वर्णीजी-प्रवचन:समाधिभक्ति - श्लोक 9
From जैनकोष
पंच अरिंजय णाये पंच य मदिसायरे जिणे वंदे।
पंच जसोयरणामे पंच य सीमंदरे वंदे।।9।।
समाधिभक्त का रत्नत्रयधर्मवंदन- समाधिभक्त पुरूष समाधि का अभेदभावरूप अथवा समाधिभावना कारणभूत जो रत्नत्रय है उसको दृष्टि में लेकर कह रहा है कि मैं रत्नत्रय को नमस्कार करता हूं।रत्नत्रय का अर्थ है- तीन श्रेष्ठ तत्त्व।रत्न का नाम पत्थर मणि आदिक नहीं है, किंतु जो जिस जाति में श्रेष्ठ है वह उसमें रत्न कहलाता है।जहां नररत्न कहा तो उसका अर्थ है मनुष्यों में श्रेष्ठ ! जहां मणिरत्न कहा तो उसका अर्थ होता है मणियों में श्रेष्ठ, जहां धर्म रत्न कहा उसका अर्थ होता है श्रेष्ठ धर्म।तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप जो श्रेष्ठ धर्म है उसको मैं नमस्कार करता हूं।धर्म कहते हैं उसे जो जीवों को संसार के दु:खों से छुटाकर उत्तमसुख में धारण कराये।ऐसा कौनसा तत्त्व है जो जीव को संकटों से छुटाकर उत्तम सुख में धारण करा दे।अभेदभाव से देखो तो जीव में है एक ज्ञानभाव और ज्ञान का ही नाम है सम्यग्दर्शन; ज्ञान ही का नाम है सम्यग्ज्ञान और ज्ञान ही का नाम है सम्यक्चारित्र।जब यह ज्ञान जीवादिक 7 तत्त्वों के श्रद्धान स्वभाव रूप से बर्तता है तो उसे कहते हैं सम्यग्ज्ञान।जब यह ज्ञान जीवादिक तत्त्वों के जाननरूप में बर्तता हैं तब उसे कहते हैं सम्यग्ज्ञान।जब उसका ज्ञान स्वरूप से अर्थात् रागादिक विकार के परिहार के स्वभाव से बर्तता है जब उसे कहते हैं सम्यक्चारित्र तो ऐसा यह धर्म एक अपने ज्ञान पर निर्भर है ऐसे ज्ञानस्वरूप रत्नत्रय धर्म को वह वंदना करता है।
निज की ज्ञानमात्र सर्वस्वता का अवलोकन- इस ज्ञान द्वारा ही हम सब कुछ अनुभवते हैं, संसार में रूलकर इतने संकटों को सहते हैं।उसमें भी यह ज्ञान अपनी कला कर रहा है।संसार संकटों से छूट कर मुक्ति सुख में पहुंचता है तो वहाँ भी यह ज्ञान अपनी कला कर रहा है।ज्ञान के सिवाय मेरा और कुछ धन नहीं और कुछ स्वरूप नहीं।यह मैं अकिन्चन हूं, ज्ञानमात्र हूं, इस प्रकार की निगाह में हमारा सब कल्याण भरा हुआ है।संसार के संकटों से छूटने के लिए क्या प्रयत्न करना है? वह प्रयत्न यही करना है कि अपने आपको अकिन्चन, ज्ञानमात्र अनुभव कर लें।मुक्ति जब मिलेगी तब, लेकिन इसी भव में आप स्व को अकिन्चन ज्ञानमात्र अनुभव कर लेंगे तो आप ऐसा अनुभवेंगे अपने को कि लो मैं संकटों से अभी छूट गया।कहाँ हैं संकट? जब अपने आपको अकिन्चन निरखा, मेरा कुछ नहीं।मेरे में अन्य कुछ नहीं; मैं जो इस देहदेवालय में अमूर्त चैतन्यस्वरूप विराजमान हूं वह तो चैतन्यमात्र है।उसका लोक में क्या है? है ना यह आत्मा अकिन्चन।भ्रम लगा लें और जितना चाहे कीचड़ अपने स्वरूप में लपेट लें, यह एक मोहियों की बात है।परतत्त्वों के लपेटने पर भी बाह्य पदार्थों से, परतत्त्वों से फिर भी यह जीव स्वरूप न्यारा है।मैं ज्ञानमात्र अकिन्चन हूं।एक परमाणुमात्र भी तो मेरा यहाँ कुछ नहीं है।खूब निरख लो, अपने आपमें जितना अपना स्वरूप है उस स्वरूप पर दृष्टि देकर खूब परख लीजिये कि मेरा मेरे ज्ञानमात्र के सिवाय अन्य कुछ भी स्वरूप है क्या? देह भी मैं नहीं।अन्य की तो बात जाने दो।
जीवविभाव और देह का निमित्तनैमित्तिक भाव होने पर भी दोनों का स्वातंत्र्य व परस्पर अनाधिकार- जब तक देह साथ है तब तक भी जो हम चाहें सो देह की बात बने, यह नहीं हो पाता।यह जीव क्या चाहता है कि मेरा शरीर निरोग रहे, किंतु देह में रोग आ ही जाते हैं।निमित्तनैमित्तिकभाव देह और जीव के बीच है, फिर भी अधिकार रंच नहीं।साथ यह भी निरखते जाइये कि जो यह देह रोगी बनता है वह भी जीव की गलती से बनता है।और यह भी निरखते जाइये कि इस देह पर जीव का कुछ अधिकार नहीं है, आपको उपादानदृष्टि और निमित्तदृष्टि दोनों ही निगरानी में आते जायेंगे।जीव गलती करता है, जो स्वाद जंचा, राग जंचा, उसके भक्षण में लालायित रहता है और जहां रसना इंद्रिय का स्वाद नहीं जीता जा सकता तो साथ ही साथ अन्य विकल्प भी चलते हैं, तो जब यह जीव अपनी जिव्हा को न जीत सका, एकाशन न करे, कभी उपवास न करे तो उसके प्राय: रोग आ जाते हैं।अधिकतर आपके शरीर के रोग, यद्यपि शरीर परद्रव्य है फिर भी, आपके बल पर कुछ निर्भर है।रोग आता है तो आप उसे तीन चार दिन में भी दूर कर सकते हैं, नहीं तो महीनों भी गुजर सकते हैं।जब देह काम नहीं दे रहा है तो उस समय इस बिगड़े देह को 1-2 दिन के लिए भोजन पान की छुट्टी कर देनी चाहिए।बहुत कुछ निर्भर यद्यपि जीव के भाव पर है निमित्तनैमित्तिक दृष्टि से, लेकिन कभी कर्म का तीव्र उदय आ जाय तो जीव का भाव कुछ नहीं कर सकता।कितना ही संयम से हों, सब कुछ छोड़ भी दिया है, लेकिन जब कर्मों का तीव्र उदय आता है तो बड़े-बड़े महापुरूषों को कुष्ठ हो जाय, भस्मव्याधि हो जाय, अनेक तरह के रोग आ सकते हैं।तो देखिये जीव का इस देह पर अधिकार नहीं।जब पुण्य का उदय है, पाप का उदय कम है, भले ही जीव के भावों के अनुसार इस जीव की गति हो रही है तब भी शरीर पर जीव का अधिकार नहीं और कभी भी शरीर पर जीव का अधिकार नहीं।मेल हो गया, योग बन गया, तो जब हमारा देह तक पर भी अधिकार नहीं, फिर प्रकट पर क्षेत्रस्थ पदार्थों की कथा ही क्या है? देखो देह पर अधिकार होता तो बुढा़पा आने पर अथवा किसी रोग से पीड़ित होकर मरण होते समय मरण से बचा लिया जाता, किंतु ऐसा कहां किया जा सकता है? मृत्यु तो होती ही है।देह को छोड़कर जाना पड़ता है।अब निरख लीजिये कि देह मेरा कुछ नहीं है, जैसे दूसरे जीव के शरीर मेरे कुछ नहीं लगते इसी तरह मेरा भी यह शरीर मेरा कुछ नहीं लगता।मैं इस देह से अत्यंत निराला ज्ञानस्वरूप हूं।यह तो मेरे अकिन्चन की स्थिति है।
अपने विकारपरिणमन से भी आत्मा का पाथैक्य- भैया ! देह की भी बात क्या कहें? जो भाव मुझमें उत्पन्न होते हैं- रागद्वेष, क्रोध, मान, माया लोभ आदिक, ये भाव भी मेरे नहीं हैं।इस पर भी मेरा वश नहीं चल रहा है।हमारा वश तो इतना ही चल सकता है कि इनको उपयोग में न लें।उपयोग में न रखने से इन निमित्तनैमित्तिक भावों के प्रसंग में ये कषायें ये विकार अत्यंत शिथिल होंगे, मंद होंगे और कुछ समय बाद ये अपने आप ही मिट जायेंगे।ये सब बातें इसकी हो जायेंगी, लेकिन इन पर भी मेरा अधिकार नहीं।मेरा अधिकार केवल मेरे ज्ञानभाव पर है।तो मैं अकिन्चन हूं और ज्ञानमात्र हूं।मैं अपने आपमें अपने को तकता हूं तो ज्ञान के सिवाय मुझमें और कुछ नजर नहीं आता।
सुख दु:ख की स्थितियों में ज्ञानभाव का परिणमन- कभी सुख भोगते हों तो क्या हो रहा है अन्य? ज्ञान ही उस प्रकार से अपने जानन का काम कर रहा है।हमें वहां ज्ञान ही ज्ञान नजर आ रहा, सुख तो नजर आता ही नहीं।सुख नाम रख दिया गया है ज्ञान की इस परिणति का नाम कि जहां ज्ञान ऐसा अनुभव करे कि इस प्रकार से जानन चलाये जैसा कि माने गए सुख में हुआ करता है।हमको तो ज्ञान ही ज्ञान नजर आ रहा है, दु:ख भी कहां है? ज्ञान ही उस रूप में बर्तता है।जिसमें यह जीव आकुलित हो जाता है।हम किसी पर पदार्थ से स्नेह लगाकर, किसी इष्ट के वियोग में किसी अन्य अनिष्ट के संयोग में जो कुछ इसके अंतर उत्सुकता जगती है उसके साथ जो ज्ञान की गति चलती है ज्ञान उस स्वरूप को जान रहा है, वही दु:ख का अनुभव है।सो दु:ख भी क्या है? ज्ञान की एक इस किस्म की परिणति हो रही, बस यही दु:ख दिख रहा है।सुख दु:ख की भी बात आप जाने दो।जो आत्मा के लिए हितकर भाव हैं उनमें भी हमें ज्ञान ही ज्ञान दिख रहा है, अन्य कुछ दिख ही नहीं रहा है।
