आग्नेयीधारणा: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
< | <p span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> आग्नेयी धारणा का लक्षण</strong> </p> | ||
<span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 37/10-19/382 </span><p class="SanskritText">ततोअसौ निश्चलाभ्यासात्कमलं नाभिमंडले। स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ।10। प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम्। कर्णिकायां महामंत्रं विस्फुरंतं विचिंतयेत् ।11। रेफरुद्धं कलाबिंदुलांछितं शून्यमक्षरम्। लसदिंदुच्छटाकोटिकांतिव्याप्तहरिंमुखम् ।12। तस्य रेफाद्विनिर्यांती शनैर्धूमशिखां स्मरेत्। स्फुलिंगसंततिं पश्चाज्ज्वालालीं तदनंतरम् ।13। तेन ज्वालाकलापेन वर्धमानेन संततम्। दहत्यविरतं धीरः पुंडरीकं हृदिस्थितम् ।14। तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम्। दहत्येव महामंत्रध्यानोत्थः प्रबलोअनलः ।15। ततो बहिः शरीरस्य त्रिकोणं वह्निमंडलम्। स्मरेज्ज्वालाकलापेन ज्वलंतमिव वाडवम् ।16। वह्निबीजसमाक्रांतं पर्यंते स्वस्तिकांकितम्। ऊर्ध्ववायुपुरोद्भूतं निर्धूमं कांचनप्रभम् ।17। अंतर्दहति मंत्रार्चिर्बहिर्वह्निपुरं पुरम्। धगद्धगितिविस्फूर्जज्वालाप्रचयभासुरम् ।18। भस्मभावमसौ नीत्वा शरीरं तच्च पंकजम्। दाह्याभावात्स्वयं शांतिं याति वह्निः शनैः शनैः ।19। </p> | <span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 37/10-19/382 </span><p class="SanskritText">ततोअसौ निश्चलाभ्यासात्कमलं नाभिमंडले। स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ।10। प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम्। कर्णिकायां महामंत्रं विस्फुरंतं विचिंतयेत् ।11। रेफरुद्धं कलाबिंदुलांछितं शून्यमक्षरम्। लसदिंदुच्छटाकोटिकांतिव्याप्तहरिंमुखम् ।12। तस्य रेफाद्विनिर्यांती शनैर्धूमशिखां स्मरेत्। स्फुलिंगसंततिं पश्चाज्ज्वालालीं तदनंतरम् ।13। तेन ज्वालाकलापेन वर्धमानेन संततम्। दहत्यविरतं धीरः पुंडरीकं हृदिस्थितम् ।14। तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम्। दहत्येव महामंत्रध्यानोत्थः प्रबलोअनलः ।15। ततो बहिः शरीरस्य त्रिकोणं वह्निमंडलम्। स्मरेज्ज्वालाकलापेन ज्वलंतमिव वाडवम् ।16। वह्निबीजसमाक्रांतं पर्यंते स्वस्तिकांकितम्। ऊर्ध्ववायुपुरोद्भूतं निर्धूमं कांचनप्रभम् ।17। अंतर्दहति मंत्रार्चिर्बहिर्वह्निपुरं पुरम्। धगद्धगितिविस्फूर्जज्वालाप्रचयभासुरम् ।18। भस्मभावमसौ नीत्वा शरीरं तच्च पंकजम्। दाह्याभावात्स्वयं शांतिं याति वह्निः शनैः शनैः ।19। </p> | ||
<p class="HindiText">= तत्पश्चात् (पार्थिवी धारणा के) योगी (ध्यानी) निश्चल अभ्यास से अपने नाभिमंडल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्रों के एक मनोहर कमल का ध्यान करै ।10। तत्पश्चात् उस कमल की कर्णिका में महामंत्र का (जो आगे कहा जाता है उसका) चिंतवन करे और उस कमल के सोलह पत्रों पर `अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अं अः इन 16 अक्षरों का ध्यान करै ।11। रेफ से रुद्ध कहिए आवृत और कला तथा बिंदु से चिह्नित और शून्य कहिए हकार ऐसा अक्षर लसत कहिए दैदीप्यमान होते हुए बिंदु की छटाकोटि की कांति से व्याप्त किया है दिशा का मुख जिसने ऐसा महामंत्र "हं" उस कमल की कर्णिका में स्थापन कर, चिंतवन करै ।12। तत्पश्चात् उस महामंत्र के रेफ से मंद-मंद निकलती हुई धूम (धुएँ) की शिखा का चिंतवन करै। तत्पश्चात् उसमें से अनुक्रम से प्रवाह रूप निकलते हुए स्फुलिंगों की पंक्ति का चिंतवन करै और पश्चात् उसमें से निकलती हुई ज्वाला की लपटों को विचारै ।13। तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम से बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से अपने हृदयस्थ कमल को निरंतर जलाता हुआ चिंतवन करै ।14। वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ पत्र का है। इन आठ पत्रों पर आठ कर्म स्थित हों। ऐसे नाभिस्थ कमल की कर्णिका में स्थित "र्हं" महामंत्र के ध्यान से उठी हुई। प्रबल अग्नि निरंतर दहती है, इस प्रकार चिंतवन करै, तब अष्ट कर्म जल जाते हैं, यह चैतन्य परिणामों की सामर्थ्य है ।15। उस कमल के दग्ध हुए पश्चात् शरीर के बाह्य त्रिकोण वह्नि का चिंतवन करै, सो ज्वाला के समूह से जलते हुए बडवानल के समान ध्यान करै ।16। तथा अग्नि बीजाक्षर `र' से व्याप्त और अंत में साथिया के चिह्न से चिह्नित हो, ऊर्ध्व वायुमंडल से उत्पन्न धूम रहित कांचन की-सी प्रभावाला चिंतवन करै ।17। इस प्रकार वह धगधगायमान फैलती हुई लपटों के समूहों से दैदीप्यमान बाहर का अग्निपुर (अग्निमंडल) अंतरंग की मंत्राग्नि को दग्ध करता है ।18। तत्पश्चात् यह अग्निमंडल उस नाभिस्थ कमल और शरीर को भस्मीभूत करके दाह्य का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप शांत हो जाता है ।19। </p> | <p class="HindiText">= तत्पश्चात् (पार्थिवी धारणा के) योगी (ध्यानी) निश्चल अभ्यास से अपने नाभिमंडल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्रों के एक मनोहर कमल का ध्यान करै ।10। तत्पश्चात् उस कमल की कर्णिका में महामंत्र का (जो आगे कहा जाता है उसका) चिंतवन करे और उस कमल के सोलह पत्रों पर `अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अं अः इन 16 अक्षरों का ध्यान करै ।11। रेफ से रुद्ध कहिए आवृत और कला तथा बिंदु से चिह्नित और शून्य कहिए हकार ऐसा अक्षर लसत कहिए दैदीप्यमान होते हुए बिंदु की छटाकोटि की कांति से व्याप्त किया है दिशा का मुख जिसने ऐसा महामंत्र "हं" उस कमल की कर्णिका में स्थापन कर, चिंतवन करै ।12। तत्पश्चात् उस महामंत्र के रेफ से मंद-मंद निकलती हुई धूम (धुएँ) की शिखा का चिंतवन करै। तत्पश्चात् उसमें से अनुक्रम से प्रवाह रूप निकलते हुए स्फुलिंगों की पंक्ति का चिंतवन करै और पश्चात् उसमें से निकलती हुई ज्वाला की लपटों को विचारै ।13। तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम से बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से अपने हृदयस्थ कमल को निरंतर जलाता हुआ चिंतवन करै ।14। वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ पत्र का है। इन आठ पत्रों पर आठ कर्म स्थित हों। ऐसे नाभिस्थ कमल की कर्णिका में स्थित "र्हं" महामंत्र के ध्यान से उठी हुई। प्रबल अग्नि निरंतर दहती है, इस प्रकार चिंतवन करै, तब अष्ट कर्म जल जाते हैं, यह चैतन्य परिणामों की सामर्थ्य है ।15। उस कमल के दग्ध हुए पश्चात् शरीर के बाह्य त्रिकोण वह्नि का चिंतवन करै, सो ज्वाला के समूह से जलते हुए बडवानल के समान ध्यान करै ।16। तथा अग्नि बीजाक्षर `र' से व्याप्त और अंत में साथिया के चिह्न से चिह्नित हो, ऊर्ध्व वायुमंडल से उत्पन्न धूम रहित कांचन की-सी प्रभावाला चिंतवन करै ।17। इस प्रकार वह धगधगायमान फैलती हुई लपटों के समूहों से दैदीप्यमान बाहर का अग्निपुर (अग्निमंडल) अंतरंग की मंत्राग्नि को दग्ध करता है ।18। तत्पश्चात् यह अग्निमंडल उस नाभिस्थ कमल और शरीर को भस्मीभूत करके दाह्य का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप शांत हो जाता है ।19। </p> |
