वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 11
From जैनकोष
अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिन:।
सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वत: प्रणिदध्महे।।11।।
अपने परमपद को भूलने से होती चली आई एक विडंबना- लोक में सर्वोत्कृष्ट पद है सिद्धपद।अपने आपके आत्मा के नाते से आत्मा का विचार करें।यह जीव क्या करता आया है अब तक? जन्म में और स्वप्नवत् समागम पाकर उनमें रागद्वेष मोह किया, लड़ाई दंगे, झगड़े, चिंता, शोक किये।जैसे-जैसे जिंदगी व्यतीत हुई, बस फिर मरण किया।फिर कहीं जन्म लिया।यों जन्ममरण की परंपरा करते चले आये।जैसे दूसरे के बारे में लोग सोचते रहते कि यह अच्छा रोजगार कर रहा है, यह अच्छा कामकाज चला रहा है, यह गरीब है, यह अमीर है आदि।तो यहां चाहे कोई भी हो, सभी एक बात करते हुए आ रहे हैं, जन्मे, दु:ख भोगे और मरे।कदाचित् जीवन में थोड़ा बहुत माना करता है यह जीव भ्रमवश कि मुझे बड़ा सुख है, लेकिन सुख कहां है? आकुलता तो साथ लगी है, खूब निरख लो।खूब कमा रहे हो, खेती अच्छी हो रही हो, घर भी अच्छा बना हो, भोजनपान की अच्छी सुविधा हो, फिर भी अनेक प्रकार के सम्मान अपमान आदिक के अनेक विकल्प बनाकर रात दिन दु:ख ही दु:ख भोगे जा रहे हैं।एक भ्रम से मान लिया कि हमें बड़ा सुख है, पर सुख काहे का और वह कल्पित सुख भी अगर स्थिर रहता तो भी कहते कि चलो भाई इसमें ही मस्त हो लो, लेकिन ये भी तो स्थिर नहीं रहते।खूब इन लौकिक सुखों की परख कर लो।कितने ही सुख इस जीवन में अब तक भोगे पर उन सुखों के बाद बुरे दिन अवश्य देखने पड़े होंगे और अब इन सुखों के भोगने वालों को आगे चलकर बुरे दिन देखने होंगे।इसमें रंच भी संदेह नहीं।यदि सुख भोगने में राग है, उन्हें अपना सर्वस्व समझा है तो निश्चित है कि दु:ख के दिन देखने होंगे।खूब सोच लो- ज्यादा से ज्यादा आराम और सुख के साधन जिस किसी को भी मिले हुए हैं- मान लो बड़े आज्ञाकारी परिजन हैं, पर वे बूढ़े न होंगे क्या? उनके शरीर के अंग शिथिल न होंगे क्या? होंगे वृद्ध, होंगे शिथिल, तब फिर उनके द्वारा प्राप्त सुख सदा बना रहेगा क्या? सदा तो न बना रहेगा।कोई ऐसा तो नहीं कि खूब मौज मानकर सुख का स्टाक बना लिया है और अब वृद्धावस्था तक उस सुख को लूटते रहेंगे।यदि कुबुद्धि है तो यह निश्चित है कि संसार के सुखों में यदि आसक्त हुए तो नियम से खोटे दिन देखने होंगे।ज्यादा से ज्यादा एक भव की खैर हो जाय, लेकिन अगले जन्म में कोई साथ न देगा? यहां के कोई लोग मदद न कर देंगे।यहां जैसे जो कुछ भाव बनाया उसके अनुसार वहां फल भोगना पड़ेगा।तो संसार के ये प्राणी अब तक केवल एक ही काम करते चले आ रहे हैं- जन्म मरण करके दु:ख भोगना।आज भी उसी सिलसिले में वही एक काम है? कोई नया काम नहीं है।जन्मे थे, दु:ख भोगे, मौज की कल्पना में वहां भी दु:खी थे।समय गुजरेगा, मरण होगा, फिर जन्म होगा।