रत्नत्रयधर्म में ज्ञानभाव का परिणमन- कहते हैं कि सम्यग्दर्शन है।जीव में सम्यक्त्व गुण है।तत्त्व का यथार्थ विश्वास करना सम्यग्दर्शन है।मगर तत्त्व का यथार्थ विश्वास क्या ज्ञान से बाहर है? क्या ज्ञान का कोई इससे अलग परिणमन है? ज्ञान का ही विश्वास रूप से इस प्रकार का परिणम जाना बड़ी दृढ़ता के साथ यह ऐसा ही है, ऐसे दृढ़ निर्णय के साथ जो ज्ञान की जानकारी चलती है वही तो सम्यग्दर्शन है।सम्यग्ज्ञान- बस ज्ञान की अन्य विशेषतायें न निरखकर केवल एक जानन का ही स्वरूप दिखे उस निगाह से यह सम्यग्ज्ञान दिखता है।यही ज्ञान जब स्थिरता से यों ही ज्ञानरूप बर्तता है और ऐसा इसका स्वभाव है कि इस ज्ञान को केवल ज्ञानरूप से बर्तना चाहिए और उस प्रकार के बर्तने में बात यह स्पष्ट हुई जहां कि रागादिक विकार के त्याग रूप से वह बर्तता है, वही सम्यक्चारित्र है।
ज्ञान का अविकार स्वरूप- ज्ञान में कहां है रागादिक? ज्ञान का स्वरूप क्या है? जानन।उस ज्ञान के स्वरूप में रागादिक विकार हैं कहां? मेरा सहज स्वरूप मेरे ही सत्त्व के कारण मेरे में अपने आप जो कुछ स्वरूप बर्त रहा है उस स्वरूप में राग हैं कहा? जो सत्य है, ईमानदारी का स्वरूप है।अपने आप मिला हुआ स्वरूप है, सहजस्वरूप है, उसका ही स्वभाव है।उसको निरखिये।उसमें रागादिक विकार नहीं हैं।जैसे कि सिनेमा का पर्दा जो स्वयं अपने आप है उसको निरखिये, दिन में देखिये, जब फिल्म न चलाई जा रही हो जब देखिये वहां क्या नजर आता है? केवल वही पर्दे का स्वरूप।केवल वहीं स्वच्छ सफेद अपने सूतों में अपने आपमें जिस रूप में रह रहा है वैसा और जब दिन या रात में फिल्म अक्स डाला जाता है उस समय किस तरह पर्दा दिख रहा है।वहां सफेदी का नाम नहीं नजर आता।मत आये, लेकिन जिसे उसका मर्म विदित है उसकी प्रतीति में अब भी है कि पर्दा जैसा स्वयं अपने आपको लिए हुए है सो यह है।ये चित्र, ये रंग इस पर्दे में नहीं हैं।लेकिन फिल्म हटी तो वे सब समाप्त हो गए।दर्पण में स्वच्छता जिसने खूब परख ली है, परखना भी बहुत टेढ़ी खीर है, आप जब दर्पण को देखेंगे कि यह स्वच्छ है कि नहीं तो आपका फोटो उस दर्पण में आ जायेगा, अगल बगल से, तिरछे रूप से या किसी भी ढंग से तिरछा रखकर उस दर्पण को देख ले तो वह दर्पण बिलकुल स्वच्छ है।उसमें कोई विकार नहीं, प्रतिबिंब नहीं, अक्स नहीं ऐसा समझने वाले पुरूष जब कभी भी दर्पण को प्रतिबिंब वाला देखते हैं तो भी समझ लेते हैं कि यह प्रतिबिंब, यह अक्स इस दर्पण का नहीं है, दर्पण तो बिलकुल साफ स्वच्छ है।यों ही किसी प्रकार से अपने आपके विशुद्ध ज्ञानस्वभाव का तो कोई अनुभव तो कर ले, वह प्रतीति कर लेगा कि यह मैं ज्ञानमात्र सहज अविकार हूं।
निज सहजस्वरूप के अनुभव के लिये आकिन्चन्यप्रतीति का महान् पुरूषार्थ- निज सहज स्वभाव के अनुभव के लिए बहुत बलिदान करना होता है, धर्म यों ही नहीं मिल जाता है।अपने आपको अकिन्चन समझना यह बहुत बड़ा बलिदान कहलाता है।यही बड़ा त्याग कहलाता है कि यह जीव अपने को अकिन्चन तो निरख ले।अकिन्चन जानकर जब मेरा मेरे ज्ञानस्वभाव के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, ऐसा क्यों नहीं मान लिया जाता? मगर यह बात विश्वास में नहीं है, आपके निर्णय में नहीं है, तो धर्म के लिए बहुत-बहुत प्रयत्न करने पर भी न तृप्ति मिलती है, न संतोष होता है।धर्म के नाना प्रयत्न करने वाले सज्जन अन्य अन्य बातों को गौण करके एक संकल्प इसी का बना लें कि मुझे तो यह समझकर रहना है कि मैं अकिन्चन हूं और अगर अकिन्चन नहीं हूं तो मुझे वह भी समझकर रहना है।इसके बारे में हमें सत्य निर्णय चाहिए कि मैं अकिन्चन हूं।मेरा मेरे स्वरूप के सिवाय अन्य कुछ नहीं है और यदि अकिन्चन नहीं हूं, सकिन्चन हूं, है मेरी बाहर की कुछ चीज तो मैं वही मानकर रह जाऊँगा।जैसा भी मैं सहज हूं उसमें नियम से शांति मिलेगी।मैं सकिन्चन हूं यदि यह बात सही है तो परद्रव्यों के लगाव में मुझे अवश्य ही शांति मिलेगी और यदि मैं अकिन्चन हूं, मेरा कहीं कुछ नहीं है यह बात यथार्थ है तो अकिन्चन मानने में ही मुझे शांति मिलेगी।मेरा जो स्वरूप है उस ही में मुझे शांति मिल सकती है।किसी भी पदार्थ का स्वरूप उस स्वरूप के बिगाड़ के लिए नहीं होता, यह नियम है।आत्मा का स्वरूप सकिन्चन नहीं अकिन्चन है यह स्पष्ट है।मेरा स्वरूप अकिन्चन है ऐसा निर्णय तो कर लूँ फिर मुझे कुछ डर नहीं।मैं अन्य रूप तो हूं नहीं, फिर अन्य के उन्मुख न होकर स्व के उन्मुख रहूंगा और शांति पाऊँगा।मेरा अकिन्चन स्वरूप है, मेरा मैं अकिन्चन बनकर रहूंगा तब शांति पाऊँगा।तो अपने को यह निर्णय करना है कि मैं अकिन्चन हूं।
आकिन्चन्य भाव के अवसर से लाभ उठाने का अनुरोध- यदि कोई पुरूषकुछ भी विवेक रखकर इस निर्णय के लिए चलेगा तो उसे तुरंत ही यह आसार नजर आयेंगे कि मेरा कुछ नहीं है।बहुत सी बातें यों अकिन्चनता के लिए दृष्टिगत होंगी कि यह जीवन में ऊब गया ना।जिस जिसको हमने माना कि यह मेरा है और जिस जिसने बड़ी प्रीति दिखाकर आपको विश्वास पैदा कर दिया कि सचमुच ये मेरे ही तो हैं।अनेक बार उनके कर्तव्यों से, उनकी उपेक्षा से, उनकी अपनी प्रवृत्तियों से आपको अनेक बार ऊब आती रही है, इससे भी माना जा सकता है कि मेरा कहीं कुछ नहीं है।और जब प्रकट दिखता है कि लोग ये सब बवंडर समागम छोड़कर चले जाते हैं, मर जाते हैं, उनका यहां कुछ नहीं रहता है, न जाने यहां से मरकर कहां किस पर्याय में उत्पन्न होते हैं और वहां क्या बीतती है? उनका फिर यहां कुछ रहा क्या? रंच मात्र भी कुछ न रहा।कल्पना से भी कुछ नहीं है।तो जब इससे भी स्पष्ट नजर आता है कि मेरा कहीं कुछ नहीं है और यह देह तक भी मेरा कुछ नहीं है।
कषायों से निज का अन्यत्व- जब और अंदर विवेक करने चलते हैं तो यह भी परख में बात आ जाती है कि जो कुछ मैं सोचता हूं वह भी नहीं रह पाता है, वह मिट जाता है।जो कषाय करता हूं वह कषाय भी नहीं रह पाती, मिट जाती है।भले ही अन्य कषायें आती रहती हैं, और यही परेशानी है इस जीव को।जो वर्तमान में कषाय है वह खूब हो ले, डटकर हो ले, जितना उसमें बल हो, तीव्र से तीव्र हो ले, हो तो ले, मगर फिर कषाय न जगे तो इन कषायों का भी मुझे डर नहीं।हो ले जितना तेज होना हो, किंतु परेशानी तो यह है कि यह कषायें मिटती हैं और नवीन कषायें आती हैं।तो यहाँ यह देखिये कि दु:ख तो एक कषाय से है और आगे कषाय उत्पन्न होगी, उससे किसी को प्रेम नहीं है।भले ही यह जीव जब किसी परवस्तु के बारे में चाह करता है और वह चीज आज है नहीं, होगी फिर भी उस चीज से वह लगाव रखता है।यहां तो यह बात कुछ बन जाती है, मगर अपने आपमें जो कषायभाव जग रहा है उसमें यह बात नहीं बनती कि कल जो मेरी कषाय बनेगी उसमें मेरा प्रीतिभाव हो अथवा लगाव हो।चार दिन बाद जो चीज मिल सकेगी, जिसका हम अभी से विचार कर रहे हैं तो बाह्य में तो यह कह सकते है कि चार दिन बाद होने वाली चीज में इसका लगाव हो रहा है, मगर चार दिन बाद होने वाली चीज में जो इसका बलिदान बन रहा है वह तो वर्तमान पर्याय है, वह वर्तमान कषाय है।कषायों में इसका वर्तमान कषाय में ही लगाव है।भविष्य की कषाय में इसका लगाव नहीं हो सकता।जैसे चार दिन बाद होने वाली बात में यह कब मिले, ऐसा लगाव है, क्या इस प्रकार चार दिन बाद, दो दिन बाद, एक मिनट बाद जो कषाय होगी उस कषाय के प्रति भी किसी का ऐसा लगाव है कि जो दो मिनट बाद कषाय जगेगी वह कब आये मेरे लिए? उस कषाय के प्रति किसी का लगाव नहीं है।तब आप समझिये कि झंझट इसमें अनेक नहीं हैं, एक है और हम ऊब जाते हैं कि मुझको तो अनेक झंझट लगे हुए हैं।क्या करें? इन सब झंझटों से हम कैसे छूट पायें? अरे भाई झंझट कहाँ अनेक लगे हैं? वर्तमान समय में एक क्षण को भी अपने विकार अनुभव में नहीं ले पाते, जितने क्षणों में यह उपयोग कषायों का अनुभव कर पाता है उसको क्षण मानकर सोचिये।एक क्षण में जो कषाय उपजी है उस कषाय में मेरा लगाव है, बस यही एक झंझट है।कुछ अपना ज्ञानबल बढायें और उस एक क्षण होने वाली कषाय वृत्ति में अपना लगाव न रखें, लगाव खींच लें, ये अनित्य हैं, असाधारण हैं, अपवित्र हैं, आकुलता के स्वभाव वाले हैं।ऐसा जानकर उस कषाय परिणमन से अपना लगाव हटा लें, एक इस झंझट से अपना लगाव दूर कर लें।फिर देखिये संकट मिटते कि नहीं।तो अपने आपको अकिन्चन निरखकर समस्त परतत्त्वों से उपेक्षा करें कि मुझमें ये कोई तत्त्व नहीं हैं।उन परतत्त्वों से उपेक्षाभाव करके एक सत्य विश्राम लेते हुए अपने आपमें ही एक सामान्य उपयोग बनाकर निरखें।स्वयं ही ऐसी निरख बनेगी, वहां ज्ञान का साधारण रूप अनुभव में आयेगा।उस समय आप समझ जायेंगे कि मैं ज्ञानमात्र हूं।
