वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 1
From जैनकोष
स्वात्माभिमुखसंवित्तिलक्षणं श्रुतचक्षुषा।
पश्यन्पश्यामि देव त्वां केवलज्ञानचक्षुणा।।1।।
समाधिभाव का देवत्व– समाधि कहते हैं सम्यक्प्रकार से आधीयमान अर्थात् रखे जाने वाले, संभाल कर प्रवर्तने वाले भाव को।अपने आपमें अपना उपयोग ऐसा संभाला हुआ रहे कि अपने आपमें ही समाया हुआ हो, जिसमें किसी भी प्रकार का उद्वेग नहीं, क्षोभ नहीं, बाहर का झाँकना नहीं, अपने आपमें रत समाया हुआ जो परिणाम है उसे समाधि कहते हैं।और समाधि ही भगवान है, समाधि ही देव है।तो चाहे समाधि की भक्ति कहो, वीतराग की भक्ति, परमात्मा की भक्ति कहो, इसका नाम है समाधिभक्ति।हे देव ! मैं आपको श्रुतज्ञान रूपी नेत्र से देखता हुआ अब केवल ज्ञानरूपी नेत्र से देखता हूं, यही भगवान की भक्ति करने की विधि है।बाहर के भगवान की बात नहीं कही जा रही, स्थापित मूर्ति की बात नहीं कह रहे, किंतु भगवत् स्वरूप के दर्शन की विधि यह है।पहिले भगवान का निर्णय करिये कि भगवान क्या है? अपने आत्मा के अभिमुख सम्वेदन होना, ज्ञान होना, बस ऐसी स्थिति जहां है, उसी को भगवान कहते हैं, वही देव है।हम प्रभु को निरखें तो इस रूप में निरखें कि प्रभु क्या है? प्रभु का जो निज आत्मतत्त्व है ज्ञायकभाव आनंदस्वरूप, उस स्वरूप की ओर अभिमुख जो सम्वेदन है, ज्ञान है, जिनकी ऐसी समजानकारी है कि जहां उतार-चढ़ाव नहीं, जहां रागद्वेष नहीं, जहां हीनाधिकता नहीं, केवल एक ज्ञानस्वरूप निज आत्मतत्त्व के अभिमुख सम्वेदन चल रहा है, बस वही देव है।
देवदर्शनविधान- हे देव ! तुमको मैं पहिले तो श्रुतज्ञान नेत्रों से ही देख सकता हूं।यदि यह श्रुत (शास्त्र) न होता, संतपरंपराओं से भगवान के मूल आधार से चला आया हुआ यह ज्ञान न मिलता तो भगवान को मैं कैसे समझ पाता? तो सबसे पहिले तो श्रुतज्ञानरूपी नेत्रों से आपको देख रहा हूं और श्रुतज्ञानरूपी नेत्रों से आपको देख रहा, इस देख रहे के बीच ही जब भगवान का और मेरा साक्षात्कार होता है, उस काल में परोक्षता न रहने से एक साक्षात् दर्शन अनुभव होने के समय में अब मैं केवल (सिर्फ) ज्ञानरूपी नेत्रों से देख रहा हूं।उस ही स्वरूप के निरंतर देखते रहने का नाम है समाधिभाव।जब कहा जाए कि इसकी आयु अतिनिकट है, मरण होने में एक आध दिन और शेष रह गया है तो इसका समाधिमरण करावो।तो समाधिमरण का अर्थ केवल यह नहीं है कि पानी वगैरह सब कुछ छुड़वाकर इसको ऐसे ही लिटाये रहो।समाधि का अर्थ है ज्ञानानंदस्वरूप निज आत्मा के अभिमुख इसका उपयोग रहे- ऐसी स्थिति इसकी बना दी जाए, यह है समाधिमरण कराने की बात और यही है उस आत्मा का आदर।
