वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 99
From जैनकोष
इतीदं भावयेन्नित्यमवाचां गोचरं पदम् ।स्वत एव तदाप्नोति यतो नावर्तते पुन: ॥99॥
शुद्ध उपासना का फल – जैसा कि पूर्व के दो श्र्लोक में बताया गया है कि अपने उपयोग को स्वच्छ और परम विकसित करने के लिए भेदरूप से परमात्मा की उपासना करनी चाहिए और अभेदरूप से परमात्मतत्त्व की उपासना करनी चाहिए । इस श्लोक में उसी उपाय का समर्थन करते हैं कि इस ही प्रकार से इन अनिर्वचनीय आत्मतत्त्व की निरंतर भावना करनी चाहिए । इस निजपरमात्मतत्त्व को भी द्रव्य, गुण, पर्याय के विवरण सहित जानना सो भेदरूप जानना है और द्रव्य गुण पर्याय का भेद त्यागकर केवल प्रतिभासस्वरूप को जानना सो अभेद जानना है । यों भेदरूप उपासना से अथवा अभेदरूप उपासना से यह जीव अनिर्वचनीय पद को स्वयमेव प्राप्त होता है ।विषयसुखों में शांति का अलाभ – इस जीव को चाहिए क्या ? शांति ! शांति क्षोभ में नहीं मिलती है, जिस परिणमन में परपदार्थ निमित्त हों अथवा परपदार्थों की ओर दृष्टि हो वे परिणमन शांति के लिए नहीं होते केवल क्षोभ को ही करने वाले होते हैं । परम शांति का पद वह है जिसके बाद फिर यह जीव लौटता नहीं है । विषयसुखों को भोगकर यह जीव परिवर्तन भी किया करता है । एक ही इंद्रिय-सुख में एक ही पद्धति से लग नहीं सकता, ऊब आ जायगी । खाने को सुख किसी को देना हो तो उसे खिलाते ही जावो, मना करे तो भी उसे डालो, जबरदस्ती खिलावो, तुम्हें खाने का ही तो सुख चाहिए, उसे खाते-खाते ऊब आ जायगी, उससे हटना चाहेगा । केवल एक आत्मीय प्रतिभासात्मक आनंद ही ऐसा आनंद है कि जिस आनंद से ऊब नहीं आ सकती । कोई पुरुष प्रथम ही अभ्यासी हो इस ज्ञान योग का तो उसे भी इस ज्ञानतत्त्व में बसते हुए ऊब आती है, पर इस ऊब का कारण ज्ञानमय स्वरूप का अनुभव होना नहीं है, किंतु पूर्व पड़ी हुई कषाय-वासना जो प्रकट हुई है वह कारण है । विषयसुखों में ऊबने का कारण उस ही विषयसुख का अनुभव भी हो जाता है, वासना तो ज्ञानयोग के प्रथमाभ्यासी के भी है, पर जैसे जो विषय का भोग ही ऊब का कारण बन जाता है ऐसा आत्मानुभव की ऊब में कारण आत्मानुभव नहीं है ।उत्कृष्ट पद का निर्देशन – उत्कृष्ट आत्मानुभव का परम पद ऐसा है कि जिसके अनुभव के बाद फिर यह जीव लौटता नहीं है । ऐसा उत्कृष्ट पद सिद्ध पद है, अरहंत अवस्था है जिसमें निर्दोषता की प्राप्ति के बाद फिर कभी उसमें दोषता नहीं आती । कुछ सिद्धांत हैं ऐसे जो बैकुंठ के बाद फिर संसार में जन्म लेना मानते हैं । उस सिद्धांत में यह माना गया है कि रागद्वेष का मूल में सर्वथा अभाव हुआ ही नहीं करता है, रागद्वेष दूर हो गये, सर्वज्ञात भी हो गए पर उस जीव में किसी समय रागद्वेष उठ सकते हैं और वे बैकुंठ से गिर जाते हैं । विमानों से ऊपर जितने देवों के स्थान हैं वे बैकुंठ माने जा सकते हैं । नव ग्रेवेयक, यहाँ तक तो मिथ्यादृष्टि भी उत्पन्न हो जाते हैं । नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर इनमें यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं लेकिन वे भी तो वहाँ से चय करके इस मनुष्यलोक में आया करते हैं । लोक का जो नक्शा है उसमें कंठ के स्थान पर जो रचना है उसे बैकुंठ कहते हैं । बैकुंठ और ग्रेवेयक दोनों का एक ही अर्थ है । ग्रीवा का भी नाम कंठ है, जिससे ग्रेवेयक शब्द बना और इस कंठ का नाम कंठ है ही । वह परमपद नहीं है । उत्कृष्ट पद वही है जहाँ से पुनर्जन्म न हो ।
