लिंगपाहुड गाथा 16
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो वनस्पति आदि स्थावरजीवों की हिंसा से कर्मबंध होता है उसको न गिनता स्वच्छंद होकर प्रवर्तता है, वह श्रमण नहीं है -
बंधो णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह य वसुहं पि ।
छिंददि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।१६।।
बंध नीरजा: सन् सस्यं खंडयति तथा च वसुधामपि ।
छिनत्ति तरुगणं बहुश: तिर्यग्योनि: न स: श्रमण: ।।१६।।
जो बंधभय से रहित पृथ्वी खोदते तरु छेदते ।
अर हरित भूी रोंधते वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ।।१६।।
अर्थ - जो लिंग धारण करके वनस्पति आदि की हिंसा से बंध होता है, उसको दोष न मानकर बंध को नहीं गिनता हुआ सस्य अर्थात् अनाज को कूटता है और वैसे ही वसुधा अर्थात् पृथ्वी को खोदता है तथा बारबार तरुगण अर्थात् वृक्षों के समूह को छेदता है, ऐसा लिंगी तिर्यंच- योनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है ।
भावार्थ - वनस्पति आदि स्थावर जीव जिनसूत्र में कहे हैं और इनकी हिंसा से कर्मबंध होना भी कहा है उसको निर्दोष समझता हुआ कहता है कि इसमें क्या दोष है ? क्या बंध है ? इसप्रकार मानता हुआ तथा वैद्य कर्मादिक के निमित्त औषधादिक को, धान्य को, पृथ्वी को तथा वृक्षों को खंडता है, खोदता है, छेदता है वह अज्ञानी पशु है, लिंग धारण करके श्रमण कहलाता है, वह श्रमण नहीं है ।।१६।।