्न, कोई किसी गति से आया, कोई किसी गति से आया। उनमें से एक दो जीवों को छांटकर जो कि मोही हैं, अज्ञानी हैं, संसार के जाल में फंसे हुए हैं ऐसे मोही अपवित्र जीवों के लिए तन, मन, धन, वचन सब कुछ समर्पण कर देना और अपने आपको सेवक की तरह रखना, प्यासे रह जायें, भूखे रह जायें, खुद दुःखी हो जायें पर उन दूसरों को प्रसन्न ही निरखना चाहते हैं ऐसी स्थिति बतावो कितनी गरीबी की स्थिति है।आशय की गंदगी में यथार्थता का अदर्शन―जिसका मनोजल रागद्वेष की तरंगों से चलायमान् है उसको तत्त्व नहीं दिखता और उन साधुवों को भी, जिनके मोह नहीं रहा किंतु रागद्वेष की वासना बसी है और तरंगें चल रही हैं ऐसे साधु संतों को भी उस तत्त्व का दर्शन नहीं है। इन कल्लोलों का कारण होता है पर्यायबुद्धि। यह मैं हूँ, मैं साधु हूँ और यह जनता सब सेवक है, गृहस्थ है, श्रावक है, मैं इतने स्टेंडर का हूं, मुझे यों देखकर चलना चाहिए, क्योंकि मैं मुनि हूँ―ऐसी सारी प्रतीतियां ये मोह भरी प्रतीतियां हैं। कितना मोह भरा है? जितना मोह गृहस्थ को हैं उतना ही मोह उस साधु में है जो अपने आपको सच्चिदानंद आनंदस्वरूप न जानकर मानता है कि मैं साधु हूँ। जैसे कोई गृहस्थ मानता है कि मैं गृहस्थ हूँ तो उसने भी पर्याय में आपा माना। तो एक ने कोई भेष रखकर माना कि मैं साधु हूँ तो उसने भी पर्याय में आपा माना।मोह की एक रेखा―भैया ! मोह मोह के अंधकार में अंतर नहीं हुआ करता। रागद्वेष में अंतर होता है। मोह तो जब मिटा सो मिटा। रागद्वेष तो कम हो जाता है पर मोह में एक ही फैसला है। है तो है, नहीं है तो नहीं है। कोई पुरूष केवल बाप बेटा ही हो या पुरूष स्त्री ही हो, एक ही हो घर में और यह सोचे या कहे कि मैंने बहुतों का मोह दूर कर दिया है सिर्फ एक प्राणी भर का मोह है। सो शायद बहुत कुछ सम्यक्त्व तो हो गया होगा। केवल एक प्राणी का मोह है, इतनी भरकसर है। पर इतनी भर कसर नहीं है, जितनी कसर 10 प्राणियों में मोह रखने वाले को हो। आँखों के आगे तिलभर एक कागज का टुकड़ा चिपका हो और चाहे ढेरों कागज सामने रखलो-न दिखने का काम दोनों दशावों में एक सा है। 10 प्राणियों में राग करने से और हजार में और लाख में अपना अनुराग करने से कहो वह अनुराग पसरकर पतला हो सकता है और उतनी दृढ़ शल्य करने वाला न होगा। और एक ही प्राणी में केंद्रित हुआ राग गाढ़ा राग है। सो मोह भी ऐसा समझे, मैं श्रावक हूँ ऐसा समझे, मैं त्यागी हूँ, साधु हूँ क्षुल्लक हूँ ऐसी प्रतीति करे, सब मोह की एक लाइन में पड़े हुए हैं।ज्ञानी की रूचि और अज्ञानी की वासना―जैसे ज्ञानी गृहस्थ को दुकान के या बाहरी काम के करने में झंझट लगता है और चूँकि ज्ञानकला जगी है, ज्ञान है सो व्यवस्था इतनी सुंदर रखता है कि दूसरे नहीं रख सकते। फिर भी वह ज्ञानी गृहस्थ विरक्त भाव से बाहरी कामों को करता है। करना पड़ता है ‘गले पड़े बजाय सरे।