पद्मपुराण - पर्व 19: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर रावण को संतोष नहीं हुआ सो उसने बहुत भारी क्रोध धारण कर पत्रवाहकों के द्वारा समस्त विद्याधरों को फिर से बुलाया ।।1।। किष्किंधा का राजा, दुंदुभि, अलंकारपुर का अधिपति, रथनूपुर का स्वामी तथा विजयार्ध पर्वत की दोनों श्रेणियों में निवास करने वाले अन्य समस्त विद्याधर सब प्रकार की तैयारी के साथ रावण के समीप जा पहुँचे ।।2-3।। तदनंतर मस्तक पर लेख को धारण करनेवाला एक मनुष्य हनुरुह द्वीप में पवनंजय और प्रतिसूर्य के पास भी आया ।।4।। लेख का अर्थ समझकर दोनों ने रावण के पास जाने का विचार किया सो वहाँ जाने के पूर्व वे राज्य पर हनूमान का अभिषेक करने के लिए उद्यत हुए ।।5।। राज्याभिषेक की बड़ी तैयारी की गयी। तुरही आदि वादित्रों का बड़ा शब्द होने लगा और मनुष्य हाथ में कलश लेकर हनूमान के सामने खड़े हो गये ।।6।। हनूमान ने पवनंजय और प्रतिसूर्य से पूछा कि यह क्या है? तब उन्होंने कहा कि है वत्स! अब तुम हनुरुह द्वीप के राज्य का पालन करो ।।7।। | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर रावण को संतोष नहीं हुआ सो उसने बहुत भारी क्रोध धारण कर पत्रवाहकों के द्वारा समस्त विद्याधरों को फिर से बुलाया ।।1।।<span id="2" /><span id="3" /> किष्किंधा का राजा, दुंदुभि, अलंकारपुर का अधिपति, रथनूपुर का स्वामी तथा विजयार्ध पर्वत की दोनों श्रेणियों में निवास करने वाले अन्य समस्त विद्याधर सब प्रकार की तैयारी के साथ रावण के समीप जा पहुँचे ।।2-3।।<span id="4" /> तदनंतर मस्तक पर लेख को धारण करनेवाला एक मनुष्य हनुरुह द्वीप में पवनंजय और प्रतिसूर्य के पास भी आया ।।4।।<span id="5" /> लेख का अर्थ समझकर दोनों ने रावण के पास जाने का विचार किया सो वहाँ जाने के पूर्व वे राज्य पर हनूमान का अभिषेक करने के लिए उद्यत हुए ।।5।।<span id="6" /> राज्याभिषेक की बड़ी तैयारी की गयी। तुरही आदि वादित्रों का बड़ा शब्द होने लगा और मनुष्य हाथ में कलश लेकर हनूमान के सामने खड़े हो गये ।।6।।<span id="7" /> हनूमान ने पवनंजय और प्रतिसूर्य से पूछा कि यह क्या है? तब उन्होंने कहा कि है वत्स! अब तुम हनुरुह द्वीप के राज्य का पालन करो ।।7।।<span id="8" /> हम दोनों को रावण ने युद्ध में सहायता करने के लिए बुलाया है सो हमें प्रेमपूर्वक यथोचित रूप से आज्ञा पालन करना चाहिए ।।8।।<span id="9" /> रसातलपुर में जो वरुण रहता है वही उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है। उसकी बहुत बड़ी सेना है तथा वह पुत्र और दुर्ग के बल से उत्कट होने के कारण दुर्जय है ।।9।।<span id="10" /> ऐसा कहने पर हनूमान ने विनय से उत्तर दिया कि मेरे रहते हुए आप गुरुजनों को युद्ध के लिए जाना उचित नहीं है ।।10।।<span id="11" /><span id="12" /> हे बेटा! अभी तुमने रण का स्वाद नहीं जाना है ऐसा जब उससे कहा गया तब उसने उत्तर दिया कि जो मोक्ष प्राप्त होता वह क्या कभी पहले प्राप्त किया हुआ होता है? जब रोकने पर भी उसने रुकने का मन नहीं किया तब उन दोनों ने उस युवा को जाने की स्वीकृति दे दी ।। 11-12।।<span id="13" /><span id="14" /><span id="15" /></p> | ||
