वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 68
From जैनकोष
शरीरकंचुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रह: ।नात्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यतिचिरं भवे॥68॥
ज्ञान का संवरण – कार्माण शरीररूप तथा नोकर्म शरीररूप कांचुली से ढक गया है ज्ञानरूपी देह जिसका, ऐसा यह आत्मा अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता है और इस ही अज्ञान के कारण चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है । जैसे जिस सांप पर कांचुली चढ़ी हुई है उस सांप का रूप रंग दूसरे को कुछ ध्यान में नहीं आता कि किस रंग का है अथवा उस सांप को ही कुछ नहीं दिखता है बाहर । सांप पर कांचुली सांप के ही जितनी लंबी होती है । सांप के शरीर पर कांचुली उसकी आंख पर भी है, सो अंतिम दिनों में जब कांचुली छोड़ने लायक हो जाता है तब उसको दिखना भी बंद हो जाता है, तो जैसे कांचुली से जिसकी आंखे ओर सारा शरीर ढका है ऐसा सांप कुछ देखता नहीं है इस ही तरह इस शरीररूपी कांचुली से इस ज्ञानमयी आत्मा का आवरण हो गया है तो यह भी कुछ जानता नहीं है ।
ज्ञान में शरीरावलंबन का विघ्न – जैसे कांचुली सांप के शरीर पर आ जाने पर भी धुंधला सा कुछ दिखा करता है ऐसे ही इस शरीर से आवृत होने पर भी यह आत्मा कुछ थोड़ा सा जानता भी रहता है, किंतु यह केवलज्ञान का अनंतवां भाग जानना क्या जानना है । यह आत्मा तो अनंत ज्ञानमय है, जगत् के समस्त पदार्थों को एक साथ स्पष्ट जाने इसमें ऐसी सामर्थ्य है, ऐसा ज्ञानमय यह आत्मा शरीर के कारण अपने विश्वास को खोये हुए है । लोग तो खुश होते हैं शरीर को देखकर और क्या करें, बेचारे फंसे ही ऐसे हैं कि शरीर से कुछ राग करना ही पड़ता है, किंतु मोही पुरुष ही इस शरीर को निरखकर बड़े प्रसन्न हुआ करते हैं । मैं स्वच्छ हूं, सुरूप हूं पर यह नहीं मालूम है उन्हें कि इस शरीर के कारण कितनी बरबादी हो रही है ? कल्पना करो, शरीर न होता, आप ही अकेले होते, जैसे कि आप इस शरीर में भी अपने आपमें अपने आपके स्वरूप में अकेले में हैं, ऐसे ही अकेले होते तो कितनी अच्छी स्थिति होती ?
क्लेशों का कारण शरीर संबंध – भैया ! इस शरीर के लगने से ही बड़ी विडंबना हो गयी। पहिला क्लेश तो यह है कि यह शरीर को ‘यह मैं हूं’ ऐसा मानता है ।जब शरीर को अपना लिया तो शरीर के विषयों के साधन बनाता है क्योंकि उनके विषयों से शरीर का संबंध है, फिर विषय साधन बनाने के लिए बहुत नटखट करने पड़ते हैं । कमावो, संचय करो, बनावो, आरंभ करो, परिग्रह करो, गृहस्थी बसावो, विवाह करो, संतान हो रहे हैं, रिश्तेदार हो गए, इन सब बातों में उलझना पड़ता है, ये भी सब विडंबनाएँ हैं । इस शरीर में कितने दुःख हैं, भूखप्यास लगे, ठंड गरमी लगे और सबसे मूढ़ता भरी बात यह है कि यह जरा-जरा सी बातों में सम्मान अपमान माना करता है । यह भी तो इस शरीर के संबंध से है ना । किसी ने प्रतिकूल कह दिया तो बुरा लग गया । यह बुरा लगना, दिल में उसे पहुंचना इस शरीर के ही कारण तो है । आत्मा तो अमूर्त है, उसमें तो किसी प्रकार की बात लगती नहीं है । जैसे आकाश में चाहे कुछ भी बोलते जावो, कोई बात लगती नहीं है, ऐसे ही कुछ भी बात बोलते जावो इस आत्मा