समाधिभाव के यत्न की आदेयता और परिजनों द्वारा वास्तविक आदर- जिस जीव के साथ यह 10-20-50 वर्ष का जीवन गुजरा, जिस जीव से बड़ा रागस्नेह रखा, जिसे अपना मानकर बड़े संतोष, विश्राम और तृप्ति से रहे, उस जीव का आदर करना चाहिए।अब मरण समय में कि जिस प्रकार बने, इस जीव को मुझमें भी मोह न हो।सब परिजनों को ऐसा सोचना चाहिए कि अब इस जीव को मुझ तक में भी मोह का भाव न आये।और इसका ज्ञान अपने आपके आत्मा के स्वरूप की ओर बना रहे- ऐसी भावना बनायें और ऐसे उपदेशकों को ला-लाकर बैठा लें, ऐसा यत्न करायें तो यह कहलाएगा अपने परिवार के जीव का सच्चा आदर करना और समाधिमरण कराना।मरण समय में प्राय:कर जीवों को कुछ न कुछ कष्ट आता है राग का।किस प्रकार की कब कैसी वेदना आ जाए तो मरण समय में प्राय: ऐसा हुआ करता है।उस समय उन उपसर्गों को सह सके, उन व्याधियों को सह सके, इस प्रकार का अपना ध्यान और उपयोग बनाना चाहिए।
एकमात्र समाधिभाव की शरण्यता- इस जीव का शरण केवल समाधिभाव है और यह समाधिभाव मरण के समय ही किया जाए, सो बात नहीं, प्रति समय किया जाए; क्योंकि सब जीवों का प्रतिसमय मरण हो रहा है।जैसे जो आज का मेरा दिन गुजरा, वह आज के दिन का मेरा मरण हो गया कि नहीं? लोग कहते हैं कि अब हमारी उम्र 50 वर्ष की हो गई तो हम 50 वर्ष मर गए कि नहीं? मानों किसी की कुल आयु 60 वर्ष की ही है और उसके 50 वर्ष व्यतीत हो गए तो 50 वर्ष तो वह मर गया।केवल 10 वर्ष उसके और शेष रह गए।तो इस जीव का जो क्षण प्रतिक्षण गुजर रहा है, वह उसका मरण है।यह तो है समय की अपेक्षा मरण और विकल्प, विषय, कषाय, शल्य, बाह्यपदार्थों की दृष्टि जो हो रही है, यह हो रहा है भावमरण।तो ऐसे इस मरण के समय समाधिभाव का आदर करना चाहिए।हम आपको एक समाधि ही शरण है।
दूसरों की दृष्टि में इज्जत चाहने का असमाधिभाव- समाधि से विपरीत अन्य भाव जैसे कि अनेक मनुष्य सोचते हैं कि समाज में अगर इज्जत से जिये तो वह जीना है।और उनकी वह इज्जत क्या? दूसरे लोगों की दृष्टि में हम इज्जत से जियें, इसका अर्थ यह है कि दूसरे लोग हमको कुछ अच्छा मानें और दूसरों में हम बड़े कहलायें।दूसरे सब लोग मान जाएँ कि हाँ, यह हैं नेता, यह हैं बड़े अधिकारी।इनके हाथ में बडी-बडी ताकतें हैं।बस ऐसा कुछ लोग कह दें, मान जायें, इसके मायने हैं दुनिया में इज्जत से जीना।लेकिन जो लोगों की निगाह में इज्जत से जीना चाहता है, उस पर मिथ्यात्व ही तो लदा हुआ है।ये लोग मुझे समझें तो मेरा सुख है।मेरा हित हो तब तो मैं सचमुच में कुछ हूं- ऐसी वासना में इस जीव ने आपके स्वरूप की सुधि बिलकुल खो दी है।
दूसरों को अनुकूल कर सकने की अशक्यता- और भी देखिये कि दूसरे लोग ये सब भिन्न पदार्थ हैं और साथ ही ये हैं चेतन।इनके लगे हैं विषय कषाय, इनमें बसी है खुदगर्जी, सो इनको मानना, इनको अनुकूल करना, यह तो जिंदा मेंढकों को तौलने की तरह है।बहुत से मेंढक जहां उछल-कूद रहे हों, वहां कोई सोचे कि मैं एक किलो जिंदा मेंढक तौल लूँ तो वह तौल नहीं सकता।कुछ मेंढक तराजू पर वह रखेगा तो कुछ मेंढक उछल जायेंगे अथवा तराजू पर ही उछलते-फुदकते रहेंगे।उनकी सही तौल करना कठिन है।इसी तरह इन चेतनों को अनुकूल बनाना, इनको मनाना कठिन है।