< | <p>तदनंतर प्रातःकाल स्नान कर जिसने अरहंत और सिद्ध भगवान को प्रयत्नपूर्वक प्रणाम किया था, भोजन कर शरीर पर मंगल द्रव्य धारण किये थे, जो महा तेज से सहित था तथा सब विधि-विधान के जानने में निपुण था ऐसा हनूमान माता-पिता तथा माता के मामा को प्रणाम कर और समस्त लोगों से संभाषण कर सूर्य के समान चमकते हुए विमान पर बैठकर शस्त्रों के समूह से दसों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लंकापुरी की ओर चला ।।13-15।।<span id="16" /> विमान में बैठकर त्रिकूटाचल के सम्मुख जाता हुआ हनूमान ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि मेरु के सम्मुख जाता हुआ ऐशानेंद्र सुशोभित होता है ।।16।।<span id="17" /> समुद्र की लहरों की संतति जिसके विशाल नितंब को चूम रही थी ऐसे जल वीचि गिरि पर जब वह पहुंचा तब सूर्य अस्त हो गया ।।17।।<span id="18" /> सो वहाँ उत्तम योद्धाओं के साथ वार्तालाप करते हुए उसने सुख से रात्रि बितायी और प्रातःकाल होने पर बड़े उत्साह से लंका की ओर दृष्टि रखकर आगे चला ।।18।।<span id="19" /> इस तरह नाना देशों, द्वीपों, तरंगों से आहत, पर्वतों और समुद्र में किलोले करते मगरमच्छों को देखता हुआ राक्षसों की सेना में जा पहुंचा ।।19।।<span id="20" /> हनूमान की सेना देखकर बड़े-बड़े राक्षसों के शिरोमणि हनुमान की ओर दृष्टि लगाकर परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ।।20।।<span id="21" /> जिसने पर्वत को चूर्ण किया था यह वही भव्य जनोत्तम है इस शब्द को सुनता हुआ हनूमान रावण के समीप गया ।।21।।<span id="22" /><span id="23" /> उस समय रावण उस शिलातल पर बैठा था जो कि फूलों से व्याप्त था, सुगंधि के कारण खिंचे हुए मदोन्मत्त भ्रमर जिस पर गुंजार कर रहे थे, जिसके ऊपर रत्नों की किरणों से व्याप्त कपड़े का उत्तम मंडप लगा हुआ था और जिसके चारों ओर सामंत लोग बैठे थे। रावण हनुमान को देखकर उस शिलातल से उठकर खड़ा हो गया ।।22-23।।<span id="24" /> तदनंतर विनय से जिसका शरीर झुक रहा था ऐसे सम्मान का आलिंगन कर वह प्रीति से हँसता हुआ उसके साथ उसी शिलातल पर बैठ गया ।।24।।<span id="25" /> परस्पर की कुशल पूछकर तथा एक दूसरे की संपदा देखकर दोनों महाभाग्यशाली इस तरह रमण करने लगे मानो दो इंद्र ही परस्पर मिले हों ।।25।।<span id="26" /></p> | ||
