वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 78
From जैनकोष
व्यवहारे सुषुप्तो य: स जागर्त्यात्मगोचरे ।जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥78॥
व्यवहारसुषुप्ति में आत्मजागृति –जो जीव व्यवहार में सोया हुआ है वह आत्मा के संबंध में जागृत रहता है और जो आत्मा के विषय में सोया हुआ है वह व्यवहार में जागृत रहता है । यहाँ सोने का मतलब है बेखबर; कुछ न करने वाला । जो जीव व्यवहार में बेखबर है, व्यवहार से उदासीन है, व्यवहार की प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप चेष्टाओं में जो नहीं फँसता है, अनासक्त रहता है, व्यवहार का प्रयत्न नहीं करता है वह आत्मा के संबंध में सावधान, जागृत रहता है; किंतु जो आत्मा के संबंध में सोया हुआ है जिसे आत्मतत्त्व की कुछ भी सुध नहीं है, मैं क्या हूँ अपने सहजस्वरूप का रंच भी भान नहीं है ऐसे आत्मा के संबंध में, बेखबर सोया हुआ जीव व्यवहार में जगता है ।
सुषुप्ति और जागृति का विश्लेषण –किसी जगह सोने को अच्छा माना है और जगने को बुरा माना है । जैसे तीन स्थितियाँ बतायी गयी हैं – जागृति, सुषुप्ति और अंत:प्रज्ञ । यह वेदांत दर्शन में है । जागृति तो बुरी चीज है, सुषुप्ति उससे अच्छी चीज मानी है और अंत:प्रज्ञ उससे उत्कृष्ट अवस्था है, उस सिद्धांत में यह दृष्टि रखी है कि जो बहुत प्रयत्न करता है चेष्टा करता है वह तो जगने वाला है और जो सोये हुए की भाँति समाया हुआ है, सिमटा हुआ है वह है ज्ञानीपुरुष और जो सर्वज्ञ हो जाता है वह है अंत:प्रज्ञ । बात में कुछ अंतर नहीं आया । जब कभी सोये हुए का अर्थ बेखबर लें, कुछ पता नहीं है, कुछ सही काम ही नहीं कर सकता है तो उसका नाम है सुषुप्ति, वह हुई जघन्य अवस्था, और जो विवेकशील है जागता है, सावधान है वह स्थिति हुई जागृति, यह है ज्ञान की अवस्था । और, जहाँ निर्दोष सर्वज्ञ हो जाता है वह है अलौकिक अवस्था ।इस श्लोक में सोने का और जागने का कोई एक अर्थ नहीं बांधा गया है । व्यवहार में सोया हुआ है यह हैरानी की स्थिति और आत्मा के संबंध में सोया हुआ है यह है अज्ञानी की स्थिति । यों कहलो अथवा यों कहलो कि जो आत्मा में जगा हुआ है वह तो है ज्ञानी की स्थिति, जो आत्मा में सोया हुआ है वह है अज्ञानी की स्थिति ।
व्यवहारजागृति में आत्मसुषुप्ति –जो पुरुष बाह्य परिग्रहों का त्याग करके भी तन, मन, वचन की चेष्टावों में ही धर्म समस्या का सुझाव समझते हैं, यो बैठता यों अतएव ये व्रत आदिक व्यवहार की वृत्तियाँ सहज होती है, किंतु अज्ञानी तो उन तन, मन, वचन की प्रवृत्तियों को निभाकर यह संतोष करता है कि हमने मुनिव्रत पाल लिया अथवा अपना धर्म पूरा निभा लिया ऐसा संतोष करता है, सो यह व्यवहार में जगा हुआ कहलाता है और आत्मा के विषय में सोया हुआ है ।