खुदगर्जी से शरण में आने वालों के प्रति मोहियों का भ्रमवश मोह- बड़़े-बड़़े दुनिया के नेता, अधिकारियों के प्रति भी यदि कुछ लोग अनुकूल बनते हैं तो वे अपने स्वार्थ, अपने किसी प्रयोजन के कारण बनते हैं।जब किसी छोटे बच्चे को कोई शरण और जगह नहीं दिखती, तो वह अपने पापा से चिपटकर बैठता है और यह पापा (पापस्वरूप) मानता हैं कि यह बच्चा मुझसे बड़ा प्रेम करता है, यह बड़ा प्यारा है और वहां वह लड़का प्यार से नहीं आया पापा के पास।उस बेचारे को यही शरण जँच रहा है कि यही मेरी रक्षा है और वह पप्पा पापस्वरूप बनकर मानता है कि यह बच्चा मुझसे बड़ा स्नेह करता है।तो बड़े से बड़े दुनिया के नेता और अधिकारी के प्रति भी अगर कोई कुछ अनुकूल बनता है तो उससे प्रेम से अनुकूल नहीं बनता, किंतु वह खुदगर्ज है, जिससे प्रेरित होकर वह चेष्टा करता है।तो दुनिया की निगाह में हम इज्जत वाले बनें, इस भाव से प्रेरित होकर अपने स्वरूप से चिग-चिगकर बाहर में कितने विकल्प किया करते हैं? यह है समाधि का उल्टा भाव।
समाधि के अनुकूल और प्रतिकूल भाव का विवरण- अब देखिए कि समाधि के अनुकूल भाव क्या होता है? मैं अपनी निगाह में इज्जत वाला बन जाऊँ, दुनिया मुझे इज्जत वाला समझे या न समझे, उससे मुझे कुछ प्रयोजन नहीं, किंतु मैं तो जचूँ अपने आपके लिए कि मैं ठीक जिंदगी से जी रहा हूं, मैं अपने आपमें अपना ठीक काम कर रहा हूं, वह है खुद का जीना।और वह है क्या? समाधिभाव।जरा सा बड़प्पन मानकर थोड़ी थोड़ी बात में गुस्सा आ जाना और गुस्सा लाकर साथ ही यह भी समझ बनाते हैं कि मैं बिलकुल ठीक गुस्सा कर रहा हूं।आखिर इसको यों करना चाहिए, इसकी गलती है, इसकी असभ्यता है, इसको दंड दूं, इस पर गुस्सा करूँ तो मैं बड़ी समझदारी कर रहा हूं।यद्यपि गृहस्थी में कुछ पद ऐसे होते हैं कि दंड देना चाहिए न दें तो उस पर अन्याय है।तो यह एक कर्तव्य की बात है, लेकिन चित्त में ऐसा भ्रम होना कि इस पर मेरा अधिकार है, यह ही मेरा सब कुछ है, इससे ही मेरा बड़प्पन है, इससे ही मेरी जिंदगी है और फिर उनकी कोई प्रतिकूलता होने पर क्रोध आए तो यह समाधि से बिलकुल विपरीत भाव है।
पात्रों के प्रति ज्ञानियों का बर्ताव- जैसे साधु संग में जो आचार्य होता है, वह अनेक मुनियों को शिक्षा और दंड भी देता है और क्रोध भी करता है, लेकिन उनके पीछे नहीं पड़ता है।वे शिष्यमुनि विनयपूर्वक अपने कल्याण की चाह से निवेदन करते हैं कि हे महाराज !आप ही शरण हो।तो इतनी उनकी जिज्ञासा समझते हैं, तब आचार्य उनको कृपा करके दंड आदिक देते हैं।पर मान न मान, मैं तेरा महिमान- यह प्रवृत्ति आचार्यों की नहीं होती कि जबरदस्ती 7 मुनिओं को संग में कर ही लें।लोग कहेंगे कि यह सप्तऋषि संग है।उनमें कोई भागने लगे तो मनायें, हमारे संग में कमी न हो जाए, इसलिए उनको मनाते फिरें अथवा उनको इसीलिए प्रसन्न रखने की फिकर में रहें- ऐसा वे आचार्यजन नहीं किया करते।हाँ, कोई मुनि कई बार कहे कि हे महाराज ! हम अब इस संसार से बहुत ऊब गए हैं, मुझे अब संसार की किसी भी चीज की चाह नहीं रही, आप हमें अपनी शरण में लीजिए।तब वे आचार्य करूणा करके उनको शिक्षा दीक्षा और दंडादि देते हैं।यह बात तो है साधुजनों की, लेकिन जैसा साधुजन करते हैं, परजीव के प्रति वही विधि तो किसी न किसी अंश में गृहस्थों की होनी चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्व की पद्धति तो एक है।साधु का जीवन और है, गृहस्थ का जीवन और है; मगर साधु की और गृहस्थ की आदत एक है।
