सूत्रपाहुड गाथा 20
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जिनवचन में ऐसा मुनि वन्दने योग्य कहा है -
पंचमहव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जो स संजदो होई ।
णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य ।।२०।।
पंचमहाव्रतयुक्त: तिसृभि: गुप्तिभि: य: स संयतो भवति ।
निर्ग्रंथमोक्षमार्ग: स भवति हि वन्दनीय: च ।।२०।।
महाव्रत हों पाँच गुप्ती तीन से संयुक्त हों ।
निरग्रन्थ मुक्ती पथिक वे ही वंदना के योग्य हैं ।।२०।।
अर्थ - जो मुनि पंच महाव्रत युक्त हो और तीन गुप्ति संयुक्त हो वह संयत है, संयमवान है और निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग है तथा वह ही प्रगट निश्चय से वंदने योग्य है ।
भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रत सहित हो और मन, वचन, कायरूप तीन गुप्ति सहित हो वह संयमी है, वह निर्ग्रंथ स्वरूप है, वह ही वंदने योग्य है । जो कुछ अल्प बहुत परिग्रह रखे सो महाव्रती संयमी नहीं है, यह मोक्षमार्ग नहीं है और गृहस्थ के समान भी नहीं है ।।२०।।