धर्मपालन के अर्थ एकमात्र कर्तव्य- अपने को अकिन्चन समझना, ज्ञानमात्र निरखना, बस यही काम करना है धर्मपालन के लिए।जिसने अनेक वर्ष धर्म करते-करते बीता डाले और इतने पर भी कभी भी मुक्ति के आनंद की रंच मात्र भी झलक नहीं आ पाती।सिद्ध के क्या आनंद हैं, उस आनंद का अनुमान करने लायक भी अपने आपमें आनंद की झाँकी नहीं आ पाती है।तो समझिये कि हमने धर्म नहीं किया।धर्म किया हो तो सिद्ध प्रभु के जो आनंद बर्त रहा है उस आनंद का हमें यहां अनुमान बन सकता है।यह है शुद्ध आत्मा का आनंद।तब क्या करना? बहुत समय लगाया।रोज-रोज घंटों का समय लगाया और सालभर में कभी-कभी कई कई दिन धर्म में लगाये, बड़ा श्रम किया, धन भी खूब खर्च किया, शरीर का भी संग दिया।मन भी बहुत लगाया, उपवास भी अनेक कर करके एक शरीर को निर्मल भी किया, लेकिन धर्म की जो निशानी है कि एक सिद्ध भगवान की जाति के आनंद का लेश झलक हो जाय, वह निशानी न हम अपने आपमें तक सके, तो मालूम होता कि हमने धर्मपालन नहीं कर पाया।धर्म के बिना यह जीव पार न हो सकेगा, संसार की मुसीबतों से यह छूट नहीं सकेगा।इसलिए धर्म करना तो अति आवश्यक है।इतना अति आवश्यक है कि धर्म के मुकाबले में न रोजगार आवश्यक है, न अपनी कोई बाहरी व्यवस्थायें बनाना इतना आवश्यक हैं, न दुकान, मकान आदिक का सजाना उतना आवश्यक है, न ऐसा भोजनपान करना उतना आवश्यक है।आत्मा को आवश्यक है धर्म का पालन।धर्मपालन न करे आत्मा तो इस भव में भी बरबाद ही रहेगा और आगे भी जन्म मरण की परंपरा बढे़गी।
ज्ञान के सदुपयोग का लक्ष्य- भैया ! मिला है यह दुर्लभ नरजन्म, जिसमें इतनी विशुद्ध बुद्धि, विशिष्ट ज्ञान की जिस तत्त्व को हम समझना चाहे बारीकी से तो समझ डालते हैं।इतना ज्ञान मिला है तो उस ज्ञान का हम सदुपयोग करें, परपदार्थ जो मेरे नहीं हैं न हो सकेंगे और जिनकी दृष्टि रखकर आकुलताओं का निर्माण होता है उन परपदार्थों में अपना ज्ञान लगाना, दृष्टि फँसाना, उपयोग उलझाना, यह तो ज्ञान का सदुपयोग नहीं है।पाया है हम आपने ज्ञान तो उस ज्ञान का सदुपयोग करें तब तो दुर्लभ ज्ञान की प्राप्ति होने की सफलता समझी जाय।जैसे कोई पुरूष धनी हो गया और वह धन को बरबाद करता है वेश्यागमन में, परस्त्री में, मद्यपान में, गुंडों की दोस्ती में यों ही लुटाता है तो विवेकी समाज कहता है कि धन तो पाया मगर धन पाने का मजा न ले पाया, क्योंकि इसने धन का दुरूपयोग किया।इसी प्रकार इस नरजीवन में हम आपने ज्ञान पाया बहुत विशिष्ट।प्रथम तो पशु पक्षियों के मुकाबले में भी परखिये कि हमने कितना विशिष्ट ज्ञान पाया और फिर अनेक मनुष्यों पर दृष्टि डालकर परख लीजिए कि हमने करोड़ों अरबों मनुष्यों से भी विशिष्ट ज्ञान पाया।सारी दुनिया में मनुष्यों की संख्या अनगिनते अरबों की है।यहाँ तो लोग इस थोडी सी परिचित दुनिया के लोगों की संख्या बता देते हैं, पर इतनी ही संख्या मनुष्यों की नहीं है, मनुष्यों की संख्या अनगिनते अरबों की है।तो अब आप समझ लीजिये कि अरबों मनुष्यों से हम आपको कितना अधिक विशिष्ट ज्ञान मिला हुआ है।लेकिन इस ज्ञान का दुरूपयोग किया जा रहा है।ज्ञान में परवस्तुवें ही बसायी जा रही हैं।बहुत पुण्य के उदय का एक अपना जौहर सा बता रहे हैं।कैसा सफाई से रहना, कैसा परिजनों में, मित्रजनों में स्नेह करना, दूसरों से अपने को बड़ा सज्जन मना लेना, ये सब इस ज्ञान के उपयोग किए जा रहे हैं।भले ही लौकिक दृष्टि के अन्य अनेक अधिक गड़बड़ गृहस्थों के मुकाबले में कुछ श्रेष्ठ काम है, पर लगाव के नाते से तो वे काम हमारे व्यर्थ के काम हैं और ज्ञान के दुरूपयोग के काम हैं।हाँ, ज्ञान का सदुपयोग यह है कि मैं अपने इस सहज ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में ले सकूँ और अपने आपके सहजस्वच्छ स्वरूप में अपनी प्रतीति बनाये रहूं, तो यह है ज्ञान का सदुपयोग।और ऐसे ज्ञान का सदुपयोग करने के लक्ष्य में रहकर और कुछ करते हुए फिर घर परिजनों की व्यवस्था बनाये इस प्रकार, तो वह भी ज्ञान के सदुपयोग में शामिल हो सकता है, लेकिन ज्ञान का जो मुख्य सदुपयोग है वह दृष्टि में नहीं है तो दुनिया की निगाह से ज्ञान का कितना भी उत्तम सदुपयोग कर लिया जाय, वह ज्ञान का सदुपयोग नहीं है।तो इतना दुर्लभ श्रेष्ठ ज्ञान हम आपने पाया है तो उस ज्ञान का सदुपयोग है यही कि हम ज्ञान के द्वारा ज्ञान के स्वरूप को अपनी दृष्टि में लिए रहें।
ज्ञानस्वभाव की वंदना, उपासना का पौरूष- यहां समाधिभक्त संत अपने आपमें अपने स्वरूप को देख रहा है।मैं अकिन्चन हूं, अकिन्चन हूं इसमें तो कुछ भी संदेह नहीं।मेरे में बाहरी चीज कुछ भी नहीं है।परतत्त्वों का मुझमें रंच भी प्रवेश नहीं है।मैं अकिन्चन हूं और हूं वह ज्ञानमात्र।इस अकिन्चन ज्ञानमात्र मुझ आत्मा का उद्धार हो सकेगा तो इस ही ज्ञानमात्र स्वरूप के अनुभव से हो सकेगा।यही ज्ञान सर्वत्र है, ज्ञान ही सम्यक्त्व, ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान और ज्ञान ही सम्यक्चारित्र है।ऐसे इस परमपवित्र ज्ञानस्वरूप को मैं निहारूँ और उसमें ही तृप्त रहकर अपने क्षणों को सफल करूँ।हम बाहरी सफाई तो बहुत रखते हैं, मगर कितनी सफाई अपने आपमें है इसको निरखिये।अत्यंत स्वच्छ केवलज्ञान ज्योतिमात्र, कितना सुहावना है मेरा घर, कितना स्वच्छ है यह मेरा घर, जहां केवल सहज ज्ञानप्रकाश ही अंदर में एक समान, एक रूप से, एक ढंग से बन रहा है।घर में रंग रोपन लगे तो कितनी ही सफाई से करे, कहीं गाढ़ा, कहीं कम रह जायेगा, लेकिन मेरे निजी घर में जो स्वच्छता है उसमें तो एकरूपता है।वहां की स्वच्छता कितनी सुंदर कितनी सुहावनी है? एक इस निज गृह की स्वच्छता में ही तृप्त रहे और सिद्ध की जाति के आनंद का हम अनुमान करते हुए, लेशमात्र अनुभव करते हुए बड़ी शांतिपूर्वक रहें यह बात मिलती है रत्नत्रयस्वरूप इस ज्ञानस्वरूप की उपासना के प्रसाद से।सो मैं अभेद वंदनपूर्वक इस निज रत्नत्रयस्वरूप ज्ञानस्वरूप का वंदन करता हूं।
वृषभ अजित संभव तत्त्व की उपासना- रागद्वेषरहित केवल ज्ञानमात्र के बीच सर्वसार समझने वाला समाधिभक्त संत बाहर जब किसी की सेवा में अपना उपयोग लगाता है तो उसे सेवा योग्य केवल वीतराग सर्वज्ञदेव की उपासना करता है, तो प्रयोजन उसका समाधिभाव ही है।यहां यह समाधिभक्त संत चतुर्विंश जिनेंद्रदेव की वंदना कर रहा है और उन 24 तीर्थंकरों की वंदना के समय निरखा क्या जा रहा है? जो लगन लगी है।जिसका जीवन में लक्ष्य बनाया है वही उसे दृष्टिगत होता है।जैसे माता का पुत्र के प्रति पुत्र की सब अवस्थाओं में पुत्रत्व वही लाल्यभाव रहता है।इसी प्रकार ज्ञानी संत समस्त तीर्थंकरों की वंदना करते समय उसे वही शुद्ध लक्ष्य ज्ञानस्वभाव में रहता है।उनके नाम की वंदना करते हुए भी वंदना कर रहा है उस समाधिभाव की ही।जहां वृषभ शोभायमान है वृषभ कहिये वृषो भांति यत्र स:, ऐसे इस वृषभ आत्मा का वंदन करता हुआ वृषभदेव नामक तीर्थकर की मैं वंदना करता हूं।यह शुद्ध आत्मस्वरूप अजित है।किसी के द्वारा भी जीता नहीं जा सकता।जिसकी दृष्टि इस शुद्ध ज्ञानस्वभाव पर है वह आत्मा ही अजित हो जाता है।विषयों के साधन उसको फिर कितना ही प्रलोभन दें, पर वह किसी के द्वारा भी पराजित नहीं होता।ऐसा जो अजित स्वभाव है, इस अजित ज्ञानस्वभाव का उपासक संत अजितनाथतीर्थंकर का मैं वंदन करता हूं।यह आत्मस्वभाव अनादिकाल से तिरोभूत है।इस ज्ञानस्वरूप का जब संभव होता है, अपने सहजस्वरूप के रूप में जब विकास होता है तो इसका यह संभव इसका यह विकास सदा के लिए यह विकास रहा करे, जिस संभव का कभी व्यय न हो ऐसा उत्पाद होता है।इस आत्मतत्त्व का आत्मतत्त्व के उपयोग के प्रसाद से कि जिसका फिर कभी विनाश न हो।यद्यपि अगुरूलघुगुण के कारण निरंतर होने वाला परिणमन चलता रहता है पर वे सब समान रहते हैं।उस समानता की दृष्टि से जो विकास पाया है उस विकास का कभी भी व्यय नहीं हो सकता है।तो व्ययरहित जिसका स्वरूप हुआ करता है ऐसे इस ज्ञानस्वभावमय संभवनाथ की मैं वंदना करता हूं।
