लिंगपाहुड गाथा 13
From जैनकोष
आगे फिर इसी को विशेषरूप से कहते हैं -
धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊण भुञ्जदे पिंडं ।
अवरपरूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो ।।१३।।
धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुंक्ते पिंड् ।
अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति स: श्रमण: ।।१३।।
जो कलह करते दौड़ते हैं इष्ट भोजन के लिये ।
अर परस्पर ईर्षा करें वे श्रमण जिनमार्गी नहीं ।।१३।।
अर्थ - जो लिंगधारी पिंड अर्थात् आहार के निमित्त दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह करके आहार को भोगता है, खाता है और उसके निमित्त अन्य से परस्पर ईर्ष्या करता है, वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है ।
भावार्थ - इस काल में जिनलिंग से भ्रष्ट होकर पहिले अर्द्धफालक हुए, पीछे उनमें श्वेताम्बरादिक संघ हुए, उन्होंने शिथिलाचार पुष्ट कर लिंग की प्रवृत्ति बिगाड़ी, उनका यह निषेध है । इनमें अब भी कई ऐसे देखे जाते हैं जो आहार के लिए शीघ्र दौड़ते हैं, ईर्यापथ की सुध नहीं है और आहार गृहस्थ के घर से लाकर दो चार शामिल बैठकर खाते हैं, उसमें बंटवारे में सरस, नीरस आवे तब परस्पर कलह करते हैं और उसके निमित्त परस्पर ईर्ष्या करते हैं, इसप्रकार की प्रवृत्ति करें तब कैसे श्रमण हुए ? वे जिनमार्गी तो हैं नहीं, कलिकाल के भेषी हैं । इनको साधु मानते हैं वे भी अज्ञानी हैं ।।१३।।