रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 42: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
अथ दर्शनरूपं धर्मं व्याख्याय ज्ञानरूपं तं व्याख्यातुमाह-
अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्
निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥1॥
टीका:
वेद वेत्ति । यत्तदाहुर्बु्रवते । ज्ञानं भावश्रुतरूपम् । के ते ? आगमिन: आगमज्ञा: । कथं वेद ? नि:सन्देहं नि:संशयं यथा भवति तथा । विना च विपरीतात् विपरीताद्विपर्ययाद्विनैव विपर्ययव्यवच्छेदेनेत्यर्थ: । तथा अन्यूनं परिपूर्णं सकलं वस्तुस्वरूपं यद्वेद तद्ज्ञानं न न्यूनं विकलं तत्स्वरूपं यद्वेद। तर्हि जीवादिवस्तुस्वरूपेऽविद्यमानमपि सर्वथा नित्यत्वक्षणिकत्वाद्वैतादिरूपं कल्पयित्वा यद्वेत्ति तदधिकार्थवेदित्वात् ज्ञानं भविष्यतीत्यत्राह- अनतिरिक्तं वस्तुस्वरूपादनतिरिक्तमनधिकं यद्वेद तज्ज्ञानं न पुनस्तद्वस्तुस्वरूपादधिकं कल्पनाशिल्पिकल्पितं यद्वेद। एवं चैतद्विशेषणचतुष्टयसामथ्र्याद्यथाभूतार्थवेदकत्वं तस्य सम्भवति तद्दर्शयति- याथातथ्यं यथावस्थितवस्तुस्वरूपं यद्वेद तद्ज्ञानं भावश्रुतम्। तद्रूपस्यैव ज्ञानस्य जीवाद्यशेषार्थानामशेषविशेषत: केवलज्ञानवत् साकल्येन स्वरूपप्रकाशनसामथ्र्यसम्भवात् । तदुक्तम्-
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने।
भेद: साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥१॥ इति
अतस्तदेवात्र धर्मत्वेनाभिप्रेतं मुख्यतो मूलकारणभूततया स्वर्गापवर्गसाधनसामथ्र्यसम्भवात् ॥१॥
सम्यग्ज्ञान का लक्षण
अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्
निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥1॥
टीकार्थ:
ज्ञान शब्द से यहाँ भावश्रुतज्ञान विवक्षित है। सर्वज्ञ जानने को ज्ञान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान पदार्थों को सन्देह रहित जानता है और वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा ही जानता है, विपरीतता रहित जानता है, न्यूनता रहित समस्त वस्तु-स्वरूप को जानता है अर्थात् परस्पर विरोधी नित्यानित्यादि दो धर्मों में से किसी एक को छोडक़र नहीं जानता, किन्तु उभय धर्मों से युक्त पूर्ण वस्तु को जानता है, अधिकता रहित जानता है अर्थात् वस्तु में नित्य-एकान्त अथवा क्षणिक-एकान्त आदि जो धर्म अविद्य-मान हैं, उनको कल्पित करके नहीं जानता, यदि कल्पित करके जानेगा तो अधिक अर्थ को जानने वाला हो जायेगा ।
अत: इन चार विशेषणों से सहित ज्ञान यथावत् वस्तु-तत्त्व को जानता है । इस तरह स्याद्वाद-रूप श्रुत-ज्ञान भी जीवादि समस्त पदार्थों को उनकी सब विशेषताओं सहित जानता है, क्योंकि उसमें भी केवलज्ञान के समान पूर्णरूप से वस्तु-स्वरूप को प्रकाशित करने का सामर्थ्य है । कहा भी है-
स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान ये दोनों ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने वाले हैं । इनमें भेद केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा है अर्थात् केवलज्ञान प्रत्यक्ष-रूप से जानता है और श्रुत-ज्ञान परोक्ष-रूप से जानता है । जो श्रुत-ज्ञान वस्तु के एक धर्म को ही ग्रहण करता है, वह अवस्तु अर्थात् मिथ्या होता है ।
इस प्रकार यहाँ भावश्रुत-ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान ही धर्म शब्द से अभिप्रेत है, क्योंकि वही मूलकारण होने से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कराने का सामर्थ्य रखता है ।