वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 84
From जैनकोष
अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित: ।त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन: ॥84॥
अव्रत व व्रतभाव के परित्याग की आवश्यकता का कारण व क्रम – पूर्व श्लोक में यह कहा गया था कि अव्रतभाव से पाप होता है और व्रतभाव से पुण्य होता है, किंतु मोक्ष अव्रत और व्रत दोनों प्रकार के परिणामों के अभाव से होता है । इस कारण मोक्षाभिलाषी पुरुष को अव्रत भाव और व्रत भाव दोनों का परित्याग करना चाहिए । इस विषय में यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि पाप और पुण्य दोनों को अटपट न छोड़ा जायगा, किसी सिलसिले से छोड़ा जायगा । अव्रतभाव और व्रतभाव इन दोनों को कहीं क्रम भंग से न छोड़ा जायगा उसका क्रम हैं और वह क्रम यही है कि अव्रत का परित्याग करके प्रथम तो व्रतभाव से निष्ठावान, रहे; व्रत भाव का भली प्रकार से पालनहार बने, फिर आत्मा के उत्कृष्ट स्थान को पाकर उन व्रत-परिणामों का भी परित्याग कर देवें ।अव्रत और व्रत भाव के परित्याग के क्रम का विवरण – सबसे पहिले तो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों रूप अशुभ प्रवृत्तियों को छोड़ना चाहिए, फिर अहिंसा आदिक व्रतों के करने रूप शुभ प्रवृत्तियों को भली प्रकार करके, दक्ष होकर अपना लक्ष्य शुद्धोपयोग की ओर रखना चाहिए । जब शुद्धोपयोग की प्रबलता हो जाय, विकल्पों का अभाव हो जाय, विषय कषायों का लेश न रहे ऐसे उत्कृष्ट पद की प्राप्ति हो जाय तब इन व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए ।व्रत में भलाई – व्रत धारण करने के लिए कोई बाट न जोहना चाहिए । जैसे कि यह सोचो कि मेरे को सम्यक्त्व हो जाय तब फिर मैं व्रत धारण करूँगा । 5 पापों को छोड़ने में तो पद माफिेक सदा ही भला है, जिसे सम्यग्दर्शन नहीं हुआ ऐसे पुरुष भी व्रतों को धारण करें तो क्या उसका व्रत धारण करना पाप-वासना से भी अधिक बुरा है । पाप के परिणामों का त्याग करना और व्रत के परिणाम में आना यह तो अव्रत की अपेक्षा लाभकर है ही । हाँ, रही मोक्षमार्ग की बात । मोक्षमार्ग में भी व्रत के परिणाम की ओर आकर्षित होने से सहयोग ही मिलता है । मोक्षमार्ग तब तक प्रकट नहीं होता जब तक जिस स्वरूप से मुक्त होना है और मुक्त होने की स्थिति जैसी कहलाती है उन दोनों तत्त्वों से परिचित न हो जायें । व्रत धारण करना अच्छा है किंतु यहाँ मोक्षमार्ग की बात कही जा रही है कि व्रत ही धारण करते रहना इस ज्ञानी का लक्ष्य नहीं है किंतु अव्रत और व्रत दोनों परिणामों से रहित सहज शांत निजविलास में ही रहने का उसका लक्ष्य है ।असंयम से संयम में पहुँच – संयम मार्गणा के 8 भेद कहे गए हैं । उनमें सबसे पहिले असंयम होता है । असंयम-भाव मिथ्यात्व अवस्था में भी होता है, सम्यक्त्व छूटकर मिथ्यात्व की ओर आना ऐसी सासादन अवस्था में भी होता है, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों के मिश्रणरूप तृतीय गुणस्थान में भी है और सम्यक्त्व हो जाने पर भी जब तक अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है तब तक यह असंयम होता है इस असंयम का परित्याग करके यह जीव संयमासंयम में पहुँचता है जहाँ कुछ संयम है कुछ असंयम है । त्रस जीवों का घात न करने रूप तो संयम है और स्थावर जीवों का घात न छोड़ सकनेरूप असंयम है । इसके ऊपर सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होते हैं ।