अभिनंदन सुमति पद्म सुपार्श्व चंद्र तत्त्व की उपासना- यह समाधिभक्त संत जब अपने आपमें रागादिक विकार रहित केवल ज्ञानस्वभाव आत्मदेव को पा लेता है उस समय इसके अभि कहो चारों ओर नंदनकहो आनंद चलता है, जिसके आलंबन से अभिनंदन का अनुभव होता है।ऐसा उस अभिनंदन प्रभु की मैं वंदना करता हूं।जहां शुद्ध ज्ञान का ही विस्तार है, दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है, जो केवल निज है, स्वयं है, ज्ञानस्वरूप है, जो कि स्वभावत: सहज है, ऐसे इस सुमति के नाथ की मैं वंदना करता हूं।समाधिभक्त संत को केवल समाधि की प्रीति है, दूसरी ओर धुन नहीं रहती और कुछ इसकी चाह ही नहीं रहती।जैसे किसी का कपट जानकर बालक फिर उस चीज को ग्रहण नहीं करता, चाहे उसे कितनी ही खाने की चीज फिर दी जाय पर वह उन्हें फेंककर उनसे निवृत्त रहना चाहता है।उन चीजों में उसका चित्त नहीं लगता।इसी तरह इस संसार का कपट जानकर इस भव्य आत्मा को सबसे उपेक्षा हो गई है और उस उपेक्षा होने के कारण वह अपने आपमें ही समाये रहने की धुन बनाये हुए है।किसी में भी उसका चित्त नहीं लगता है।ऐसे समाधिभक्त ज्ञानी संत को केवल समाधिभाव में ही रूचि हो रही है और वह समाधि है अपने आपमें और वह है प्रकृष्ट रूप से शोभायमान।तो जो अपने अंतस्तत्त्व में ही प्रकृष्ट रूप से विकसित है, विराजमान् है ऐसे पद्मप्रभु देव की मैं वंदना करता हूं।जो समाधि का आधार है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।समाधि में जो आनंद प्राप्त होता है वह किसी भी विषय के लगाव में नहीं मिलता।वह आधार कहां कहां ढूंढा जाय और वह तो अत्यंत निकट है।और निकट रहने वाला भी नहीं, किंतु स्वयं पास है, पास भी क्या, जो स्वयं ही है, ऐसे इस स्वभाव के नाथ सुपार्श्वनाथ की मैं वंदना करता हूं।इस सुपार्श्वदेव में, इस सहज निज स्वरूप में ही अमृततत्त्व बसा हुआ है।जो न मरे उसे अमृत कहते हैं।जैसे कहते हैं कि अमृत का पान करो तो इसका अर्थ यह है कि जो मृत नहीं है ऐसे अमृत का पान करो।जो मरता नहीं है सो अमृत।जगत् में कोई भी बाह्यवस्तु ऐसी नहीं है क्योंकि कोई फल या रस या कोई पदार्थ अमृत होता तो जब उसका पान किया जाता तो वह तो मुख में आते ही मर गया।जो मर गया वह तो मृत है।वह अमृत कहां है? अथवा जो रागादिक विकारों में अधिक रहा करता है, इच्छा करके विषयों का भोगोपभोग करता है, वे बाह्यपदार्थ उनका जो कुछ भावों में अनुभव किया जा रहा है, पान किया जा रहा है वह मृतपान है।वे पदार्थ भी कर गए और ये इच्छायें, ये रागादिक विकार, ये होकर भी मर जाते हैं।अंतरंग में विकारों का पान किया है जो कि मृत है, लेकिन आत्मा का सहज ज्ञानस्वरूप यह अमूर्त है।कभी मरता नहीं है, किंतु जैसे जैसे इसका पान किया जाय, जैसे-जैसे इसका अनुभव किया जाय वैसे ही यह विकसित होता है, जीवित रहता है।ऐसे इस अमृत समाधिभाव से जिसका झरना हो रहा है ऐसे चंद्र की तरह जो अपने आपमें प्रकृष्ट रूप से आसमान है, ऐसे निज ज्ञानमय चंद्रप्रभु को मैं वंदना करता हूं।
पुष्पदंत, शीतल, श्रेयान् वासुपूज्य, विमलतत्त्व की उपासना- पुष्पदंत यह आत्मा स्वयं पुष्पदंत है, पुष्प कहते हैं विकसित को।जो विकसित हो उसे पुष्पदंत कहते हैं।दमनशील, जिसका अपने आप पर नियंत्रण हो, जो स्वयं अपने उपयोग में नियंत्रित हो ऐसा यह पुष्पदंत स्वरूप पुष्पदंत प्रभु की मैं वंदना करता हूं।जो परमशीतलता के स्वामी हैं।शीतल का अर्थ यहाँ ठंडे से नहीं है, किंतु जो ठंडे को लावे उसे शीतल कहते हैं।ठंडे का अर्थ है शांति।जो शांति को पैदा करे उसे शीतल कहते हैं।संसार की इस विकल्प अग्नि से संतप्त हुए पुरूषों को जो शीतल करे, ऐसा शीतल यह स्वयं ज्ञानमय प्रभु हैं।ऐसे स्वयं शीतल, शीतलनाथ की मैं वंदना करता हूं।समाधिभक्त पुरूष अपने आपको निरख रहा है कि यह ही मैं स्वयं कल्याणस्वरूप हूं, श्रेयांस् हूं।मैं अपने आपके इस अविनाशी ज्ञानस्वरूप को अपने उपयोग में रमायें रहूं तो यह मैं स्वयं श्रेयांस् हूं, कल्याणमय हूं।ऐसा अपने आपमें अपने ज्ञानानंदस्वरूप कल्याण को निरखता हुआ समाधिभक्त पुरूष कहता है कि मैं श्रेयांस् नाथ को नमस्कार करता हूं।इस श्रेयांस् नाथ की उपासना से हमें अपने आपके श्रेयांस् स्वरूप की याद आती है।यह आत्मा ही वासुपूज्य है।जगत् से जितने भी इंद्र हैं ऊर्द्धलोक के, अधोलोक के इन इंद्रों के द्वारा जो पूज्य है, सम्यग्दृष्टि पुरूषों के द्वारा जो उपासनीय है ऐसे वासुपूज्य इन ज्ञानानंद स्वभाव के अनुराग में समाधिभक्त पुरूष इस वासुपूज्य का वंदन कर रहा है।यह आत्मतत्त्व विमल है।कोई भी पदार्थ होता है तो वह अपने आपमें अपने आपकी ओर से स्वयं कैसा है? स्वयं अपने स्वरूप है।उसमें पर का कोई लगाव नहीं है और पर का कोई प्रभाव नहीं है।इसी प्रकार यह मैं आत्मा अपने सहजभाव से अपने आपमें कैसा हूं? केवल ज्ञानस्वरूप, निर्मल, जिसमें किसी प्रकार का मल नहीं।मल सदा द्वंद्व में होता है बाह्य वस्तु के संपर्क से होता है।बाह्य कहते उसे हैं जो स्व समय हो।यदि बेन्च पर कोई दूसरी चीज रखी हो तो वह बेन्च समल है, निर्मल नहीं है।किसी भी चीज का लगाव लगा हो तो भी वह विमल नहीं है।विमल तब होता है जब वह अपने एकत्वस्वरूप को लिए हुए होता है।तो यह अंतस्तत्त्व विमल है।केवल अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप को ही लिए हुए है।ऐसा विमल स्वभाव अंतस्तत्त्व का भक्त पुरूष विमलनाथ स्वामी का वंदन करता है।
अनंत, धर्म, शांति तत्त्व की उपासना- इस समाधिभाव के आधारभूत इस ज्ञानानुभव को जिसने परखा अथवा ज्ञान का स्वरूप जिसने देखा वह जान पाता है कि यह शुद्ध आनंद है।इसकी सीमा पूरी नहीं होती।क्षेत्र से, काल से, भाव से इसकी सीमा पूरी नहीं होती, ऐसा यह अनंत ज्ञानस्वभावी है।जहां ज्ञानपूर्ण विकसित होता है।यह ज्ञान लोक में भी पूरा गया और अलोक में भी पूरा गया।आत्मा नहीं जाता पर यह ज्ञान चला जाता है।इसे केवल एक ज्ञान गति की दृष्टि से निरखना है, प्रदेशों की दृष्टि से नहीं।तो जिसके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की कोई सीमा नहीं है।और साथ ही जिसका कभी विनाश नहीं होता ऐसे अनंत ज्ञानस्वभाव के परिणाम वाला यह समाधिरूचिया अनंत नाथ स्वामी का वंदन कर रहा है 24 तीर्थंकरों का वंदन, मगर सबमें समाधिभाव देखता है।प्रभु से उस भक्त का कोई नाता रिश्ता नहीं है, कोई संबंध नहीं है, संबंध है केवल अंतस्तत्त्व का।उसी अंतस्तत्त्व को तीर्थंकरों में परखकर यह समाधिभक्त पुरूष वंदन कर रहा है।यह आत्मा स्वयं धर्मस्वरूप है।धर्म करो, धर्म का पालन करो, धर्म की शरण गहो, धर्म की छाया में रहो, यह सब कुछ कहा जाता है, मगर वह धर्म कहां मिलेगा? किसकी छाया में जायें? यह धर्म कहीं बाहर नहीं है।धर्मस्वरूप यह मैं आत्मा स्वयं हूं।मेरा सहज अंतस्तत्त्व है ज्ञानमात्र।उसको निरखिये तो यह आत्मा स्वयं धर्मस्वरूप है अथवा इसका जो स्वभाव है, वह शाश्वत अनादि अनंत है।यह स्वयं धर्म है।ऐसे धर्म के नाथ धर्मनाथ प्रभु का मैं वंदन करता हूं।जगत के समस्त जीव शांति के लिए सारा प्रयत्न करते हैं।भागें दौड़े, स्नेह करें, मोह करें, छोटे से छोटे अथवा बड़े से बड़े, सभी कार्य करने का उद्देश्य केवल एक शांति है।मेरे को शांति मिले, आकुलता न रहे तो ऐसा संतोष हम कहां पायेंगे? किसके आलंबन से पायेंगे? किसकी विनती करके पायेंगे? वह शांति कहीं बाहर नहीं है।यह ही मैं निज स्वरूप अकिन्चन हूं, मेरी ज्ञानज्योति के सिवाय और कुछ भी मेरा नहीं है।जो शाश्वत है, मेरा स्वरूप मात्र है, ऐसे इस ज्ञानभाव को अनुभव में लें तो वहां शांति विराजती है।ऐसे शांति के आधार, ऐसे शांति के नाथ शांतिनाथ का मैं वंदन करता हूं।
