वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 80
From जैनकोष
पूर्व दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवज्जगत् ।स्वभ्यस्तात्मधिय: पश्चात्काष्ठपाषाण रूपवत् ॥80॥
जिस आत्मा ने पहले ही पहले आत्मतत्त्व को देखा है उसे यह जगत् पागलों की तरह चेष्टा करने वाला दिखता है, किंतु वही पुरुष जब आत्मज्ञान में दृढ़ अभ्यस्त हो जाता है तब यह ही जगत काष्ट-पाषाण की तरह चेष्टारहित मालूम होने लगता है ।
हित के प्रारंभ में जिज्ञासा का स्थान –भैया ! आत्मा का विकास होने के लिए सर्वप्रथम जो हित का प्रारंभ होता है वह जिज्ञासा से होता है । सबसे पहिले इस जीव में यथार्थज्ञान पाने की इच्छा होनी चाहिए । जिज्ञासा के लिए भी विवेक और प्रतिभा चाहिए । जब तक जिज्ञासा नहीं होती है, वास्तविकता क्या है मैं कौन हूँ, यह संसार क्या है, मेरा संसार से क्या संबंध है,मैं इस जगत का क्या कर सकता हूँ, मैं क्या करता हूँ इत्यादि बातें जानने की जिसे इच्छा ही नहीं है वह धर्ममार्ग में कदम ही क्या बढ़ायेगा । जो जीव विषय-भोगों में अत्यधिक आसक्त है, परद्रव्यों के मोह में अधिक लिप्त रहते हैं उन्हें यथार्थज्ञान करने की इच्छा नहीं उत्पन्न होती । उन्हें तो विषय चाहिए, विषयों के साधन चाहिए, ज्ञान से क्या प्रयोजन ? तो सर्वप्रथम इस हितमार्ग में चलने के लिए जीव में जिज्ञासा जगनी चाहिए ।हितमार्ग में ज्ञानाभ्यास का स्थान –यह आत्मा जिस किसी भी प्रकार जिज्ञासु बन गया तो उसे ज्ञानाभ्यासी होना चाहिए । जो भी उपाय हो, गुरु से पढ़ना, पाठ याद करना, चर्चा में शामिल होना, स्वाध्याय करना अथवा दूसरों को उपदेश देने लगना, हर एक संभव बात से ज्ञान का अभ्यास बढ़ाना चाहिए । हम सीखें कि पदार्थ का स्वरूप क्या है । इस जीव ने इस दुनियाँ में अनेक प्रकार से विषयों के सुख भोगे और उनका ही यत्न किया, किंतु वह सुख टिक नहीं सका, बल्कि उससे कई गुणे दुखों को जुटाकर वह सुख मिट गया । अब जरा ज्ञान का भी तो आनंद चखिये । हम वस्तु के बारे में जब तथ्य की बात, यथार्थ बात जानते हैं तो उस शुद्ध जानने के फल में कितनी प्रसन्नता होती है और कितना हम प्रकाशवान होते हैं इसका एक अंदाज कर लो । विषय-सुखों में और यथार्थ ज्ञान के आनंद में बहुत-सा अंतर है । अंतर क्या, विषय-सुख तो कुछ आनंद ही नहीं है, वह तो मोह की कल्पना है और विडंबनावों का घर है । जिज्ञासु पुरुष को अपना तन, मन, धन, वचन सब कुछ न्योछावर करके यथार्थज्ञान का अभ्यासी होना चाहिए । ज्ञान के अभ्यास के कितने ही उपाय हैं । उन सबमें से सीधा उपाय है गुरुमुख से अध्ययन करना, और फिर इसके साथ ही साथ शेष भी उपाय करना । जैसे स्वयं पढ़ना, याद करना, दूसरों को बताना, उनसे पूछना, चर्चा करना और जानकारी बढ़ाने के लिए वाद-विवाद करना―ये सब ज्ञान का अभ्यास बढ़ाने वाले उपाय हैं । उन उपायों को करके ज्ञानाभ्यासी होना चाहिए ।