विरत
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि/9/45/458/10 स एवं पुनः प्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमकारणपरिणामविशुद्धियोगाद् विरतव्यपदेशभाक् सन्...। = वह (सम्यग्दृष्टि श्रावक) ही प्रत्याख्यानावरण के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की विशुद्धिवश विरत (संयत) संज्ञा को प्राप्त होता है।
राजवार्तिक/9/45/-/636/8 पुनर्निर्द्दिष्टः ततो विशुद्धिप्रकर्षात् पुनरपि सर्वगृहस्थसंगविप्रमुक्तो निर्ग्रंथतामनुभवं विरत इत्यभिलप्यते। = फिर (वह श्रावक) विशुद्धि प्रकर्ष से समस्त गृहस्थ संबंधी परिग्रहों से मुक्त हो निर्ग्रंथता का अनुभव कर महाव्रती बन जाता है। उसी को ‘विरत’ ऐसा कहा जाता है।–विशेष देखें संयत ।
एक ग्रह–देखें ग्रह ।