कुंथ, अरह, मल्लि परमतत्त्व की उपासना- यह नाथ जो धर्मस्वरूप है शांति का स्वामी यह समस्त जीवों में एक समान पड़ा हुआ है।अल्प से अल्प भी जीव हो, निगोद से तुच्छ पर्याय और किसे माना जाय? अब तक समस्त जीवों में जो एक समान रूप से जो बर्त रहा हो जो समस्त जीवों का नाथ हो, सबमें एक सहज अंत:प्रकाशमान् हो ऐसे इस सहज ज्ञानानंद स्वरूप के नाथ कुंथुनाथ की मैं वंदना करता हूं।यह स्वभाव किसी की दृष्टि में आ तो जाय, फिर ये कर्मशत्रु, विकल्पशत्रु आदि ठहर नहीं सकते, अतएव यह आत्मस्वभाव अरह है।अरि का हनन करने वाला है, इसी कारण यह आत्मस्वभाव समस्त जनों के द्वारा वंदनीय है।ऐसे इस अरहनाथ का मैं वंदन करता हूं।जगत में विकृत बल पर गौरव रखने वाले मल्ल बहुत मिलेंगे।शरीर में जो बल प्रकट हुआ है वह विकृत बल है।आत्मा अनंत बली है।उसका संबंध है इस शरीर के साथ।जब आत्मा शरीर से बिदा हो जाता है तो बलिष्ट भी मल्ल हो उसमें बल नहीं रहता।पड़ा रहता है।तो इस शरीर में जितने भी बल आये वे बल कहां से आये? किसने प्रकट किए? वह बल आत्मा के विकृत बल का प्रताप है।तो विकृत बल से गौरव रखने वाले मल्ल जगत में अनेक मिलेंगे, किंतु अनादि काल से जो शत्रु सता रहे हैं संकल्पविकल्प, वे बराबर मर जाते हैं किंतु इनके कुल की ऐसी परंपरा चलती रहती है कि ये सब विकल्प बराबर चलते रहते हैं।उन समस्त विकारों पर विजय करने वाला, उनके समूह को नाश करने वाला कौन है? यह स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा।ऐसे मल्लिनाथ का मैं वंदन करता हूं।
मुनिसुव्रत, नमि, नेमि पार्श्व, वर्द्धमान तत्त्व की उपासना- यह आत्मा किस उपाय से इस शत्रु पर विजय करता है? दूसरे शत्रु को कोई दूसरा मारे तो बहुत क्रोध करना पड़ेगा और क्रोध करने से ही दूसरे को मारा जा सकेगा।किंतु आश्चर्य है कि यहां शांति के बल पर, ज्ञान के बल पर दूसरों पर विजय प्राप्त कर ली जाती है।यह आत्मा सहज व्रत है, सुव्रत है।तो यह मुनि सुव्रत आत्मदेव इस समस्त आत्मा में ज्ञान के बल पर अपने आपमें लगे, ऐसा क्यों नहीं होता।देखो लोक में तो किसी पर विजय पाने के लिए क्रोध लाना पड़ेगा, अपने से बाहर में चेष्टा करनी पडे़गी तब वहां शत्रुओं का नाश किया जा सकता है, पर यहां इस अनादि काल से चले आये हुए इन विकारों को नाश करने के लिए उससे बिल्कुल उल्टा काम करना पड़ रहा है।यहां क्रोधी बनकर दूसरों को पछाड़ पाते हैं तो यहाँ ज्ञान बनाकर कर्म शत्रु को पछाड़ा जा रहा है।यह दुनियावी बल अपने से बाहर होकर शत्रु का नाश कर पा रहा है, किंतु यह अपने आपमें समाकर अपने आपमें लीन होकर इन शत्रुवों को समाप्त कर रहा है।ऐसा यह मुनिसुव्रत आत्मदेव वंदनीय है।ऐसा कौनसा चक्र है जिसके द्वारा अपने आपको सताने वाले शत्रु का ध्वंस किया जाय? वह चक्र है यह स्वयं आत्मदेव, यह ज्ञानानंदस्वरूप सहज आत्मतत्त्व।ऐसे इन समस्त संतापों को नष्ट करने वाले नेमिनाथ स्वामी की मैं वंदना करता हूं।पर अपने को शांति ज्ञान आनंद पाने के लिए बहुत बड़ा काम करना है और वह काम आज की स्थिति में बड़ा बोझ सा जंच रहा है।जैसे सम्यक्त्व का आचरण, सम्यग्ज्ञान की प्रवृत्ति, सम्यक्चारित्र रूप परिणमन।नियम व्रत, संयम ये सब बड़े बोझ लग रहे हैं और इन सब बोझों का धुरा है संसारी जीवों का अज्ञान।इस बोझ को जब रत्नत्रय धुरे पर विराजमान करे तो यह कोई बोझ नहीं मालूम होता है।जो धर्म की धुरे पर अपने आपके उपयोग को विराजमान करके चलता है और चलकर संसार उपयोग करके मुक्तिमार्ग में पहुंचता है।उस धुरे के धारण करने वाले नेमिनाथ स्वामी की मैं वंदना करता हूं।वह सब कुछ है कहाँ? वह यहीं पास है अथवा इसे पारस कहो।जैसे पारस का संबंध लोहे से हो जाय तो लोहा स्वर्ण बन जाता है, इसी प्रकार पारस का संबंध हो जाय इस उपयोग से, जो उपयोग अब तक मलिन बन रहा है उस उपयोग का इस पारस से स्पर्श तो हो जाय: बस, यह उपयोग शुद्ध अविकार हो जायेगा, यह स्वच्छ बन जायेगा।जो स्वयं ऐसा पारस है ऐसे पार्श्वनाथ प्रभु की मैं वंदना करता हूं।यह आत्मदेव वर्द्धमान है।बढ़ने का ही स्वभाव रखता है।इसकी ओर कोई आये तो सही, इसकी ओर कोई दृष्टि तो दे।यह स्वयं वर्द्धमान है, प्रगतिशील है।प्रतिक्षण यह बढ़ते रहने का स्वभाव रखता है।ऐसे वर्द्धमान देव की मैं वंदना करता हूं।इस वर्द्धमान स्वभाव की उपासना से निर्वाण की प्राप्ति होती है।
आत्मदेव की उपासना से संकट दूर होने के मार्ग का लाभ- ये चौबीस तीर्थंकर अनेक अन्य समस्त आत्माओं से जो कि निकटभव्य थे जिन्होंने अपने आपमें अपने स्वरूप की आराधना की, जिसके प्रताप से निर्वाण प्राप्त किया, उनके निर्वाण के उपलक्ष में मैं उनकी वंदना करता हूं।ठीक है किंतु भीतर से एक पर्व के नाते से भी रूचि नहीं होती तब अंतरंग वंदना का क्या भाव हो? जिसको रूचि होती उसकी पूजा के लिए, उसकी उपासना के लिए बहुत जल्दी-जल्दी उसके पूजने की बात मन में रहती है, लेकिन जहाँ जल्दी की बात तो दूर रही, किंतु और जनों से भी अधिक देर लगायी जाय वहाँ यह कैसे अनुमान लगाया जा सकता है कि पर्व के नाते से भी वर्द्धमान प्रभु की उपासना में हमारी रूचि है।रूचि के बिना जो भी काम किए जाते हैं भाव में वह भावना नहीं जग सकती।हम यदि इस वर्द्धमान स्वभाव की, इस वीतराग स्वभाव की रूचि बनायें और उस स्वभाव की उपासना में हम अन्य काम छोड़कर जल्दी मचायें तो यहाँ यह भली बात है।यह नरजीवन थोड़े से समय के लिए मिला हुआ है।जब तक इस देह में किसी प्रकार का रोग न आये, बुढ़ापे से यह देह घिर न जाये, तब तक इस नरजीवन का सदुपयोग कर लें, उसके ही निकट अपना उपयोग रखें और उसमें ही तृप्त रहने की अपनी प्रकृति बनायें।चाहे दुकान पर हों अथवा अन्य किसी जगह, किसी भी काम के प्रसंग में हों, सब जगह अपने आपके निकट रहकर इस आत्मस्वरूप की उपासना की जा सकती है।कर्तव्य यह है कि अपने आपके उस ज्ञानानंदस्वरूप को सारभूत जानकर अन्य सबको असार जानें।चाहे तीन लोक की संपदा भी प्राप्त हो, उस संपदा को भी असार तृण की नाई समझें।पर अपने ज्ञानस्वरूप की उपासना का कार्य कर लें, यहीं एक सारभूत कार्य है।यदि यह कार्य कर लिया गया तो समझो कि बेड़ा पार है।इस आत्मस्वरूप की उपासना से ही हम आपके समस्त संकट सदा के लिए टल सकते हैं।
समाधिभक्त द्वारा समाधिसंपन्न पन्च गुरूवों की वंदना- समाधिभाव की उत्सुकता समझ लेने वाला ज्ञानी संत जो जो पुरूष समाधिभाव को ग्रहण कर रहे हैं और उसमें सफल हुए हैं उन सब पुरूषों को नमस्कार कर रहा है, कोई नमस्कार करे और किसी को नमस्कार किया जाय, इस बीच जो नाता है वह समाधिभाव से नाता है, अन्य नाते से नमस्कार करने का संबंध नहीं है।तब समाधिभाव के धनी 5 महान् आत्मा हैं जिन्हें पंचगुरू शब्द से कहा गया है- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।इन पंचगुरूवों की मैं वंदना करता हूं।इन पंचगुरूवों में से सबसे प्रथम गुरूपद आता है साधु का।यद्यपि आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये तीनों ही मुनि कहलाते हैं।तीनों का एक सा ही स्वरूप है, निर्ग्रंथ है, निष्परिग्रह है।ये ज्ञान ध्यान तपश्चरण में लीन रहा करते हैं।फिर भी कुछ समय साधुपद में रहने के बाद आचार्य अथवा उपाध्याय पद दिया जाता है इस कारण सर्व प्रथम पद मिलता है तो साधुपद मिलता है।ये पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं।परमपद में स्थित कहलाते हैं।इनका अपने-अपने पद में आचरण निर्दोष रहता है इसी कारण इनमें परमेष्ठिता है।
