वर्ण्यसमा
From जैनकोष
न्यायदर्शन सूत्र/ मूल व भाष्य/5 1/4/288 साध्यदृष्टांतयोद्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ण्यावर्ण्य विकल्पसा-ध्यसमः ।4।.................लोष्टः खलु क्रियावान् विभुर्दृष्टः काममात्मापि क्रियावान् विभुरस्तु विपर्यय वा विशेषो वक्तव्य इति । ख्यापनीयो वर्ण्यो विपर्ययादवर्ण्यः तावेतौ साध्यदृष्टांतधर्मो विपर्यस्यतो वर्ण्यावर्ण्यसमौ भवतः । श्लोकवार्तिक/4/1/33/न्या./श्लोक 342/476 ख्यापनीयो मतो वर्ण्यः स्यादवर्ण्यो विपर्ययात् । तत्समा साध्यदृष्टांतधर्मयोरत्र साधने ।342। = प्रसिद्ध कथन के योग्य वर्ण्य है और उससे विपरीत अवर्ण्य है । ये दोनों साध्य दृष्टांत के धर्म हैं । इसके विपर्यय वर्ण्यावर्ण्यसम कहाते हैं । जैसे लोष्ट क्रियावान् व विभु देखा जाता है , उसी प्रकार आत्मा भी क्रियावान् व विभु हो जाओ । अथवा यों कहिए कि वर्ण्य तो साधने योग्य होता है और अवर्ण्य असाध्य है । अर्थात्-दृष्टांत में संदिग्धसाध्य सहितपने का आपादन करना वर्ण्यसमा है और पक्ष में असंदिग्धसाध्य सहितपने का प्रसंग देना अवर्ण्यसमा है ।