आकाश पुष्प: Difference between revisions
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<p>देखें [[ असत् ]]।</p> | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 2/8/18/121/22</span> <p class="SanskritText">कर्मावेशवशात् नानाजातिसंबंधमापन्नवती जीवतो जीवस्य मंडूकभावावाप्तौ तत्व्यपदेशभाजः पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते `यः शिखंडकः स एवायम्' इत्येकजीवसंबंधित्वात् मंडूकशिखंड इत्यस्ति। एवं बंध्यापुत्र-शशविषाणादिष्वपि योज्यम्। आकाशकुसुमे कथम्। तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीवपुद्गलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्यं पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्तव्यात्। एवमाकाशेनातिव्याप्तत्वं समानमिति तत्तस्यापीति व्यपदेशो युक्तः। अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यतेः आकाशकृतावगाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात्। वृक्षात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्यं तत्संबंधि। अथ अर्थांतरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्; वृक्षस्यापि न स्यात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवती की पर्याय को धारण करता है तो भूतपूर्व नय की अपेक्षा उस युवती को भी हम मेंढक कह ही सकते हैं। और उसके युवती पर्यायापन्न मंडूक की शिखा होने से मंडूक-शिखंड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वंध्यापुत्र व शशविषाणादि में भी लागू करना चाहिए। <b>प्रश्न</b> - '''आकाशपुष्प''' में कैसे लागू होता है? <b>उत्तर</b> - वनस्पति नामकर्म का जिस जीव के उदय है। वह जीव और पुद्गल का समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्ष के द्वारा व्याप्त होने से वह पुष्प पुद्गल वृक्ष का कहा जाता है, उसी तरह आकाश के द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाश का क्यों न कहा जाय? वृक्ष के द्वारा उपकृत होने के कारण यदि वह वृक्ष का कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहन रूप उपकार की अपेक्षा उसे आकाश का भी कहना चाहिए। वृक्ष से टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाश से तो कभी भी दूर नही हो सकता। सदा आकाश में ही रहता है। अथवा मंडूकशिंड विषयक ज्ञान का विषय होने से भी (ज्ञान नय की अपेक्षा) मंडूक शिखंड का सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।</p> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ असत् ]]।</p> | |||
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Latest revision as of 14:55, 5 January 2023
राजवार्तिक अध्याय 2/8/18/121/22
कर्मावेशवशात् नानाजातिसंबंधमापन्नवती जीवतो जीवस्य मंडूकभावावाप्तौ तत्व्यपदेशभाजः पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते `यः शिखंडकः स एवायम्' इत्येकजीवसंबंधित्वात् मंडूकशिखंड इत्यस्ति। एवं बंध्यापुत्र-शशविषाणादिष्वपि योज्यम्। आकाशकुसुमे कथम्। तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीवपुद्गलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्यं पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्तव्यात्। एवमाकाशेनातिव्याप्तत्वं समानमिति तत्तस्यापीति व्यपदेशो युक्तः। अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यतेः आकाशकृतावगाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात्। वृक्षात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्यं तत्संबंधि। अथ अर्थांतरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्; वृक्षस्यापि न स्यात्।
= वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवती की पर्याय को धारण करता है तो भूतपूर्व नय की अपेक्षा उस युवती को भी हम मेंढक कह ही सकते हैं। और उसके युवती पर्यायापन्न मंडूक की शिखा होने से मंडूक-शिखंड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वंध्यापुत्र व शशविषाणादि में भी लागू करना चाहिए। प्रश्न - आकाशपुष्प में कैसे लागू होता है? उत्तर - वनस्पति नामकर्म का जिस जीव के उदय है। वह जीव और पुद्गल का समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्ष के द्वारा व्याप्त होने से वह पुष्प पुद्गल वृक्ष का कहा जाता है, उसी तरह आकाश के द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाश का क्यों न कहा जाय? वृक्ष के द्वारा उपकृत होने के कारण यदि वह वृक्ष का कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहन रूप उपकार की अपेक्षा उसे आकाश का भी कहना चाहिए। वृक्ष से टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाश से तो कभी भी दूर नही हो सकता। सदा आकाश में ही रहता है। अथवा मंडूकशिंड विषयक ज्ञान का विषय होने से भी (ज्ञान नय की अपेक्षा) मंडूक शिखंड का सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।
देखें असत् ।