ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 43
From जैनकोष
तस्य विषयभेदाद् भेदान् प्ररूपयन्नाह -
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्
बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥2॥
टीका:
बोध: समीचीन: सत्यं श्रुतज्ञानम् । बोधति जानाति । कम् ? प्रथमानुयोगम् । किं पुन: प्रथमानुयोगशब्देनाभिधीयते इत्याह- चरितं पुराणमपि एकपुरुषाश्रिता कथा चरितं त्रिषष्टिशलाकापुरुषाश्रिता कथा पुराणं, तदुभयमपि प्रथमानुयोगशब्दाभिधेयम्। तस्य प्रकल्पितत्वव्यवच्छेदार्थमर्थाख्यानमिति विशेषणम्, अर्थस्य परमार्थस्य विषयस्याख्यानं प्रतिपादनं यत्र येन वा तम् । तथा पुण्यं प्रथमानुयोगं हि शृण्वतां पुण्यमुत्पद्यते इति पुण्यहेतुत्वात्पुण्यं तदनुयोगम् । तथा बोधिसमाधिनिधानम् अप्राप्तानां हि सम्यग्दर्शनादीनां प्राप्तिर्बोधि:, प्राप्तानां तु पर्यन्तप्रापणं समाधि: ध्यानं वा धम्र्यं शुक्लं च समाधि: तयोर्निधानम् । तदनुयोगं हि शृण्वतां सद्दर्शनादे: प्राप्त्यादिकं धम्र्यध्यानादिकं च भवति ॥२॥
आगे, विषय भेद की अपेक्षा सम्यग्ज्ञान के भेदों का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम प्रथमानुयोग का लक्षण कहते हैं-
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्
बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥2॥
टीकार्थ:
सम्यग्श्रुतज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है । जिसमें एक पुरुष से सम्बन्धित कथा होती है, वह चरित्र कहलाता है और जिसमें त्रेशठ शलाका पुरुषों से सम्बन्ध रखने वाली कथा होती है, उसे पुराण कहते हैं । चरित्र और पुराण ये दोनों ही प्रथमानुयोग शब्द से कहे जाते हैं । यह प्रथमानुयोग कल्पित अर्थ का वर्णन नहीं करता, किन्तु परमार्थ-भूत विषय का प्रतिपादन करता है । इसलिए इसे अर्थाख्यान कहते हैं । इसको पढऩे और सुनने वालों को पुण्य का बन्ध होता है, इसलिए इसे पुण्य कहा है । तथा यह प्रथमानुयोग बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि अर्थात् धर्म्य और शुक्लध्यान की प्राप्ति का निधान-खजाना है । इस प्रकार इस अनुयोग को सुनने से सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति और धर्म्यध्यानादिक होते हैं ।