वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 81
From जैनकोष
श्रृणवन्नप्यन्यत: कामं वदन्नपि कलेवरात् ।नात्मानं भावयेद् भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् ॥81॥
मोक्ष और मोक्ष के यत्न का निर्देश –अशांति से छुटकारा पाने का नाम है मोक्ष । मोक्ष शब्द का शब्दार्थ है छुटकारा पाना । संसार में अनंत कष्ट हैं । जन्म का, मरण का, शारीरिक व्याधियों का और संबंध के हर्ष-विषाद का, संयोग-वियोग का, यश नाम कीर्ति की चाह का, सम्मान अपमान के आदि अनेक संकट हैं । उन सब संकटों से छुटकारा होने का नाम मोक्ष है । किसी भी चीज से छुटकारा तब होगा जब यह श्रद्धा हो कि इस चीज से मेरा छुटकारा हो सकता है । जिसे छुटकारा होने की श्रद्धा ही नहीं है वह कैसे छूट सकता है । छुटकारा होने की भी श्रद्धा तब हो सकती है जब पर से छूटा हुआ अपना स्वरूप देख लिया जाय । स्वभाव पर से छूटा हुआ है, इसमें अन्य उपद्रवों का प्रवेश ही नहीं है ऐसी श्रद्धा हो तो संकटों से छुटकारा होने की श्रद्धा बन सकती है । संकट ही स्वभाव में बसे हुए हैं ऐसी बुद्धि बनी हो तो संकटों से छूटने की श्रद्धा नहीं हो सकती है और न उपाय बन सकते हैं ।मुक्ति के उपायों में भेदविज्ञान की प्रतिष्ठा –इस ही समस्त उपाय को संक्षिप्त शब्दों में आचार्यों ने बताया है भेदविज्ञान । शरीर से यह मैं चैतन्यस्वरूप भिन्न हूँ । वचनों से भी यह मैं चित्स्वरूप भिन्न हूँ और मानसिक जो संकल्प-विकल्प होते हैं, विचार-तरंगें होती हैं उनसे भी मैं भिन्न हूँ । यों समस्त अनात्मतत्त्वों से आत्मा को पृथक् जानना भेदविज्ञान है । इसी प्रकार सर्व पर पदार्थों से विविक्त निज स्वरूप मात्र आत्मतत्त्व का परिचय होना भेदविज्ञान का फल है । इस तत्त्व को उपाध्यायों से, आचार्यों से, गुरुवों से, वक्तावों से खूब सुनाभी तो भी सुनने मात्र से शांतिलाभ नहीं हो सकता है किंतु अपने आपमें अपनी परिणति में उसे उतारें और अपने में प्रकाश देख सकें तो मुक्ति की पात्रता होती है ।तत्त्व का मूल्यांकन –भैया ! तत्त्व की बात सुनकर उसका मर्म न उतारा तो इसे लोग लोकोक्ति में कहते हैं कि इस कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया । एक ऐसा ही कथानक चला आता है कि किसी स्वर्णकार ने पीतल की धातु की कोई दो पुतलियाँ बनायीं । उन दोनों पुतलियों की शकल, सूरत, आकार, प्रकार बिल्कुल एक-सा था । कोई भी अंतर उन दोनों पुतलियों में न दिखता था । वह राजदरबार में उन दोनों पुतलियों को लेकर पहुँचा और बोला –महाराज ! मेरे पास ये दो पुतलियाँ हैं, इनमें से एक की कीमत तो 2 रुपया है और एक की कीमत 2 लाख रुपया है । लोग सुनकर आश्र्चर्य में आ गये । सबने देखा कि दोनों एक सी पुतलियाँ हैं, इतना अंतर कहाँ से आ गया ? बहुत विचार किया, पर परख न सके । तब राजा ने कहा –ऐस्वर्णकार ! तुम्हीं बताओ कि दोनों