लिंगपाहुड गाथा 7
From जैनकोष
पाओपहदभावो सेवदि य अंबभु लिंगिरूवेण ।
सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकंतारे ।।७।।
पापोपहतभाव: सेवते च अब्रह्म लिंगिरूपेण ।
स: पापमोहितमति: हिंडते संसारकांतारे ।।७।।
जो पाप उपहत आत्मा अब्रह्म सेवें लिंगधर ।
वे पाप मोहितमती जन संसारवन में नित भ्रें ।।७।।
अर्थ - पाप से उपहत अर्थात् घात किया गया है आत्मभाव जिसका ऐसा होता हुआ जो लिंगी का रूप करके अब्रह्म का सेवन करता है वह पाप से मोहित बुद्धिवाला लिंगी संसाररूपी कांतार-वन में भ्रमण करता है ।
भावार्थ - पहिले तो लिंग धारण किया और पीछे ऐसा पाप परिणाम हुआ कि व्यभिचार सेवन करने लगा, उसकी पाप बुद्धि का क्या कहना ? उसका संसार में भ्रमण क्यों न हो ? जिसके अमृत भी जहररूप परिणमे उसके रोग जाने की क्या आशा ? वैसे ही यह हुआ, ऐसे का संसार कटना कठिन है ।।७।।