विस्तार सम्यक्त्व: Difference between revisions
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देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1]]। | <span class="GRef">राजवार्तिक/3/36/2/201/13</span><p class="SanskritText">तत्र भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीताज्ञामात्रनिमित्तश्रद्धाना आज्ञारुचय:। नि:संगमोक्षमार्गश्रवणमात्रजनितरुचयो मार्गरुचय:। तीर्थंकरबलदेवादिशुभचरितोपदेशहेतुकश्रद्धाना उपदेशरुचय:। प्रव्रज्यामर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शना: सूत्ररुचय:। बीजपदग्रहणपूर्वकसूक्ष्मार्थतत्त्वार्थश्रद्धाना बीजरुचय:। जीवादिपदार्थसमासंबोधनसमुद्भूतश्रद्धाना: संक्षेपरुचय:।अंगपूर्वविषयजीवाद्यर्थविस्तारप्रमाणनयादिनिरूपणोपलब्धश्रद्धाना विस्ताररुचय:। वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचय:। आचारादिद्वादशांगाभिनिविष्टश्रद्धाना अवगाढरुचय:। परमावधिकेवलज्ञानदर्शनप्रकाशितजीवद्यर्थविषयात्मप्रसादा: परमावगाढरुचय:।</p><p class="HindiText">=भगवत् अर्हंत सर्वज्ञ की आज्ञामात्र को मानकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव आज्ञारुचि हैं। अपरिग्रही मोक्षमार्ग के श्रवणमात्र से सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव मार्गरुचि हैं। तीर्थंकर बलदेव आदि शुभचारित्र के उपदेश को सुनकर सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले उपदेशरुचि हैं। दीक्षा आदि के निरूपक आचारांगादिसूत्रों के सुननेमात्र से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है, वे सूत्ररुचि हैं। बीजपदों के ग्रहणपूर्वक सूक्ष्मार्थ तत्त्वार्थ श्रद्धान को प्राप्त करने वाले बीजरुचि हैं। जीवादि पदार्थों के संक्षेप कथन से ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त होने वाले संक्षेपरुचि हैं। अंगपूर्व के विषय, प्रमाण नय आदि के '''विस्तार''' कथन से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे विस्ताररुचि हैं। वचन विस्तार के बिना केवल अर्थग्रहण से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे अर्थरुचि हैं। आचारांग द्वादशांग में जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है वे अवगाढरुचि हैं। परमावधि या केवलज्ञान दर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाश से जिनकी आत्मा विशुद्ध है वे परमावगाढरुचि हैं।</p> | ||
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राजवार्तिक/3/36/2/201/13
तत्र भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीताज्ञामात्रनिमित्तश्रद्धाना आज्ञारुचय:। नि:संगमोक्षमार्गश्रवणमात्रजनितरुचयो मार्गरुचय:। तीर्थंकरबलदेवादिशुभचरितोपदेशहेतुकश्रद्धाना उपदेशरुचय:। प्रव्रज्यामर्यादाप्ररूपणाचारसूत्रश्रवणमात्रसमुद्भूतसम्यग्दर्शना: सूत्ररुचय:। बीजपदग्रहणपूर्वकसूक्ष्मार्थतत्त्वार्थश्रद्धाना बीजरुचय:। जीवादिपदार्थसमासंबोधनसमुद्भूतश्रद्धाना: संक्षेपरुचय:।अंगपूर्वविषयजीवाद्यर्थविस्तारप्रमाणनयादिनिरूपणोपलब्धश्रद्धाना विस्ताररुचय:। वचनविस्तारविरहितार्थग्रहणजनितप्रसादा अर्थरुचय:। आचारादिद्वादशांगाभिनिविष्टश्रद्धाना अवगाढरुचय:। परमावधिकेवलज्ञानदर्शनप्रकाशितजीवद्यर्थविषयात्मप्रसादा: परमावगाढरुचय:।
=भगवत् अर्हंत सर्वज्ञ की आज्ञामात्र को मानकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव आज्ञारुचि हैं। अपरिग्रही मोक्षमार्ग के श्रवणमात्र से सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए जीव मार्गरुचि हैं। तीर्थंकर बलदेव आदि शुभचारित्र के उपदेश को सुनकर सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले उपदेशरुचि हैं। दीक्षा आदि के निरूपक आचारांगादिसूत्रों के सुननेमात्र से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है, वे सूत्ररुचि हैं। बीजपदों के ग्रहणपूर्वक सूक्ष्मार्थ तत्त्वार्थ श्रद्धान को प्राप्त करने वाले बीजरुचि हैं। जीवादि पदार्थों के संक्षेप कथन से ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त होने वाले संक्षेपरुचि हैं। अंगपूर्व के विषय, प्रमाण नय आदि के विस्तार कथन से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे विस्ताररुचि हैं। वचन विस्तार के बिना केवल अर्थग्रहण से जिन्हें सम्यग्दर्शन हुआ है वे अर्थरुचि हैं। आचारांग द्वादशांग में जिनका श्रद्धान अतिदृढ़ है वे अवगाढरुचि हैं। परमावधि या केवलज्ञान दर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाश से जिनकी आत्मा विशुद्ध है वे परमावगाढरुचि हैं।
देखें सम्यग्दर्शन - I.1।