आत्मस्वरूप के यथार्थ विश्वास से इस मान व जीवन का साफल्य- अरे भाई ! इन समागमों को असार जानकर ये मेरे कुछ नहीं हैं ऐसा समझकर एक इस भव में ही सम्यक्त्व उत्पन्न कर लिया जाय, सच्चा विश्वास बना लिया जाय, अपने आत्मा में अपने आपके विराजमान सहज परमात्मतत्त्व के दर्शन तो कर लीजिए, अनुभव तो कर लीजिए।ये कोई लोग साथ न देंगे।आपका ज्ञान बन जायेगा, आपको सम्यक्त्व मिल गया, आपका धर्म आपको मिल गया तो वह सहायक होगा, अन्य नहीं जो जीव अब संसार से छूट चुके।जिन्हें सिद्ध कर रहे हैं वे भी हम आपकी तरह जन्म मरण की परंपरा के दु:ख भोग रहे थे, लेकिन उन्होंने कौनसा उपाय किया कि संसार के समस्त संकटों से सदा के लिए छूट गए? उन्होंने अपने आपकी श्रद्धा की।अपने आपकी बात रोज-रोज भी आप सुनें तो शब्द यद्यपि वे ही रोज-रोज कुछ हेर फेर के साथ बोले जाते हैं, कुछ थोड़े से नये शब्द आ जाते हैं, पर रोज-रोज आपको एक नई बात सी लगती है और दिल को शांति देने वाली बात लगती है।बात उतनी ही है, तत्त्व उतना ही है, आत्मा की बात कही जा रही है पर यह आत्मा का कथन आपको रोज स्वादिष्ट लगता है।अच्छा, हम आपसे एक बात पूछते हैं कि आप रोज-रोज अपने घर दाल, रोटी, चावल खाते है तो उससे आप ऊब जाते हैं क्या? आप तो रोज–रोज बड़ी रूचि से खाते हैं और रोज एक नया सा स्वाद लगता है।खाते–खाते न जाने कितने वर्ष बीत जाते हैं पर रोज–रोज एक नया स्वाद सा लगता है।ऐसे ही आपने मानो आत्मा की बात खूब दिल भरकर सुन ली, लेकिन आज आत्मा का नाम लेते ही दृष्टि अंदर पहुंचती है और एक विचित्र आनंद मिलता है।क्योंकि बीच में 22, 23 घंटे गुजर गए।जहां विषय साधन पाप आदिक में दृष्टि लगाई जिससे अपने आपको भूल गए और सुख है अपने आपके स्मरण में।उसका स्मरण आज हो रहा तो आज आनंद मिल रहा है।तो आत्मा की बात जो सुनता और सुनकर भीतर जानना भी चाहता है, जान भी लेता है, उसकी जानकारी इतनी स्पष्ट हो जाय कि जब दृष्टि फिरे तब ही आत्मा का सुख साक्षात् निरख लें ।इतना विशिष्ट अभ्यास बने तो उससे जीवन सफल है।
अपना सत्य शरण– धर्म का शरण ही एक सत्य शरण है बाकी तो सब मायारूप चीजें हैं।एक यह निश्चय रखिये और ऐसा ही परस्पर का वातावरण बनायें कि धर्म में रूचि जगे, धर्म की प्रीति हो, ऐसा अगर कर सके तो आप सच्चे मित्र बने, दूसरे के सच्चे बंधु बने, अन्यथा तो ये स्त्री पुत्र पशुओं के भी हुआ करते, कोई खास बात नहीं है।रही एक धन वैभव इज्जत प्रतिष्ठा आदि बढ़ाने की बात तो ये तो सब अस्थिर चीजें हैं, इनको छोड़कर मरण करके चले गए, या ये खुद ही हमारे देखते–देखते ही नष्ट हो गए।या ये प्राप्त समस्त समागम बिछुड़ेगे अवश्य, इसमें कोई संदेह नहीं।तब फिर ऐसे असार संसार में हम क्या ऐसी मोह की, प्रमाद की नींद में सोये रहें? उससे मेरा उद्धार हो जायेगा क्या? अपने पुराण पुरूषों के जीवन चरित्र देख लीजिए।हनुमान, राम, तीर्थंकर आदिक अनेक महापुरूष हुए।उन्होंने जीवन में बड़े ठाठ बाट भोगे, जिनका एकक्षत्र राज्य रहा।बड़े-बड़े राजा महाराजा जिनके चरणों में झुकते रहे और अनेक देवों के द्वारा जो सेवित रहे, फिर भी उन्हें अपने जीवन में कुछ सार नजर न आया।बड़े–बड़े चक्रवर्ती, तीर्थंकर, आदिक को उनमें कुछ शांति न मिले और सब कुछ छोड़ छाड़ कर केवल आत्मतत्त्व की उपासना में रत हुये वहीं उन्हें शांति मिली।मूलत: समस्त कर्मों का विध्वंस किया और सदा के लिए संकटों से छूट गए।तो लोक में सबसे उत्कृष्ट पद है तो एक सिद्ध भगवान का है।
