वर्णीजी-प्रवचन:लिंगपाहुड - गाथा 18
From जैनकोष
पव्वज्जहीणगहिणं णेहि सीसम्मि वट्टदे बहुसो ।
आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।18।।
(39) प्रव्रज्याहीनों के तथा शिष्यों के स्नेह आकर्षण में श्रमणों का अकल्याण―जो मुनिभेषी दीक्षारहित गृहस्थों से स्नेह बढ़ाते हैं, अपने शिष्यों से स्नेह बढ़ाते हैं, वे आचार-विचार रहित पुरुष श्रमण नहीं हैं, वे तो तिर्यंचयोनि वाले हैं । जिनके मुनिव्रत नहीं है, गृहस्थ हैं, अनेक प्रकार के आरंभ परिग्रह में हैं तो उनकी वृत्ति लौकिक ही होगी ꠰ ऐसे लौकिक जनों का अलौकिक चारित्र वाले कोई साधु यदि संग करें तो उस संग के प्रभाव से गृहस्थों की रोज-रोज की चेष्टायें देखने से खुद में कमजोरी आ जायेगी और चारित्रहीन बन जायेगें, इस कारण संयमी जनों को गृहस्थ जनों से अधिक वार्ता करने का निषेध है । हाँ केवल विशिष्ट कार्य आ पड़ने पर वे संयमी साधु गृहस्थों से भी कुछ बोल सकते हैं । तो जो दीक्षारहित पुरुष हैं याने गृहस्थ हैं उनका स्नेह, उनका लगाव रखना, यह परिणामों में हीनता आने का कारण है । मुनि का अर्थ है जो आत्मस्वरूप को माने, जाने, उसी की ओर ही चित्त रहे उसे कहते हैं मुनि । अब जो आत्मस्वरूप की दृष्टि तो रखता नहीं, केवल शरीर को देखकर यह मैं साधु हूँ, ऐसा अहंकार मन में रखकर कुछ व्यवहार धर्म का भी पालन करता, किंतु आत्मज्ञानी न होने से वह साधु पुरुष विषय कषायों में ही प्रीति करता है और इस प्रकार वह श्रमण अपने पद से भ्रष्ट हो जाता है । जिन साधुवों को अपने शिष्य से अधिक स्नेह है वे साधु भी साधु नहीं हैं, किंतु हीनवृत्ति वाले हैं, शिष्य में अधिक स्नेह किसे कारण होता है कि अपने शरीर को देखकर माने कि यह मैं आत्मा हूँ और दूसरे शरीर को देखकर माने कि यह भी एक आत्मा है और बाह्यदृष्टि होने के कारण वहाँ हो जाये स्नेह तो यह बढ़-बढ़कर स्नेह गुरुता को खतम कर देता है, इस कारण शिष्य तक में भी अधिक स्नेह न बर्तना चाहिए । मुनि ने तो अपने आपको एकाकी अपने स्वरूपमात्र निरखा है, उसको तो इस अपने आप में ही रुचि है, संतोष है, बाहरी बाह्यपदार्थों में उसको संतोष नहीं है, इसी कारण असंयमी जनों से या शिष्यगण से वे ममता नहीं रखते, अधिक स्नेह नहीं रखते ।
(40) आचारविचारहीन मुनिवेषियों की पशुसमता―जो मुनिभेषी आचार-विचार रहित हैं वे श्रमण नहीं हैं, किंतु तिर्यंचयोनि वाले हैं । उनका आचार हो गया शरीर और वचन का प्रवर्तन । कैसा शरीर को चलाना चाहिए, बैठना चाहिए, ये सब शरीर के आचार हैं अर्थात् आत्मा उस शरीरादिक से चेष्टा करता है, वह है आचार, और विचार है मनक्रिया । आचार-विचार में सब आ गया । मुनि के योग्य आचार क्या है? पंच महाव्रत का पालन करना, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 प्रकार के पापों से एकदम हट जाना यह व्रत कहलाता है । समिति―शरीर से, वचन से प्रवृत्ति करनी ही पड़ती है तो जीवहिंसा न हो, ऐसी सावधानी के साथ प्रवृत्ति की जाती है । तो ऐसे आचार से जो रहित है और विचार से भी रहित है वह श्रमण नहीं है । विचार में आना चाहिए भेदविज्ञान की बात, आत्मस्वरूप की दृष्टि और आत्मस्वरूप में ही रमने का प्रयत्न । तो ऐसा आचारविचार होना चाहिए साधु में, किंतु उनसे जो रहित है, केवल विषयकषायों में ही मौज मान रहा है वह श्रमण नहीं है; किंतु एक तिर्यंचयोनि वाले पशु के समान है ।