सुखमा काल
From जैनकोष
तिलोयपण्णत्ति/4/320-394
‘‘नोट—मूल न देकर केवल शब्दार्थ दिया जाता है।’’
- सुषमा — इस प्रकार उत्सेधादिक के क्षीण होने पर सुषमा नाम का द्वितीय काल प्रविष्ट होता है।395। इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। उत्तम भोगभूमिवत् मनुष्य व तिर्यंच होते हैं।
- शरीर — शरीर समचतुरस्र संस्थान से युक्त होता है।318।
- आहार — तीसरे दिन अक्ष (बहेड़ा) फल के बराबर अमृतमय आहार को ग्रहण करते हैं।398।
- जन्म व वृद्धि — उस काल में उत्पन्न हुए बालकों के शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसने में पाँच दिन व्यतीत होते हैं।399। पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणप्राप्ति, तारुण्य, और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता, इनमें से प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के पाँच-पाँच दिन जाते हैं।409।
शेष वर्णन सुषमासुषमावत् जानना।
अधिक जानकारी के लिये देखें काल - 4।