ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 109 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
पुढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा काया । (109)
देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं ॥118॥
अर्थ:
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति जीव से संश्रित / सहित अनेक प्रकार के वे शरीर वास्तव में उन्हें (उन जीवों को) मोह से बहुल स्पर्श देते हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
कर्मता को प्राप्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति जीवों से संश्रित काय / शरीर वास्तव में देते हैं । वे क्या देते हैं ? बहुक / अन्तर्भेद से बहु संख्या-वाले होने पर भी वे शरीर उन जीवों को मोह से बहुल स्पर्श-रूप विषय देते हैं ।
यहाँ स्पर्शनेन्द्रिय आदि से रहित अखंड एक ज्ञान प्रतिभास-मय जो आत्म-स्वरूप, उसकी भावना से रहित तथा अल्प-सुख के लिए स्पर्शनेन्द्रिय सम्बंन्धी विषय की लम्पटता-रूप से परिणत जीव द्वारा जो उपार्जित, स्पर्शनेन्द्रिय को उत्पन्न करनेवाला एकेन्द्रिय जाति नामकर्म, उसके उदय के समय स्पर्शनेन्द्रिय के क्षयोपशम को प्राप्तकर स्पर्श-विषय के ज्ञान-रूप से परिणमित होता है, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥११८॥