रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 3: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
अथैवंविधधर्मस्वरूपतां कानि प्रतिपद्यन्त इत्याह --
सद्-दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु:
यदीय-प्रत्यनी-कानि, भवन्ति भवपद्धति: ॥3॥
टीका:
दृष्टिश्च तत्त्वार्थश्रद्धानं, ज्ञानं च तत्त्वार्थप्रतिपत्ति:, वृत्तं चारित्रं पापक्रियानिवृत्तिलक्षणम् । सन्ति समीचीनानि च तानि दृष्टिज्ञानवृत्तानि च । धर्मं उक्तस्वरूपम् । विदु: वदन्ति प्रतिपादयन्ते । के ते ? धर्मेश्वरा: रत्नत्रयलक्षणधर्मस्य ईश्वरा: अनुष्ठातृत्वेन प्रतिपादकत्वेन च स्वामिनो जिननाथा: । कुतस्तान्येव धर्मो न पुनर्मिथ्यादर्शनादीन्यपीत्याह-यदीयेत्यादि । येषां सद्दृष्ट्यादीनां सम्बन्धीनि यदीयानि तानि च तानि प्रत्यनीकानि च प्रतिकूलानि मिथ्यादर्शनादीनि भवन्ति सम्पद्यन्ते । का ? भवपद्धति: संसारमार्ग: । अयमर्थ :- यत: सम्यग्दर्शनादिप्रतिपक्षभूतानि मिथ्यादर्शनादीनि संसारमार्गभूतानि । अत: सम्यग्दर्शनादीनि स्वर्गापवर्गसुखसाधकत्वाद्धर्मरूपाणि सिद्धयन्तीति ॥३॥
अब इस प्रकार का धर्म कौनसा है, यह कहते हुए धर्म का वाच्यार्थ बतलाते हैं --
सद्-दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु:
यदीय-प्रत्यनी-कानि, भवन्ति भवपद्धति: ॥3॥
टीकार्थ:
तत्त्वार्थश्रद्धान्तरूप दर्शन, तत्त्वों की याथात्म्यप्रतिपत्तिरूप ज्ञान और पापक्रियानिवृत्तिरूप चारित्र इस रत्नत्रयरूप धर्म के स्वयं आराधक तथा दूसरे जीवों को उसका उपदेश देने वाले होने से जिनेन्द्र भगवान् धर्म के ईश्वर कहलाते हैं । उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ही धर्म कहा है क्योंकि इन तीनों की एकता ही जीवों को संसार के दु:खों से निकालकर मोक्ष के उत्तम सुख में पहुँचा देती है । इन सम्यग्दर्शनादि तीनों से विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों संसार-भ्रमण के मार्ग हैं । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनादि के प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शनादि संसार के ही मार्ग हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि रत्नत्रय ही स्वर्ग और मोक्ष का साधक होने से धर्मरूप है ।