‘ जैसी स्थिति हो जाती है। ऐसे ही साधुसंत पुरूषों को अपनी चर्या से चलना पड़ता है, उनकी स्थिति हो जाती है पर रूचि इस ओर नहीं रहती है कि मैं साधु हूँ, मुझे इस तरह चलना चाहिए। ऐसा ख्याल करे तो यह बच्चों जैसा खेल हो गया। बच्चे लोग भी खेल में कभी कुछ से कुछ बन जाते हैं–चोर बन जायें, सिपाही बन जायें अथवा बरात के खेल हैं–यह दूल्हा है, यह इनका बाप है, यह लड़की है। वे 8, 10 वर्ष के बच्चे खेल में ऐसी कल्पनाएँ कर बैठते हैं। ऐसे ही इस चित्स्वभाव के परिचय से रहित अज्ञानी गरीब, मिथ्यावासित हृदय अपने को जो परिणति प्राप्त हुई है तद्रूप विश्वास रक्खे हुए हैं।मोह की भीतरी अज्ञात चोट―भैया ! जरा गंभीरदृष्टि से तो देखो कितना अंतर में है यह सम्यक्त्व प्रकाश। कोई मुनि किसी शत्रु के द्वारा कोल्हू में भी पेला जा रहा हो और फिर भी मुनि उस शत्रु पर द्वेष न करता हो। विवेक रखता हो कि मैं साधु हूँ, मुझे द्वेष न करना चाहिए, ऐसी प्रतीति यदि है तो द्वेष की तरंगों की तो बात क्या कहें अभी मोह और मिथ्यात्व की गंदगी भी है। एक आत्मा के स्वरूप से नाता रखकर ज्ञायक स्वरूपमात्र मैं हूँ ऐसी ही सुध बनाते हुए अब चूँकि बहुत सा रागद्वेष भाव घट गया है तो अब कौन कपड़ों के संभालने में लगे, कौन घर की संभाल में लगे, कौन आरंभ के कार्यों में लगे, सो सहज ही ऐसी उनकी चर्या चलने लगती है जो साधुधर्म के अनुकूल है। यह उनकी अंतरंगचर्या है और जो यह कहे कि मैं साधु हूँ, मुझे यों करना चाहिए, यह उसका हठ योग है, सहजयोग नहीं है। अब जानो कि रागद्वेष और मोह में कल्लोल और गंदगियों कितनी गहरी हुआ करती हैं।संतोष्य और असंतोष्य कृति―मान लो धर्म के नाम पर कोई थोड़ा बहुत कार्य करके कोई पूजा करले, विधान करले और अपने को माने कि मैंने सब कुछ कर लिया है तो यह उसका भ्रम है। कितने ही भादों व्यतीत कर डाले, कितनी ही दसलाक्षणी गुजार डाली और जब-जब दसलाक्षणी आती है तब तब उतनी ही बातें जानन की आदत बीसों, पचासों वर्षों से पड़ी है। उतना ही कार्य करके अपने को कृतार्थ मान लेते हैं। किंतु धर्म का मर्म कितना गहरा है ? हम कभी इन धार्मिक प्रसंगों में सर्व परवस्तुवों को भूलकर केवल ज्ञानप्रकाश का ही अनुभव ला सकते हों ऐसी स्थिति आए तो संतोष कीजिए। परिवार के, वैभव के या समाज के बीच कुछ भलीचेष्टा कर लेना इसका संतोष न कीजिए। संतोष होना चाहिए निज ज्ञानसुधारस के स्वाद का; जिसका ज्ञानजल, मनोजल, रागद्वेषादिक की कल्लोलों से अलोल है वह ही आत्मा का तत्त्व देख सकता है। धर्म में किसी को दिखाना नहीं है। धर्म तो सहज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि पर निर्भर है। जो कर सके उसी का भला होता है। पूजा में पढ़ा करते हो ना–चाहे अपवित्र होऊँ, चाहे पवित्र होऊँ, चाहे अच्छे आसन से खड़ा होऊँ, चाहे अटपट खड़ा होऊँ, कैसी भी अवस्था में होऊँ, यदि इस आत्मतत्त्व का ध्यान है, परमात्मस्वरूप का स्मरण है तो वह सर्वत्र पवित्र है।चर्म निरीक्षण का व्यामोह―शब्द तो कुछ कटु या कठिन है, पर यह तो बतावो कि चमड़े की परीक्षा रखने वाले का क्या नाम रक्खा है इस दुनिया के लोगों ने ? यह गाय का चमड़ा है, यह भैंस का चमड़ा है, यह मुलायम है, यह ठीक है, इसकी जिसे परीक्षा होती है उसे क्या कहते हैं? कुछ कठिन पड़ जायगा। हम यदि अपने ही चमड़े को ही निरखते रहें–बड़ा प्यारा है, बड़ा अच्छा है, ठीक है, अथवा राग करके दूसरे की चमड़ी को देखकर तो सुनने में, कहने में बुरा न लगता हो तो कह डालो मन में ? जो चर्म के परीक्षक को कहते हो।