ज्ञानी गृहस्थ और साधुजनों की पर के प्रति निवृत्तिपरता की पद्धति में समानता- साधु अपने समागम में, प्राप्त चेतन अचेतन पदार्थों में ममत्व नहीं रखते।देखो साधुजन पिछी, कमंडल, पुस्तक के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं रखते।चेतन हैं शिष्यजन।उनके समागम में वे आचार्य रहते हैं, फिर भी उनसे उदास और निवृत्त रहते हैं और उनकी जिज्ञासा को निरखकर उनकी विशुद्ध भावना निरखकर उनसे प्रीति भी करते हैं तथा दंड भी देते हैं- ऐसे ही गृहस्थजन भी जो उनको समागम प्राप्त हैं, जैसे खेत, मकान, धन, धान्य, दासी, दास, बर्तन, जेवर, परिजन आदिक।तो गृहस्थ इनमें रहकर भी इनसे निवृत्त रहें, उदासीन भाव से रहें, उन सबके प्रति अपना यह ज्ञान जागृत रखें कि मैं तो केवल इतना ही ‘मैं’ हूं।मेरा तो केवल अपने आपका गुणपर्याय है, यह तो प्रतीति रखें।और वे परिजन धार्मिक हैं, वे चाहते हैं कि मैं भी धर्ममार्ग में लगता रहूं, ऐसा समझकर गृहस्थी के योग्य कर्तव्य निभाकर अपने घर के बड़े के प्रति एक यह भाव बनायें कि मेरे उद्धार के लिए आप शरण हैं।तो अंतर में निवृत्ति रखते हुए वे परिजन से स्नेह करते हैं।यदि घर के उस बड़े के कहने में उसके पुत्रादिक नहीं हैं, विपरीत मार्ग में चलते हैं तो फिर वह उनके पीछे क्यों हैरान हो? मगर मोही गृहस्थ तो मान न मान, मैं तेरा महिमान बनकर रहता है।उस गृहस्थ के घर के लड़के, लोग चाहे उससे बिलकुल विपरीत चलें, कष्ट भी दें, फिर भी वह बाप उन्हें अपना मानता है।तो उस गृहस्थी का वह जीवन किस काम का?
हार्दिक विनय तक सुधार की पात्रता- गृहस्थ का कोई पुत्रकुछ समझ सकने योग्य है, अच्छा बनने का पात्र है।तो मानों आज वह पुत्र विपरीत मार्ग पर है तो वह कभी अच्छा भी हो सकता है।एक सेठ का लड़का वेश्यागामी था।सेठ के एक मित्र ने कहा कि आपका लड़का वेश्यागामी है।सेठ ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता।मित्र ने कहा कि चलो, हम चलकर दिखायेंगे।वह सेठ को लेकर चल दिया।उसने वेश्या के घर से कुछ दूर खड़ा होकर दिखा दिया कि वह देखो, वेश्या के घर पर अपना लड़का।सेठ ने भी देख लिया।उस समय उस सेठ के लड़के ने अपने पिता को देख लिया और तब वह लड़का इतना शर्मा गया कि अपने हाथ की अँगुलियों से अपने नेत्र बंद कर लिए और तुरंत घर वापिस लौट आया।सेठ भी घर लौट आया।मार्ग में सेठ के मित्र ने कहा कि देखो मैं कहता था ना कि तुम्हारा लड़का बिगड़ गया।तो सेठ बोला कि अभी हमारा लड़का बिगड़ा नहीं।वाह कैसे नहीं बिगड़ा? हमने तो आपको वेश्या के घर जाते दिखा दिया।तो सेठ बोला कि अभी हमारे बेटे में आन है।बाद में सेठ ने उस बेटे को बुलाकर कुछ समझाया तो वह बेटा पहिले तो कुछ लज्जित सा हुआ और बाद में प्रतिज्ञा की कि आज से मेरा जीवनभर के लिए उस काम का त्याग है।तो यों ही समझिये कि जब तक शिष्य में आन है, तब तक आचार्यजन उसे अपने पास रखते हैं, उसे शिक्षा, दीक्षा, दंड आदि देते हैं।नहीं तो आन न रहने पर आचार्यजन अपने शिष्यों के पीछे नहीं पड़ते।