परम हितकारी सिद्धपद की प्राप्ति का आधारभूत् उपाय– परम हितकारी सिद्ध पद की प्राप्ति का उपाय क्या है? वह उपाय है आत्मा के सहजस्वरूप की दृष्टि होना।मैं हूं ना।हूं तो अपने आप हूं या पर की दया से हूं।खूब निर्णय कर लीजिए।आपका अस्तित्त्व है? है अपने आप है, दूसरे की दया के कारण नहीं।स्त्री पुत्र मित्रादिक के कारण आप की सत्ता नहीं।आप हैं अपने आप।जब मैं हूं और अपने आप हूं तो मैं स्वयं अपने आप।जो हूं बस उसे निरख लीजिए।इतनी ही बात है धर्मपालन के लिए।मैं जो कुछ हूं अपने आप केवल उसको निरख लीजिए।शरीर नहीं हैं आप जो रागद्वेषादिक विकार उत्पन्न होते हैं वे नहीं हैं आप।आपका सहज सत्त्व क्या है? केवल एक ज्ञानपुंज है जाननमात्र।केवल जानन मात्र के रूप में अपने आपको निहार लीजिए।मैं केवल ज्ञानमात्र हूं, सबसे निराला हूं।बात कुछ ठीक जंच रही है क्या? इस समय कुछ सही लग रही क्या? न लग रही हो तो फिर ध्यान दें, तिस पर भी न लगो तो बाहर की इन चीजों में मोह फंसा है, जिनसे लगाव लगा है, जिनको चित्त में बसाये हैं उनका ही सही–सही स्वरूप जान लें।यदि आत्मा के सहजस्वरूप की बात जानना कठिन लग रहा है तो जहां आप हैं, जिस बीच आप रहते हैं, जो आपके आसपास हैं उनका सच्चा स्वरूप आप जान लें।कब से साथ हैं।कब तक साथ रहेंगे और इस समय भी क्या कुछ मदद दे देंगे? सिर दर्द करने लगे तो उसमें भी मदद करने वाला कोई नहीं।तो जब इस दुनिया में कोई मददगार नहीं है तो मुझे किसी की क्या आशा करना? मैं अपने आप को देखूँ, ज्ञानमात्र अपने आपको अनुभवूँ और अपना कल्याण प्राप्त करूँ।यह काम करना है।अभी तक क्या काम करते आये? जन्मे मरे, दुःख भोगे।जन्म मरण की परंपरा बनाये रहे।इसमें कुछ सार नजर न आया तो अब क्या काम करना है? मैं अपने आप सहज जैसा हूं वैसा जानना है, वैसा दृष्टि में लेना है।बस यही काम करना हैं ।
आत्मपौरूष की ज्ञानसाध्यता - मैं अपने को जानूँ और उसमें मग्न होऊँ यह पराक्रम, यह ज्ञान ज्ञानसाध्य है।शुद्ध ज्ञान जगे, पवित्र ज्ञान जगे, आत्महित की भावना उठे कि इस संसार में मुझे किसी भी प्रकार नहीं रहना है, बड़े विषयों के साधन मिलें, उनके बीच भी नहीं रहना है।यह संसार रहने के लायक नहीं है।संसार का अर्थ यहाँ शरीर से है।ऐसे–ऐसे शरीर मिलते जाते हैं; इन शरीरों में मुझे नहीं रहना है, उनसे न्यारा मुझे बनना है।ऐसी एक भीतर में तीव्र आत्मीय भावना की बात तो जगायें।ज्ञान के द्वारा साध्य है यह बात कि अपने आपका जो सत्य सहज स्वरूप है उसके दर्शन हो सकते हैं।यह बात अगर कर ली गई तो समझिये कि जैसे धूल में हीरा होता है वह भीतर में जगमगाता हुआ, बड़ी कीमत रखता हुआ बडा़ महत्त्वशाली है।