ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 13
From जैनकोष
सम्प्रतिनिर्विचिकित्सागुणंसम्यग्दर्शनस्यप्ररूपयन्नाह --
स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते
निर्जुगुप्सा गुणप्रीति-र्मता निर्विचिकित्सिता ॥13॥
टीका:
निर्विचिकित्सतामता अभ्युपगता । कासौ ? निजुर्गुप्सा विचिकित्साभाव: । क्व ? काये । किंविशिष्टे ? स्वभावतोऽशुचौ स्वरूपेणापवित्रिते । इत्थम्भूतेऽपिकाये रत्नत्रयपवित्रिते रत्नत्रयेणपवित्रितेपूज्यतांनीते । कुतस्तथाभूतेनिर्जुगुप्साभवतीत्याह - गुणप्रीति: यतोगुणेन-रत्नत्रयाधारभूत-मुक्तिसाधकत्वलक्षणेन-प्रीतिर्मनुष्य-शरीरमेवेदं-मोक्षसाधकंनान्यद्देवादि-शरीर-मित्यनुराग: । ततस्तत्रनिर्जुगुप्सेति ॥१३॥
अब सम्यग्दर्शन के निर्विचिकित्सा गुण का निरूपण करते हुए कहते हैं --
स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते
निर्जुगुप्सा गुणप्रीति-र्मता निर्विचिकित्सिता ॥13॥
टीकार्थ:
निर्गता विचिकित्सा यस्मात् स: निर्विचिकित्स:, तस्य भावो निर्विचिकित्सा विचिकित्सा ग्लानि को कहते हैं । जो ग्लानि से रहित है वह निर्विचिकित्स है । उसका जो भाव है, वह निर्विचिकित्सता है । मानव का यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है । क्योंकि माता-पिता के रज-वीर्य-रूप अशुद्ध धातु से निर्मित होने के कारण अपवित्र है । किन्तु यह अपवित्र शरीर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-रूप रत्नत्रय के द्वारा पवित्रता, पूज्यता को प्राप्त कराया जाता है । ऐसे शरीर में रत्नत्रय-रूप गुण के कारण प्रीति होती है । क्योंकि यह मनुष्य का शरीर ही रत्नत्रय की आधार-भूत मुक्ति का साधक बनता है । अन्य देवतादिक का शरीर मोक्ष का साधक नहीं हो सकता । इस विशिष्ट गुण के कारण गुणों में जो ग्लानि रहित प्रीति होती है, वह निर्विचिकित्सा नामक अंग है ।