पुतलियों की कीमत में इतना अंतर क्यों है ? तब उसने बताया कि इस पुतली की कीमत है 2), क्योंकि देखो मैं इसके कान में यह धागा डालता हूँ तो दूसरे कान से निकल जायगा । और इस पुतली की कीमत 2 लाख रु. है, इसके कान में धागा डालता हूँ यह धागा पेट के अंदर पहुँच जायगा । तो एक पुतली यह शिक्षा देती है कि कुछ मनुष्य हित की बातें इस कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं उन्हें अपने दिल में उतारने का यत्न नहीं करते हैं वे इस संसार में भटकते रहते हैं, और दूसरी पुतली यह शिक्षा देती है कि कुछ मनुष्य हित की बातें सुनते हैं और उन्हें अपने दिल में उतारने का यत्न करते हैं, वे शाश्वत आनंद की उपलब्धि कर लेते हैं । ऐसे जीवों की ही हम आप पूजा और उपासना करते हैं ।
जीव पर अज्ञान संकट –इस जीव पर सबसे महान् संकट है तो अज्ञान का, मिथ्यात्व का । विषय-सुख केवल कल्पनामात्र रम्य है । ये विषय-सुख जीव के हितरूप नहीं हैं । अनेक संकटों से ये विषय-सुख भरे हुए हैं, किंतु स्वकीय शुद्ध आनंद का परिचय न होने से इस अज्ञानी जीव के विषयों में, विषयों की साधना में ही रुचि बनी रहती है । और पर पदार्थों में जब तक लगाव रखा तो उनका वियोग होगा ही । इस जीव की कल्पनावों से कहीं वियोग रुक न जाएगा अथवा संयोग हो न जायगा तब यह अज्ञानी जीव दुःखी होता है । जो अपने स्वानुभव से अपना आनंद स्वाधीन होकर लिया करते हैं उनको कहीं भी विघ्न नहीं है । जिनका पराश्रित भाव है, पर की ओर जिनका लगाव है वे सदा संक्लिष्ट रहा करते हैं, यह सब अज्ञान का प्रसाद है । इस जीव ने हित की बात सुनी तक भी नहीं, परिचय में आना तो उसके बाद की कहानी है और अनुभव में उतर जाना यह तो सर्वोत्कृष्ट विभूति है ।व्यामोह के कारण स्वयं में स्वयं का अदर्शन –यहाँ यह कह रहे हैं कि ऐसे तत्त्व को केवल सुनने मात्र से भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है । सुने भी और मुख से खूब बोले भी, सबको सुनाये भी, चर्चा भी करे, ऐसी चर्चा करे कि दूसरे तो अपना हित कर जायें पर स्वयं उतारे नहीं तो इसे शांति नहीं मिली । सुने तो भी और बोले तो भी उससे कार्य सिद्धि नहीं है जब तक कि इस भिन्न आत्मा को भिन्न रूप से स्वयं न भाले, किसको भाना है, किसको लक्ष्य में लेना है ? वह है तो स्वयं, पर विषय-कषायों के परिणामों में उपयोग जब रँगीला हो जाता है तो स्वयं की ही शकल स्वयं का ही स्वरूप, स्वयं को नहींदिखता है, इस पर ही कितने रंग चढ़े हुए हैं ।बाह्यविषयक आंतरिक रंग –प्रथम तो बाहर में इस जड़ धन-संपदा में जो ममता बनी हुई है यह रंग चढ़ा हुआ है । हैं सब अत्यंत भिन्न पदार्थ । न जन्मते साथ आयें हैं और न मरने पर साथ जायेंगे और जीवन तक भी रहे आयें पास इसका भी कोई निर्णय नहीं है, फिर यह मान रहा है कि मेरा यह मकान, परिवार, मित्र जन, सब कुछ हैं । इन सबको जो कि अत्यंत भिन्न है, इसके स्वक्षेत्र में भी अवगाहित नहीं हैं, उन्हें भी मानता है कि ये मेरे हैं । खैर, कभी बाह्य पदार्थों को भी भिन्न कहने की आदत बन जाए तो यह शरीररूप ही अपने को मान लेता है, यह ही तो मैं हूँ । शरीर से भिन्न मैं कोई शाश्वत तत्त्व हूँ इस ओर दृष्टि नहीं लगाता है ।
