सांपरायिक आस्रव
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
राजवार्तिक अध्याय 6/4/4-7/508
कर्मभिः समंतादात्मनः पराभवोऽभिभवः संपरायः इत्युच्यते ॥4॥ तत्प्रयोजनं कर्म सांपरायिकमित्युच्यते यथा ऐंद्रमहिकमिति ॥5॥ ...मिथ्यादृष्ट्यादीनां सूक्ष्मसाम्परायान्तानां कषायोदयपिच्छिलपरिणामानां योगवशादानीतं कर्म भावेनोपश्लिष्य माणं आर्द्रचर्माश्रित रेणुवत् स्थितिमापद्यमानं साम्परायिकमित्युच्यते।
= कर्मों के द्वारा चारों ओर से स्वरूप का अभिभव होना साम्पराय है ॥4॥...इस साम्पराय के लिए जो आस्रव होता है वह सांपरायिक आस्रव है ॥5॥...मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्पराय दशवें गुणस्थान तक कषाय का चेप रहने से योग के द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़े पर धूल की तरह चिपक जाते हैं। अर्थात् उनमें स्थिति बंध हो जाता है। वही साम्पारयिकास्रव है।
अधिक जानकारी के लिये देखें आस्रव - 1.5।
पुराणकोष से
आस्रव के दो भेदों में प्रथम भेद । यह कषायपूर्वक होता है । मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मतसांपराय गुणस्थान तक के जीवों के सकषाय होने से यह आस्रव होता है । इसके पांच इंद्रियाँ, चार कषाय, पाँच अव्रत, और पच्चीस क्रियाएँ ये 39 द्वार हैं― पच्चीस क्रियाओं के नाम निम्न प्रकार है―
1. सम्यक्त्व 2. मिथ्यात्व 3. प्रयोग 4. समादान 5. कायिकी 6. क्रियाधिकरणी 7. पारितापिकी 8. प्राणातिपातिकी 9. दर्शन 10. स्पर्शन 11. प्रत्यायिकी 12. समंतानुपातिनी 13. अनाभोग 14. स्वहस्त 15. निसर्ग 16. विदारण 18. आज्ञाव्यापादिकी 19. अनाकांक्षी 20. प्रारंभ 21 पारिग्रहिकी 22. माया 24. मिथ्यादर्शन और 25 अप्रत्याख्यान । हरिवंशपुराण - 58.58-82