Latest revision as of 16:55, 18 February 2023
आग्नेयी धारणा का लक्षण
ज्ञानार्णव अधिकार 37/10-19/382
ततोअसौ निश्चलाभ्यासात्कमलं नाभिमंडले। स्मरत्यतिमनोहारि षोडशोन्नतपत्रकम् ।10। प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम्। कर्णिकायां महामंत्रं विस्फुरंतं विचिंतयेत् ।11। रेफरुद्धं कलाबिंदुलांछितं शून्यमक्षरम्। लसदिंदुच्छटाकोटिकांतिव्याप्तहरिंमुखम् ।12। तस्य रेफाद्विनिर्यांती शनैर्धूमशिखां स्मरेत्। स्फुलिंगसंततिं पश्चाज्ज्वालालीं तदनंतरम् ।13। तेन ज्वालाकलापेन वर्धमानेन संततम्। दहत्यविरतं धीरः पुंडरीकं हृदिस्थितम् ।14। तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम्। दहत्येव महामंत्रध्यानोत्थः प्रबलोअनलः ।15। ततो बहिः शरीरस्य त्रिकोणं वह्निमंडलम्। स्मरेज्ज्वालाकलापेन ज्वलंतमिव वाडवम् ।16। वह्निबीजसमाक्रांतं पर्यंते स्वस्तिकांकितम्। ऊर्ध्ववायुपुरोद्भूतं निर्धूमं कांचनप्रभम् ।17। अंतर्दहति मंत्रार्चिर्बहिर्वह्निपुरं पुरम्। धगद्धगितिविस्फूर्जज्वालाप्रचयभासुरम् ।18। भस्मभावमसौ नीत्वा शरीरं तच्च पंकजम्। दाह्याभावात्स्वयं शांतिं याति वह्निः शनैः शनैः ।19।
= तत्पश्चात् (पार्थिवी धारणा के) योगी (ध्यानी) निश्चल अभ्यास से अपने नाभिमंडल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्रों के एक मनोहर कमल का ध्यान करै ।10। तत्पश्चात् उस कमल की कर्णिका में महामंत्र का (जो आगे कहा जाता है उसका) चिंतवन करे और उस कमल के सोलह पत्रों पर `अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लॄ ए ऐ ओ औ अं अः इन 16 अक्षरों का ध्यान करै ।11। रेफ से रुद्ध कहिए आवृत और कला तथा बिंदु से चिह्नित और शून्य कहिए हकार ऐसा अक्षर लसत कहिए दैदीप्यमान होते हुए बिंदु की छटाकोटि की कांति से व्याप्त किया है दिशा का मुख जिसने ऐसा महामंत्र "हं" उस कमल की कर्णिका में स्थापन कर, चिंतवन करै ।12। तत्पश्चात् उस महामंत्र के रेफ से मंद-मंद निकलती हुई धूम (धुएँ) की शिखा का चिंतवन करै। तत्पश्चात् उसमें से अनुक्रम से प्रवाह रूप निकलते हुए स्फुलिंगों की पंक्ति का चिंतवन करै और पश्चात् उसमें से निकलती हुई ज्वाला की लपटों को विचारै ।13। तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम से बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से अपने हृदयस्थ कमल को निरंतर जलाता हुआ चिंतवन करै ।14। वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ पत्र का है। इन आठ पत्रों पर आठ कर्म स्थित हों। ऐसे नाभिस्थ कमल की कर्णिका में स्थित "र्हं" महामंत्र के ध्यान से उठी हुई। प्रबल अग्नि निरंतर दहती है, इस प्रकार चिंतवन करै, तब अष्ट कर्म जल जाते हैं, यह चैतन्य परिणामों की सामर्थ्य है ।15। उस कमल के दग्ध हुए पश्चात् शरीर के बाह्य त्रिकोण वह्नि का चिंतवन करै, सो ज्वाला के समूह से जलते हुए बडवानल के समान ध्यान करै ।16। तथा अग्नि बीजाक्षर `र' से व्याप्त और अंत में साथिया के चिह्न से चिह्नित हो, ऊर्ध्व वायुमंडल से उत्पन्न धूम रहित कांचन की-सी प्रभावाला चिंतवन करै ।17। इस प्रकार वह धगधगायमान फैलती हुई लपटों के समूहों से दैदीप्यमान बाहर का अग्निपुर (अग्निमंडल) अंतरंग की मंत्राग्नि को दग्ध करता है ।18। तत्पश्चात् यह अग्निमंडल उस नाभिस्थ कमल और शरीर को भस्मीभूत करके दाह्य का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप शांत हो जाता है ।19।
(तत्त्वानुशासन श्लोक 184)
देखें अग्नि - 6 ।