आंतरिक रंग – कदाचित् शरीर से भी न्यारा कुछ सोचने की उमंग आये तो यहाँ तक उमंग रहती है, यहाँ तक ही उसकी जानकारी रहती है कि यह मैं वह हूँ जो बोलता है, सुनता है, विचारता है, प्रेम करता है, कषाय विषय-सुख भोगने वाला जो कुछ है सो ही मैं हूँ । यहाँ तक उसकी बुद्धि रम जाती है लेकिन क्या मैं ये विचार वितर्क कषाय हूँ, मैं मिट जाने वाला नहीं हूँ, जिस तत्त्व के आधार पर ये राग रंगों का स्रोतभूत जो कुछ एक मूल पदार्थ है वह मैं हूँ । मैं रागादिक रूप नहीं हूँ ऐसा ध्यान करना चाहिए । ऐसा भी ध्यान किया और कुछ स्वभाव विकास की ओर भी दृष्टि दी तो यह अटक हो जाती है कि एक शुद्ध जानन देखन है, ज्ञानप्रकाश है वह शुद्ध ज्ञानप्रकाश मैं हूँ । यद्यपि यह स्वभाव के अनुरूप विकास है लेकिन शुद्ध जाननहार तो मैं प्रारंभ से न रहा आया । जो कभी हुआ पहिले न था वह मैं नहीं हूँ । वह मेरा शुद्ध विकास है, उस विकास के अंतर में भी जो स्रोतरूप शाश्वत स्वभाव है वह मैं हूँ ।प्रवर्तमान स्थिति –भैया ! परम विविक्त इस अंतस्तत्त्व की भावना जब तक न भायी जाय यह जीव मुक्ति का पात्र नहीं होता । समझ लीजिए कि हमें शांतिलाभ लेने के लिए कहाँ उपयोग ले जाना उसके विरूद्ध हम कितना बाहर बाहर में फँसे हुए हैं और तिस पर भी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हम बाहरी पदार्थों में उपयोग लगाये रहते हैं और उस ही में अपनी चतुराई समझते हैं, गल्ती-गल्ती रूप से समझ में आये तो भला है, पर गल्ती करके उस ही में अपनी चतुराई मान लेते हैं । तो जो गल्ती को चतुराई माने उसकी गल्ती कभी टूट नहीं सकती है ।
प्रसंग से हटकर नि:संग में आना –भैया, नया किया जाय, जगत में ऐसा ही संग है, ऐसा ही प्रसंग है, यह मोही जीवों से भरा हुआ है, यहाँ जिन्हें देखते हैं वही विषय कषायों में फँसे हुए हैं । उनकी वृत्ति को देखकर खुदमें भी यह भावना जगती है, वासना बनती है कि मैं बनूँ बड़ा, बाह्य पदार्थों का करें संचय, लेकिन लोक में अपना यश लूटें, कीर्ति उत्पन्न करें । लेकिन कीर्ति उत्पन्न करने से उत्पन्न नहीं होती है, बनावट करने से कीर्ति नहीं हुआ करती है और हो भी जाय किसी भी प्रकार तो इस कीर्ति के कारण कीर्तिवान को कुछ लाभ नहीं होता है । लाभ नहीं होता है । लाभ के मायने शांति । इस मनुष्य को, इस जीव को अपने सत् आचार के कारण सत् श्रद्धा और ज्ञान के कारण शांति हो सकती है, बाह्य के संचय पर, बाह्य के उपयोग पर शांति की निर्भरता नहीं है । जैसे-जैसे इसको प्राप्त विषय भी अहितकर लगने लगते हैं, अरुचिकर हो जाते हैं और वैसे ही वैसे इसके अंतस्तत्त्व में दृढ़ता होती जाती है और जैसे ही जैसे इसके शुद्ध ज्ञानप्रकाश में दृढ़ता होती जाती है तो ये सुगमप्राप्त विषय भी अरुचिकर होते जाते हैं ।