वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1635
From जैनकोष
एको भाव: सर्वभावस्वभाव: सर्वे भावा एकभावस्वभावा:।
एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्ध: सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धा:।।1635।।
एक भाव सर्वभावों के स्वभावरूप है और समस्तभाव एक भाव के स्वभावरूप है। वह एक भाव कौन? निज ज्ञानतत्त्व। यह ज्ञानतत्त्व भाव ऐसा है कि जिसमें समस्त विश्व के पदार्थ प्रतिबिंबित हो जाते हैं अर्थात् विश्व का यह ज्ञानभाव बन जाता है। ज्ञान ज्ञेयाकार बनता है, अर्थात् ज्ञान का ऐसा स्वभाव है, स्वभाव ही ऐसा है कि जो सत् हो उसे यह ग्रहण कर ले, तो आत्मा का एक ज्ञानभाव ऐसा है कि जहाँसमस्त पदार्थ प्रतिबिंबित हो जाते हैं उन पदार्थों के आकाररूप आत्मा में आनंद हो जाता है। और ये सब भाव इसके ज्ञानानंद हैं, ये सभी भाव ज्ञान के कारण बनेंगे। इस कारण यह कहना यथार्थ है कि एक भाव सब भावों के स्वभावरूप है और यह ज्ञान सारे विश्व को स्वभावरूप जानता है। जैसे दर्पण के सामने बीसों चीजें रखी हैं तो वे सभी की सभी चीजें उस दर्पण में प्रतिबिंबित हो जाती हैं, वह दर्पण नानारूप नहीं बनता है, ऐसे ही एक भाव यह चैतन्यमात्र सर्वभावों के स्वभाव रूप है अर्थात् इसमें समस्त विश्व प्रतिबिंबित है क्योंकि ज्ञान ही आत्मा है और ज्ञान ज्ञेयाकाररूप होता ही है और गुण ज्ञेयाकार रूप होगा वह आत्मा की जितनी दुनिया में सब सत् पदार्थ हुए। समस्त सत् पदार्थ रूप होने से इन भावों से आत्मा को कहा है। प्रयोजन यह निकला कि हम अपने स्वभाव को भली प्रकार जानते रहें। उपयोग के मायने तो यह हैं एक आंतरिक तप। तो मैं हूँ ज्ञानरूप हूँ, ज्ञान ज्ञेयाकार होता। इस ज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को हम एक साथ जान लेते हैं। और चूंकि अपने ही ज्ञान से उस ज्ञान को जाना तो उस जानन को निरंतर बनाये रहते हैं।