चर्म के उपहासकों को संबोधन―एक बहुत पहिले ऋषि हो गए हैं जिनका नाम था अष्टावक्र। जिसके आठों अंग टेढ़े थे। एक बार सभा भरी थी। कहा कि कुछ हम भी बोलें। सो जब वह खड़े हुए तो उनकी शक्ल देखकर दरबार के लोग सब हँसने लगे। जिसको कुछ थोड़ा इस इतिहास का पता हो वह खुद जान जायें कि अष्टावक्र ने लोगों को क्या संबोधन करके बोला और फिर उसका विश्लेषण किया कि जब आप सब लोग मेरे चमड़े का खूब निरीक्षण कर सकते हैं तो मैंने आपके परिचय को भी जान लिया है। सब अपनी अपनी सोचो कि हम अपनी सोचें कि हम अपनी इस देह से कितना प्यार रखते हैं? मानों इसके अतिरिक्त मैं और कुछ हूँ ही नहीं। अपने सत्त्व से विस्मृत हो जाते हैं तो हम चर्म के ही तो निरीक्षक रहे।ज्ञान की अबाध गति―भैया ! ज्ञान में तो वह बल है कि बड़े-बड़े व्रजों को भी पार करके लक्ष्य पर यह ज्ञान पहुंच जाता है। आपके घर में कोई दो तीन कमरों में से गुजर कर कहीं तिजोरी रक्खी हो और उस तिजोरी में भी और भीतर तिजोड़ीनुमा किवाड़ हों, उसके भी भीतर ट्रंक हो, उसमें भी छोटी पेटी हो, उसमें भी डिब्बी में आपका कोई रत्न, हीरा, अंगूठी कुछ रक्खी हो, आप यहां बैठे हैं, आप उसे जानना चाहेंगे तो इस ज्ञान को वहां तक पहुंचने में कोई रूकावट डाल देते है क्योंकि किवाड़ लगे हैं तो ज्ञान दरवाजे पर बैठा रहे, किवाड़ खुलें तो कमरे में जाऊं। तिजोरी बंद है तो ज्ञान तिजोरी के पास बैठा रहे और कहे कि हम तो अमुक हैं, यह तिजोरी लगी है सो उस अंगूठी के जानने में हमें कुछ रूकावट आती हैं। हम यहां बैठे हैं, किवाड़ों को चीरकर, तिजोरी के फाटक को चीरकर, सबको पारकर वह ज्ञान सीधे उस अंगूठी को जान लेता है। तो जैसे बाहर की चीजों में ज्ञान को भेजने में इतने कुशल बन रहे हैं तो इस ज्ञान को अपने ही ज्ञानस्वरूप में भेजने में तो कोई पर्दे भी आड़ में नहीं आते। यह तो स्वयं ज्ञानस्वरूप है, सो अपने ही ज्ञान को जानने में तो कोई बीच में आड़ भी नहीं आया करती है। फिर भी क्यों हम इस ज्ञानतत्त्व के निरखने में वंचित रहा करते हैं ?
प्रमादपरिहार की आवश्यकता―कोई कहे कि हमारा ज्ञान बाहरी बाहरी रंगों में रंगा करता है तो उसको बहुत भीतर वापिस लेने में, स्वरूप में लेने में बहुत सी आड़ें तो हैं, चमड़ा है, हड्डी है, खून है, मांस है। अरे ! तो ज्ञान दूर की तिजोरियों को भी पार करके पहुंच जाता है इष्ट वस्तु पर, वह ज्ञान इन सर्व को पार करके अंतर में रहने वाले निज प्रकाश को क्या पा नहीं सकता ? पर प्रमाद किया जा रहा है। मोक्षमार्ग का प्रमाद कोई पहलवान हो, दंड बैठक लगा रहा हो, कुश्ती करता हो, शरीर बनाता हो तो वह भी प्रमादी है मोक्षमार्ग का। निज अंतस्तत्त्व का निश्चय करना, उसका ही ज्ञान करना, उसमें ही रमण करना यह कार्य तो निष्प्रमाद का है और इससे विमुख होकर बाह्यपदार्थों में रमना, यह कार्य प्रमाद का है। अब निष्प्रमाद होकर अपने ज्ञाननिधि की रक्षा करो।