पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 111 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
अंडेसु पवड्ढंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया । (111)
जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया ॥121॥
अर्थ:
अण्डे में प्रवर्धमान (बढ़ते हुए),गर्भस्थ और मूर्छा को प्राप्त मनुष्य जैसे हैं; उसीप्रकार एकेन्द्रिय जीव जानना चाहिए ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अण्डों में बढ़ते हुए तिर्यंच, गर्भस्थ, मूर्छा को प्राप्त मनुष्य जिसप्रकार ईहा (इच्छा) पूर्वक व्यवहार से रहित होते हैं; उसीप्रकार एकेन्द्रिय जीव जानना चाहिए ।
वह इसप्रकार है -- जैसे बहिरंग व्यापार का अभाव होने पर भी अण्डज आदि के शरीर की पुष्टि को देखकर चैतन्य का अस्तित्व जान लिया जाता है तथा म्लानता को देखकर नास्तित्व भी ज्ञात हो जाता है; उसीप्रकार एकेन्द्रियों के भी जान लेना ।
यहाँ भावार्थ यह है परमार्थ से स्वाधीन अनन्त ज्ञान-सुख सहित होने पर भी जीव बाद में अज्ञान से पराधीन इन्द्रिय-सुख में आसक्त होकर जो कर्म बाँधता है, उससे अंडज आदि के समान एकेन्द्रिय से उत्पन्न दु:ख से आत्मा को दुखी करता है ॥१२१॥