साधुवों की स्पर्शनविषयविरक्ति- साधु का स्वरूप कहा गया है- जो विषयों के आशा के वश न हो विषय हैं 6 प्रकार के।स्पर्शनइंद्रिय, रसनाइंद्रिय, घ्राणइंद्रिय, चक्षुइंद्रिय, श्रोत्रइंद्रिय और मन।कोमल चीज सुहाये, कड़ी चीज सुहाये, चिकना, रूखा, भारी, वजनदार, हल्का आदि स्पर्श सुहाये, ये 8 प्रकार के स्पर्श जो सुहाये, उनकी रूचि जगे, उनके साधन मिलाये, उनमें हर्ष माने, यह स्पर्शन इंद्रिय का विषय है।साधुजन स्पर्शन इंद्रिय के विषय से अतीत होते हैं।बड़े लाड़प्यार में, बड़ी सुकुमालता में पले हुए बड़े-बड़े पुण्यवान लोग जब संसार, शरीर भोगों से विरक्त हो जाते हैं तो कंकरीली भूमि में सोते हैं और उसमें वे खेद नहीं मानते हैं और न पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों का चिंतन करते हैं।आनंद तो सच्ची विरक्तता में ही प्राप्त होता है।कोई पुरूष विषयों से विरक्त हो, विकार रहित केवल ज्ञानस्वरूप की ही बाट जोहता रहता हो और जिसका एकमात्र प्रयत्न यह है और जिसने एक यही निर्णय किया है कि मेरा जीवन तो केवल इस ज्ञानमात्र स्वरूप में रमने के लिए है, शरीर के आराम की कोई बात नहीं चिंतन में लाते हैं।ऐसे आत्मसाधना के साधक साधु पुरूष अपने आपमें अपनी ही धुन बनाने के लिए अपना सारा जीवन मानते हैं।इसी कारण साधुजनों के पास पिछी, कमंडल और शास्त्र ये तीन उपकरण बाहरी रूप से पाये जाते हैं।जिनके चित्त में शोक परिग्रह ये कुछ भी नहीं लगे हुए हैं, जिन्होंने अपना एक यह प्रोग्राम बना लिया है कि मुझे तो मुक्त ही होना है और किसी दूसरी बात में मेरा गुजारा नहीं है।इस प्रकार का जिन्होंने अपना निर्णय बना लिया है, वे साधु पुरूष परमेष्ठी कहलाते हैं।
साधुवों की रसनादिविषयविरक्ति- जो रसनाइंद्रिय के वश नहीं हैं, जिनका प्रोग्राम मात्र मोक्ष प्राप्ति का है वे सरस भोजन नहीं ग्रहण करते।वे तो मात्र अपना जीवन चलाने के लिए शुद्ध सात्विक आहार ग्रहण करते हैं।वे जानते हैं कि घाटी नीचे माटी।भोजन जब गले के नीचे उतर गया तब तो वह माटी के समान हो गया, उसमें फिर स्वाद कहां रह जाता? एक क्षण के स्वाद का रोग आने से कितना खोटा कर्मबंध बनता है और कैसे संस्कार बनते हैं कि जीवन भर उसके साधन बनाये रहने को दिल चाहता है।उनको अलग करने का चित्त नहीं चाहता।घ्राणइंद्रिय का विषय तो बिलकुल ही एक व्यर्थ जैसा है।सूँघा तो क्या, न सूँघा तो क्या? कितने ही पुरूष तो ऐसे होते हैं कि अनेक प्रकार के इत्र फुलेल के सूँघने में बड़ा मौज मानते हैं।अनेक प्रकार के फूल तोड़कर उनको बहुत-बहुत सूँघते रहने में बड़ा हर्ष मानते हैं, वह फूल एकेंद्रिय जीव हैं, उन्हें प्रत्येक वनस्पति का जीव कहते हैं, पर उन फूलों में, उन पत्तों पत्तों में असंख्याते प्रत्येक जीव और रहते हैं, साथ ही यदि वह किसी प्रकार का विशिष्ट फूल है तो उसमें अनंत निगोद जीव भी रह सकते हैं, वृक्ष से फूल फल अथवा पत्ते टूटने के बाद कुछ समय तक उसमें असंख्याते प्रत्येक जीव रहते हैं।उस समय भी पता नहीं है कि कब उसमें से जीव निकले हैं अथवा नहीं है।जब एकदम सूखा हुआ सा दिखने लगता है तब तो कुछ विश्वास होता है कि इनमें से वे भी असंख्याते प्रत्येक जीव निकल गए।तो ऐसे फूलों का ग्रहण ये साधु नहीं किया करते हैं।चक्षुइंद्रिय का विषय है रूप का अवलोकन तथा श्रोत्रइंद्रिय का विषय हैं मनोज्ञ शब्दों में राग।इन सब विषयों से साधु विरक्त रहा करते हैं।
साधुवों की मनोविषयविरक्ति- साधुवों को अरहंत का नंदन कहा गया है।जिनेश्वर के लघुनंदन।वे साधु अरहंत के ही कुटुंब के माने जाते हैं, तो उनकी मुद्रा ऐसी होनी चाहिए जैसी कि अरहंत की प्रतिमा निरखते हैं, जिसको किसी से राग नहीं, किसी से विरोध नहीं, किसी से विशेष बोलचाल नहीं, एक अपनी आत्मसाधना की धुन में ही रहा करते हैं।जिनका दर्शन पाकर जिनेश्वर के दर्शन पाने के समान फल मिलता हो, ऐसा साधु परमेष्ठी का स्वरूप जिनमुद्रा में बताया गया है।तो जिनमुद्रा का अर्थ इतना ही नहीं है कि जिनेंद्र प्रभु की तरह नग्नमुद्रा हो किंतु जिनेश्वर की भाँति समता का भाव भी हो।जैसे प्रभु रागद्वेष रहित हैं, उनमें अकिन्चनता है, ऐसे ही साधु में भी होना चाहिए, हाँ जिनेंद्र और साधु में इतना अंतर है कि जिनेंद्र प्रभु को अब पिछी, कमंडल, शास्त्र आदिक उपकरण भी रखने की आवश्यकता नहीं रही और यहाँ साधु को पिछी, कमंडल तथा शास्त्र, ये उपकरण रखने पड़ते हैं।इन तीन उपकरणों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के परिग्रहों से वे अति दूर रहा करते हैं और इस ही निष्परिग्रहता के बल पर वे आत्मतत्त्व की साधना में ही निरत रहा करते हैं।जिनके दर्शनमात्र से ज्ञानी पुरूष अपने आत्मतत्त्व का स्मरण करते हैं यह समाधिभक्त संत रत्नत्रय की वंदना के बाद और 24 तीर्थंकरों की वंदना के बाद पंचगुरूवों की वंदना कर रहा है।साधु परमेष्ठी में आचार्य, उपाध्याय और साधु सम्मिलित हैं।जिनमें बहुत ही विशिष्ट ज्ञान होता है ऐसे इन साधुजनों में क्रोध रंच मात्र भी नहीं होता, वे किसी को गाली श्राप आदि नहीं देते।उनकी तो चाहे कोई प्रशंसा करे चाहे निंदा, उनकी दृष्टि में वे दोनों ही एक समान हैं।धन्य है उनका यह भाव।जिन साधु संतों के ये भाव आ जाते हैं, उनके दर्शन करने मात्र से पापकर्मों का विनाश होता है।और फिर उन समता के पुन्ज साधुवों की प्रशंसा ही कौन कर सके? चाहे कोई उनकी निंदा करे, चाहे अर्घ उतारे, चाहे उन पर कोई तलवार चलाये, वे सब उनकी दृष्टि में एक समान हैं।उनकी दृष्टि में न कोई शत्रु है, न मित्र, उन साधुजनों को बहुत के स्वरूप का सही परिचय निरंतर उपयोग में रहता है इस कारण उनकी दृष्टि में समताभाव है।इस समताभाव के अधिकारी गृहस्थजन क्यों नहीं बन पाते? यों नहीं बन पाते कि उनके पास आरंभ परिग्रह हैं।उन आरंभ परिग्रहों के बीच चिंतायें हो जाना स्वाभाविक बात है।उन परिग्रहों के बीच अनेक प्रसंग ऐसे आते रहते हैं जिनमें क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषायें उत्पन्न होती रहती हैं, उनमें समता परिणाम लाने की बात नहीं बन पाती है, लेकिन साधु परमेष्ठी तो आरंभ परिग्रह से अत्यंत दूर होते हैं, उनको किसी प्रकार की आशा प्रतिक्षा नहीं रहती है, उनमें पराधीनता नहीं है, इस कारण वे अपने आत्मा में स्वतंत्र विहार करते हैं।
