रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 12: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
इदानींनिष्काङ्क्षितत्वगुणंसम्यग्दर्शनेदर्शयन्नाह --
कर्मपरवशे सान्ते, दुखैरन्तरितोदये
पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता ॥12॥
टीका:
अनाकाङ्क्षणास्मृता निष्काङ्क्षितत्वंनिश्चितम् । कासौ ? श्रद्धा । कथम्भूता ? अनास्था नविद्यतेआस्थाशाश्वतबुद्धिर्यस्याम् । अथवानआस्थाअनास्थात । स्यान्तयावाश्रद्धाअनास्थाश्रद्धासाचाप्यनाकाङ्क्षणेतिस्मृता । क्वअनास्थाऽरुचि: ? सुखे वैषयिके । कथम्भूते ? कर्मपरवशे कर्मायत्ते । तथा सान्ते अन्तेनविनाशेनसहवर्तमानेतथा दु:खैरन्तरितोदये दु:खैर्मानसशारीरैरन्तरितउदय: प्रादुर्भावोयस्य । तथा पापबीजे पापोत्पत्तिकारणे ॥१२॥
सम्यग्दर्शन के निःकांक्षितत्व गुण को दिखलाते हैं --
कर्मपरवशे सान्ते, दुखैरन्तरितोदये
पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता ॥12॥
टीकार्थ:
अनास्था-श्रद्धा की व्याख्या दो प्रकार से की है। न विद्यते आस्था शाश्वतबुद्धिर्यस्यां सा अनास्था जिसमें नित्यपने की बुद्धि नहीं है इस प्रकार अनास्था को श्रद्धा का विशेषण बनाया है । इस पक्ष में अनास्था और श्रद्धा इन दोनों पदों को समास रहित ग्रहण किया है । दूसरे पक्ष में न आस्था अनास्था तस्यां वा श्रद्धा अनास्था श्रद्धा अरुचिरित्यर्थ: अरुचि में अथवा अरुचि के द्वारा होने वाली श्रद्धा । पञ्चेन्द्रिय विषय सम्बन्धी सुख कर्मों के अधीन हैं,विनाश से सहित हैं, इनका उदय मानसिक तथा शारीरिक दु:खों से मिला हुआ है तथा पाप का कारण है, अशुभ कर्मों का बन्ध कराने में निमित्त है, ऐसे सुख में शाश्वत बुद्धि से रहित श्रद्धा करना वह सम्यग्दर्शन का नि:कांक्षितत्त्व अङ्ग कहलाता है ।