में नहीं लगती है । इस जीव ने इस शरीर को ही मान लिया कि यह मैं हूं और यह कल्पना कर ली कि ये चार लोग इस मुझ को जान जायें ऐसी कल्पना उठ जाने से ही यह अपना सम्मान और अपमान समझता है । कोई तीसरा न जाने एक ने गाली दे दिया, सुन ली उसको तो यह बुरा नहीं मानता, पर तीसरा कोई जान जाय कि इसने इनको गाली दी तो इसे बरदाश्त नहीं होता । यह सब क्या है ? यह शरीर में आत्मबुद्धि करने का ही तो परिणाम है । पहिले तो माना कि ‘यह मैं हूं’ बस इस मान्यता पर सारे क्लेश हैं ।
क्लेशविनाश का उपाय – भैया ! कितने क्लेश होते हैं ? क्या क्लेश हैं ? उन सब क्लेशों को जोड़ लीजिए, सामने रख लीजिए और एक अपने आपमें आकिंचन्य भावना बनायी जाय तो उससे ही वे सारे क्लेश दूर हो जायेंगे । सुखी होने के लिए अन्य उपाय नहीं करना है । सीधा सरल सच्चा, जैसा का तैसा उपाय करना है । जान जावो अपने आपको कि यह मैं इस देह से भी अत्यंत भिन्न ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं । इसकी ऐसी ही रचना है कि मैं हूं ऐसा सबसे विविक्त केवल चित्स्वरूपमात्र अपनी प्रतीति ईमानदारी के साथ कर लीजिए, फिर यह श्रद्धा रंच नहीं रहनी चाहिए कि मेरा घर है, मेरा मकान है, मेरा बच्चा है, मेरी स्त्री है, मेरा शरीर है, रंच भी इस और प्रतीति न हो । यदि कभी झलक आ जाए सबसे विविक्त शुद्धज्ञायकस्वरूप की तो समझो कि वे सब क्लेश जो कल्पना कर करके एकत्रित किए हैं, वे सब एक साथ ध्वस्त हो जाते हैं । विपत्ति के बनाने वाले व उनको अलग करने वाले हम हैं।
समय का लाभ – भैया, गुजरा समय तो देखो कैसे गुजरा ? अनंतकाल गुजर गया कुयोनियों में भ्रमण करते करते । जब पेड़-पौधे, कीड़े मकौड़े थे, तब कहां नामवरी का रोग लगा था ? धनहानि होने पर कुछ शोक होता है । किस बात का शोक है, यह बताओ ? क्या इस बात का शोक है कि अब रोटी ही न मिल पाएगी ? अरे रंज इस बात का है कि लोक में हमारी पोजीशन कहीं कम न हो जाए । लोक में हमारी महत्ता कहीं कम न हो जाए, इस बात का रंज होता है । अपना जीवन रहने की असुविधा का रंज नहीं है । अब आप जानों कि इतना भव व्यतीत हुआ, अनंत काल से कैसे कैसे भव पाये, आज सुयोग्य से श्रेष्ठ मनुष्यजन्म पाया है तो इस मनुष्यभव पाने का सबसे अच्छा लाभ मोह ममता में गुजार देने से नहीं है । इसका लाभ शुद्ध ज्ञानमात्र अपना जैसा सहजस्वरूप है, उस रूप ही अपने आपको देख लो, अनुभव लो, यह है । नरभव की सफलता भी इसी में है ।
बरबादियों का कारण – जिस शरीर से प्रेम है, इस शरीर का संबंध ही हमारी सारी बरबादियों का कारण है । यह शरीर अनुराग के लायक नहीं है । शरीर से मोह न होना चाहिए । शरीर की सेवा तो करनी होगी, पर मोह की बात जुदी है । प्राणधारण के लिए शरीर की सेवा कर लेना, यह अलग बात है । जो शरीर में मोह रखते हैं, उनका विकास रुक जाता है । अरे मेरा तो ज्ञानमात्र ही शरीर है । पदार्थ का जो स्वरूप है, वही पदार्थ की बौडी कहलाता है । बौडी का शुद्ध हिंदी शब्द हो सकता है तो कलेवर हो सकता है शरीर और देह आदिक नहीं है। बौडी का प्रयोग शायद सभी पदार्थों में होता है, केवल एक जाननहार में ही नहीं होता है । इस आत्मा के ज्ञान शरीर कहो अथवा ज्ञान की बौडी कहो, ज्ञान ही स्वरूप है। यह ज्ञान- शरीरी आत्मा इस शरीररूप कांचुली से ढक गया है । यह अपने आत्मा को नहीं जान पा रहा, जिससे यह चिरकाल से संसार में भटक रहा है और भेद न कर पाया तो भटकेगा ।
