वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1634
From जैनकोष
मय्येव विदिते साक्षाद्विज्ञातं भुवनत्रयम्।
यतोऽहमेव सर्वज्ञ: सर्वदर्शी निरंजन:।।1634।।
फिर यह ज्ञानी ऐसा चिंतन करता है कि उस स्वरूप को जानने से मैंने तीनों भुवन जान लिया। परमात्मस्वरूप का परिचय हुआ तो मैंने सब कुछ जान लिया। इसके दो मर्म हैं―एक तो जब स्वरूप का परिचय होता है तो ऐसा सहज विकास होता है कि समस्त विश्व हमारे ज्ञान में झलक जाता है। दूसरा मर्म यह है कि स्वभाव का प्रयोजन क्या है? प्रयोजन तो आनंद प्राप्ति का है, सो अपने स्वरूप को जानें, उस ही में रमें तो वह सहज आनंद प्राप्त होता है क्योंकि जो प्रयोजन है, परम इष्ट है उसकी प्राप्ति हो जाती है। ज्ञानी पुरुष ऐसा चिंतन कर रहा हे कि मैंने अपने स्वरूप को जाना तो समस्त चित् जान लिया यों समझिये। कारण कि यह मैं ही तो सर्वज्ञ हूँ, सर्वदर्शी हूँ, कर्मकलंक आदिक से रहित हूँ। कोई चीज प्रयत्न से कर लें, उसका फल पाने में थोड़ी देर भी हो पर उसका फल मिलना निश्चित है। तो ऐसे विशुद्ध आत्मा के जानने का फल यह है कि यह आत्मा सर्वदृष्टा बने। समस्त विभाव नोकर्म द्रव्यकर्म इन सब कलंकों से मुक्त हो यही है आत्मा के जानने का फल। सो यही रूप मैं आत्मा हूँ तो अब यह निर्णय करना है कि बस मैंने सब कुछ जान लिया। अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष इस प्रकार के चिंतन में जान ले तो समझो कि वह सर्व विश्व को जानने का उपाय बन चुका।