वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 92
From जैनकोष
दृष्टभेदो यथा दृष्टिं पंगोरंधे न योजयेत् ।तथा न योजयेद्देहे दृष्टात्मा दृष्टिमात्मन: ॥92॥
ज्ञानी के एक की क्रिया का अन्य में अनारोप – जिसने भेद देखा है ऐसा पुरुष संयोगवाली बात में भी एक की परिणति दूसरे में नहीं लगता है । अंधे पुरुष के कंधे पर बैठकर उसे दिशा बताता जाय कि अब आगे चलो, बायीं ओर मुड़ो, अब दाहिनी ओर मुड़ो, इस तरह वह अंधा पुरुष अच्छी तरह चला जा रहा है । इस प्रसंग में जिसने भेद देखा है वह जानता है कि लंगड़े का काम देखना है और अंधे का काम पैरों से चलना है, यह अंधा देखकर नहीं चल रहा है । ऐसे ही जिन पुरुषों ने आत्मा और शरीर का भेद जाना है वे पुरुष आत्मा की दृष्टि को, आत्मा के जानन को शरीर में नहीं लगाते हैं । भैया ! जैसे कि अज्ञानी जीव किसी भी पर्यायवाले को निरखकर, पशु–पक्षी, मनुष्य आदिक को देखकर यों कहते हैं कि इसने जाना, इसने देखा, ऐसा ज्ञानी जीव विश्वास नहीं करते हैं । वे जानते हैं कि जानन-देखनहार तो इसमें आत्मा है और ये जड़, अचेतन पौद्गलिक स्कंध हैं, ये जानते-देखते नहीं हैं ।संयुक्त दशा में भी ज्ञानी का विवेक – यहाँ यह प्रसंग चल रहा है कि सांसारिक समस्त स्थितियाँ संयोगरूप हैं । केवल एकत्व में, अकेले द्रव्य में संसार नहीं बनता । यह दृश्य भी नहीं बनता है सो ऐसे संयोगवाली अवस्था में भी समझदार पुरुष भ्रम में नहीं पड़ते हैं । अपने को भी वहाँ प्रत्येक द्रव्य में उन-उनके परिणमनों को समझना है । जैसे उस अंधे और लंगड़े के प्रसंग में अंधे को दृष्टिहीन और लंगड़े को दृष्टिवाला विवेकी पुरुष जानता है इसी प्रकार इस अवस्था में भी यह ज्ञानी पुरुष शरीर को चैतन्यरहित और आत्मा को चैतन्यस्वरूप समझता है । वह शरीर में आत्मा की कल्पना नहीं करता है । यह दृष्टांत ज्ञानी और अज्ञानी के विवेक को समझाने के लिए कहा गया है ।अंध-पंगु के दृष्टांत का अन्य विषय – इस दृष्टांत का प्रयोग सम्यक्त्व और चारित्र की सफलता प्रदर्शित करने के लिये भी बताया गया है राजवार्तिक आदि ग्रंथों में । जैसे अंधे और लंगड़े ये दोनों अलग-अलग रहें तो न अंधा चल सकता है और न लंगड़ा चल सकता है । ये दोनों मिल जाय तो काम बन जाता है । जलते हुए जंगल में अंधा और लंगड़ा ये दोनों फँस गए और वे जुदे-जुदे रहें तो वे दोनों ही मर जायेंगे । यदि वे मित्रता कर लें, पंगु अंधे के कंधे पर बैठकर दिशा बताये और वह अंधा चलता जाय तो दोनों बच जाते हैं इसी तरह ज्ञान और चारित्र ये अलग-अलग पड़े रहें, कोई पुरुष ज्ञान-ज्ञान ही कहता रहे, चारित्र न पाले और कोई पुरुष मात्र बाह्य चारित्र ही पालता रहे, छुवाछूत, नहाना-धोना, दया, सेवा सब कुछ तपस्यायें भी करता रहे किंतु वस्तुस्वरूप का ज्ञान न करे तो इससे उन दोनों की सिद्धि नहीं है । जैसे अंधे और लंगड़े मिल जाय तो सिद्धि होती है ऐसे ही ज्ञान और चारित्र एक जगह मिल जायें अर्थात् पुरुष ज्ञानी बने और चारित्रवान बने तो उसे मोक्षमार्ग में सफलता मिलेगी । कितना सुंदर दृष्टांत है एक रत्नत्रय की एकता को बताने के लिये, किंतु उस दृष्टांत का यहाँ प्रयोग तीसरे चौथे पुरुषों की दृष्टि बताने के लिये किया गया है ।अज्ञानी और ज्ञानी की मूल समझ – अपरिचित मूर्खजन लंगड़े की दृष्टि को अंधे में जोड़ देते हैं और विवेकीजन लंगड़े की दृष्टि को लंगड़े में ही समझते हैं, ऐसे ही मोहीजन आत्मा की कला को, ज्ञानदर्शन को जानने-देखने को शरीर में जोड़ते-फिरते हैं, आत्मा की तो उन्हें कुछ खबर ही नहीं है कि कोई विविक्त चैतन्यतत्त्व है किंतु ज्ञानी जीव सभी स्थितियों में आत्मा की दृष्टि को आत्मा में जोड़ते हैं, शरीर में नहीं जोड़ते हैं । इस तरह यहाँ तक भ्राँति की और भ्राँतिरहित स्थितियों की बात कही गयी है स्वतंत्र-स्वतंत्ररूप अब यह बतलायेंगे कि बहिरात्मा पुरुष को कौन सी अवस्थाएँ तो भ्रमरूप लगती हैं और ज्ञानी पुरुष को कौन सी स्थितियाँ भ्रमरूप लगती हैं ।