एकक्षेत्रावगाह आवरण – कांचुली का तो एक मोटा दृष्टांत है । उस दृष्टांत में तो कांचुली अलग चीज है, सांप अलग है । कांचुली भिन्नक्षेत्र में है, सांप भिन्नक्षेत्र में है । यद्यपि सांप के शरीर के चारों और कांचुली है । जैसे कि पैंट में पैर पड़ा है – ऐसे ही कांचुली में सांप पड़ा है । पेंट बाहर है पैर से, यों ही सांप कांचुली से दूर है । कांचुली सांप के शरीर के चारों ओर है, पर यहां तो कांचुली शरीर की और कर्म की आत्मा के क्षेत्र में पड़ी है । शरीर, हड्डी, खून, चाम – ये सभी तो शरीर हैं और जहां शरीर पोला है, जैसे नाक के बीच में पोल है और कान के बीच में पोल है, जहां जहां पोल है, उस जगह आत्मा के प्रदेश भी नहीं है । जहां शरीर का मैटर है, वहां आत्मप्रदेश हैं―ऐसा शरीर के एक क्षेत्र में यह जीव अवगाहित है। वह आवरण शरीररूप या कर्मरूप है । फिर भी इन दोनों आवरणों से यह ज्ञान शरीरी आत्मा भिन्न पदार्थ है ।
जो अपने को अकेला अनुभवेगा, वह तो सुखी रह सकता है और जो अपने को बाहर में कुछ मानेगा यह मेरा है, मैं इस रूप हूं, ऐसा भाव जो बनावेगा, वह कभी शांति नहीं पा सकता है ।
समागत पदार्थों की अध्रुवता मानने का प्रथम लाभ – भैया । ये सभी समागम जो व्यवहार में हैं, उन्हें एक बार तो दृढ़ता से मान लेना चाहिए कि जो भी मिले हैं, जिनका भी समागम हुआ है, चेतन अथवा अचेतनपदार्थ ये सब नियम से बिछुड़ेंगे । ऐसी श्रद्धा अभी से बना लो। इससे डबल लाभ है । प्रथम तो यह लाभ है कि उस पदार्थ में मोह न रहने से आकुलता न रहेगी, उसकी एक व्यवस्था ही रहेगी, उसके मालिक बनकर न रहोगे―ऐसी श्रद्धा यदि बन गयी कि जो कुछ मिला है, वह सब नियम से बिछुड़ेगा तो आप उसमें स्वामित्वबुद्धि न कर सकेंगे । फिर जैसे लाखों करोड़ों की फर्म का मुनीम सब व्यवस्था बनाकर भी चैन से रहता है, आकुलित नहीं रहता है – ऐसे ही इन ज्ञानी समस्त अचेतन संगों की व्यवस्था बनाकर भी अंतरंग में आकुलित नहीं रह सकता । पहिला लाभ तो यह है।
हर्ष और विषाद दोनों में आकुलता – आकुलता दो तरह की है – एक हर्षभरी और एक विषादभरी । विषाद में आकुलता होती है, यह तो सब लोग जानते हैं, पर हर्ष में भी आकुलता बसी हुई है, इस बात को व्यामोही पुरुष नहीं जान सकता है, ज्ञानी ही समझता है। पहिला लाभ तो यह हुआ कि आकुलता न होगी ।
समागत पदार्थों की अध्रुवता मानने का द्वितीय लाभ – यदि यह श्रद्धा रही आयी कि जो कुछ समागम में प्राप्त हुआ है, सब कुछ किसी दिन अवश्य बिछुड़ेगा । चाहे आपका छोटा बालक हो, जिसके संबंध में यों सोचते हो कि वाह इससे तो हम पहिले मरेंगे तो ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता कि पहिले कौन मरेगा ? इस मृत्यु का नाम यमराज भी है । यमराज कोई अलग से देवता नहीं है । अलंकार में यमराज है । आयु के क्षय का नाम यम है । इस यम में बड़ी समता है ।