ज्ञानी साधु श्रावकों में निवृत्तिपरता की प्रकृति- भैया ! चाहे गृहस्थ हो या चाहे साधु, सम्यग्दृष्टियों की प्रकृति निवृत्तिपरक होती है।फर्क पड़ जाता है केवल समागम से।साधु है निर्ग्रंथ तो उसकी और तरह के स्नेह, राग और प्रवृत्तियाँ होती हैं।और गृहस्थ के हैं बहुत सी खटपटें तो उसकी और तरह के स्नेह, राम और प्रवृत्तियां होती है परिग्रह से निवृत्त रहने की भावना और अपने आत्मा के अभिमुख उपयोग लगाये रहने की याद गृहस्थ के भी बराबर रहती है, जो कि सम्यग्दृष्टि है।और इस वातावरण के द्वार से देखो तो साधु संतों को अपनी समता बनाये रखने में कठिनाई नहीं पड़ती, क्योंकि न दुकान है, न रोजिगार, न संबंध, न नाते-रिश्ते, न कोई भार।पक्षी की तरह फिरते हैं।जैसे पक्षी जब तक मन लगा तो बैठा है, मन में आया तो फुर्र से उड़ गया, चल दिया, इसी तरह जब तक परिणाम लग रहा है ठीक, तब तक रह रहे हैं, मन आया तो चल दिया।यों पक्षीवत् जिनका विहार है और जैसे पक्षी कहीं एक ही जगह नहीं रह जाता, उसकी आदत में एक जगह रहना नहीं है, वह उड़कर जायेगा कहीं न कहीं और फिर लौटकर चाहे आए; इसी तरह का जिन साधुसंतों का स्वतंत्र विहार है, उन्हें समतापरिणाम रखने में कठिनाई नहीं पड़ती।मगर गृहस्थों का तो बड़ा उपसर्ग है।साधुजन 22 परिषह जीतते हैं तो श्रावकों को हजारों परिषह जीतने पड़ते हैं।कितने नटखट, कितने समागम, कितने उपयोग हैं और उन सबसे घबड़ाना नहीं, उन सबके बीच भी अपने आपको अपने आपमें रमायें।बाह्यपदार्थों में मोह, स्नेह रमाकर अपनी स्वरक्षा को खतरे में न डालें।तो गृहस्थ को तो बड़े-बड़े उपसर्गों पर विजय करनी पड़ती है।तो ऐसा जो समाधिभाव है, समतापरिणाम है, वही एक शरण है हमें आप सबका।समाधिभाव से विपरीत अन्य कुछ भी हम आपका शरण नहीं है।
अपने जीवन में एकमात्र कर्तव्य के निर्णय का यत्न-भैया ! अपनी जिंदगी का निर्णय बना लें कि हमें करना क्या है जीवन में? मोही, कर्म के प्रेरे, जन्म-मरण के दुखिया, स्वयं अशरण अनेक पापकर्म को बसाने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानी मनुष्यों में अपनी इज्जत बनाने के लिये यह हम आपकी जिंदगी है या सहजानंद स्वरूप ज्ञायकभावमय आकाशवत् अमूर्त निर्लेप, दुनिया को अवक्तव्य और अपने आपकी दृष्टि में समझ में आ सकने वाले इस निज आत्मदेव की निगाह में अपने को परमार्थ इज्जत वाला रखने के लिए जीवन है।बस, इन दो निर्णयों से कोई निर्णय बना लीजिए।जिसमें कल्याण जँचता हो, जिसमें तत्काल शांति भी जंचती हो वह निर्णय कर लीजिए।