निश्चय व व्यवहार में मुख्यता व गौणता –जैसे एक भोजन का ही प्रकरण ले लो । आहार शुद्ध बनाने में दो शुद्धि चलती हैं – एक तो भोजन की शुद्धि – भोजन निर्दोष जीवबाधारहित मर्यादित होना चाहिए – यह तो है भोजन की शुद्धि । और, दूसरी शुद्धि है चौका, कपड़े बनाने वाला, ये सब बहुत शुद्ध होने चाहिये । पर के लेप से रहित कोई छू न सके इस तरह का होना चाहिये । ठीक है फिर भी प्रत्येक पुरुष के इन दो में किसी एक पर प्रधान दृष्टि होती है और एक पर गौण दृष्टि होती है । जैसे इनमें अंतर है, वैसे ही अज्ञानी के निश्चय और व्यवहार में अंतर है । जिसकी प्रधान दृष्टि गुण दृष्टि की है, आत्मविकास की है, आत्मोन्मुखता की है वह व्यवहार में सोया हुआ है । भले ही सर्व प्रवृत्तियाँ आगमानुकूल हो रही हैं, पर सहज हो जाती हैं अर्थात् उसमें ऐसी योग्यता पड़ी हैं कि अयोग्य प्रवृत्तियाँ नहीं होती हैं । ज्ञानदृष्टिवाला पुरुष क्या विषय-कषायों में फँसने वाली प्रवृत्तियाँ करेगा ? नहीं कर सकता है, तो सीधे सहज ही उसके आगमानुकूल वृत्तियाँ चलेंगी और जो व्यवहार में ही जगा हुआ है, जो कुछ आँखों से दिखता है यह सच है, यह श्रावक है हम साधु हैं, हमको इस तरह से चलना चाहिये तब तो हम साधु हैं, इन श्रावकों से हमारा विशिष्ट पद है, हम प्रतिमावों से भी और ऊपर का आचरण रखने वाले हैं, हमारी क्रियावों में कोई कमी नहीं रहना चाहिये नहीं तो इन श्रावकों में फिर धर्म की अप्रभावना हो जायगी । कैसी धर्म की धुन है, मगर ये सब धुन बाहरी धुन हैं । इनमें आंतरिक मर्म का स्पर्श नहीं है । ऐसी ही बात सहज रूप से ज्ञानी साधुवों की भी हो जाती है, पर सारा फर्क मुख्यता का और गौणता का है ।आशयभेद के अंतर –जैसे कोई पुरुष जीने के लिए खाया करते हैं और कोई पुरुष खाने के लिए ही जिया करते हैं । एक का ध्यान है कि जीना जरूरी है, क्योंकि आत्महित का काम बहुत पड़ा है इसलिए खाना ही चाहिए । एक खाकर भी उद्देश्य धर्म का बनाये है अत: उसके पुण्यबंध है । एक पुरुष सोचता है कि खूब खाओ-पियो मौज उड़ाओ, इसीलिए तो मनुष्य हैं । कीड़े–मकोड़े, पशु-पक्षी इनको कहाँ नसीब है, अगर हुए हैं मनुष्य और मिले हैं अच्छे हाथ- पैर, अच्छे साधन मिले हैं: अब भी न खायें, न बढ़िया साधन बनायें तो मूर्खता है, कुछ ऐसा भी सोचने वाले हैं । इन दोनों ने खाया तो सही, प्रवृत्ति तो समान है, यह भी खा रहा है, वह भी खा रहा है, पर आशय के उनके भेद से अंतर में बड़ा अंतर हो गया है ।
परस्पर विरुद्ध भावों का एकत्र अभाव –जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं समा सकती हैं अथवा एक सुई कपड़े को दोनों तरफ नहीं सी सकती है अथवा एक साथ दो दिशावों में नहीं चला जा सकता है । कानपुर भी जाना है और जसवंतनगर भी जाना है तो एक साथ दोनों जगह हो आवें ऐसा नहीं हो सकता है । ऐसे ही एक आत्मा में भी दो विरुद्ध परिणतियाँ नहीं हो सकती हैं । या तो व्यवहार में आसक्ति रहे या आत्मदृष्टि बनाये । व्यवहार के काम में भी चित्त लगाये रहे और ज्ञानदृष्टि भी बनी रहे ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती हैं ।