कैसी समता कि इसके आगे न बालक, न जवान, न बूढ़ा, किसी का इसे पक्ष नहीं है, सबको एकदृष्टि से यह यमराज देखता है । जिस किसी पर बिगड़ा यह यम, उसी को खत्म कर देता है । इसकी निगाह में बच्चे, बूढ़े का भेद नहीं है कि यह अभी बच्चा है, इसे न खत्म करें, बूढ़े को पहिले खत्म करें, ऐसा वहां कुछ भी पक्ष नहीं है । यह अलंकार में कह रहे हैं । प्रथम तो यह ही निर्णय नहीं है । दूसरे मान लो कि आप उस बच्चे से पहिले ही मर गये तो वियोग तो हो ही गया । वियोग तो दोनों ही हालत में है –खुद पहिले मर गए तो, छोटा बच्चा पहिले मर गया तो । वियोग मानने पर तो दुर्गति ही होती है । इससे अपनी कुशलता चाहते हो, अपनी शांति चाहते हो तो इस श्रद्धा को मत भूलो। यह श्रद्धा दृढ़ बनाओ कि जो कुछ समागम में आया है, इसका नियम से वियोग होगा।
स्व की अन्य द्रव्यों से सदा भिन्नता – भैया ! पर का वियोग क्या होगा ? अलग तो हैं ही और अलग हो गए, जरा तो अधिक दूर पंहुच गए । जितने काल आपके घर में है वैभव, उतने काल भी वह वैभव आपसे अलग है, आपकी आत्मा से घुलामिला नहीं है । कभी और अलग हो गया, जरा और दूर हो गया, हैं सभी परतत्त्व अपने से दूर । एक कूंजड़ा और कूंजड़ी थे बड़ी उम्र के । दोनों में लड़ाई बहुत होती थी । दोनों ही एक दूसरे का मरना विचारते थे । कूंजड़े का व्यवसाय था कि साग-सब्जी तथा पीपल, नीम आदि की पत्तियां ऊँट पर लाद लाता था और बेच देता था । वह ऊँट पर चढ़कर आता और ऊँट पर ही चढ़कर जाता । अचानक ही किसी दिन कूंजड़ा गुजर गया । लोग उस कूंजड़ी को सहानुभूति दिखाने के लिए आए और बोला कि क्या किया जाए, अब तो वह स्वर्ग सिधार गया । स्वर्ग तो ऊपर ही होता है - यह लोग समझाने आए । अब कूंजड़ी कहती है कि स्वर्ग तो वे चढ़े ही रहा करते थे, थोड़ा और ऊपर चढ़ गए तो ऐसी ही सारे समागमों की बात है । सब चीजें आपसे अलग तो वैसे ही हैं, धन, वैभव, कुटुंब कहां आपसे चिपके हैं ? कल्पना ही कर रहे हो कि ये मेरे हैं ।
संसारभ्रमण व संकट मिटने का उपाय अपनी विविक्तता का दर्शन – भैया ! धन, वैभव आदि तो बेईमानी नहीं कर रहे हैं, आप ही तो मान रहे हैं कि ये मेरे हैं । ये बाह्यपदार्थ हैं, जैसे हैं वैसे ही हैं । अब भी वे दूर हैं । कोई समय ऐसा आएगा कि वे और दूर हो जायेंगे, पर जो अभी से यह श्रद्धान बनाए हैं कि जो कुछ समागम प्राप्त हैं, उन सबका वियोग भी अवश्य होगा―ऐसे श्रद्धालु के वर्तमान में भी आकुलता नहीं रहती है और अंतिम समय में भी क्लेश नहीं रहता है, किंतु जब बिछुड़ने का समय आता है तब यह जानता है कि मैं तो पहिले से ही समझ रहा था कि वियोग जरूर होगा । अब हो गया होने दो । जैसे कोई पुरुष 6 महीने से ही कठिन बीमार पड़ा हो, बचने की उम्मीद न हो तो उसके गुजरने पर अधिक क्लेश क्यों नहीं होता ? यों नहीं होता कि घर के लोग जान रहे हैं कि यह बात तो चार महीने पहिले से जान रहे थे कि यह बचने वाला नहीं है, मरेगा और कोई पुरुष अचानक ही चटपट हो जाय तो उसका बड़ा शोक होता है क्योंकि एकदम बात यह ज्ञान में आयी कि ओह! अनहोनी हो गयी । तो जिसके संबंध में आप पहिले से समझ रहे हो कि इसका वियोग जरूर होगा तो उसका वियोग होने पर क्लेश नहीं हो सकता है तो जिनसे परिचय हो अथवा न हो, उन सबको अभी से जान लो कि ये भिन्न हैं, इनका वियोग अवश्य होगा । यदि परमार्थ दृष्टि रखकर सबको अपने से भिन्न मान लिया जाय तो उससे संकट भी टलेंगे और संसारपरिभ्रमण भी मिटेगा ।