लिंगपाहुड गाथा 18
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
पव्वज्जहीणगहिणं णेहं सीसम्मि वट्टदे बहुसो ।
आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।१८।।
प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वर्त्तते बहुश: ।
आचारविनयहीन: तिर्यग्योनि: न स: श्रमण: ।।१८।।
श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो ।
हीन विनयाचार से वे श्रमण नहीं तिर्यंच हैं ।।१८।।
अर्थ - जिस लिंगी `प्रव्रज्या हीन' अर्थात् दीक्षा रहित गृहस्थों पर और शिष्यों में बहुत स्नेह रखता है और आचार अर्थात् मुनियों की क्रिया और गुरुओं के विनय से रहित होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है ।
भावार्थ - गृहस्थों से तो बारम्बार लालपाल रक्खे और शिष्यों से बहुत स्नेह रक्खे तथा मुनि की प्रवृत्ति आवश्यक आदि कुछ करे नहीं, गुरुओं के प्रतिकूल रहे, विनयादिक करे नहीं, ऐसा लिंगी पशु समान है, उसको साधु नहीं कहते हैं ।।१८।।