वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 208
From जैनकोष
नमंति पादराजीवराजिकां नतमौलय:।
धर्मैक शरणीभूतचेतसां त्रिदशेश्वरा:।।208।।
धर्ममूर्ति का सन्मान―जिनके चित्त में एक धर्म ही शरण है उनके चरण कमलों को बड़े-बड़े इंद्रादिक भी नतमस्तक होकर नमस्कार करते हैं। सोलह कारण भावना भी धर्म के रूप हैं। जो पुरुष उन सोलह भावनाओं को भाता है उस सम्यग्दृष्टि पुरुष के तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। और जैसे-जैसे उस तीर्थंकर प्रकृति का उदय होगा यद्यपि उदय होता है, 13 वें गुणस्थान में भगवान होते हैं, अरहंत होते हैं, केवल ज्ञानी होते हैं तब तीर्थंकर का उदय कहलाता है। साक्षात् दिव्य देशना दिया करते हैं किंतु उस भव में जन्म लेने से 6 महीना पहले से इंद्र उनकी भक्ति में रत्नवर्षा कराता है। यह सब किसका महात्म्य है? धर्म का।
धर्म का महत्व―धर्म और अधर्म इन दोनों को यदि एक तराजू के दोनों पलड़ों पर तौला जाये तो आपकी निगाह से किसका पलड़ा भारी होना चाहिए? धर्म का। अर्थात् अपने जीवन में महत्व धर्म को देना चाहिए, धन को नहीं। क्योंकि धन तो धर्म वाले का सेवक होकर आगे-आगे आता है। धन को क्या कोई हाथ पैर कमाते हैं? आपसे बढ़िया-बढ़िया हाथ पैर तो सैकड़ों हजारों पुरुषों के हैं, पर धन से हीन भी देखे जाते हैं। धन आता है तो यह सब धर्म का फल है, और ओह सच बात तो यह है कि जो धन को न कुछ मानता है उसे तृणवत समझता है उससे बढ़कर धनी कोई नहीं है। लेकिन लोकव्यवहार की दृष्टि से धन की चर्चा की जाय तो धन वैभव का समागम भी धर्म का प्रसाद है। इसलिए धर्म की शरण कभी न छोड़ो, ये तो तीर्थंकर देव जब इनका जन्म होता है तो 6 महीने पहिले रत्नों की वर्षा नगर में होती है। और यदि कोई नरक में है यह जीव जिसे तीर्थंकर होना है तो ऐसा जीव तीसरे नरक तक पाये जाते हैं कि जो वहाँ से निकलकर तीर्थंकर तक होंगे। तो जन्म लेने से 6 महीना पहिले यहाँ भूलोक में तो रत्नवर्षा होती है और नरक में एक कोट रचा जाता है जिसके अंदर वह नारकी जीव जिसे तीर्थंकर होना है स्वरक्षित रहता है जिससे कोई सता न सके। प्रथम तो जितने भी तीर्थंकर पुरुष हुए हैं वे सब ऊर्ध्व लोक से आकर हुए हैं, स्वर्ग से। उसके ऊपर से विमानों से, पर कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो नरकगति से आकर तीर्थंकर हुए हों। नरकगति में तो पाप धुलते हैं। जो पाप पहिले कमाये हैं उन्हें धुलने का यह स्थान है। यहाँ यदि कोई जीव सम्यग्दृष्टि है तो वह पापों को धोकर निरखकर आता है और यदि मिथ्यादृष्टि है तो वह भी पापों को बाँधता है और, वह मरकर मनुष्य होता है या तिर्यंच होता है। नारकी जीव मरकर तुरंत नारकी नहीं हो सकता ऐसा नियम है और देव भी मरकर तुरंत देव नहीं होता, नारकी मरकर तुरंत देव नहीं होता। देव मरकर तुरंत नारकी नहीं होता। तो मिथ्यादृष्टि नारकी वहाँ पाप ही बाँधता है। सम्यग्दृष्टि नारकी वहाँ पापों को धोकर निरखकर आता है। तो जिसने सोलह कारण भावनाएँ भाई और तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया वह तीर्थंकर होने पर या जन्म लेने पर ही इंद्रादिक बड़े-बड़े महापुरुष उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, यह सब धर्म का प्रसाद है।
