वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 88
From जैनकोष
जातिर्देहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भव: ।न मुच्यंते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रह: ॥88॥
जाति के आग्रह में मुक्ति का अभाव – जैसे अव्रत के विकल्प; व्रत के विकल्प और लिंग के अर्थात् साधु भेष के विकल्प मुक्ति में बाधक हैं इस ही प्रकार जाति संबंधी विकल्प भी मुक्ति के बाधक हैं । जाति देह के आश्रित देखी गयी है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये चार प्रकार की जातियाँ हैं । ये देह के आश्रित ही तो हैं । देह से ही तो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिक की कल्पनाएँ होती हैं, मात्र चैतन्यस्वरूप में जातियों की कल्पना नहीं है ये तो जातियाँ देह के आश्रित हैं, देह ही आत्मा का संसार है, इस कारण जो जीव जाति में आग्रह पकड़े हुए हैं कि मैं अमुक जाति का हूँ, मुझे मुक्ति तो नियम से होगी अथवा मेरी जाति से ही मुक्ति है यों जाति में ही आग्रह किए हुए हैं वह भी संसार से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता है ।जातियों के प्रकार और जातिव्यवस्था के पहिले का समय – प्राचीन पद्धति में चार प्रकार की जातियाँ हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ये चार जातियाँ उनके अपने कर्तव्यों के आधार पर बनीं थीं और इन कर्तव्यों को करते रहने से उस ही जाति के उस ही प्रकार के भाव हुआ करते हैं, इस कारण ये चार जातियाँसुदृढ़ हो गयी हैं । इस आर्यखंड में जहाँ हम आप बस रहे हैं और प्राचीन समय में जिसका कि कुछ कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर गुजर गया है यहाँ भोग भूमि थी । भोगभूमि में जीवों को, मनुष्यों को कोई रोजगार, आरंभ नहीं करना पड़ता था । लौकिक सुखिया जीवन था, जहाँ पति-पत्नी स्वछंद विचरते थे । दो दिन में, तीन दिन में जिस समय भूख लगती थी, अल्पाहार था, कल्पवृक्ष उस समय काफी संख्या में थे सो उनका जो इष्ट भोजन था वह उन कल्पवृक्षों से प्राप्त होता था । इसी प्रकार जो कुछ भी शौक के साधन थे, वस्त्र हो, संगीत की चीजें हों, जितने भी शौक के साधन होते हैं वे भी कल्पवृक्ष से प्राप्त हो जाते थे । उनका लोकदृष्टि में बड़ा सुखिया जीवन था । लेकिन समय जैसे गुजरा तैसे ही सुख में कमी आने लगी । उन कमियों के समय 14 मनु उत्पन्न हुए ।भोगभूमि और कर्मभूमि के संधिकाल में मनुओं का अभ्युदय – भैया ! 14 मनु तो अन्य लोग भी मानते हैं । मनु के ही संतान का नाम मनुज है । मनुज नाम मनुष्य का है । उन मनुवों के उस समय जो विडंबनाएँ आती थीं अपने अवधिज्ञानादि बल से सोचसमझकर वे प्रजा को उपदेश करते थे, वे बताते थे कि इस तरह से चलो तो जीवन सुखमय रहेगा । भोगभूमि के समय में सिंह, हिरण, मनुष्य ये सभी रहते थे । डर किसी को किसी से न था । उनमें क्रूरता न थी । वे माँसभक्षी न थे, पर जैसे ही भोगभूमि का अंत हो चला तो सिंह आदिक जानवर गुर्राने लगे, बुरी निगाह से देखने लगे । लोगों को बड़ा भय हुआ, किसी मनु ने उनका भय मिटाया । सूर्यचंद्र ये दिखा न करते थे । वहाँ स्वयं ही इतना बड़ा उजेला रहता था