<p>अथानंतर जो प्रसन्न चित्त का धारक था और अत्यंत स्नेह भरी दृष्टि से बार-बार उसी की ओर देख रहा था ऐसा रावण सम्मान से बोला कि ।।26।। अहो, सज्जनोत्तम पवन कुमार ने मेरे साथ खूब प्रेम बढ़ाया है जो प्रसिद्ध गुणों के सागरस्वरूप इस पुत्र को भेजा है ।।27।। | <p>अथानंतर जो प्रसन्न चित्त का धारक था और अत्यंत स्नेह भरी दृष्टि से बार-बार उसी की ओर देख रहा था ऐसा रावण सम्मान से बोला कि ।।26।।<span id="27" /> अहो, सज्जनोत्तम पवन कुमार ने मेरे साथ खूब प्रेम बढ़ाया है जो प्रसिद्ध गुणों के सागरस्वरूप इस पुत्र को भेजा है ।।27।।<span id="28" /> इस महाबलवान् तथा तेजोमंडल के धारक वीर को पाकर मुझे इस संसार में कोई भी कार्य कठिन नहीं रह जायेगा ।।28।।<span id="29" /> जब रावण हनूमान के गुणों का वर्णन कर रहा था तब वह लज्जित के समान नम्र शरीर का धारक हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों को यही वृत्ति है ।।29।।<span id="30" /> तदनंतर जिसकी किरणों का समूह लाल पड़ गया था ऐसा सूर्य मानो होनेवाले संग्राम के भय से ही अस्त हो गया था ।।30।।<span id="31" /> उसके पीछे-पीछे जाती और उत्कट राग अर्थात् लालिमा (पक्ष में प्रेम) को धारण करती हुई संध्या ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो अपने प्राणनाथ के पीछे-पीछे जाती हुई विनीत स्त्री-कुलवधू ही हो ।।31।।<span id="32" /> जो निरंतर सूर्य के पीछे-पीछे चला करती थी ऐसी रात्रिरूपी वधू चंद्रमा रूपी तिलक धारण कर अतिशय सुशोभित होने लगी ।।32।।<span id="33" /><span id="34" /> </p> | ||
<p>दूसरे दिन जब सूर्य की किरणों से संसार प्रकाशमान हो गया तब रावण तैयार होकर वरुण के नगर की ओर चला। उस समय रावण अपनी समस्त सेना के मध्य में चल रहा था। हनुमान उसके पास ही स्थित था और मंगल द्रव्य उसने शरीर पर धारण कर रखे थे। वह विद्या के द्वारा समुद्र को भेदन कर वरुण के नगर की ओर चला ।।33-34।। | <p>दूसरे दिन जब सूर्य की किरणों से संसार प्रकाशमान हो गया तब रावण तैयार होकर वरुण के नगर की ओर चला। उस समय रावण अपनी समस्त सेना के मध्य में चल रहा था। हनुमान उसके पास ही स्थित था और मंगल द्रव्य उसने शरीर पर धारण कर रखे थे। वह विद्या के द्वारा समुद्र को भेदन कर वरुण के नगर की ओर चला ।।33-34।।<span id="35" /> जिस प्रकार परशुराम को लक्ष्य कर चलने वाले सुभीम चक्रवर्ती की अनुपम दीप्ति थी इसी प्रकार शत्रु के सम्मुख जानेवाले रावण की दीप्ति भी अनुपम थी ।।35।।<span id="36" /> सेना की कल-कल से दशानन को आया जान वरुण का समस्त नगर क्षुभित हो गया उसमें बड़ा कुहराम मच गया ।।36।।<span id="37" /> वरुण का वह नगर पाताल पुंडरीक नाम से प्रसिद्ध था। उसमें मजबूत ध्वजाएं लगी हुई थी और रत्नमयी तोरण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे पर रावण के पहुँचने पर सारा नगर युद्ध की तैयारी संबंधी कल-कल से व्याप्त हो गया ।।37।।<span id="38" /> असुरों के नगर के समान सबके मन को हरने वाले उस नगर में खासकर स्त्रियों में बड़ी आकुलता उत्पन्न हो रही थी। भय से उनके नेत्र चकित हो गये थे ।।