परिहारविशुद्धि की विशिष्ट संयमरूपता – परिहारविशुद्धि तो एक विशेष बात है, किसी मुनि के हो । किसी के न हो यह जरूरी नहीं है कि परिहारविशुद्धि संयम 6ठें और 7वें गुणस्थान में नियम से हो । जिसके परिहारविशुद्धिनामक ऋद्धि सिद्ध हुई हो उसके परिहारविशुद्धि चारित्र होता है । परिहारविशुद्धि चारित्र उपशमसम्यक्त्व में नहीं होता, परिहारविशुद्धि चारित्र स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के भावों में नहीं होता । यह परिहारविशुद्धि भी एक महान् ऋद्धि है । इस ऋद्धि वाले के मन:पयर्यज्ञान की ऋद्धि नहीं होती है क्योंकि यह स्वयं में एक बड़ी ऋद्धि है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि ऋद्धि की सिद्धिवाले के आहारक शरीर की भी ऋद्धि नहीं होती । यह परिहारविशुद्धि किसी-किसी मुनि के होती है ।सामायिक व छेदोपस्थापना की स्थिति – सर्वसाधारण मार्ग में ऊँची अवस्था में यह सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होता है, इसमें क्षणक्षण के बाद सामायिक और छेदोपस्थापना बदलती रहती है । सामायिक नाम है राग-द्वेष न करके समता-परिणाम बनाये रहने का । जब साधु उस समता परिणाम से जरा भी चिगता है तो फिर अपना उद्योग, अपना यत्न समता परिणाम बनाने का करता है । यही हुई छेदोपस्थापना । ये दोनों क्षण क्षण में चलते रहते हैं, अपनी अपनी पदवी की सीमा में ।यथाख्यात संयम में संयम की परिसमाप्ति – सामयिक व छेदोपस्थापना संयम का भी अभाव होता है जब सूक्ष्म चारित्र प्रकट होता है । जहाँ केवल संज्वलन सूक्ष्म लोभ ही रह गया है और उस लोभ के भी परिहार करने के लिए चारित्र हो रहा है उसे सूक्ष्म-सांपराय चारित्र कहते हैं । यहाँ तक सकषाय जीव है, यहाँ तक व्रत का धारण कहा गया है, यद्यपि 6ठे गुणस्थान से लेकर 10वें गुणस्थान तक बीच में इन व्रतों की तरंगों का भी हीनाधिक भाव होता रहता है । जैसे कि ऊपर के गुणस्थान में यह जीव चलता है तो व्रत संबंधी विकल्प उससे कम होते हैं, लेकिन सर्वथा विकल्पों का मिटना यथाख्यात चारित्र में होता है, यहाँ व्रतभाव का परित्याग हो गया । यों यह जीव असंयम का परिहार करके क्रमश: संयमासंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना और सूक्ष्म-सांपराय चारित्र के पश्चात् यथाख्यात् चारित्र में पहुँचता है ।संयमवृत्ति से उत्कृष्ट स्थिति – इसके पश्चात् जब संसार-अवस्था नहीं रहती है, सिद्धत्व प्रकट हो जाता है तो इन सातों के सातों का अभाव हो जाता है, उस समय संयम, असंयम और संयमासंयम इन तीनों से रहित स्थिति होती है । इस प्रकार के क्रम से यह जीव अव्रत का परित्याग करके व्रतों में परिनिष्ठित होकर फिर व्रतों का भी परित्याग करे, ऐसी शिक्षा इस श्लोक में कही गयी है । जब तक वीतराग अवस्था प्रकट न हो, संकल्प-विकल्प का अभाव न हो तब तक व्रतों का अवलंबन तो रखना चाहिए जिससे अशुभ की ओर प्रवृत्ति न हो सकें पर व्रतों का ग्रहण करके भी इससे उत्कृष्ट स्थिति का लक्ष्य और यत्न बनाये रहना चाहिए । यह क्रम है अव्रतभाव, व्रतभाव और अनुभयभाव के आश्रय के होने का ।व्रतधारण में बहाने की अकरणीयता – कोई जीव स्वच्छंद होकर सम्यक्त्व की चर्चा की आड़ लेकर कहा करे कि अभी सम्यक्त्व पैदा करना है, जब सम्यक्त्व हो जायगा तब व्रत को ग्रहण करने की बात की जायगी, तो ऐसी चर्चा करते-करते जीवन गुजर जाता है । उनसे पूछो कि अभी सम्यक्त्व हुआ या नहीं, सम्यक्त्व हुआ होता तो व्रत ग्रहण करने की उत्सुकता होती और यदि सम्यक्त्व नहीं तो मिथ्यात्व में ही यह संसार लंबा किये जा रहा है ।