जिस उजेले के कारण सूर्यचंद्र न दिखते थे, अब कल्पवृक्ष का प्रकाश कम हो गया, सूर्यचंद्र दिखने लगे तो इसका ही बड़ा डर हो गया । ये क्या दो गोल-गोल से सिर पर मढ़े हुए हैं, कहीं गिर न जायें, इस डर को मिटाया । उस समय तक संतान जुगलिया होते थे बच्चा और बच्ची, और संतान के होते ही माँ-बाप गुजर जाते थे । माता-पिता के रहते-संते भी वे संतान रहने लगे, उनका यह भी एक बड़ा अचरज था कि यह क्या झमेला हो गया ? ये दो क्या टूट पड़े । कितनी ही विडंबनाएँ आयीं, सबका मनुओं ने निवारण किया ।अंतिम मनु – अंतिम मनु हुए हैं नाभिराज । ये ऋषभदेव के पिता थे, लोग ऐसा कहा करते हैं कि विष्णु की नाभि में से कमल निकला, उसमें पैदा हुए । अर्थ यह था कि नाभि से पैदा हुए । आपको मालूम है कि ऋषभदेव जब सर्वदर्शी हो गए तो उनमें इतना अतिशय हो गया कि समवशरण के चारों ओर बैठे हुए मनुष्य, तिर्यंच, देव, देवियाँ सबको भगवान का मुख दिखता था । परमौदारिक शरीर था, चारों ओर से मुख दिखता था । तब उनकी प्रसिद्धि चर्तुमुख रूप की हुई । चर्तुमुख अरहंत भगवान हुये हैं । साथ ही उस समय एक धर्म की सृष्टि की और भोगभूमि मिटने के बाद कर्मभूमि की नई-नई बातें बतायीं । एक नवीन सृष्टि जैसी बात हुई इसलिये वह सृष्टि ब्रह्मा की कहलाती थी और वे हुए नाभिराजा से उत्पन्न । तो नाभि कोई राजा थे यह बात तो छोड़ दी और नाभि से उत्पन्न हुये यह अर्थ प्रसिद्ध हो गया । खैर, नाभिराज 14वें याने अंतिम कुलकर थे ।अंतिम मनु के काल में तीन जातियों का विभाजन – नाभिराय मनु के समय में खाने-पीने की बहुत बड़ी समस्या सामने आयी, कैसे खायें-पियें । कल्पवृक्ष से सब कुछ मिलना बंद हो गया तो उस समय नाभिराज ने प्रार्थना में आये हुये प्रजाजनों को ऋषभदेव के पास भेजा तो उन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्पी-सेवा―ये सब 6 प्रकार के कर्म बताये । इनसे गुजारा करो, व्यापार खेती से गुजारा करो, शिल्पकला-सेवा से गुजारा करो, लिखने-पढ़ने मुनीमी सभी बातें बतायीं और शासकों के लिए सिपाहियों-रक्षकों को असि, तलवार आदिक हथियारों का भी प्रयोग सिखाया । उस समय तीन वर्णों की स्थापना ऋषभदेव ने की―क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । जो रक्षा का काम करें उन्हें तो क्षत्रिय कहा, उनका असिप्रधान कार्य रहा । जो शिल्प-सेवा करने में चतुर हों ऐसे पुरुष शूद्र कहलाये और मसि, कृषि, वाणिज्य इन कार्यों के करने वाले वैश्य कहलाये । ये तीन प्रकार बहुत समय तक चलते रहे ।भरतचक्री द्वारा ब्राह्मणों की व्यवस्था व आस्था – एक बार भरत चक्रवर्ती ने विवेक जानने के लिए अपने यहाँ आमंत्रण किया और आँगन में कुछ धान बो दिया । अंकुर उत्पन्न हो गये । सब लोग आये, उनमें जो विवेकी पुरुष थे वे धानों के अंकुरों को बचाकर कुछ रास्ता घेरकर आये अच्छे रास्ते से और जो विवेकहीन थे वे उन अंकुरों को कुचलते हुए जल्दी पहुँचने की गरज से, कौन चक्कर काटे, सीधे पहुँच गये । उस समय भरत जी ने उन विवेकी पुरुषों को ब्राह्मण बताया, ये जीव को पहिचानते हैं; ब्रह्म को जानते हैं । ‘ब्रह्म जानातीति ब्राह्मण:’ ज्ञानी कहो, ब्राह्मण कहो, संयमी कहो एक ही अर्थ है, उन्हें ब्राह्मण की संज्ञा दी । शेष तीन तो थे ही । उनमें जो विवेकशाली थे उनको ब्राह्मण ठहराया । उनका बड़ा सत्कार किया । ऐसे बुद्धिमान, ऐसे विवेकशील महाभाग पुरुषों का आदर करना उचित ही था । तब से ये चार जातियाँ अभी तक किसी न किसी रूप में चली आ रही हैं ।