38।।<span id="39" /> वहाँ भवनवासी देवों के समान जो योद्धा थे वे बाहर निकल आये तथा चमरेंद्र के समान पराक्रम से गर्वीला वरुण भी निकलकर बाहर आया ।।39।।<span id="40" /> जिन्होंने नाना प्रकार के शस्त्रों के समूह से सूर्य का दिखना रोक दिया था ऐसे वरुण के सौ पराक्रमी पुत्र भी युद्ध करने के लिए उठ खड़े हुए ।।40।।<span id="41" /> सो जिस प्रकार असुरकुमार अन्य क्षुद्र देवताओं को क्षण एक में पराजित कर देते हैं उसी प्रकार वरुण के सौ पुत्रों ने क्षण एक में ही राक्षसों की सेना को पराजित कर दिया ।।41।।<span id="42" /> जिसके अंदर सौ भाई अपनी कला दिखा रहे थे ऐसी वरुण की सेना से खंडित हुई रावण की सेना गायों के झुंड के समान भयभीत हो तितर-बितर हो गयी ।।42।।<span id="43" /> </p> | ||
<p>राक्षसों के हाथ पसीने से गीले हो गये जिससे चक्र, धनुष, घन, प्रास, शतघ्नी आदि शस्त्र उनसे छूट-छूटकर नीचे गिरने लगे ।।43।। तदनंतर रावण ने देखा कि हमारी सेना बाणों के समूह से व्याकुल होकर प्रात:कालीन सूर्य की किरणों के समान लाल-लाल हो रही है तब वह बाणों की वेगशाली वर्षा से स्वयं ताड़ित होता हुआ भी क्रुद्ध हो क्षण एक में शत्रुदल को भेदकर भीतर घुस गया और जिस प्रकार गजराज वृक्षों को नीचे गिराता है उसी प्रकार वरुण की सेना के वीरों को मार-मारकर नीचे गिराने लगा ।।44-45।। तदनंतर वरुण के सौ पुत्रों ने रावण को इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि वर्षाऋतु के गरजते हुए बादल सूर्य को घेर लेते हैं ।।46।। यद्यपि सब दिशाओं से आने वाले बाणों से रावण का शरीरं खंडित हो गया तो भी वह अभिमानी युद्ध के मैदान को नहीं छोड़ रहा था ।।47।। उधर वरुण ने भी देदीप्यमान कानों को धारण करने वाले नरश्रेष्ठ इंद्रजित् तथा राक्षसों के अन्य अनेक राजाओं को अपने सामने किया अर्थात् उनसे युद्ध करने लगा ।।48।।</ | <p>राक्षसों के हाथ पसीने से गीले हो गये जिससे चक्र, धनुष, घन, प्रास, शतघ्नी आदि शस्त्र उनसे छूट-छूटकर नीचे गिरने लगे ।।43।।<span id="44" /><span id="45" /> तदनंतर रावण ने देखा कि हमारी सेना बाणों के समूह से व्याकुल होकर प्रात:कालीन सूर्य की किरणों के समान लाल-लाल हो रही है तब वह बाणों की वेगशाली वर्षा से स्वयं ताड़ित होता हुआ भी क्रुद्ध हो क्षण एक में शत्रुदल को भेदकर भीतर घुस गया और जिस प्रकार गजराज वृक्षों को नीचे गिराता है उसी प्रकार वरुण की सेना के वीरों को मार-मारकर नीचे गिराने लगा ।।44-45।।<span id="46" /> तदनंतर वरुण के सौ पुत्रों ने रावण को इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि वर्षाऋतु के गरजते हुए बादल सूर्य को घेर लेते हैं ।।46।।<span id="47" /> यद्यपि सब दिशाओं से आने वाले बाणों से रावण का शरीरं खंडित हो गया तो भी वह अभिमानी युद्ध के मैदान को नहीं छोड़ रहा था ।।47।।<span id="48" /> उधर वरुण ने भी देदीप्यमान कानों को धारण करने वाले नरश्रेष्ठ इंद्रजित् तथा राक्षसों के अन्य अनेक राजाओं को अपने सामने किया अर्थात् उनसे युद्ध करने लगा ।।48।।<span id="49" /><span id="50" /></p> | ||