आत्मा की वृहणशीलता –प्रत्येक पुरुष की यह चाह रहती है कि मैं ऐसा व्यापार करूँ ऐसा काम करूँ जो मजबूत हो और सदा निभता रहे । थोड़ा लाभ हो, अध्रुव लाभ हो इसके बाद फिर उससे भी गये बीते हो जायें ऐसी बात को कोर्इ पसंद नहीं करता है । प्रकृति है बढ़ते रहने व बढ़े हुए रहने की इसकी । इसका नाम ब्रह्म है जो अपने गुणों से बढ़ने का स्वभाव रखता हो उसे ब्रह्म कहते हैं । तब निर्णय करो कि ऐसा कौन-सा काम है जिस कार्य से हमें ऐसी अटूट, अमिट शांति मिले कि जिसकी सीमा भी नहीं और कभी अंत भी नहीं । पराधीन सुख इस शांति को उत्पन्न नहीं कर सकता है । वह तो पराधीन है, माना हुआ है । यह मान्यता ही स्वयं अस्थिर है और जिसका आश्रय पाकर यह सुख होता है वह भी अस्थिर है और ये भोगने वाले परिणमन भी अस्थिर हैं । हम आप इस दुनिया से निवृत्त होकर एक अलौकिक एकत्वस्वरूप अपने आपमें पहुँचे, यह मैं अकेला अपने आपसे ही बात-चीत करके संतुष्ट रह सकूँ, ऐसी स्थिति बन सके तो शांति की पात्रता है ।एकांत में अज्ञानी की ऊब और ज्ञानी की वृत्ति –अज्ञान में तो लोग अकेले रहने में भी घबराहट मानते हैं, चित्त नहीं लगता है, अकेले हैं, किससे बात करें, बिना बात चैन नहीं मिलती है । कोई न भी हो तो भी अपने पास पड़ोस को अपने आपके नजदीक के बनाने का यत्न करते हैं, दिल तो लगा रहे, समय तो कटे पर ऐसा समय कटने में कोई सुविधा का मौलिक अंतर नहीं आता है क्योंकि वे सब पराधीन बातें हैं । जिसके ज्ञानानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व का निर्णय है और उसमें ही संतोष माना है । वे कभी ऊबते नहीं हैं कि हम अकेले रह गये तो अब किससे बातें करें । जब अज्ञान अवस्था आती है तब ही ऊब उत्पन्न होती है कि अब क्या करें । जब राग का तो उदय आये और राग का विषयभूत कोई न मिले तो बैचेनी उत्पन्न होती है । यह विकार का एक स्वभाव है पर जो अंतरज्ञानी पुरुष है, अपने यथार्थ स्वरूप का दर्शी है उसे अकेले में ही आनंद बरषता है, अपने से ही बात करता है, अपने को ही देखता रहता है, और जहाँ अपने को देखने-जानने से च्युत हुआ तो उसकी गिनती संसारी प्राणियों में, बर्हिमुख जीवों में हो गयी । अब तो उसे वैसा ही रंग चाहिए जिस रंग में संसारी जन अपने को सुखी मान सकें । इस अंतस्तत्त्व की तब तक भावना भायें जब तक यह ज्ञायकस्वरूप निज ज्ञानस्वरूप में ही प्रतिष्ठित न हो जाये जिसे कहते हैं ठीक फिट बैठ जाना ।