जिस वातावरण में, जिस प्रक्रिया में अपना उपयोग अपने आपके निकट रहे, करना ही होगा।संग से हटकर, उस प्रक्रिया से हटकर जहाँ बेतुके अटपटे नाना मोहियों के दर्शन होते, व्यवहार होते, बातचीत होती, वह संग वह वातावरण यदि दुनियावी इज्जत बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है, तब यों समझिये कि रोज भूल करना और उस भूल की थोड़े से जरा से समय को अपनी सूचना दे देना, सब ये ही दो काम किए जा रहे हैं।यों गृहस्थ सावधान हैं, धर्म की ओर जितनी प्रीति है वे क्या काम करते हैं? 10-15 मिनट तो इन चौबीस घंटों के अंदर अपनी भूल की याद कर लेते हैं।वह सब भूल थी और फिर उसके बाद फिर भूल में लग जाते हैं और अनेक जीव तो ऐसे हैं कि भूलों में ही 24 घंटे हैं, 10 मिनट भी भूल मानने को तैयार नहीं होते।इस भूल में, इन समस्याओं में हम आपको कोई तत्त्व न मिलेगा।समाधिभाव का आदर करो।
परमार्थदेवोपासना- अपने भीतर को निहारों कि मैं हूं क्या? क्या मैं कोई रूप, रस, गंध, स्पर्शात्मक पिंड हूं? नहीं मैं हूं एक जाननभाव।उसे क्या बतायें? वह तो अमूर्त है, पर सद्भाव जरूर है।हूं ना मैं जिसमें सुख दु:ख का अनुभव होता है।मेरा अस्तित्व तो है लेकिन वह जाननभावरूप मेरा अस्तित्व है।उस स्वरूप की ओर अपना ज्ञान लगे तो यही है आत्मदेव और समाधिभाव।सो हे देव ! निज आत्मा की ओर सम्वेदनस्वरूप मैं तुमको ज्ञानरूपी नेत्र से देखते-देखते केवलज्ञानरूपी नेत्र से देखता हूं।यह है समाधि का सच्चा अभिनंदन।मुँह से किसी की बात मानने की अपेक्षा उसको कोई कर दे तो वह है सच्चा आज्ञा का मानना।कोई हुकुम दे और किसी ने कह दिया जी हुजूर, और वह करे धरे कुछ नहीं तो आप उसको कहेंगे क्या ऐसा कि यह बड़ा हुकुम मानने वाला है? ऐसे ही कोई भगवान की भक्ति तो खूब करे और तीन लोक के नाथ की जी हजूरी भी करे और उनकी बात एक भी न माने तो इसे प्रभुभक्ति न मानना चाहिये।प्रभुभक्ति तभी है जब हम श्रुतज्ञान नेत्र से तत्त्व निर्णय करके फिर ज्ञानरूपी नेत्र में उस देव का दर्शन करें जो एक निज आत्मतत्त्व के सम्वेदनरूप है।सो हे नाथ ! मैं अब आपको ज्ञानरूपी नेत्र से देखता हूं।
समाधिभाव की प्राप्ति के अर्थ साधक का उद्यमन- समाधिभाव प्राप्त करने के लिए अर्थात् अपने आपमें अपने आपको समा देने के लिए प्रथम तो यह चिंतन होना चाहिए कि मैं ही यह मैं हूं- इस प्रकार का जो अपने आपके संबंध में अपने आपका ज्ञान किया जा रहा है, यह मैं ही मैं हूं, ज्ञानघन आनंदधाम अनादि अनंत अहेतुक चित्स्वरूप मात्र अपने आपको निरखकर ‘यह ही मैं हूं’ इस तरह के आत्मज्ञान के सिवाय अन्य कहीं भी अपनी बुद्धि को न लगायें, जो पहिले बुद्धियाँ जगती थीं मैं इसको करता हूं, मैं इसको भोगता हूं उन बुद्धियों को ज्ञानबल से समाप्त करें, मैं चित्स्वरूप मात्र हूं और परिणमता रहता हूं, वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है कि वह है और परिणमता रहता है।पदार्थ में ये दो ही बातें हैं पदार्थ है और प्रतिसमय परिणमता रहता है।