<p>तदनंतर वरुण के पुत्र ने जिसे अपने बाणों का निशाना बनाया था और जो रुधिर के बहने से पलाश के फूलों के समूह के समान जान पड़ता था ऐसे रावण को देखकर हनूमान शीघ्र ही महापुरुषों के बीच में चलने पर रथ पर सवार हुआ। उस समय उसका चित्त रावण के भाई के समान प्रीति से युक्त था तथा वह सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था ।।49-50।। तत्पश्चात् जो अपने वेग से पवन को जीत रहा था, विजय प्राप्त करने में जिसका आदर था और जो सूर्यमंडल के समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा हनूमान यमराज के समान युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ।।51।। सो जिस प्रकार महावेगशाली वायु से प्रेरित उन्नत मेघों का समूह इधर-उधर उड़ जाता है उसी प्रकार हनूमान के द्वारा प्रेरित हुए वरुण के सब पुत्र इधर-उधर भाग खड़े हुए ।।52।। वह बार-बार शत्रुओं के शरीरों के साथ कदली वन को छेदने की क्रीड़ा करता था अर्थात् शत्रुओं के शरीर को कदली वन के समान अनायास ही काट रहा था ।।53।। जिस प्रकार कोई पुरुष स्नेह के द्वारा अपने मित्र को खींच लेता है उसी प्रकार उसने किसी वीर को विद्या निर्मित लांगूलरूपी पाश से खींच लिया था ।।54।। | <p>तदनंतर वरुण के पुत्र ने जिसे अपने बाणों का निशाना बनाया था और जो रुधिर के बहने से पलाश के फूलों के समूह के समान जान पड़ता था ऐसे रावण को देखकर हनूमान शीघ्र ही महापुरुषों के बीच में चलने पर रथ पर सवार हुआ। उस समय उसका चित्त रावण के भाई के समान प्रीति से युक्त था तथा वह सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था ।।49-50।।<span id="51" /> तत्पश्चात् जो अपने वेग से पवन को जीत रहा था, विजय प्राप्त करने में जिसका आदर था और जो सूर्यमंडल के समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा हनूमान यमराज के समान युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ।।51।।<span id="60" /><span id="52" /> सो जिस प्रकार महावेगशाली वायु से प्रेरित उन्नत मेघों का समूह इधर-उधर उड़ जाता है उसी प्रकार हनूमान के द्वारा प्रेरित हुए वरुण के सब पुत्र इधर-उधर भाग खड़े हुए ।।52।।<span id="53" /> वह बार-बार शत्रुओं के शरीरों के साथ कदली वन को छेदने की क्रीड़ा करता था अर्थात् शत्रुओं के शरीर को कदली वन के समान अनायास ही काट रहा था ।।53।।<span id="54" /> जिस प्रकार कोई पुरुष स्नेह के द्वारा अपने मित्र को खींच लेता है उसी प्रकार उसने किसी वीर को विद्या निर्मित लांगूलरूपी पाश से खींच लिया था ।।54।।