मुक्तिविषयक एक जिज्ञासा व समाधान – इस प्रसंग में एक शंका प्राय: हो जाती है कि लोक में से जो जीव मुक्त हुए हैं वे तो लौटकर आते नहीं और मुक्ति का होना बराबर जारी बना रहता है तो कोई समय ऐसा आ जाना चाहिए कि जब संसार खाली हो जाय । क्योंकि मुक्ति में पहुँचे हुए लौटकर आते नहीं और मुक्ति का होना बराबर जारी चलता है तो वह समय क्यों न आ जायगा कि जब संसार में कोई जीव न रहेगा ? इसके समाधान में पहला प्रमाण तो यह है कि अब तक संसार खाली क्यों न हो गया ? क्योंकि अबसे पहिले अनंतकाल व्यतीत हुआ है, काल पर दृष्टि दो तो पता पड़ेगा, सीमारहित काल चला आया है । मुक्त होते-होते अबसे भी कितने ही काल पहिले खाली हो जाना चाहिए था । दूसरी बात यह है कि जीवराशी अक्षयानंत मानी गयी है । अनंत 9 प्रकार के होते हैं ― जघंययुक्तानंत, मध्यमयुक्तानंत, उत्कृष्टयुक्तानंत , जघंयपरीतानंत, मध्यमपरीतानंत, उत्कृष्टपरीतानंत, जघंयअनंतानंत, मध्यमअनंतानंत और उत्कृष्टअनंतानंत । यह जीवराशी अक्षयानंत है । अनंत में भी अनंत जीव मोक्ष चले जायें तब भी अनंत रहें ऐसी राशि को अक्षयानंत कहते हैं । इस राशि का जब तक अनुमानरूप से भी पता न चलेगा कि ये अक्षयानंत होते हैं जब तक इस जिज्ञासा का समाधान भली प्रकार नहीं हो सकता है । एक निगोद के शरीर में अनंतानंत जीव बसा करते हैं, अब तक अनंतकाल में जितने भी सिद्ध हुए हैं वे सब एक शरीर में बसे हुए निगोदोंप्रमाण भी नहीं हो सकते ।
निर्वाण के बाद पुनर्भव का अकारण – जो जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित हो गए हैं, कर्मबंधन का कुछ कारण नहीं रहा, तो कर्मों के लिए निमित्तभूत कषायभाव न मिले तो कर्म बँध कैसे जायेंगे ? एक बार मुक्त होने पर यह जीव लौटता नहीं है । यह संसार तो अनंतानंत अक्षयानंत जीवों से भरा हुआ है । यह संसार खाली होना है तो इसकी ओर दृष्टि क्यों होती है कि संसार बनाने के लिए मोक्ष से लौटने का समर्थन किया जाय या आवश्यक समझा जाय ! यह अभेद आत्मानुभव का एक निरुपम उपाय है जिसके बल से भव-भव के संचित कर्मों का विनाश करके यह जीव सर्वथा शुद्ध हो जाता है । परमकल्याण उस अनाकुलता के पद में ही है ।
क्लेश के साधनों में अज्ञानी की आसक्ति – भैया ! आकुलता के जितने साधन हैं उन साधनों से कुछ हित नहीं है । किससे संबंध बढ़ाया जाय, किसको चित्त में बसाया जाय कि अपने को शांति मिले, ऐसा कुछ निर्णय तो बनाओ और प्रयोग करके देखलो । ये संसारी जीव मोह में दुःखी भी होते जाते और उस मोह को छोड़ भी नहीं पाते । कोई एक बूढ़े बाबा अपने घर के नाती-पोतों से सताये जाने के कारण दुःखी होकर रो रहे थे । सड़क से एक सन्यासी जी निकले । रोने का कारण पूछा-तो उसने बताया कि घर के नाती पोते हमें पीटते हैं । तो सन्यासी ने कहा कि हम एक उपाय बतायें, सारा दुःख मिट जायगा । इस बूढ़े ने सोचा कि सन्यासी जी महाराज जरूर ऐसा कोई मंत्र-तंत्र कर देंगे तो ये नाती-पोते हमारी हू हूजूरी में रहा करेंगे । सो कहा – हाँ, सन्यासी जी कर दो अपना तंत्र-मंत्र । तो सन्यासी ने कहा― तुम अपना घर छोड़कर हमारे संग हो जावो । तो बाबाजी कहते हैं – सन्यासी जी, चाहे वे नाती-पोते हमें मारे, पीटें, पर वे हमारे नाती ही कहलायेंगे और हम उनके बाबा ही कहलायेंगे । तुम कौन आ गये बीच में दलाली करने । तो मोह में दुःखी भी होते जाते और मोह करना ही उस दुःख के मेटने का इलाज भी समझते जाते । कितनी यह अज्ञानता की बुद्धि है ।