इसी तरह समझिये कि देहात में, गाँव में, किसी भी जगह रहते हुए हम एक शुद्ध ज्ञानरत्न हीरा है, सर्व श्रेष्ठ हैं यह बात अपने आप में पा लीजिए।कोई लोग बढ़ रहे हों दुनिया की निगाह में बड़ी प्रगति के साथ तो वे बढ़े, और योग्यता के कारण यदि इस तरह का हमारा बढ़ाव होता है सहज तो इसमें हमें कुछ हरज नहीं, लेकिन हमारी इन दुनियावी बढ़ावों से आस्था गिर गई, इनसे हमारा कल्याण होगा, यह बात कभी भी संभव नहीं।मेरा बढ़ाव, मेरा उद्धार, मेरा कल्याण मेरे अपने आपके जानने से और अपने आप में ऐसा समाते जाने से कि किसी भी पर–चेतन अचेतन का विकल्प न हो, लगाव न हो, मोह न रहे, ऐसी निर्मलता जगे, वहाँ हम आपका उद्धार है ।
ज्ञानतत्त्व का ज्ञान बनाये रहने के उपायों में प्रकृत एक उपाय– ज्ञान के जगने के लिए और भी अनेक उपाय किए जाते हैं– पढ़ना, स्वाध्याय करना, ध्यान जमाना, जाप जपना।यहाँ इस छंद में एक अर्हं, इस मंत्र के ध्यान के लिए दृष्टि दिलाई गई है।जैसे णमोकार मंत्र में णमो अरहंताणं, पढ़ते हैं तो इसमें अर्हं यह अक्षर आत्मस्वरूप का वाचक है।शुद्ध सहज अविकार प्रखर ज्ञानज्योति पिंड इस अंतस्तत्त्व का वाच्य है, उस अर्हं का जाप कीजिए।वह क्या है? साक्षात् ज्ञानज्योति पुंज।जैसे कि जिस चीज को हम रोज-रोज जानते हैं, चौकी, घड़ा, कोट आदिक, वे चीजें तो चीजें हैं ही किंतु उनका नाम बोला जाय तो उस नाम में वही चीज समाई हुई दिखती है, ऐसा दृढ़ अभ्यास हो गया है इन बाह्य पदार्थों की जानकारी में।इन पदार्थों का नाम लेते ही नाम में वह पदार्थ समाया हुआ सा दिखता है।पत्थर का जो नाम है वह नाम लेते ही पत्थर रंगा हुआ सा है ऐसा चित्त में समाया हुआ है।तो अब यहाँ यह कह रहे हैं कि ‘अर्हं’ यह सहज परमात्मतत्त्व का वाचक है।अविकार ज्ञान पुंज का नाम है अर्हं।तो उस अर्हं नाम में ही वह ब्रह्मस्वरूप समाया हुआ है।मैं संपूर्ण आत्मा मेरी दृष्टि में आ गया हूं तो अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु याने समता परिणम में बढ़े हुए जीव।परमेष्ठी का और दूसरा कुछ अर्थ नहीं, जो राग द्वेष न करते हों, मोह, अज्ञान का अंधेरा जिनके नहीं है, जो ज्ञानज्योति स्वरूप आत्मतत्त्व की निगाह में निरंतर बसे रहा करते हैं।उन आत्माओं का नाम है अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।ये सब समाधि के नाम हैं, समाधि परिणाम के नाम हैं।समाधिभक्त पुरूष अपने आप में समाधि परिणाम के जागृत करने के लिए जाप के द्वारा मंत्र के द्वारा, परमेष्ठियों के स्तवन के द्वारा, उनके ध्यान के द्वारा, अपने आपमें रागद्वेष मोह के अंधेरे को हटाकर अपने आपको ज्ञानप्रकाशमात्र अनुभूति में रखना चाहता है, यही एक मात्र सारभूत काम है।अपना यह ध्येय, यह लक्ष्य नछोड़िये। आप तीन लोक के अधिपति होंगे।यह वैभव तो क्या चीज है? सदा के लिए शांत बन जायेंगे।यहाँ के सुख तो असार हैं।तो ऐसा जो आत्मा का सहज स्वरूप है उस स्वरूप में अपनी दृष्टि करें, उससे ही इस आत्मा को शांति प्राप्त होगी।