<span id="55" /> और जिस प्रकार कोई जिनभक्त हेतु रूपी मुद्गर के प्रहार से मिथ्यादृष्टि के मस्तक पर प्रहार करता है उसी प्रकार वह किसी के शिर पर उल्का के प्रहार से चोट पहुँचा रहा था ।।55।।<span id="56" /> इस प्रकार वानर की ध्वजा से सुशोभित हनूमान को क्रीड़ा करते देख क्रोध से लाल-लाल नेत्र करता हुआ वरुण उसके सामने आया ।।56।।<span id="57" /> ज्योंही रावण ने वरुण को हनूमान के सामने दौड़ता आता देखा त्यों ही उसने शत्रु को बीच में उस प्रकार रोक लिया जिस प्रकार कि पहाड़ नदी के जल को रोक लेता है ।।57।।<span id="58" /> इधर जब तक वरुण का रावण के साथ घोड़े, हाथी, पैदल सिपाही तथा शस्त्रों के समूह से व्याप्त युद्ध हुआ ।।58।।<span id="51" /> तब तक हनूमान ने वरुण के सौ के सौ ही पुत्र बाँध लिये। वे चिरकाल तक युद्ध करते करते थक गये थे तथा उनके सैनिक मारे गये थे ।।51।।<span id="60" /><span id="52" /> सौ के सौ ही पुत्रों को बँधा सुनकर वरुण शोक से विह्वल हो गया। वह विद्या का स्मरण भूल गया और उसका पराक्रम ढीला पड़ गया ।।60।।<span id="61" /> रण-निपुण रावण ने छिद्र पाकर वरुण की योगिनी नामा विद्या छेद डाली तथा उसे जीवित पकड़ लिया ।।61।।<span id="62" /> उस समय जिसके पुत्र रूपी किरणों की शोभा नष्ट हो गयी थी तथा जो उदय से रहित था ऐसे वरुण रूपी चंद्रमा के लिए रावण ने राहु का काम किया था ।।62।।<span id="63" /> जो शत्रुरूपी पिंजड़े के मध्य में स्थित था, जिसका मान नष्ट हो गया था और जिसे लोग बड़े आश्चर्य से देखते थे ऐसा वरुण रक्षा करने के लिए आदर के साथ कुंभकर्ण को सौंपा गया ।।63।।<span id="64" /> </p> | ||
<p>तदनंतर बहुत दिन बाद निश्चिंतता को प्राप्त हुआ रावण सेना को विश्राम देता हुआ भवनोन्माद नामक उत्कृष्ट उद्यान में ठहरा रहा ।।64।। वृक्षों की छाया के नीचे ठहरी हुई इसकी सेना का युद्धजनित खेद समुद्र के संबंध से शीतल वायु ने दूर कर दिया था ।।65।। स्वामी को पकड़ा जानकर वरुण की समस्त सेना भयभीत हो व्याकुलता से भरे पुंडरीक नगर में घुस गयी ।।66।। यद्यपि वही सेना थी और वे ही महायोद्धा थे तो भी प्रधान पुरुष के बिना सब व्यर्थ हो गये ।।67।। | <p>तदनंतर बहुत दिन बाद निश्चिंतता को प्राप्त हुआ रावण सेना को विश्राम देता हुआ भवनोन्माद नामक उत्कृष्ट उद्यान में ठहरा रहा ।।64।।<span id="65" /> वृक्षों की छाया के नीचे ठहरी हुई इसकी सेना का युद्धजनित खेद समुद्र के संबंध से शीतल वायु ने दूर कर दिया था ।।65।।<span id="66" /> स्वामी को पकड़ा जानकर वरुण की समस्त सेना भयभीत हो व्याकुलता से भरे पुंडरीक नगर में घुस गयी ।।66।।<span id="67" /> यद्यपि वही सेना थी और वे ही महायोद्धा थे तो भी प्रधान पुरुष के बिना सब व्यर्थ हो गये ।।67।।<span id="68" /> अहो! पुण्य का माहात्म्य देखो कि पुण्यवान के उत्पन्न होते ही अनेक पुरुषों का उद्भव हो जाता है और उसके नष्ट होने पर अनेक पुरुषों का पतन हो जाता है ।।68।।<span id="69" /></p> | ||