सभी पदार्थों की यही बात है, तो यह मैं भी हूं और परिणमता रहता हूं।इसके अतिरिक्त अन्य कुछ बात नहीं है।मेरे से बाहर मेरा अन्य कुछ नहीं है, तब फिर मैं किसे करता हूं? करने का भाव भर बना रहा हूं।जब कभी भी मैंने बाहर में कुछ किया तो किया नहीं किंतु बाह्य में करने का भाव भर बनाया था, सो वह भाव भी व्यर्थ था; वह भाव भी अनर्थ था, क्योंकि जो बात की नहीं जा सकती और उसके करने का विकल्प लादना यह तो दु:ख के लिए था।मैं केवल भाव भर बनाता था जो कि झूठ था, अनर्थ और व्यर्थ था, उसका छोड़ना है।तो अनर्थ, व्यर्थ, मिथ्या, विपत्ति के घर को छोड़ने में तो कोई कठिनाई न आनी चाहिए।तो मैं बाहर में इसको करता हूं, इसको भोगता हूं, इस प्रकार के विकल्पों को खत्म करें और यह मैं ही मैं हूं ऐसे अपने चित्स्वरूप को निरखकर अपने आपमें अपना ध्यान बनायें।
समाधिभाव में अहं के विकल्प का भी प्रक्षय- अपने आपमें अहं स्वरूप सेआत्मज्ञान करने के बाद फिर समाधि होने के लिए जो कुछ होना चाहिए वह सहज होता है।यत्न की बात तो यहां तक है।पर से विकल्प हटाकर अपने आपमें अपना उपयोग लगाना, अपने सहजस्वरूप को निरखना, इस यत्न के बाद क्या होगा कि मैं ही यह मैं हूं, इस प्रकार की जो अब भीतर के जल्प से संबंधित कल्पनायें हुई उनका भी त्याग हो जायेगा, वे कल्पना में भी मिट जायेंगी और उसी समय जो कुछ वचनों के अगोचर परमज्योति स्वरूप का दर्शन होगा बस उस ही को यह अनुभवता है, यह समाधि भाव का एक मर्म है।ऐसी स्थिति में सामर्थ्य है कि भव भव के बांधे हुए कर्म कलंक भी झड़ जाते हैं।ऐसा सहज शुद्ध जो कि इस स्वानुभूति के काल में अनुभव में आ रहा है उस सहज शुद्ध अंतस्तत्त्व में जो उपयोग को लगाता है वह सिद्ध हो जाता है।केवल अपने सत्त्व के कारण जैसा स्वयं है एक प्रतिभासस्वरूप उसे जो उपयोग में लेता है वह ऐसा ही व्यक्त सिद्ध हो जाता है।
स्वच्छता का संकेत- देखिये जैसे दर्पण का निजी तो है स्वच्छ स्वरूप, अब उसमें प्रतिबिंब आये या मैल जमे तो यह है बाहरी दोष।यह दर्पण के स्वरूप का दोष नहीं है।बल्कि यह जो दोष आया है, यह भी दर्पण की स्वच्छता को जाहिर कर रहा है।प्रतिबिंब कहीं भींत में तो नहीं आ जाता दर्पण में प्रतिबिंब आया है तो यह प्रतिबिंब का आना यद्यपि उस काल में स्वच्छता का निरोधक है।जहां प्रतिबिंब है वहाँ स्वच्छता नहीं रही, लेकिन वह प्रतिबिंब स्वच्छता का सूचक है।न होती दर्पण में स्वच्छता तो यह प्रतिबिंब नहीं आ सकता था।यों ही अपने आत्मा में निरखिये कि इसका स्वरूप केवल प्रतिभासमात्र है, चैतन्यमात्र है।चेते, जाने, देखे, ऐसी चैतन्य स्वच्छता पर ये रागादिक विकार आ गए हैं तो जिस काल में विकार हैं, जितने अंश में विकार हैं, जिस उपयोग में विकार हैं वहाँ आत्मा की वह प्रतिभास स्वरूप स्वच्छता नहीं प्रकट है, लेकिन ये विकार भी आत्मा के प्रतिभास स्वरूपता का समर्थन करते हैं।न होती आत्मा में चेतना, न होता आत्मा में चित् प्रतिभास तो ये विकार कहाँ से आ सकते थे? कहीं रागद्वेषादिक के विकार जड़ पदार्थों में तो नहीं आया करते।तो ये विकार भी जीव के उस सहजस्वरूप का संकेत करा रहे हैं, पर संकेत को तो वही समझ सकता है जिसने मर्म जाना हो।संकेत तो संकेत ही है।संकेत के मर्म को जानने वाला ही संकेत समझ सकता है।