समयनिर्गमन में यथावसर अनेक जातियों का बनावा – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार जातियों में अब धीरे-धीरे विवाह-परंपरा शुरू हो गयी थी । एक धर्मपद्धति रखने के लिये अपने कुटुंबियों में विवाह करने की प्रथा न थी, उसी को कहते हैं गोत्र । जो अपने परिवार के लोग हों चाहे दस, बीस पीढ़ी पुराने हों वे सब अपने कुटुंब के लोग हैं, यह कैसे जानें ? तो यह गोत्र से जाना जाता था । विवाह परंपरा में गोत्र मालूम किया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे कुछ और ऐसे भगत भाईजी उत्पन्न हुये जो अपनी बड़ाई स्थापित करने के लिये कुछ और उपजातियाँ बना बैठे – खंडेलवाल, परवार, जैसवाल, अग्रवाल, गोलालारे, गोलासिंधारे जो किसी गाँव के कारण, किसी समूह के कारण भेद पड़ गया । अब यह भेद का विस्तार बढ़ता गया और उन भेद और जातियों के नाम पर विसंवाद भी बढ़ गया । ये सब फिर और जातियाँ बन गई वैसे तो प्राचीन जातियां 4 ही हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ।जातिकृत आग्रह – अब समय गुजरने के अनुसार कुछ जातियों के व्यक्तियों को अहंकार हो गया । उच्च कुल में हैं, धर्म करने का हमको ही अधिकार है, सो ऐसा हुआ करता होगा । अध्यवसाय बन गया कि वे यह जानने लगे कि मैं अमुक जाति का हूँ । मुझको ही मोक्ष होता है जाति में आग्रह कर बैठे । भले ही यह बात संभव है कि जो उच्च कुल में उत्पन्न हो, उच्च जाति में उत्पन्न हो उसका ही परिणाम ऐसा निर्मल होगा कि जो मुक्ति प्राप्त कर सके । लेकिन इतना होने पर भी जो जातियों में आग्रह कर बैठे उसे मोक्ष नहीं होता है । जैसे वज्रवृषभनाराच संहनन के बिना मुक्ति नहीं मिलती, जिसका शरीर इतना दृढ़ होता है कि वज्र की ही हड्डी, वज्र की ही बैठन और वज्र की ही कीलियाँ हों, इतना सुदृढ़ जो हो वही पुरुष मोक्ष जाता है । ठीक है, किंतु वज्रवृषभनाराच संहननी होकर जो अपने शरीर में आग्रह कर बैठे उसके तो मुक्ति नहीं हो सकती है, यों ही जो उच्च कुल के अभिमानी हैं, आग्रही हैं, इससे ही मुक्ति होती है, ऐसी दृष्टि जो लगाये हैं उनकी कहाँ से मुक्ति होगी, वे तो विकल्पों में ही उलझ गये हैं ।संसाररूचि में संसारमुक्ति की असंभवता – जैसे पूर्व श्लोक में बताया है कि देह के लिंग के, साधुओं के भेष ये मुक्ति के कारण नहीं हैं, देह ही आत्मा का संसार है । इसी प्रकार इस श्लोक में भी यह बताया जा रहा है कि जाति देह के आश्रित है । देह आत्मा का संसार है, जो इस देह में, इस जाति में मुक्ति पाने का आग्रह किए हुये हैं उनको संसार-संकटों से मुक्ति नहीं मिलती है । जातिविषयक आग्रह होना सो तो संसार ही है । संसार की रुचि करके संसार को कैसे छोड़ा जा सकता है । जिसकी जिसमें रुचि है उसका संबंध तो दृढ़ बनेगा, छुटकारा कैसे होगा ॽ जिन्हें संसार-संकटों से छुटकारा पाना है उन हितार्थी जनों को संसारसंकटों से रुचि तो होना ही न चाहिये । जिन्हें देह से मुक्ति चाहिए उन्हें जब देह मात्र का भी विस्मरण हो जाय, अपने इंद्रिय मन विषयक जो भी साधन हैं उन सबका विस्मरण हो जाय, यों कहो कि सब कुछ परतत्त्वों का विस्मरण हो जाय तो इसके ज्ञानभाव विकसित होता है; निर्विकल्प शुद्ध अंतस्तत्त्व की उपलब्धि होती हैं ।