व्रत और अव्रतभावों में वर्तमान अंतर – जैसे दो पुरुष किसी गांव के लिये चले और उन दोनों पुरुषों से किसी और साथी का वायदा हो कि हम भी यहाँ से साथ चलेंगे । किसी स्थान पर उन दोनों में से एक पुरुष तो पेड़ के नीचे बैठकर छाया में रहकर अपने साथी की बाट जोह रहा है और दूसरा पुरुष संताप भरी गर्मी में, धूप में बैठकर अपने साथी की बाट जोह रहा हो सो बतावो कि उन दोनों पुरुषों में कौन सा पुरुष विवेकी है ? बाट जोहने का काम वे दोनों कर रहे हैं पर एक पुरुष छाया में बैठा हुआ बाट जोह रहा है और एक पुरुष संताप भरी धूप में खड़ा होकर बाट जोह रहा है, जैसे उन दोनों में अंतर है इसी प्रकार अव्रती और व्रती के भावों में अंतर है । व्रती पुण्य की छाया में रहकर असीम आनंद के पथ में लगने की बाट जोह रहा है और अज्ञानी जीव मोह के संताप में रहकर अपने कल्पित सुख-साधनों की बाट जोह रहा है । अच्छा तो व्रतभाव में रहने वाला है । हमें चाहिए कि अपनी शक्ति को न छिपाकर अव्रतभावों का परित्याग करके व्रतभावों में लगें ।शुभ-अशुभ-भाव के परिहार में क्रम के विस्मरण का अनौचित्य – भैया ! तीसरी जो अवस्था है, जहाँ अव्रत और व्रत दोनों ही भाव नहीं हैं । वह तीसरी अवस्था अव्रतभाव के बाद प्रकट नहीं होती, वह व्रतभाव के बाद प्रकट होती है । दोनों हेय हैं, ऐसा सुनकर मन चलित नहीं करना है कि जब दोनों हेय है तो फिर पुण्य भी हेय है, इस पुण्य को क्यों किया जाय ? इन व्रतों को क्यों किया जाय ? अरे ! जब अव्रत नहीं छूट रहा है, पाप नहीं छूट रहा है ऐसी स्थिति में पुण्य के छोड़ने को भला मान ले तो उसकी क्या गति होगी ? पहिले अव्रतभावों का परित्याग करें और फिर व्रतभावों को ग्रहण करें, व्रतों में वह दक्ष हो जाय, निष्ठित हो जाय फिर शुद्धोपयोग का आलंबन लेकर इन बातों का भी त्याग कर दें । जहाँ व्रतों की ओर उत्साह नहीं है वहाँ उन्नति की आशा करना व्यर्थ है ।
रात्रिभोजन-परिहार का साधारण नियम – भैया ! कुछ थोड़े बहुत नियम तो होने ही चाहियें । छोटे से छोटे नियम की बात कही जा रही है । रात्रि को भोजन करना हिेंसा से भरा हुआ प्रवर्तन है । मक्खी, मच्छर, पतिंगे आदि अनेक जीव भोजन में आ जाते हैं । छिपकली आदि विष भरे जानवर पड़ जाते हैं । कितने ही लोग तो इससे मरण भी कर जाते हैं । और फिर दिन में भी खायें, रात्रि में भी खायें तो कुछ धर्मचिंतन के लिये समय भी अलग रहता है क्या ? भोजन करते रहने की वासना हो तो भी धर्म का प्रवेश नहीं होता है । इसीलिए जिन भावों में यह पद्धति चली आयी है कि सुबह भोजन कर लिया तो उसके बाद 6 घंटे के लिये, 8 घंटे के लिये जैसा समय देखते हैं, बल देखते हैं, आहार का त्याग कर देते हैं । मन में त्याग की बात न समायी हो तो उस त्यागने से क्या लाभ ? कौन चलाता रहता है दिनभर अपना मुँह, लेकिन वासना बसी है तो उसके पाप लगता ही है । सामने से कोई चाटवाला निकल पड़े तो दिल हो ही जाता है; जगह न हो पेट में तो भी थोड़ी बहुत गुञ्न्जाइश तो निकाल ही लेता है, निरंतर आहार की वासना बनी रहे तो उसमें धर्म का प्रवेश नहीं होता । रात्रि का खाना तो कितनी ही दृष्टियों से हानिकारक है । इस समय में कम से कम इतनी तो हरएक कोई निभा सकता है कि पानी और औषधि के सिवाय कोई चीज ग्रहण नहीं करना । बताओ, इसमें कौन सी मुसीबत है ? बीमार हो गए तो औषधि रखी हुई है, प्यास लगे तो पानी रखा हुआ है । और, भी कुछ नियम जैसे बाजार की बनी हुई पूड़ी, साग, पराठे, आदि न खाना । नियम चलने और न चलने की बात तो अपने मन के ढिलाव और दृढ़ता पर निर्भर है ।
व्रतपालन की आवश्यकता और उत्कर्ष विधि – तो असंयम भाव का परित्याग किसी प्रकार करना ही चाहिए । त्यागव्रत निष्फल कभी नहीं जाता । सम्यक्त्व रहित अवस्था में भी व्रत हो तो वह भी यथायोग्य सद्गति का कारण होता है । सम्यक्त्व-सहित व्रत हो तो वह सद्गति के साथ-साथ मोक्षमार्ग का और कर्म-निर्जरा का भी यथापद कार्य कर जाता है । अव्रतों का परित्याग करके व्रतों का पालन करना आवश्यक है और व्रतों में दक्षता पाकर परम पद को पाते हुए व्रतों का भी त्याग करना चाहिए । यह है उत्कृष्ट पाने की विधि ।