हितमार्ग में यथार्थज्ञान का अमोघ सहयोग –इस ज्ञानाभ्यास के प्रताप से वस्तुओं का यथार्थज्ञान हो जाता है । यथार्थज्ञान साधारण और असाधारण गुण के माध्यम से हुआ करता है । हम लोक में भी किन्हीं पदार्थों को देखते हैं तो कई बातों में ये पदार्थ एक-से नजर आते हैं और कुछ बातों में ये पदार्थ एक दूसरे से न्यारे नजर आते हैं । जिन बातों में पदार्थ न्यारे नजर आते हैं वे हैं असाधारण गुण और जिन बातों में पदार्थ एक-से नजर आते हैं वे हैं साधारण गुण । जैसे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये सभी द्रव्य किन्हीं बातों में एक-से नजर आ रहे हैं । जैसे सत्त्व, सभी का सत्त्व है, सभी हैं, हैं की अपेक्षा से सभी पदार्थ समान हैं । वे सब अपने ही स्वरूप से तो हैं पर के स्वरूप से नहीं हैं और इसी कारण उन पदार्थों में अर्थक्रिया होती है । यह बात सब पदार्थों में समान है । जीव परिणमता है, निरंतर परिणमता है तो क्या और शेष द्रव्य नहीं परिणमते हैं । वे भी निरंतर परिणमते हैं, परिणमन की दृष्टि से सब द्रव्य समान हैं । यहाँ जीव अपने में ही परिणमता है, अपने को ही परिणमाता है दूसरे से असंपृक्त रहता है, दूसरे को नहीं परिणमाता है, क्या यह बात शेष द्रव्यों में नहीं है । सभी पदार्थ अपने-अपने में परिणमते हैं, किसी दूसरे को नहीं परिणमाते हैं । तो ऐसे कितने ही गुण हैं जिनकी दृष्टि से सब एक-समान नजर आते हैं । अब वस्तु में कुछ आगे की बात देखिये । वस्तु में कुछ गुण ऐसे हैं कि जिनसे भेद नजर आता है । जैसे जीव का चैतन्य गुण । लो, इस दृष्टि से सब पदार्थों से न्यारा इस जीव को बता दिया । चैतन्य अन्य पदार्थ में है ही नहीं । तो यों साधारण और असाधारण गुण का परिचय करना―यह एक यथार्थज्ञान है । इसका बहुत विस्तार है ।
हितसाधक भेदविज्ञान –यहाँ संक्षेप में इतना ही जानो कि यह पुरुष पहिले जिज्ञासु बनता है, पीछे ज्ञानाभ्यासी होता है औरपीछे यथार्थज्ञाता बनता है । जो जैसा है उसे वैसा समझना, इस यथार्थज्ञान के प्रताप से इसके भेद-विज्ञान प्रकट होते हैं । यों यह भेदविज्ञानी बना, जीव सबसे न्यारा है और यह मैं जीव सबसे और सब जीवों से न्यारा हूँ । कुछ लेना- देना नहीं, कुछ संबंध नहीं, कुछ पता नहीं, थोड़ी देर का समागम है । किसी जीव को मान लिया कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरा कुटुंबी है, और हैं सब जीव एक समान, यह तो इस जीव का मोह-नींद का सपना है । यह सब कुछ यों न पहिले था, न यह आगे रहेगा, सभी झूठी बातें हैं । मैं सबसे न्यारा केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ । मोही लोग यह कल्पना करके ही दुःखी हो जाते हैं, हाय ! मेरे