रोगों की गुप्त चोटें –इस राग भाव में जो किे इतना गुप्त बनकर रहा करता है कोई-कोई पुरुष अपनी मालूमात में ऐसा समझते हैं कि मुझे कोई झंझट ही नहीं है और न किसी में हमें राग है न द्वेष है, हमें सब एक हैं, घर में रह रहे हैं काम सब कर रहे हैं और ऐसा भी मालूमात-सा हो रहा है कि मेरे को न बच्चे से राग है या अन्य किसी से है, न किसी से द्वेष है, लेकिन भीतर में राग बराबर लगा हुआ चला जा रहा है । न होता राग तो आत्मानुभव बना रहता खूब; पर आत्मानुभव के दर्शन नहीं होते । यह एक प्रमाण है कि हमारे अंतर में रागभाव बराबर पड़ा हुआ रहता है ।रागसंस्कारों के दर्शन का साधन –कभी-कभी रागों के विषयों की गिनती भी नहीं मालूम पड़ पाती है । काम में लगे हैं, कोई एक काम जिसको जिसकी धुन है मुख्य बन गया है, काम में लगे हैं, अथवा आजीविका का ही कोर्इ काम है, धनसंचय की ही एक धुन बनी है तो व्यापार में लगे हैं, किसी काम में लगे हैं उस समय ऐसा लगता है कि मुझे किसका राग है । पुत्र का, मित्र का, स्त्री का, पोजीशन का किसी में भी तो राग नहीं है । लगता है ऐसा, किंतु राग कितने पड़े हुए हैं इसका सुगमता से दर्शन करना है, तो उसका सीधे दर्शन करने के साधन दो हैं, एक तो सामायिक और एक स्वप्न । हमारे भीतर में कितना राग पड़ा है उसकी मालूमात सामायिक में पड़ जाती है । कोई दुकान में लग रहे हैं तो कितना राग है, इसकी कुछ खबर नहीं है, पर जाप ले करके पाल्थी मारकर जरा सामायिक में बैठ तो जाओ अथवा पद्मासन करके हाथ पर हाथ रखकर सामायिक में बैठो तो कितनी जगह दिल जाता है, कहाँ-कहाँ की कल्पनाएँ उठती है, क्या-क्या दृश्य दिखते हैं जरा सी देर में कहाँ उड़ गये, कहाँ जा रहे हैं । वे सारी गिनतियाँ कुछ-कुछ सामायिक में गिनलो कि हमारा इतनी जगह राग है ।
रागसंस्कारों के दर्शन का द्वितीय साधन –राग के विषयों की विविधता का, जब कोई स्वप्न आ जाय तो उस स्वप्न से भी अंदाज कर लो । जैसा चित्त होगा वैसा स्वप्न में आयगा । स्वप्न में बनावट नहीं चल सकती है, इसके लिऐ वही भाव प्रत्यक्ष हो जायगा जिस भाव में वर्त रहे थे पहिले । कोई मायाचारी पुरुष है वह जगते हुए में तो मायाचार कर ले अर्थात् अंतर के भाव किसी दूसरे को प्रकट ही न होने दे । ऊपर से खूब हाथ जोड़ रहे हैं, बड़े नम्र वचन बोल रहे हैं, मन की बात प्रकट नहीं होने देते हैं, जगते हुए में करते जाओ मायाचार, पर स्वप्न में तो जैसा हृदय है वैसा ही परिणमन दिख जायगा । फिर समझ लेना कि कितना राग बसा हुआ है ।