कार्य की प्रयोगसाध्यता –भैया, शांति का हम करें यत्न, विफल न होने पर हम पुन: यत्न न करें तो कैसे हम शांति के स्रोत को पा सकते हैं । एक बालक था, दूसरों को तालाब में तैरते देख आया था ना, सो माँ से बोला माँ री माँ, मुझे भी तैरना सिखा दे । हाँ बेटा तैरना सिखा दूंगी । फिर बोलता है बच्चा, माँ तैरना तो सिखा दे पर पानी को छूने से मुझे डर लगता है, पानी न छूना पड़े और तैरना आ जाय । तो माँ कहती है बेटा यह तो कभी नहीं हो सकता है । भैया, भले ही किताब में पढ़कर तैरने की सब विधियाँ याद कर ले, अब तो हर एक चीज की किताब बन गयी हैं, ऐसे औंधे पानी में पड़ जावो, दोनों हाथों से पानी को इस तरह समेटते हुए चलावो । पानी को अपनी ओर समेटते हुएसे पैर फटकना चाहिए । खूब सिखा दीजिए और अगर 6 महीने का कोर्स हो तो उसको खूब पढ़ा दिया । पढ़ गये बच्चे । अब कहें कि 6 माह बाद तुम्हारी परीक्षा होगी । तालाब के पास चलो-वन-टू-थ्री कहकर पानी में पटक दें तो वे बच्चे तालाब में डूब जायेंगे ।अंत:सिद्धि की अंत:प्रयोगसाध्यता –केवल अक्षरी विद्या से काम नहीं चलता है, जिस कार्य की सिद्धि करना है उसका प्रयोग करो । जैसे रोटी बनाना है, रोज-रोज देखते हैं ऐसे आटा गूँथा, लोई गोल की, बेलने पर बेला, ऐसे रोटी बनायी, ऐसा बीसों वर्षों से देखते चले आ रहे हैं, और किसी दिन आपसे कह दिया जाय कि बनाओ रोटी, अगर आपने कभी रोटी न बनाई होगी तो आप बना नहीं सकते हैं । वह तो प्रयोगसाध्य बात है, गप्पों से काम नहीं चलता । ऐसे ही आत्मा के अनुभव की बात प्रयोगसाध्य है, वचनों से नहीं जानी जाती है,उपदेशों से ही नहीं प्राप्त होती है उसे तो एकांत में बैठकर गुप्त ही, किसी से जताना नहीं है, अपने आप में ही अंतर्भावना करके ज्ञानमात्र निजस्वरूप की भावना भाता रहे तो इसे वह अंतस्तत्व परिचय में आ जायगा । यदि अंतर में यत्न न करें, भीतर में वैसा न घटायें, सुन लिया कि सर्व से न्यारा यह मैं चेतन हूँ, पर जब तक उस चेतन को ऐसा निरखने का उद्यम न करें, हूँ तो मैं ज्ञानमात्र और ये सर्व जड़ हैं आदि जो कुछ सुन रक्खा है उस रूप अपने आपमें अपने को न घटाया, तो आत्मानुभव की चीज नहीं प्राप्त हो सकती है ।
आत्मोपयोग प्रयोग बिना आत्मोपलब्धि का अभाव –दूसरे को देखते रहें कि यह ऐसे ही अंग्रेजी लिखता है, इस तरह की हिंदी लिखता है । बीसों वर्षों तक ऐसे ही देखते रहें तो उस तरह वह अंग्रेजी का पाठ लिखना प्रयोग किये बिना आ तो नहीं जायगा । यह लिखना तो प्रयोगसाध्य बात है । उसे स्वयं प्रयोग में लाये, सीखे तो आ सकती है, ऐसे ही यह जीव विषय-सुखों से निवृत्त होकर अपने आपमें निर्दोष रहने की विधि बनाये तो इसे अपने ज्ञानानंद का निधान यह आत्मप्रभु दिख सकता है परंतु प्रयोग न करे, ऐसा चित्त में न धारे तो उसे दर्शन नहीं होते । इसी बात को इस प्रसंंग में पूज्यपाद स्वामी कह रहे हैं कि सुन भी लिया, बोल भी लिया किंतु उस प्रकार उस विविक्त ज्ञानानंद स्वरूपमात्र अपने आपकी भावना न बनाएँ, वैसा ही अपने आपमें एकाग्रचित्त होकर न निरखें तो उस आत्मतत्त्व की उपलब्धि नहीं हो सकती है । जीव और पुद्गल के स्वरूप को सुनकर तोते की तरह रट लेने से या दूसरे को सुना देने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है । तोते को खूब तो रटाते हैं, चाहे जो कुछ सिखा दो, चाहे णमोकार मंत्र सिखा दो, उसे भी तोते रट लेंगे, पर यह सीख लेने से तोते के हृदय में तो नहीं उतरता है ।