आनंद की सहजता और क्लेश की कृत्रिमता- अपने आपमें अपनी अंतर्दृष्टि से देखें तो विदित होगा कि दु:खी कोई नहीं है, लेकिन दिखने में बात यों आ रही हैं कि सभी लोग दु:खी हो रहे हैं, दु:ख की कहाँ गुंजाइश है? यदि सच-सच बात समझी जाय, अपने आप के ठीक स्वरूप की बात पहिचानी जाय तो दु:ख कहीं है ही नहीं।लोग इसमें दु:ख मानते हैं कि मेरी आय कम है अथवा यह मकान टूट गया अथवा शरीर में कोई रोग हो गया या पुत्र उल्टा चलता है– ये जो जो कुछ भी बातें मानते हैं उन्हें दु:ख का कारण मानते हैं, लेकिन ये दु:ख हुए हैं अपने आपके ऊधम से, दु:ख जरा भी नहीं है।तुम तुम हो, बाकी सब पर हैं, उनका ज्ञान में संबंध नहीं, न सदा साथ रहना है, न साथ कहीं से लाये हैं, बिल्कुल भिन्न द्रव्य हैं।उनको यहाँ भीतर में अपना रहे हैं कि ये मेरे हैं, ये मेरे कुछ हैं।इतनी सी बात मन में आयी कि दु:ख का पहाड़ सिर पर आ गया, भीतर देखो तो दु:ख है नहीं।स्वरूप में देखो तो कोई क्लेश का कारण नहीं।सब हैं, मैं भी हूं, इसमें कष्ट की कौन सी बात? लेकिन इस ममता पिशाचिनी ने इस जीव को परेशान कर दिया है।ममता हटे तो दु:ख अभी हट जाय।ममता नहीं हटती है तो उसे दु:ख बना रहता है, सिद्ध भगवान हुए हैं तो उनमें और बात क्या आयी है? विकार सब हट गए, प्रभु बन गए, जिनकी हम पूजा करते हैं उनमें और बात क्या आयी? वे निर्विकार हो गए, बस निर्मोहता की बात यहाँ भी देख लो, गाँव में पड़ोस में जो पुरूष निर्मोह होता है उसकी और सबका आकर्षण होता है।तो निर्मोहता पूज्य है और निर्मोहता में क्लेश नहीं है।मोह करके हम अज्ञान बढ़ाते हैं, अपने को दु:खी करते हैं, दूसरे को दु:खी करते हैं, दूसरे को दु:खी कर डालते हैं।
गृहस्थ में निर्मोहता की संभवता- आप कहेंगे कि यह तो बड़ी कठिन बात है।गृहस्थी में रहकर भी क्या मोह हटाया जा सकता है? हाँ, गृहस्थ भी मोह से दूर रह सकते हैं।घर में रहकर भी घर की सारी व्यवस्थायें बनाये, मोह न करे यह बात संभव है, क्योंकि मोह नाम है अज्ञान का।जहां निज और पर का सही ज्ञान नहीं हैं बस वहां मोह है और जहां यह बोध हो गया कि मैं ज्ञान मात्र हू, सबसे निराला हूं, केवल ज्ञान ज्योति पिंड हूं, ऐसा अगर ज्ञान में आ गया तो फिर वह तो ज्ञान में आ ही गया।अब उसे मेटें कैसे? वह तो ऐसा ही ज्ञान में रहेगा, अब उसको मोह कहां से आये? मोह नाम प्रेम का नहीं है, मोह नाम है स्व और पर में अंतर न समझने का।प्रेम को राग कहते हैं।गृहस्थी में रहकर राग नहीं छोड़ा जा सकता।राग छूट जाय तो गृहस्थी में रहे नहीं, पर मोह छूटकर भी गृहस्थी में रह सकते हैं और जहां मोह छूटा वहां आकुलता की जड़ तो मिट गई।जिस किसी भी समय कैसी भी विपत्तियाँ आयें, उन विपत्तियों के बीच भी यह धैर्यवान् रह सकता है।जहां इसने अकिन्चन ज्ञानमात्र अपने आपके स्वरूप की झलक की, बस सारे संकट तुरंत बिदा हो जाते हैं।