अर्हत्पद की परमेष्ठिता- आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये तीन प्रकार के साधु परमेष्ठी होते हैं।ये जब आत्मस्वरूप में लीन हो जाते हैं तो चार घातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं।आज ऐसा संभव नहीं है कि कोई चार घातियाकर्म नष्ट कर सके और मुक्ति प्राप्त कर सके, लेकिन विदेह क्षेत्र में अब भी मोक्षमार्ग चालू रहा करता है।जब चार घातियाकर्म नष्ट हो जाते हैं तो अरहंत अवस्था प्राप्त होती है।वहां केवलज्ञान उत्पन्न होता है।तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थों का परिज्ञान होता है।वैसा ही अनंत काल तब ज्ञान चलता रहेगा।उनमें अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति व अनंत आनंद प्रकट हो रहा है और सदाकाल ऐसा ही आनंद प्रकट होता रहेगा।ऐसे अनंत चतुष्टय संपन्न अरहंत भगवान की मैं वंदना करता हूं।देखिये- अनंत काल गुजर गया, अनंत भव गुजर गए और आगे अनंत काल पड़ा है।उन अनंतभवों में से किसी भी भव के किसी भी साधन से इस जीव का कुछ लगाव है क्या? उन अनंतभवों में से एक यह प्राप्त भव कुछ गिनती भी रखता है क्या? कुछ भी तो गिनती नहीं रखता।तो इस ही भव में अन्य सब प्रकार के संकोच छोड़कर अन्य प्रकार की आशाओं को तिलान्जलि देकर, समस्त प्रकार के कल्पनाजालों को त्यागकर एक इस आत्मतत्त्व की साधना के लिए अपने इस एक भव को समझ लें।यदि यह काम कर लिया तो समझ लो कि कुछ ही भवों के बाद नियम से मुक्ति प्राप्त होगी।आखिर यहाँ सदा किसी को नहीं रहना है, आज जिसे जो भी समागम प्राप्त हैं वे भी सदा साथ न रहेंगे, ये सब बिछुड़ जायेंगे।यह जो दिखने वाला भौतिक शरीर है यह भी जला दिया जायेगा।मुझ आत्मा को तो कोई देखता नहीं।इस शुद्ध आत्मा पर दृष्टि देकर मुझसे बात नहीं किया करता है।जो भी बात करता है वह इस पर्याय से बात करता है, मैं तो एक शुद्ध तत्त्व हूं, चैतन्यमात्र हूं उससे कोई बात नहीं करता।तब किसी का क्या संकोच, किसी की क्या पराधीनता? किसी की क्या दृष्टि देना।अपने आपको तकिये।अपने आपको निरख लिया तो आपने सब कुछ पा लिया।अपने आपको न तक पाया तो दुनिया में कितना ही भँवरे की तरह मंडराया जाय जगह-जगह, बहुत-बहुत नामवरी प्रतिष्ठा भी बना ली जाय तो उससे आत्मा का रंच मात्र भी हित नहीं हो सकता।आत्मा का हित तो तब होगा जब अपने से भिन्न सर्व परद्रव्य की उपेक्षा करके अपने आपके स्वरूप की श्रद्धा की जाय और उस ही में लीन हो जाया जाय।यदि ऐसा करते नहीं बन पा रहा है तो ऐसी प्रतीति तो रखिये- कि हम एक इस काम को करने के लिए इस मनुष्य भव में आये हैं, अन्य किन्हीं भी कार्यों के लिए नहीं- ऐसी जिनकी भावना हुई है और जो अपने आपके स्वरूप में लीन रहने का यत्न कर रहे वे साधु चार घातिया कर्मों का नाश कर अरहंत अवस्था को प्राप्त करते हैं।
अरहंत परमेष्ठी की उपासना में आत्मलाभ- एक इस अरहंत प्रभु केअतिरिक्त किससे प्रेम बनायें, किसका विश्वास करें? घर के स्त्री पुत्रादिक बड़े आज्ञाकारी हैं, बड़े भले हैं, अरे हैं तो हैं, वे अपने लिए हैं, मेरे लिए भले नहीं हैं, यों निरखना चाहिए।बहुत गुणवान है कुटुंब जिसका कि आकर्षण हो जाना प्राकृतिक बात है तो जहाँ धर्म का नाता है उस नाते के साथ तो आकर्षण रहा लेकिन यह बहुत सरल है, यह हमारी बात बहुत मानता है, यह हमारे लिए बहुत सुख साधन बनाता है और शांति से रहता है, किसी का बिगाड़ नहीं करता, ऐसे बहुत-बहुत गुण हैं, वे गुण पर्याय की दृष्टि में हैं।आत्मा में तो ये दोष माने जाते हैं, जिनको हम गुण समझते हैं वे गुण आत्मा में दोष हैं, किंतु पर्याय की निगाह में गुण हैं।यह बहुत आज्ञाकारी हैं, ऐसा आज्ञाकारी होना क्या आत्मा का गुण है? यह तो आत्मा का विकार है, हम किसी के गुणों पर आकृष्ट होकर उससे स्नेह बढ़ा लेते हैं लेकिन यह स्नेह बढ़ाना भी एक अपने आपके लिए आवरण का काम करता है।एक आत्मा के सहज स्वभाव के नाते से उस सहज स्वभाव की दृष्टि से अगर संबंध बनता है, आकर्षण होता है वह मोक्षमार्ग में बाधक नहीं है।तो अरहंत प्रभु की भक्ति भी हमारी केवल एक समाधि के नाते से है।इस समाधिभक्ति में यह निरखते जाइये कि समाधि के नाते से ही अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुजनों के प्रति भक्ति होती है, और कोई दूसरा नाता ज्ञानी पुरूष के नहीं है, यह जिसका निर्णय है, जिसकी ऐसी प्रवृत्ति है वह कभी भी धर्म से विचलित नहीं हो सकता, जिस बात की आज हम धर्मनिरपेक्षता के नाते से उपेक्षा कर देते हैं।हमारे आचार्यों ने, वीतराग सर्वज्ञदेव ने यह बात एक बहुत बलपूर्वक बताई है ‘कि देव जिनेंद्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो।’ सम्यक्त्व के कारण ये तीन चीजें हैं।देव मानें तो अरहंत को।देखिये- प्रतीति के साथ संबंध है, अकिन्चन है, ज्ञानमात्र ही अपने को प्रतीति में लिए हुए है, और धर्म को मानें तो दयामयी धर्म को माने।स्वदया और परदया का संबंध हो, ऐसी वृत्ति को माने, यह सम्यक्त्व का कारण है।इसके विरूद्ध अगर चलें तो मिथ्यात्व होगा।संसार में रूलना होगा।क्योंकि उसका चित्त बदल गया।संसार के साधनों में ही उसकी रूचि बढ़ गई।वह सम्यक्त्व से विमुख होकर संसार की परंपरा बढ़ाकर अपनी बरबादी कर लेगा।हे आत्मन् ! कुछ अपने आप पर दया तो करो।अपने आपमें सही निर्णय करो कि मैं अकिन्चन ज्ञानमात्र हूं।अपने आप को अकिन्चन अनुभव करने से जो अकिन्चन हो गए उनके प्रति भक्ति जगेगी।ये कौन है पंचगुरू? अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।तो ये साधुजन जब चार घातिया कर्मों का नाश कर लें तो ये अरहंत कहलाते हैं।अरहंत, अरिहंत, अरहंत।जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया वे कहलाते हैं अरिहंत।अरहंत में अ मायने नहीं रूहंत मायने उगने वाले, अब अनंत काल तक जिसके संसार के अंकुर अब नहीं उग सकते हैं ऐसे आत्मा को कहते हैं अरूहंत।अरहंत पूज्य, जो तीन लोक के द्वारा पूज्य है उसे कहते हैं अरहंत।तो यह अरहंतपद गुरूपद है।देखिये- यहाँ अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांचों का अविशेषता रूप से वंदन किया है।
सिद्धपद की परमेष्ठिता- अब ध्यान में लावो कि अरहंत सिद्ध तो पूर्ण निर्दोष हो गए, उनमें अब दोष की गुंजाइश ही नहीं है।मगर आचार्य, उपाध्याय और साधु ये भी बहुत कुछ निर्दोष होते हैं यों पंच गुरूवों में अरहंत प्रभु की वंदना करता है यह समाधिभक्त पुरूष।ये अरहंत वीतराग सर्वज्ञदेव, जब तक कि इनके साथ यह शरीर लगा हुआ हैं, ये विहार करते हैं, इनकी दिव्यध्वनि खिरती है, इनका उपदेश होता है।ये सब बातें होने पर भी वे वीतराग निर्दोष हैं और उनकी इस वीतरागता के प्रताप से जब चार अघातिया कर्म अपने आप समय पाकर नष्ट हो जाते हैं तो चार अघातिया कर्मों का संबंध था और देह का संबंध था, केवल 5 चीजों का ही संबंध रह गया, ये पांचों ही बातें एक साथ दूर हो जाती हैं।अब रह गए वे केवल आत्मा ही आत्मा।जहाँ विकार नहीं, जहाँ कर्म नहीं, जहाँ शरीर का संबंध नहीं, केवल आत्मा ही आत्मा रह गया वे कहलाते हैं सिद्ध परमेष्ठी।हम आपका निजी घर है सिद्धपद।इस पद के प्राप्त होने पर फिर वहां से हटना नहीं होता।जैसे वहां भी अपना निजी घर उसे ही समझा जाता है जहां से कोई हटा न सके।धर्मशाला में तो कोई ठहर जाय तो वह जब चाहे हटा दिया जा सकता है पर किसी को उसके अपने घर से कोई हटा नहीं सकता।तो इसी प्रकार यह सिद्धपद अपनी निजी गृह है।वहां से कोई हटा नहीं सकता।तो अपना एक यही प्रोग्राम बनना चाहिए कि मुझे तो अपना वह सिद्धपद प्राप्त करना है अर्थात् मुक्त होना है।हमें किसी से झगड़ा नहीं करना है।धर्म के नाम पर कुछ भी विवाद नहीं करना है।हाँ, जो सत्य बात है एक बार यों कह देना यह आत्मा की भक्ति कहलाती है।और उसे जानकर अगर कोई प्रकाश में भी आ जाय, उनका भला हो जाय तो मैं उनके इस कल्याण का विरोधी क्यों बनूँ? कह दिया, बता दिया मार्ग बड़ी शांति से, बड़ी सरलता से, लेकिन धर्म के नाम पर भी सामाजिक व्यवस्था के नाम पर भी हमें बकवास नहीं करनी है।दुनिया के समस्त पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं, सबका अपने में अपना परिणमन होता है।किसी का किसी से कुछ नाता नहीं है।प्रभु के दर्शन करके हमें मिलता क्या है? हमें अपने आपके स्वरूप में लीन होने का उपाय ही तो मिलता है।यही एक सबसे जबरदस्त हमारा और प्रभु का नाता है, इस नाते के कारण जिस पुरूष की जिससे प्रीति होती है, जिस आत्मा का जिससे अनुराग जगा है वह उतना प्रबल हो जाता है।घर को तो छोड़ने को तैयार रहे, मगर पंचगुरूवों को छोड़ने के लिए तैयार न हो सके।यों समाधिभक्त संत समाधि में सफल हुए महान् आत्माओं का मैं वंदन करता हूं और वंदन करता हूं उन गुणों में इतना अनुराग हो जाता है कि उन पंचगुरूवों का ध्यान नहीं होता।उसका केवल एक उपयोग रहता है इंद्रियज ज्ञानमय और उस समय कहा जा सकेगा कि अभेद वंदना, निश्चय वंदना अब किया है इस समाधिभक्त ने।यों समाधिभक्त समाधि के नाते से पंचगुरूवों की वंदना करता हुआ उन पंचगुरूवों के गुणों में अनुरक्त हो रहा है।