अवसर चूकने का परिणाम―जैसे जिसको वेदना होती और वह अपनी वेदना की बात दूसरे को सुनाता है और दूसरा कोई हंसी में टाल देता है तो वह कहता है कि भाई बात हंसी में न टालो। यों ही यह आत्मतत्त्व की बात हंसी में टालने की नहीं है। यदि अंतर में ऐसा पुरूषार्थ न जगाया कि मोहपटल को बिल्कुल दूर करें, हम निज स्वरूप का प्रकाश तो पा लें, देख लें, झलक तो कर लें, यदि ऐसा पुरूषार्थ न कर सके तो ये मायामय पुरूष कुटुंब परिजन मित्र संग ये तो शरण हैं ही नहीं। स्वयं अशरण होकर, बराक दीन बनकर इस जगत् में लापता रूलते फिरेंगे। धन वैभव की क्या वकत है ? क्या करोगे इस धनवैभव का, खूब हृदय से सोचो यह जब मोह की नींद में सो जाता है, और मायामय लोगों का संग करता है, उनमें रहता है, बातचीत होती है, अपनी पोजीशन की पड़ जाती है, इज्जत रखना चाहता है तो जो इतना बड़ा अपराध करे उसको वैभव से सिर मारना ही पड़ेगा।परिचयी और अपरिचयी से आशा क्या―भैया ! जो यह जानता है कि मैं गुप्त हूँ, इस मुझ ज्ञानस्वरूप में तो कोई बात भी नहीं है, यहां मेरा कोई परिचय वाला नहीं है, अपने आप में-ऐसा विचारे अपने स्वरूप को देखकर। यदि कोई इस मुझ ज्ञानस्वरूप को यथार्थ रूप से जानता है तो उनका जानना एक सामान्य जानना हुआ ना। उस ज्ञाता से सम्मान अपमान ही नहीं हो सकता। उसमें इस मुझ व्यक्ति का परिचय ही नहीं है, और कोई इस ज्ञानस्वरूप को नहीं जानता है, इस चर्म को ही कुछ जानकर मानता है तो इस चर्म का क्या सम्मान रखना? यह तो एक दिन जला दिया जायगा। भीतर को कोई पहिचानता नहीं तब दूसरों से क्या आशा करनी ? यह चर्म मैं नहीं, तो किसलिए अपने चित्त पर इस परिग्रहभाव का, मूर्छा भाव का बोझ लादना?
कुछ थकान तो दूर करो―भैया ! लोग किसी बड़े शारीरिक श्रम के कार्य से थक करके भी तो चंद मिनट आराम करते हैं। घसियारे, लकड़हारे भी तो 5 मिनट को अपने बोझे को पेड़ से टिकाकर, हाथ पैर पसारकर अपनी थकान मिटा लिया करते हैं, किंतु यह व्यामोही पुरूष अपने अंतर की थकान से, जो ममता के बोझ को विकल्पों को लादे हुए है उस लदान की थकान से थककर भी यह पाव सेकेंड भी ऐसा यत्न नहीं करता कि एक बार तो सारा बोझ अपने उपयोग से उतार कर केवल शुद्ध ज्ञानमात्र जैसा मैं सहज हूँ ऐसा ही रहकर परमविश्राम तो पा लें।अलोल ज्ञानसिंधु में स्वच्छ उपयोग शय्या पर अच्युत प्रभु का निवास―जिसकी आत्मा रागद्वेष की लहरों से लोल है, चंचल है वह पुरूष धर्म के नाम पर बड़े-बड़े परिषह उपसर्ग भी सह ले तो भी वहां परमात्मतत्त्व का दर्शन नहीं होता है। इस परमात्मतत्त्व का दर्शन वही पुरूष कर सकता है जिसका यह मनरूपी जल रागद्वेष की कल्लोलों से तरंगित नहीं है। कहते हैं ना कि जब जरा गर्दन झुकावो देख लो। अपने ही अंतर के आयने में जब प्रभु की शक्ल है, थोड़ा विकल्पों को तोड़कर अंतर में दृष्टि करना है, बस यहीं देख लो। ऐसा अनुपम पुरूषार्थ करने के लिए एक त्यागभाव की आवश्यकता है और वह त्यागभाव भावात्मक हो, गृहस्थ हो तो परवाह नहीं पर अपना ज्ञान बादशाह तो अपने आप में है, केवल ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपको निहारना है। बस इस निरखने में, इस झलक में परमात्मतत्त्व के दर्शन होंगे, जिसके दर्शन करने से भव भव के समस्त पाप, संकट, कर्म नष्ट हो जाया करते हैं। इस तत्त्व को वहीं देख सकता है जिसके मोह की गंदगी न हो और रागद्वेष मोह की तरंगे न हो।