अविकारस्वरूप के अनुभवन का यत्न– हमारा यह कर्तव्य है कि इन विकारभावों से हटकर हम स्वच्छता का स्पष्ट अनुभव करें, एक अपने आपमें पहिले तो यह ही मैं हूं, जितना जैसा अपना स्वरूप है उस स्वरूप में अहं का अनुभव करें और उसके बाद फिर स्वयं ही यह मैं हूं, इस प्रकार की जो भीतर में अंतर्जल्प के द्वारा कल्पनायें उठ रही थीं, उनका भी परिहार होता है और वहाँ ऐसे अंतस्तत्त्व से जो न मोह करता, न राग करता, न द्वेष करना, सर्वविकारों से परे, अविकारी ज्ञायकस्वरूप का दर्शन होता है, ऐसी स्थिति को कहते हैं समाधिभाव।तो हे देव ! अपने आत्मा के अभिमुख जिसका ज्ञान बर्त रहा है, जो ज्ञान बर्त रहा है, ऐसे हे देव ! तुमको मैं प्रथम तो श्रुतज्ञानरूपी नेत्र से देख रहा हूं और श्रुतज्ञानरूपी नेत्र से देखता हुआ यह मैं अब केवल ज्ञानपुन्ज को ज्ञानचक्षु से देख रहा हूं।
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के विशुद्ध अवलंबन के बल से समाधिभाव का अनुभवन- अपनी वर्तमान अवस्था में पदार्थों के जानने के उपायभूत दो ज्ञान हैं- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान।इनका उपयोग कहीं कर लो।विषयभेद से इनकी पद्धति में भेद हो जाता है।यदि विषयकषायों के साधनों में उपयुक्त ज्ञान है, वहाँ श्रुतज्ञान का उपयोग किया तो वहाँ का वातावरण दुषित और आकुलित हो जाता है।और जब केवल आत्मस्वरूप पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का उपयोग किया जाता है तो शांति का वातावरण छा जाता है।प्रथम तो मतिज्ञान द्वारा आत्मा के संबंध में थोड़ा मानसिक सम्वेदन चला, फिर उस पर जो गहरा चिंतन चला, वह श्रुतज्ञान के प्रसाद से चला।श्रुतज्ञान के प्रसाद से चिंतन चलते-चलते फिर दर्शन हुआ और उस दर्शनपूर्वक मतिज्ञान हुआ, जो अति निर्विकल्प स्थिति के सम्मुख आया, वहाँ यह मतिज्ञान का भी उपयोग छूटकर केवल ज्ञानचक्षु से ही जो निरखा जा रहा है प्रतिभासमात्र, वह स्थिति है स्वानुभूति में।स्वानुभूति के समय चूँकि निर्विकल्प स्वसम्वेदनरूप मतिज्ञान से वह स्थिति प्राप्त हुई है, इस कारण उसे मतिज्ञान में गर्भित कर ले तो कर ले, किंतु वह तो एक अलौकिक स्थिति है।ऐसे उस स्वात्माभिमुख स्वसम्वेदनरूप निज निधि को मैं देखता हूं।ऐसे उत्कृष्ट पवित्र समाधिभाव की अभिलाषा रखने वाले संतजन प्रयत्न तो उस ही समाधिभाव के लिए करते हैं, किंतु ऐसा प्रयत्न यदि अंतर्मुहूर्त भी चले तो उन्हें केवलज्ञान हो जायेगा, पर जहाँ कषाय के उदय चल रहे हैं, वहाँ इसकी स्थिति अंतर्मुहूर्त भी नहीं हो पाती।जब विकल्प आते हैं, उन विकल्पों के समय समाधिभाव का इच्छुक संत क्या भावना करता है, उसकी इस भावनावों को अब अब अगले छंद में कह रहे हैं-