<p>अथानंतर कुंभकर्ण घबराये हुए समस्त मनुष्यों के समूह से व्याप्त के उस नगर को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा ।।69।। योद्धाओं ने उस नगर की धन-रत्न आदिक समस्त कीमती वस्तुएँ छूट लीं। यह लूट शत्रु के नगर पर क्रोध होने के कारण ही की गयी थी न कि लोभ के वशीभूत होकर ।।70।। जो रति के समान विभ्रम को धारण करने वाली थीं, जिनके नेत्र झरते हुए आँसुओं से व्याप्त थे तथा जो विलाप कर रही थीं ऐसी बेचारी उत्तमोत्तम स्त्रियां पकड़कर लायी गयीं ।।71।। जिनके शरीर स्तनों के भार से नम्र थे, जिनके पल्लवों के समान कोमल हाथ हिल रहे थे और जो समस्त बंधुजनों को चिल्ला-चिल्लाकर पुकार रही थीं ऐसी उन स्त्रियों को निष्ठुर मनुष्य पकड़कर ला रहे थे ।।72।। जिसका मुखरूपी पूर्ण चंद्रमा शोक रूपी राहु के द्वारा ग्रसा गया था ऐसी विमान के भीतर डाली गयी कोई स्त्री सखी से कह रही थी कि हे सखि! यदि कदाचित् मेरे शील का भंग होगा तो मैं वस्त्र की पट्टी से लटककर मर जाऊँगी इसमें संशय नहीं है ।।73-74।। | <p>अथानंतर कुंभकर्ण घबराये हुए समस्त मनुष्यों के समूह से व्याप्त के उस नगर को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा ।।69।।<span id="70" /> योद्धाओं ने उस नगर की धन-रत्न आदिक समस्त कीमती वस्तुएँ छूट लीं। यह लूट शत्रु के नगर पर क्रोध होने के कारण ही की गयी थी न कि लोभ के वशीभूत होकर ।।70।।<span id="71" /> जो रति के समान विभ्रम को धारण करने वाली थीं, जिनके नेत्र झरते हुए आँसुओं से व्याप्त थे तथा जो विलाप कर रही थीं ऐसी बेचारी उत्तमोत्तम स्त्रियां पकड़कर लायी गयीं ।।71।।<span id="72" /> जिनके शरीर स्तनों के भार से नम्र थे, जिनके पल्लवों के समान कोमल हाथ हिल रहे थे और जो समस्त बंधुजनों को चिल्ला-चिल्लाकर पुकार रही थीं ऐसी उन स्त्रियों को निष्ठुर मनुष्य पकड़कर ला रहे थे ।।72।।<span id="73" /><span id="74" /> जिसका मुखरूपी पूर्ण चंद्रमा शोक रूपी राहु के द्वारा ग्रसा गया था ऐसी विमान के भीतर डाली गयी कोई स्त्री सखी से कह रही थी कि हे सखि! यदि कदाचित् मेरे शील का भंग होगा तो मैं वस्त्र की पट्टी से लटककर मर जाऊँगी इसमें संशय नहीं है ।।73-74।।<span id="75" /> जिसके मरने में संदेह था ऐसे पति को बार-बार पुकारती हुई म्लान लोचनों वाली कोई स्त्री उसके गुणों का स्मरण कर मूर्च्छा को प्राप्त हो रही थी ।।75।।<span id="76" /> जो माता, पिता, भाई, मामा और पुत्र को बुला रही थीं तथा जिनके नेत्रों से आँसू झर रहे थे ऐसी वे स्त्रियां मुनि के लिए भी दुःख दायिनी हो रही थीं अर्थात् उनकी दशा देख मुनि के हृदय में भी दुःख उत्पन्न हो जाता था ।।76।।<span id="77" /><span id="78" /> कुंभकर्ण की शोभा से जिसके नेत्र हरे गये थे ऐसी कोई एक कमल लोचना स्त्री एकांत पाकर विश्वासपूर्वक सखी से कह रही थी कि हे सखि! इस श्रेष्ठ नर को देखकर मुझे कोई अद्भुत ही आनंद उत्पन्न हुआ है और जिस आनंद से मानो मेरा समस्त शरीर पराधीन ही हो गया है ।।