निर्मोह गृहस्थ की महिमा- निर्मोह गृहस्थ की तो ऐसी महिमा बताई गई है कि निर्मोह गृहस्थ तो मोक्षमार्ग में है, पर मोही मुनि मोक्षमार्ग में नहीं है।मोह करने के अनेक ढंग हैं, पर मूल में एक ही ढंग है।अपने आपकी पर्याय को, परिणमन को, विकृत परिणमन को ‘यह मैं हूं’ ऐसी जहाँ दृष्टि गई बस मोह कहो, मिथ्यात्व कहाँ, अज्ञान बन जाता है।जिन्होंने घर छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, जंगल में रहते हैं ऐसे साधुजनों की बात नहीं कह रहे, किंतु जिनके मिथ्यात्व लगा है, कौन सा मिथ्यात्व लगा है? मैं मुनि हूं, मुझे इस तरह रहना चाहिए, ऐसा तपश्चरण करना चाहिए, मुझे किसी से राग द्वेष न करना चाहिए, मुझे जीवदया पालना चाहिए आदि इस प्रकार की बातें यद्यपि ठीक हैं लेकिन अंदर में विष तो देखिये- वह यह ज्ञान नहीं कर पा रहा है कि मैं तो एक अमूर्त ज्ञानज्योतिमात्र हूं, मुनि की यह एक परिणति है, बीच में आयी है।यह मैं नहीं हूं, यह तो एक स्थिति है, मैं तो एक शुद्ध ज्ञानमात्र हूं, यह भाव नहीं बन पाता है पर्याय में आत्मदृष्टि रहती है जिससे वह मुनि संसार में रूलता है और एक गृहस्थ जो घर गृहस्थी के बीच रह रहा हो और यह भावना रख रहा हो कि मेरा तो ज्ञानस्वरूप है, मेरा मात्र ज्ञानानंदस्वरूप है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है, ऐसी जिसकी प्रतीति रहती है वह गृहस्थ स्त्री पुत्रादिक के बीच रहकर भी स्त्री से बोलता हुआ भी नहीं बोलता, बच्चे को गोद में खिलाता हुआ भी नहीं खिला रहा है।
गृहस्थ सम्यग्दृष्टि की अंतर्वत्तिका एक दृष्टांत– एक सेठ का कोई दो तीन वर्ष का बच्चा था।सेठानी गुजर गयी थी और कोई घर में था नहीं।सेठ भी मरणासन्न दशा में था।उसके पास कई लाख की जायदाद थी।तो उस सेठ ने अपनी सारी जायदाद ट्रस्टियोंको सौंप दी और कह दिया कि मेरा बालक अभी छोटा है, जब 18-20 वर्ष का बालिग हो जाय तो इसको सारी जायदाद सौंप देना।सेठ तो मर गया।वह दो तीन वर्ष का बालक सड़क पर खेल रहा था।वहां से एक ठग निकला।उसके कोई संतान न थी तो वह उस बच्चे को अपने घर उठा ले गया।उसका घर था जंगल में।ठगनी भी उस बच्चे को पाकर बड़ी प्रसन्न हुई।उस बच्चे को पाल–पोस कर तैयार किया।जब वह करीब 15 वर्ष का हो गया तो एक दिन उसी नगर में आया तो कुछ ट्रस्टियों ने उसे पहचान लिया और कहा कि देखो– बेटे अब तुम सयाने हो गए, अपनी जायदाद संभालो, हम कब तक संभालेंगे? वह सुनकर आश्चर्य में पड़ गया।सोचा कि हमारी जायदाद तो वह हैं जो जंगल में है।ये लोग तो हमें बहका रहे हैं।जब कई ट्रस्टियों ने बार–बार समझाया तो उसने सोचा कि ये सब देने देने की ही तो बात कह रहे हैं, सो उस लड़के ने कहा– अच्छा ठहरो, हम कुछ दिन बाद आकर अपनी जायदाद संभालेंगे।वह बालक पहुंचा जंगल में और उस ठगनी के पैरों में गिरकर बड़े आर्तस्वर में कहने लगा–मां ! सच बताओ ! मैं किसका बेटा हूं? तो उस समय उस ठगनी के मुख से सहसा ये शब्द निकल पडे़ कि बेटे ! तू तो अमुक नगर के अमुक सेठ का लड़का है।