घर के कोई जीव जुदा न हो जाएँ, कोई मेरा इष्ट गुजर न जाय, मेरी संपदा विघट न जाए, कम न हो जाए, क्लेश ही क्लेश कर रहा है । अरे ! जब संपदा है, परिजन हैं तब भी यह जीव केवल अपने स्वरूपमात्र हैं और जब संपदा, परिजन, इष्ट जन भी न होंगे तब भी यह जीव उतना का ही उतना है जितना कि बहुत बड़ी संपदावों के बीच में था । न जरा भी अब कम हुआ और न जरा भी पहिले बढ़ा । यह तो अपने स्वरूपमात्र ही है । यह जीव यथार्थज्ञान के प्रताप से भेद विज्ञानी हो जाता है ।ज्ञान और अज्ञान का प्रसाद –भैया ! भेदविज्ञान ही अमृत है । जितने भी अब तक महान पुरुष हुए हैं अथवा परमात्मा हुए हैं, सिद्ध बने हैं वे सब एक भेदविज्ञान के प्रताप से बने हैं, किंतु यह मोही जीव भेदविज्ञान की चर्चा को भी असगुन समझता है । क्या कहा जा रहा है ॽ मेरी स्त्री नहीं है क्या ? यह मेरा पुत्र नहीं है क्या ? यह कोई कहे जरा कि तुमने जीवन पाया है तो एक दिन जरूर मर जावोगे । ऐसी बात सुनते ही मोही जीव को गाली-सी लगती है । क्या यह सत्य नहीं कहा जा रहा है ? जब हमने जीवन पाया है तो क्या मरेंगे नहीं ? पर कोई कह तो दे कि तुम कभी मर जावोगे । मोही प्राणी को मरने का नाम अखरता है । बात सत्य है मगर मोह में सुना नहीं जाता है । यह धन, संपदा विघट जायगी । अरे ! विघटना तो है ही, हमारे जीवनभर भी रहे तो मरकर चले जायेंगे यों विघट जायगी अथवा जीवन में ही विघट जायगा । ये सारी भेदविज्ञान की बातें हैं, पर मोही को असगुन और गाली मालूम पड़ती हैं । पर, जब तक अपने को सर्वपरद्रव्यों से भिन्न निजस्वरूपमात्र नहीं मान लिया जायगा तब तक शांति में गति नहीं हो सकती है । यह पुरुष अपने यथार्थज्ञान के बल से भेदविज्ञानी बनता है ।तत्त्वज्ञाता –भेदविज्ञान का फल क्या है ? अभेद जो निज अंतस्तत्त्व है उसका छककर दर्शन करते रहना । लोक में आनंद ही केवल एक निजस्वरूप के यथार्थ दर्शन में है । यह वैषयिक सुख, ये जगत की बातें जब चित्त को स्थिर ही नहीं रहने देतीं तो उससे सुख शांति की आशा करना तो बिल्कुल व्यर्थ है । एक आत्मा का एकत्व अपने आपके स्वरूप का ज्ञान और उसमें भी जो मेरा सहज स्वरूप है, शाश्वत हूँ, स्वभाव है स्वत:सिद्ध है, उस स्वभाव का पता कर लेना, उस तथ्य का परिचय हो जाना यह तत्त्वज्ञाता बहुत बड़ी निधि है ।आनंद का मानक –भैया ! धन-संपदा के अनुपात से आनंद का लेखा-जोखा नहीं लगाया जाता है, किंतु ज्ञान की स्वच्छता के अनुपात से आनंद का ठीक-ठीक लेखा जोखा लगाया जाता है । कितने ही पुरुष हैं, करोड़ों की संपदा है, घर में लड़ाई बनी रहती है, स्त्री और पति का मन नहीं मिलता, पुत्र और पिता का मन नहीं मिलता, रात-दिन दुःखी होते रहते हैं, और एक दूसरे के विरुद्ध नाना षड़यंत्र रचने की सोचते रहते हैं । धन से सुख कहाँ हुआ ? जो