मात्र तोतारटंत से भाव की असिद्धिपर एक दृष्टांत –किसी जगह हलवाई के घर में पिंजड़े में एक तोता रहता था । उसे हलवाई ने सिखा रक्खा था –"इसमें क्या शक"। एक बार कोई विद्वान् ब्राह्मण आया, तोते का रूप, रंग अच्छा था, उसने हलवाई से पूछा कि यह तोता बेचोगे ? बोला हाँ बेचेंगे । कितने में दोगे ? 100 रु. में ! अरे, 100 रु. की इसमें कौन सी बात है ? आठ-आठ आने के तो बाजार में बिकते हैं ! हलवाई ने कहा कि इस तोते से ही पूछ लो कि तुम्हारी 100) कीमत है क्या ? तो ब्राह्मण पूछता है –ऐ तोते ! क्या तुम्हारी 100) कीमत है ? तो तोता बोला "इसमें क्या शक" । उसने तो ठीक वही बोल दिया उसने जो सीखा था । ब्राह्मण ने समझा कि यह तो बड़ा समझदार तोता मालूम होता है, उसने उसे खरीद लिया दो चार दिन बाद ब्राह्मण रामायण लेकर उसे सुनाने बैठ गया, और कहा बोलो तोते राम राम ! तो तोते ने क्या कहा ? इसमें क्या शक । ब्राह्मण ने सोचा कि यह तोता इससे भी बड़ी कोई बात जानता है, तो वह रामचरित सुनाने लगा । तोता बोला इसमें क्या शक । फिर वह ब्राह्मण आत्मा का स्वरूप कहने लगा । सो तोता बोला इसमें क्या शक । फिर ब्राह्मण आत्मब्रह्म का परमार्थस्वरूप बताने लगा तो तोता बोला इसमें क्या शक । अब तो ब्राह्मण को भी शक हो गया कि यह कुछ जानता नहीं है । सो पूछता है – तो क्या तोते मेरे 100 रु. पानी में चले गये ? तो तोता बोला इसमें क्या शक । तो उस तोते को केवल एक ही बात याद थी, हृदय में कुछ उसके उतरा नहीं ।सदामुक्त की आराधना से मुक्ति –इसी तरह जब तक अंतर में यह अंतस्तत्त्व नहीं उतरता है तो सुनकर भी ऐसा लगता है कि यह सुनने की और कहने की बात है । इसकी सुनने से और कहने से लोक-प्रतिष्ठा बढ़ती है, इतनी ही सीमा रहती है । भैया ! कितना ही सुनो, कितना ही बोलो, जब तक अंतर में इस भिन्न आत्मतत्त्व की भावना न भायें तब तक परमार्थभूत शांति प्राप्त नहीं हो सकती है । अत: तत्त्व को सुनने और चर्चित करने से आगे यथार्थ भावनारूप प्रयत्न करना चाहिये । सदामुक्त सहजसिद्ध ज्ञायकस्वरूप की उपासना से ज्ञायकस्वरूप के विलास का विस्तार होता है उसी में सर्वथा मुक्ति प्राप्त होती है । यह अंतस्तत्त्व सदा परस्वरूप से मुक्त है इस कारण यह सदामुक्त है । यह चित्स्वभाव सदा शिवस्वरूप है, कल्याणमय है इस कारण यह सदाशिव है । यह चितत्व परमचिद्विलासस्वरूप कार्यसमयसार का परमार्थ कारण है इस कारण यह कारण समयसार है । इस चैतन्य महाप्रभु की अविचल उपयोगरूप की गर्इ अभेद उपासना मुक्ति का समर्थ कारण है ।