लो इतनी बात सुनते ही उस बालक के चित्त में स्पष्ट बात आ गई, पहिले भी कुछ ट्रस्टियों ने कह रखा था, अब यहां जिनमें फंसा था, जिसे अपनी माँ मानता था उस माँ ने भी बता दिया। अब उसे सही ज्ञान हो गया।ओह ! मैं अमुक नगर के अमुक सेठ का लड़का हूं मेरी लाखों की जायदाद है, इतना ज्ञान हो जाने पर भी क्या वह उस ठगनी को मां अथवा ठग को पिता न कहेगा? अथवा उस ठग के खेत, मकान आदि थे क्या उनको अपनी जायदाद न कहेगा? जो पहिले से कहता आया वह तो कहेगा, कोई उसके खेतों में पशु पक्षी नुकसान करें तो उन्हें भी वह हटायेगा, ठग को पिता तथा ठगनी को मां कहेगा, इतने पर भी उसका चित्त तो बिल्कुल बदल गया।उसे तो अपनी लाखों की जायदाद का पता हो गया।
सम्यग्दृष्टि की अंतर्वर्तना का आरंभ- उक्त दृष्टांत की भांति ठीक यही हाल है सम्यग्दृष्टि पुरूष का।जब तक वह नाबालिग था तब तक इस शरीर को ‘यह मैं हूं’ ऐसा मानता था, लोक में जिन्हें माता–पिता माना जाता हैं उन्हीं को अपने माता पिता समझ रहा था।इस मान्यता में उसका जीवन बड़ी दीन दशा में गुजर रहा था, इतने में कुंदकुंदाचार्य आदिेक ट्रस्टी आकर समझाते हैं कि ऐ अबोध बालक ! तेरी तो अनंत जायदाद है, तू क्यों भ्रमवश दीन बनकर दु:ख सह रहा है।अरे तू अब अपनी उस जायदाद को संभाल।भैया ! हम आप लोगों का कितना अच्छा सौभाग्य कहा जाय? वीतराग ऋषि संतों की वाणी हम आप को मिली हुई है।उस वाणी में ऐसा तत्त्व का विवेचन है कि उसको यदि कोई परख ले तो उन ऋषि संतों का ऋण वह जीवन में चुका नहीं सकता।तो उन ऋषिजनों की वाणी सुनकर वह स्वाध्याय करने वाला सोचता है- ओह ! मेरी जायदाद तो वह है।दूसरे ग्रंथों का उसने स्वाध्याय किया।अनेक संतों ने वही बात समझाई।अब तो उसको सही बात समझ में आ गयी।सोचा कि ये ऋषिजन हमको आनंद पाने का उपाय ही तो बता रहे हैं, ठीक ही तो ये कह रहें हैं।जिस विचारधारा में वह स्वाध्याय करने वाला पुरूष चल रहा था, उसी विचारधारा में ज्ञानानुभूति माँ से वह पूछता है कि सच बताओ कि मैं क्या हूं? किसका हूं? कैसा हूं? तो वही अनुभूति मां तुरंत जवाब देती है कि तू तो यह है।लो उसे तुरंत ज्ञानप्रकाश हो गया।अब यद्यपि वह घर गृहस्थी के बीच रह रहा है, जिन्हें अपने माता पिता कहता आया है उन्हें माता पिता भी कहेगा।उस जायदाद को अपनी जायदाद भी कहेगा, उसकी रक्षा भी करेगा, इतने पर भी उसकी दृष्टि तो अपने अनंत आनंद के स्वरूप पर है।तो यह गृहस्थी के बीच ऐसी स्थिति हो सकती कि मोह न रहे, राग बना रहे क्योंकि मोह तो अज्ञान को कहते हैं।अज्ञान मिटा लीजिए, इसमें आपका क्या जाता है? सच्चा ज्ञान तो हर कोई करना चाहता है।अभी कोई थैला लेकर आ जाय तो उसके अंदर क्या चीज है इसकी जानकारी किए बिना चैन नहीं पड़ती।बच्चों की तो प्राय: करके यह आदत होती ही है।तो जैसे आप बाहरी बातों की जानकारी करने के लिए उत्सुक रहा करते हैं, वैसे ही अपने आपके बारे में जानकारी करने लगिये कि मैं क्या हूं? इस जानकारी के लिए स्वाध्याय कीजिए, स्वाध्याय करके मोह ममता को हटाकर अपना उद्धार कर लीजिए।इसी से इस जीवन की सफलता है।