विवेकी पुरुष हैं वे धन से शून्य होकर भी आनंदमग्न रहते हैं । पुराणों में ऐसी अनेक बातें हैं । श्री राम, सीता सब कुछ छोड़कर वन में रहे, पर कुछ उन्हें कोई क्लेश था क्या ? शांति का अनुपात धन-संपदा से नहीं लगाया जा सकता है । आनंद का लेखा- जोखा ज्ञान की कला पर तो लगाया जा सकता है, पर बाह्य वैभव में नहीं । मैं हर समय जाननस्वरूप मात्र हूँ, उतना ही हूँ । न धन-संपदा में मैं बढ़ गया था और न संपदा के मिटने से मैं कुछ घट गया हूँ । रही इस दुनिया की इज्जत की बात, सो दुनिया में तो पापी, मलिनमोही, अज्ञानी पुरुषों का समूह है । ज्ञानी, संत तो बिरले ही हैं । ये अज्ञानी, मोही जो स्वयं अशरण है, जो स्वयं संसार में भटकने वाले हैं, वे स्वार्थवश कुछ प्रशंसा की भी बात बोल दें तो उससे इसे क्या मिल गया ? यथार्थ तत्त्वज्ञानी हो तो शांति-लाभ हो सकता है ।
प्रतिपन्नतत्त्व की परिस्थिति –यह पुरुष पहिले जिज्ञासु हुआ, पीछे ज्ञानाभ्यासी बना । उसके फल में यथार्थ ज्ञानी हुआ, भेदविज्ञानी बना और अब यह तत्त्वज्ञाता हुआ । अपने आपमें सहज सनातन जो शुद्धचित्स्वभाव है उसका इसे परिचय मिला । अब यथार्थ तत्त्व का ज्ञान पाने के बाद अब यह जीव निजतत्त्व के ज्ञान को बनाये रहने का अभ्यास कर रहा है । किन्हीं भी पर पदार्थों में यह भरम न जाय, विचलित न हो जाय, यह निज शुद्ध ज्ञानस्वरूप को ही जानता रहे ऐसा प्रयत्न जब किया जा रहा है तो उसे कहते हैं योगाभ्यासी । ज्ञानस्वरूप में अपने उपयोग का योग करना, जोड़ना इसे कहते हैं योगाभ्यास । जिसने प्रथम ही प्रथम इस अंतस्तत्त्व को जाना, इस आत्मतथ्य को पहिचाना ऐसे पुरुषों को यह दृश्यमान जगत उन्मत्त की तरह प्रतिक्षण विरुद्धचेष्टा नजर आ रहा है । इसका कारण यह है कि इसने अपने आपमें यह पहिचाना है कि परमार्थभूत यह मैं आत्मतत्त्व ज्ञानमात्र निश्चेष्ट हूँ । यह तो मैं भावप्रधान पदार्थ हूँ और ऐसे ही ये सब जीव भावप्रधान पदार्थ हैं किंतु मोहरागवश ये कैसा यत्न कर रहे हैं यह इनकी उन्मत्त चेष्टा है ।मोही की उन्मत्त चेष्टा का दर्शन –जैसे कोई पागल पुरुष थोड़ी देर में किसी को अपना बता दे, थोड़ी देर में किसी को अपना बता दे ऐसे ही यह मोही पुरुष मनुष्य भव में आया तो किन्हीं को अपना बता दिया और मरकर देवगति में आ गया तो किन्हीं को अपना बता दिया । तिर्यंच गति में आया तो किन्हीं को अपना बता दिया । यह भी मोही पागलों की तरह किन्हीं-किन्हीं को अपना बताता फिरता है, और भव परिवर्तन की ही बात नहीं है किंतु इस एक ही मनुष्य भव में जब तक कषाय से कषाय मिलती रही तब तक अपना-अपना गाता रहा और जब कषाय न मिलते देखी तो उसने अपना न माना, गैर मानने लगा । यों यह मोही कषाय के आवेग से अट्ट-सट्ट अपनी कल्पनाएँ और मान्यताएँ बनाता है, ऐसा ही तो दिख रहा है । अब बाहर में यह जगत उन्मत्त की तरह चेष्टावान नजर आ रहा है इस योगाभ्यासी को ।