अनर्थ का स्रोत –यह सब राग अपनी बरबादी के लिए है । साथ तो कुछ जायगा नहीं, शरीर तक भी न जायगा; केवल अकेला, ज्ञानवान यह जीवास्तिकाय उदयवश कहीं पहुँच जायगा, पर यह देह जरा भी न जायगी । धन, संपदा की तो कहानी ही क्या है । यह सब ठाठ यहीं पड़ा रह जायगा । कितना धन जोड़ने के लिये अन्याय का परिणाम किया जा रहा है । जुड़ गया बहुत कुछ तो एक बार में ही छोड़कर जा रहे हैं, तत्त्व क्या निकला ? कितना असहाय है यह जगत ।यहाँ जीवन-भर श्रम किया, धन संचय किया, अब अचानक ही सब कुछ छोड़कर जाता है । लाभ क्या हुआ ? कदाचित् यह सोचो कि हम भले ही छोड़कर जा रहे हैं, ठीक, मगर हम अपने बच्चों के लिए तो छोड़कर जा रहे हैं । आत्मन् ! तेरा कहाँ कौन बच्चा है, कौन है तेरा ? इस भ्रम ने ही तो तुझे बरबाद किया है । जगत में जितने जीव हैं सब एक समान अपने से अत्यंत जुदे हैं, रंच भी संबंध नहीं हैं, पर कुछ तो अपनी कमजोरी और कुछ दूसरे जीवों से मनुष्य से, स्त्री से, पुत्र से कुछ राग भरी बात और चेष्टायें मिलीं इससे यह मोह का संबंध तगड़ा होता चला जा रहा है ।
आत्मसावधानी का अनुरोध –यह राग-अंश जब तक रहता है तब तक यह जीव आत्मानुभव का पात्र नहीं हो सकता है । राग-द्वेषभाव का कार्य ही आकुलता को उत्पन्न करता है । जो इस भाव में जगता है वह आत्मा के विषय में बेसुध है । तो ये दोनों बातें, क्या कि आत्मा की उपासना हो जाय और व्यवहार के विषयों के ये सुख भी न छूटें, मैं इस मायामयी दुनिया में अपना नाम भी कर जाऊँ और परमार्थ विशुद्ध निराकुलता का आनंद भी ले लूं―ये दो यत्न एक साथ नहीं हो सकते हैं । अब जरा दूसरी बात यह भी देखिये कि व्यवहार की नामवरी को छोड़ना यों इस दुनिया के लिए मैं कुछ न रहा, और आत्मा का लगाव छोड़कर इस व्यवहार के स्वरों में ही लगते हैं तो मैं ज्ञानियों के लिए और अपने लिए कुछ न रहा । पर यह तो सोचो कि मैं अपने लिए अपनी दृष्टि में अथवा ज्ञानी संतों की दृष्टि में बुरा बना रहूँ यह नुकसानदेह है या इस मायामयी दुनिया की निगाह में मैं न जँचूँ यह नुकसानदेह है । दिखती हुई दुनिया में अपने लिए कुछ नहीं है ।यहाँ किन्हीं लोगों में मेरा यश हो, किन्हीं लोगों के चित्त में मेरे लिए घर हो तो इससे कहीं परभव न सुधर जायगा, अथवा इस लोक के भी संकट न मिट जावेंगे । संकट तो कहीं बाहर है ही नहीं । जैसा मन से हम सोचें उसके अनुकूल सुख अथवा दुःख हो जाया करते हैं ।परमार्थ जागरण का यत्न –भैया ! हम अपने में जगें, अपने में प्रकाश पायें । आत्मप्रकाश से हमारा समस्त भावी अनंतकाल प्रकाशमय रहेगा, आनंदमय रहेगा और अपने बेसुधपने से इस मायामयी दुनिया में उपयोग के रमाने से हम जन्ममरण के संकट ही पाते रहेंगे । इस कारण अपने आपमें जगना और व्यवहार से बेसुध रहना यह है कल्याण का मार्ग । व्यवहार में आदर न करते हुए, आसक्ति न रखते हुए हम बहुत-बहुत काल केवल ज्ञानस्वरूप का अनुभव न करके शुद्ध आनंद से तृप्त रहा करें इसमें ही आनंद है और भलाई है ।