शांति के मार्ग में शांतस्वरूप की श्रद्धा की प्राथमिकता- हमआप सब लोग सुख शांति चाहते हैं और उसके लिए लोग बड़ी हैरानी भी अनुभव कर रहे हैं पर सुख शांति मिलती नहीं।ये जितने भी धर्म के रूपक दिखाये जाते हैं उनसे हमें क्या शिक्षा मिलती है? जरा इस पर तो कुछ दृष्टिपात करो।इस जीव को मार्ग में ले जाने में कारण सर्वप्रथम श्रद्धा है।यदि श्रद्धा नहीं है तो कोई उस मुक्ति के मार्ग को तय न कर सकेगा।प्रत्येक बात में आप यही पायेंगे कि श्रद्धा के बिना कोई काम नहीं बनता।व्यापार आदिक के कामों में भी जब आपको उनमें श्रद्धा है तो उन उन कार्यों को कर सकेंगे अन्यथा नहीं।अब आप सोचिये कि हमें चाहिए क्या? हमें चाहिए शांति।यदि पहिले से ही यह न सोचे कि हमें शांति चाहिए तो फिर शांति मिलेगी कहाँ से? शांति कहीं बाहरी चीज से न मिलेगी, शांति मिलेगी अपने आपसे।वह शांति मिलेगी कैसे? वह शांति मिलेगी अपने आपकी ओर झुककर।तो शांति का यह खुद धाम है, शांति का स्वरूप है।इसकी पहिले श्रद्धा करें तो शांति प्राप्त होगी अन्यथा नहीं।सुख कहाँ है? इस बात पर खूब विचार कर लो।
सुख न परिजनों में मिलेगा, न धन वैभव आदिक से मिलेगा, न अन्य किन्हीं बाह्य वस्तुओं से मिलेगा।सुख मिलेगा अपने आत्मस्वरूप के स्मरण से।जो वीतराग सर्वज्ञदेव हुए हैं, जिन्होंने परम शांतिधाम को प्राप्त किया, वे हमारे लिए आदर्शरूप हैं।ऐसी श्रद्धा हुए बिना शांति नहीं प्राप्त कर सकते? तो मुझे बनना क्या है? इसका उत्तर पाने के लिए जिस पर दृष्टि जाय वही आदर्श कहलाता है।जैसे संगीत सीखने वाले लोग पहिले किसी प्रसिद्ध संगीत को लक्ष्य में रखकर उसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, तब वैसा संगीतज्ञ बन पाते हैं।इसी प्रकार वीतराग सर्वज्ञदेव को लक्ष्य में रखकर, उनकी श्रद्धा करें तब हम आप शांति प्राप्त कर सकते हैं।वे प्रभु सम्यक्त्व की साक्षात् मूर्ति हैं, उनके समान आदर्श हमें यहाँ कहाँ मिलेगा? उस परमशांति के मार्ग में जो साधुजन चल रहे हैं उनकी हम आप उपासना करते हैं।वे गुरु कैसे है? वे हैं निर्विकार, निष्परिग्रह, समता के पुज्ज, जिनके पास पिछी, कमंडल और शास्त्र इन तीन उपकरणों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी परिग्रह नहीं है, केवल आत्मतत्त्व में ही जिनका श्रद्धान बना हुआ है, वे हमारे गुरु हैं, उनकी उपासना में लगें।तो इस आज के रूपक में हम आप यही शिक्षा ले रहे हैं कि हम आप सभी धर्म का पालन करें।इस धर्म के प्रताप से ही संसार के समस्त संकट टलेंगे।आप केवल दो ही भावनायें बनाये रहें तो दुनियावी समस्त झंझट छूटेंगे।एक तो यह श्रद्धा बनाये रहो कि मैं अकिन्चन हूं, मेरा जगत में कहीं कुछ नहीं है, सबसे निराला हूं, और दूसरी श्रद्धा यह बनाये रहो कि मुझमें केवल ज्ञान ही ज्ञान नजर आ रहा है।ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ नहीं नजर आता।यह ज्ञान ही हमारे साथ जायगा अन्य कुछ नहीं।मैं सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र हूं, यह प्रतीति यदि रहेगी तो संसार के संकटों से अवश्य ही पार हो जायेंगे।इस ज्ञान की वृद्धि के लिए जो स्वाध्याय, सत्संग आदिक उपाय बताये हैं उनके द्वारा अपने ज्ञान की वृद्धि करें और संसार के समस्त संकटों से छुटकारा प्राप्त करें।
स्वयं की यथार्थ श्रद्धा में संकटों से छुटकारा- हम आप सब कोई जानने देखने वाले पदार्थ हैं, और जो हम हैं, सो ही हम हैं जो आप हैं सो ही आप हैं।अपने से बाकी सब निराले हैं।सबसे निराला मैं एक जानने देखने वाला पदार्थ हूं।जिसको यह श्रद्धा नहीं है वह इस समय भी दु:खी रहता है और आगे भी जन्म मरण बढा़येगा।बात अगर ऐसी ही है तो श्रद्धा करने में कौनसी आपत्ति है? खूब निरख लो, इन इंद्रिय व्यापारों को बंद कर अपने अंदर परख लो कि मैं क्या हूं? जानने देखने वाला पदार्थ हूं और सबसे निराला हूं, अब इसके खिलाफ हम कुछ विचार बनाते हैं तो वहाँ आकुलतायें होती हैं।सत्य बात यह है, अन्यथा बतलावो कि अनंत भव प्राप्त किए, उन अनंत भवों की आज कुछ भी चीज साथ है क्या? क्या ये स्त्री, पुत्र, धन, संपदा आदिक उन अनंते भवों में साथ न थे? थे, पर आज वे साथ है कहां? इसी तरह जो समागम आज प्राप्त हैं वे भी कुछ समय बाद साथ न रहेंगे, क्योंकि वे मेरे हैं ही नहीं।तो अब वे क्या हमारे हैं? न पहिले थे, न आगे रहेंगे और अब हैं तो क्या हैं? खूब परख करके देखो।इसी के मायने हैं धर्म।यदि यह बात श्रद्धा में आ गयी तो यह धर्म संसार से नियम से पार कर देगा।जिनकी हम पूजा करते हैं ऐसे जिनेंद्रदेव, सिद्ध महाराज, बस यही स्वरूप हमारा बन जायेगा, सदा के लिए संकटों से छूट जायेंगे पर यहां के समागमों में कोई लाभ न होगा।यदि सत्य श्रद्धा अपनी बनायें तो अपने आपको लगेगा कि मेरा आत्मा अमूर्त है, निर्भार है।अभी आत्मा के स्वरूप से बाहर दृष्टि जा रही है तो सारा बोझ लग रहा है।बड़ी आकुलतायें हो रही हैं, कुछ मार्ग नहीं दिखता है।और जिस काल अपने आत्मा की सच्ची सुध हो जायेगी कि मैं आत्मा सबसे निराला केवल जानन देखनहार हूं, ऐसी पक्की श्रद्धा हो जाय तो उसी समय आप बोझ से मुक्त हुआ सा अनुभव कर लेंगे।किसी के स्नेह में बहुत बड़ी चिंतायें शोक अनेक दबाव दिल पर हैं, किंतु जिस काल में जान लिया जायेगा कि मेरा तो कुछ हैं ही नहीं, मेरा तो मात्र जानने देखने वाला यह मैं आत्मा हूं; बस आपका बोझ तुरंत हट जायेगा।बात करने की यही है।
अंत: स्वतत्त्व की उपासना के साहस में आत्मलाभ- भैया ! आपको अपने को अकिन्चन निर्भार अनुभवने में थोड़ी आपत्ति यह आयेगी कि गृहस्थ होने के कारण सदा तो यह भाव बना नहीं सकते, जिनका जो व्यवसाय है उनका अनेक लोगों से संपर्क रहेगा, उनके संग बोलचाल का व्यवहार रखना पड़ेगा वहां गृहस्थ उस भावना से चिग जायेगा।तो एक यह आपत्ति आती है, लेकिन हिम्मत बनाकर कोई अगर यह सोच ले कि मुझे किसी की दृष्टि में बड़ा नहीं बनना है।जिनकी दृष्टि में हम बड़ा कहलवाने की बात सोचते हैं वे स्वयं मोही हैं, मलिन हैं, कर्मों के प्रेरे हैं।उनके बीच बड़ा कहलवाने की बात सोचने से कुछ भी लाभ न मिलेगा।हां, यदि बड़े होवें तो अनंत सिद्ध भगवान के ज्ञान में बड़े होवें, उससे हमें लाभ है।गाँवों में, जिलों में, देश में सबके बीच मैं बड़ा कहलाऊँ- इतनी इच्छा भर की कि वह धर्म के मार्ग से विमुख हो जायेगा।उसे फिर धर्म की प्राप्ति नहीं होगी।धर्म का लाभ तब है जब यह विश्वास हो कि मैं सबसे निराला हूं।धर्म के काम के समय धर्म की ही बात दृढ़ता से रखिये- रोजगार के समय रोजगार के काम में दृष्टि हो, लेकिन जब हमारी धर्म साधना की दृष्टि बनी हुई हो उस समय हम केवल धार्मिक भावनायें करें।कितने ही आज्ञाकारी स्त्री, पुत्रादिक हों, कैसा ही बड़ा सुंदर व्यवहार रखने वाले पडौसी हों, सभी मुझसे अत्यंत निराले हैं।कितने निराले जितने कि दुनिया के गैर जीव हैं।जब धार्मिकता की धुन में आ रहे हों तो बड़ी दृढ़ता से ऐसा अपना पक्का निश्चय रखना चाहिए कि मैं आत्मा अमूर्त हूं, निर्भार हूं।इस अंतस्तत्त्व की उपासना के प्रसाद से जो आत्मा निर्भार बनते हैं उनको चारणऋद्धि प्रकट होती है और वे अनेक प्रकार से आकाश में विहार करते हैं।उनका आत्मा निर्भार हो गया है और ऐसे विशिष्ट धर्म का, पवित्रता का अभ्युदय हुआ है कि वे आकाश में विहार करने लगते हैं।लोग तो यंत्र लेकर आकाश विहार कर सकेंगे, लेकिन जो ज्ञानमात्र अकिन्चन केवल ज्ञानज्योतिस्वरूप अपने आपका ध्यान करता है और उसकी धुन रखता है तो कुछ समय बाद उसमें चारणऋद्धि उत्पन्न होती है।ऐसे चारणऋद्धिधारी मुनिश्वरों का मैं वंदन करता हूं।