धर्मों की आपत्ति में रक्षा सुयोग की अचिंतित संभावना―कोई पुरुष समर्थ हो जिसे यह आशा है कि हम जिसको जिस प्रकार चलायेंगे, जिसको जिस प्रकार बाँधेंगे, मारेंगे उस प्रकार मरेगा ऐसे किन्हीं पुरुषों के द्वारा कोई सताये गए हों तो भी उनके यदि धर्म है तो पता नहीं कैसे घटनाएँ बन जायें, उपद्रव भी आ जायें, पर वे उपद्रव उनके उत्सव बन जाते हैं। श्रीपाल राजा को धवल सेठ ने समुद्र में गिरा दिया था जहाँ से बचने की आशा न थी, लेकिन धर्म का प्रसाद है कि वह भुजबल से तिरकर आया, उसमें ऐसी सामर्थ्य हो गयी और समुद्र के किनारे जब लगा तो उस नगर के राजा ने सिपाही छोड़ रखे थे कि कोई तिरकर आये तो उसे हमारे पास लाना। श्रीपाल को सिपाही राजा के पास ले गए तो राजा ने उसका सम्मान किया, आधा राज्य दिया और अपनी कन्या विवाही। तो उपद्रव की घटना भी पुण्यवंत पुरुषों के समारोह का कारण बन जाती हैं। तब फिर धन से क्या झूरना, धर्म में चित्त लगाना चाहिए। धन के सोच में धन बढ़ता नहीं है। वह तो जो बढ़ता है सो बढ़ता है। वह सब धर्म का प्रसाद है।
वीतरागता का आकर्षण―तीर्थंकर पुरुष जन्म समय में इंद्रों द्वारा पूजे गए। तपश्चरण करने पर तो मुनीश्वर देव भी पूजे गए और केवलज्ञानी बनने पर तो सबके द्वारा पूजे ही जाते हैं। कितना धर्म का प्रताप है। तीर्थंकर प्रभु का विशाल समवशरण रचा जाता है, कैसी अद्भुत रचना कि वैसी मनुष्यों द्वारा नहीं की जा सकती। वह समवशरण देवों के द्वारा ही रचा गया है। उस बड़े सुसज्जित अनेक कोट अनेक वेदिका अनेक रचनाओं के बीच 12 सभाओं के बीच मध्य कोट में कमल पर सिंहासन पर अंतरिक्ष विराजमान तीर्थंकर प्रभु के निकट चारों ओर से देवी देवताओं का समूह नाचगान करता हुआ आता है। उस दृश्य को थोड़ा हृदय में लायें तो इस भावना के कारण कि यह सब तीर्थंकर का ठाठ है। एक अद्भुत भक्ति उत्पन्न होती है। कितने आश्चर्य की बात है कि राग में वह ठाठ नहीं बन सकता जो ठाठ वीतरागता में बनता है।
वीतरागता का महत्त्व―वीतराग को कुछ न चाहिए मगर उतना ठाठ उतना साज किसी रागी पुरुष के नहीं बन सकता है। यहाँ ही देख लीजिए जो वीतरागता की प्रकृति बनाये हैं ऐसे पुरुषों के चाहने वाले लोग कितने हैं? बहुत हैं। जो धन से अपना घर भरते हैं, किसी तरह किसी मेंबरी में आ गए, कोई अधिकारी बन गए तो घर भरा करते हैं ऐसी आदत जिनकी है उनके प्रति लोगों का सम्मान रहता है क्या? और जो-जो भी नेता बहुत ऊँचे भाव में माने गए हैं उनमें यह एक बात मुख्य भी थी कि अपने लिए उन्होंने धन संचित नहीं किया। स्वयं एक साधारण मनुष्य की तरह फक्कड़ रहे। देश के उपकार में लोगों को उस जाति की वीतरागता विदित हुई ना, इसलिए वे बड़े माने गए। धर्म भी वीतरागता ही है और यह धर्म जिनके चित्त में समाया है उनके चरण कमलों को इंद्र भी नतमस्तक होकर नमस्कार करते हैं। यह 12 भावनाओं में से धर्मभावना का प्रकरण है। धर्मभावना में धर्म की महिमा की भावना करना चाहिए। जैसे अपना धर्म की ओर रुचि जगे उसी प्रयोजन को लेकर इस प्रकरण में धर्म का माहात्म्य बताया जा रहा है।