यथार्थ श्रद्धा का प्रसाद – भैया ! नहीं मिट सकता है क्लेश, नहीं मिट सकता है राग, पर ज्ञानप्रकाश तो यथार्थ रहे कि यह कुमार्ग है और यह सुमार्ग है । कोई मेरे खिलाफ कहता है, इसे मेरे मन के माफिक कहना चाहिए । यह मैं उपयोग अपने ज्ञानस्वभाव के अनुकूल रह पाता हूँ अथवा नहीं, इस ओर दृष्टि देना चाहिए, एतदर्थ चेतन-अचेतन परिग्रहों में हम आस्था न रखें कि ये मेरे सुख के कारण हैं, सबसे पहली बात यह है यदि उन चेतन-अचेतन पदार्थों में अपने लिए सुख की आस्था रखें, जो बात अनहोनी है उसके प्रति होने की कल्पना करें तो वहाँ कष्ट अवश्यंभावी है । अनहोनी को अनहोनी समझें और होनी को होनी समझें तो कोई कष्ट नहीं है । मैं आत्मपदार्थ अपने ही परिणामों से उत्पन्न होता हूँ सदैव उस ही में रहूँगा, मैं किसी अन्य पदार्थ के परिणमन से उत्पन्न नहीं हो सकता, अन्य जाति के पदार्थों से तो उत्पन्न ही क्या होऊँगा ? जो अनहोनी है वह सदा अनहोनी रहती है, कोई पदार्थ दूसरे पदार्थ के परिणमनरूप नहीं हो सकता है अन्य पदार्थ से मेरा सुख परिणमन नहीं होता । इस परमपद की प्राप्ति के लिए प्रथम तो यह आवश्यक है कि हम परपदार्थों में सुख की आस्था न बनाएँ । परमात्मतत्त्व की ओर हमारी दृष्टि हो, जो निर्दोष सर्वज्ञ परमात्मा हुए हैं उनके गुणों में अनुराग हो तो इसे शांति होगी ।जो होता है वह भले के लिये – भैया ! जो होता हो होने दो, जो होता है भले के लिए ही होता है, सत्त्व रखने के लिए ही होता है । होने को था सो हो गया यह मेरे भले के लिए ही है, मेरे बुरे के लिए कुछ भी नहीं होता । एक बादशाह और मंत्री थे, वे दोनों जंगल में घूमने जा रहे थे । जंगल में भटक गए, अपना मन रमाने के लिये परस्पर में कुछ वार्ता करने लगे । बादशाह था 6 अंगुली का जिसे छिंगा कहते हैं । बादशाह ने पूछा मंत्री जी, हम 6 अंगुलिवे हुए हैं सो यह कैसा है ? मंत्री बोला – महाराज, यह भी भले के लिए है । उस मंत्री को आदत थी हर बात में वह यह कहे कि यह भी भले के लिए है । बादशाह को गुस्सा आया कि मैं तो छिंगा हूँ और यह बोलता है कि यह भी भले के लिए है । सो उसने मंत्री को कुएँ में ढकेल दिया और वह बादशाह आगे बढ़ गया । दूसरे देश के राजा के यहाँ नरमेध यज्ञ हो रहा था जिसमें एक बड़े सुंदर हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को होमने की जरूरत थी ऐसा कोई पाप-यज्ञ था, बुद्धि ही तो है जिस ओर जिसकी लग जाय । राजा ने कुछ पंडो को छोड़ दिया कि ऐसे पुरुष को कहीं से पकड़कर लावो । उन पंडों को यह बादशाह ही दिख गया – बड़ा सुंदर हृष्ट-पुष्ट वह था ही । सो उसे ठोक-पीटकर पकड़कर ले गए और एक खूँटे से बाँध दिया । जब यज्ञ में वह बादशाह होमा ही जाने वाला था कि एक पंडे ने देख लिया कि उसके तो 6 अंगुलियाँ हैं एक हाथ में, सो कहा कि इसे मत होमो, नहीं तो यज्ञ खराब हो जायगा ! उसे डंडों से मारकर भगा दिया ।भले के लिए होनी का पुन: समर्थन – अब बादशाह बड़ा खुश हो रहा है कि एक हाथ में 6 अंगुली होने के कारण आज मैं बच गया, नहीं तो आज प्राण चले जाते । साथ ही उसने सोचा कि मंत्री जी ठीक कहता था कि 6 अंगुलियाअंगुलियाँ हैं तो यह भी भले के लिए है । वह खुश होता हुआ उसी जंगल में आया जहाँ मंत्री को कुएँ में ढकेल दिया था । झट कुएँ के पास आकर मंत्री को निकाला और सारा किस्सा कह सुनाया । कहा – मंत्री तुम ठीक कहते थे कि 6 अंगुलियाँ हैं सो यह भले के लिये हैं, यदि 6 अंगुलियाँ न होतीं तो आज मेरे प्राण न बचते, पर मंत्री ! यह तो बताओ कि मैंने जो तुम्हें कुएँ में ढकेल दिया वह कैसा ? तो मंत्री बोला महाराज ! वह भी भले के लिए ही हुआ । पूछा कि इसमें कैसा भला ? सो मंत्री ने कहा – महाराज ! यदि मैं कुएँ में न होता तो मैं भी आपके संग में पकड़ा जाता । सो आप तो बच जाते छिंगा होने के कारण और मैं ही आग में होमा जाता, मैं कुएँ में गिर गया इसलिए बच गया । क्या है, जो कुछ होता है उसके ज्ञाता-दृष्टा रहो । उस वस्तु की सत्ता के लिए वस्तु का परिणमन चल रहा है उतना ही देखो । ऐसी शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा की स्थिति हो तो वहाँ शुद्ध ध्यान प्रकट होता है, जिसके प्रताप से शाश्वत परमानंद प्राप्त होता है ।