उत्प्रेक्षाजाल की अकल्याणरूपता – भैया ! सर्व ही प्रकार के विकल्पजाल छूटें तो आत्मा का कल्याण है । इस प्रसंग में कुछ श्लोकों से यह बात दिखायी जा रही है कि संसार के कष्टों का मूल कारण उत्प्रेक्षा-जाल है अर्थात् कल्पना-समूह है । कल्पनायें ही तो क्लेश हैं । कल्पनाओं बिना क्लेशों का और क्या रूप हो सकता है । किसी भी प्रकार की कल्पना न हो तो वहाँ कोई क्लेश ही नहीं रह सकता है । अब वह कल्पना किन्हीं के कर्तव्यविषयक है, किन्हीं के अव्रतभावविषयक है और किन्हीं के व्रतभाव विषयक भी कल्पनायें हो जाती हैं, किन्हीं के साधुभेषविषयक कल्पनाएँ हो जाती हैं । मैं अमुक हूँ, बाह्य पदार्थों को अपनाकर उस ही रूप अहं का विश्वासी कोई रहते हैं । इस प्रसंग में यह बताया जा रहा है कि किन्हीं को जातिविषयक कल्पना मोह में हुई ।
मोह में जाति का व्यामोह – देखो भैया ! मोह का नाच कि जो जिस गति में उत्पन्न हुआ है वह अपनी जाति को भीतर की श्रद्धा से शेष लोगों से ऊँचा मानता है, यह प्राकृतिक बात हो गयी है । जैसे ब्राह्मण से पूछो तो वह यह विश्वास रखता है कि हम ब्राह्मण ही सर्वोपरि हैं, वैश्यों से पूछो तो वे यही विश्वास रखते हैं कि चतुर और विवेकी उच्च तो हम हैं । इसी प्रकार अन्य से भी पूछो तो यह ही उत्तर मिलता है । और विशेषता में जाओ तो एक धर्म के ही माननहार होने पर भी अग्रवाल, लँबेचू, गोलालारे आदि कितनी ही उपजातियाँ हैं, उनसे पूछो तो जिस जाति में जो पैदा हुए हैं उनको यह विश्वास है कि जाति तो शुद्ध पवित्र एक यह ही मेरी है, ऐसा कुछ प्राकृतिक व्यामोह पड़ा हुआ है । जो जाति में अपना आग्रह बनाए हुये हैं, मैं तो अमुक हूँ उनको बुद्धि में एक अटक आ गयी है इसी कारण वे निष्पक्ष ज्योतिस्वरूप आत्मतत्त्व के दर्शन नहीं कर सकते हैं ।
निर्विकल्पतत्त्व की दृष्टि द्वारा विकल्प परिहार का अनुरोध – जो जीव जाति के आग्रह के परित्यागी हैं उनके ही मुक्ति संभव है । मुक्ति के मायने हैं निर्विकल्प दशा । निर्विकल्प दशा निर्विकल्प होने का ही तो नाम है निर्विकल्पता की प्राप्ति हम विकल्पों का आग्रह करके करलें तो यह कभी हो नहीं सकता है । विकल्पों के आग्रह में विकल्पों की ही संतान बढ़ेगी और निर्विकल्प अंतस्तत्त्व के आग्रह में निर्विकल्पस्वरूपक अनुभव होगा इस कारण हे मुमुक्षु पुरुषो ! सर्व प्रकार की जाति, लिंग, भेष, व्रत, अव्रत, तपस्या, सर्व ही प्रकार के अहंकाररूप विकल्पों को त्यागकर एक इस निर्विकल्प अंतस्तत्त्व में प्रीति करो । इस शुद्ध चैतन्य प्रभु के अवलंबन से ही सहज आनंद का स्वाद आयगा । ये रागादिक भाव तो इस आत्मतत्त्व में हैं ही नहीं; उनकी पकड़ उनका आग्रह तो विह्वलता का ही कारण है । इस कारण समस्तपरतत्त्वों में आग्रह को त्यागकर एक निराग्रह, निर्विकल्प, शुद्ध आत्मस्वरूप की ही सेवा करो ।