निष्पन्न योग की स्थिति –अब यह पुरुष जब इस आत्मतत्त्व के ज्ञान में अभ्यस्त हो जाता है, ज्ञानमात्र तत्त्व ही विशद दृढ़ता से अनुभूत होने लगता है इसे, तो बाहर भी यों दिख रहा है कि कौन चल रहा हैयहाँ न चलता होगा जो कोर्इ चलता हो किंतु ये आत्मा तो सब निश्चेष्ट हैं । अन्य आत्मावों में भी यह निश्चल निष्काम आत्मतत्त्व दिख रहा है, वह तो जैसा है तैसा ही है, यों देखकर उसे तो ये सब काष्ठ पाषाण की तरह निश्चेष्टनजर आते हैं । यों जिसने आत्मतत्त्व को प्रथम ही प्रथम देखा है उसे यह जगत उन्मत्त की तरह लगता है पश्चात् जब यह निज ज्ञानयोग में निष्णात हो जाता है, अभ्यस्त हो जाता है तो जब स्वयं की ही वृत्ति बाह्य अर्थ में नहीं जाती, बाह्य विषयों में नहीं जाती तो उसमें एक उदासीन भाव यहाँ निश्चल, निष्काम, सहज स्वभाव का दर्शन होता है तब यही सर्वत्र दिखता है, प्रकट होता है ।
उदासीनता का अर्थ व माहात्म्य –उदासीन का अर्थ है उत् मायने उत्कृष्ट स्थिति और आसीन मायने उसमें बैठ जाना । उदासीन का अर्थ रोती सकल लेकर पड़ जाने का नाम नहीं है, किंतु अपने आपमें जो उत्कृष्ट पद है, ज्ञातृत्व-दृष्टत्वि जो स्वभाव है उस स्वभाव में आसीन हो जाना, बैठ जाना, स्थित हो जाना इसका नाम है उदासीन होना । यह उस निश्चल परम पारणामिक भाव में आसीन हो गया है, इसी कारण अन्य जीवों में भी ऐसा निश्चल देख रहा है तब ये सब काष्ठ पत्थर की तरह निश्चेष्ट जान पड़ते हैं । यह सब भेदविज्ञान का और भेदविज्ञान से पहिचाने निज अंतस्तत्त्व के उपयोग की स्थिरता के अभ्यास का माहात्म्य है ।अंतस्तत्त्व के ज्ञान की उपादेयता –भैया ! ये जीव जब तक बाहर ही बाहर अपनी दृष्टि रखेंगे तब तक इन्हें शांति न मिलेगी । जब अपने आपमें स्वत:सिद्ध यही तत्त्व दृष्ट होगा तब इन्हें शांतिपथ मिलेगा । हमारा भी कर्तव्य है कि सर्व प्रयत्नोंपूर्वक अपने आपके यथार्थ स्वरूप का भान बनाये रहें । इस अवसर में पहिले तो अपूर्व स्वरूपदर्शन का अवसर होने से स्वरूप भक्ति में आतुरता व रुचि होगी । इसी कारण शुभ-अशुभ विकल्पों और चेष्टाओं की अत्यंत असारता विदित होगी । तब यह संकल्प-विकल्पों में उलझा हुआ जगत् उन्मत्त की तरह विरुद्ध नाना विकल्पों से मत्त दिखेगा । पश्चात् जब निष्पन्न योग की अवस्था होगी तब निश्चल आत्मस्वभाव का अनुभव होने से, संसारविषयक चिंता का अभाव होने से यह जगत् काठ-पत्थर की तरह निश्चेष्ट विदित होता है । कौन चल रहा है, चैतन्य चलता नहीं, वह तो निश्चेष्ट है । अचेतन स्कंध स्वयं चले कैसे ? अहा, इस निश्चेष्टानुभव में सहज आनंद है । इसकी प्राप्ति के अर्थ चिदानंद स्वभाव अंतस्तत्त्व का भान बनाये रहना एकमात्र अपना कर्तव्य है ।