पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 108 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा । (108)
उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा ॥117॥
अर्थ:
चेतनात्मक और उपयोग लक्षण-वाले जीव दो प्रकार के हैं संसारस्थ और सिद्ध । देह में प्रवीचार सहित संसारस्थ हैं तथा देह में प्रवीचार रहित सिद्ध हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जीवा] जीव हैं । वे किस विशेषता-वाले हैं? [संसारत्था णिव्वादा] वे संसारस्थ (संसारी) और निवृत्त (मुक्त) हैं । [चेदणप्पगा दुविहा] वे दोनों ही चेतनात्मक हैं; संसारी कर्म-चेतना और कर्म-फल-चेतनात्मक हैं, मुक्त शुद्ध चेतनात्मक हैं । [उवओगलक्खणा विय] वे उपयोग लक्षण-वाले भी हैं । आत्मा के चैतन्य का अनुसरण करने-वाला परिणाम उपयोग है; केवलज्ञान-दर्शन उपयोग लक्षण-वान (अरहंत-सिद्ध) मुक्त हैं, क्षायोपशमिक अशुद्धोपयोग से युक्त संसारी हैं । [देहादेहप्पवीचारा] वे देहादेह प्रवीचार वाले हैं; अदेह-आत्म-तत्त्व से विपरीत देह सहित (देह का भोग-उपयोग करनेवाले) देह प्रवीचारी हैं, (देह का भोग-उपयोग नहीं करनेवाले) अदेह प्रवीचारी सिद्ध हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥११७॥
इस प्रकार जीवाधिकार की सूचना परक गाथा-रूप से प्रथम गाथा-सूत्र पूर्ण हुआ ।