77-78।।<span id="79" /> इस प्रकार कर्मो की विचित्रता से उन स्त्रियों में शुद्ध तथा विरुद्ध दोनों प्रकार के विकल्प उत्पन्न हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि लोगों की चेष्टाएँ विचित्र हुआ करती हैं ।।79।।<span id="80" /><span id="81" /> </p> | ||
<p>तदनंतर जो कुबेर के समान समीचीन विभूति का धारक था, अत्यंत बलवान् योद्धा जिसकी सेवा कर रहे थे, जो जय-जय की ध्वनि से मुखर था और सुंदर लीला से सहित था ऐसे कुंभकर्ण ने विमान से उतरकर बड़े हर्ष के साथ उन धूसर ओठों वाली अपहृत स्त्रियों को रावण के सामने खड़ा कर दिया ।।80-81।। | <p>तदनंतर जो कुबेर के समान समीचीन विभूति का धारक था, अत्यंत बलवान् योद्धा जिसकी सेवा कर रहे थे, जो जय-जय की ध्वनि से मुखर था और सुंदर लीला से सहित था ऐसे कुंभकर्ण ने विमान से उतरकर बड़े हर्ष के साथ उन धूसर ओठों वाली अपहृत स्त्रियों को रावण के सामने खड़ा कर दिया ।।80-81।।<span id="82" /><span id="83" /> वे स्त्रियाँ विषाद से युक्त थीं, उनके नेत्र आँसुओं से भरे हुए थे, बंधुजनों से रहित थीं, नम्र थीं, उनके शरीर कांप रहे थे, वे इच्छानुसार कुछ दयनीय शब्दों का उच्चारण कर रही थीं तथा लज्जा से युक्त थीं। उन स्त्रियो को देखकर रावण करुणायुक्त हो कुंभकर्ण से इस प्रकार कहने लगा ।।82-83।।<span id="84" /> कि अहो बालक! जो तू कुलवती स्त्रियों को बंदी के समान पकड़कर लाया है यह तूने अत्यंत दुश्चरित का कार्य किया है ।।84।।<span id="85" /> इन बेचारी भोलीभाली स्त्रियों का इसमें क्या दोष था जो तूने व्यर्थ ही इन्हें कष्ट पहुंचाया है? ।।85।।<span id="86" /> जो चेष्टा मुग्ध जनों का पालन करने वाली है, शत्रुओं का नाश करने वाली है और गुरुजनों की शुश्रूषा करने वाली है यथार्थ में वही महापुरुषों की चेष्टा कहलाती है ।।86।।<span id="87" /> ऐसा कहकर उसने उन्हें शीघ्र ही छुड़वा दिया जिससे वे अपने-अपने घर चली गयीं। यही नहीं उसने साध्वी स्त्रियों को अपनी वाणी से आश्वासन भी दिया जिससे उन सबका भय शीघ्र ही कम हो गया ।।87।।<span id="88" /><span id="89" /></p> | ||
< | <p>अथानंतर जो लज्जा से सहित था तथा जिसने सुभटों के देखने मात्र से राक्षसों का मुख नीचा कर दिया था ऐसे वरुण को बुलाकर रावण ने कहा कि हे प्रवीण! युद्ध में पकड़े जाने का शोक मत करो क्योंकि युद्ध में वीरों का पकड़ा जाना तो उनकी उत्तम कीर्ति का कारण है ।।88-89।।<span id="90" /> मान शाली वीर युद्ध में दो ही वस्तुएँ प्राप्त करते हैं एक तो पकड़ा जाना और दूसरा मारा जाना। इनके सिवाय जो कायर लोग हैं वे भाग जाना प्राप्त करते हैं ।।90।।<span id="91" /> तुम पहले के समान ही समस्त मित्र और बंधुजनों से संपन्न हो सकल उपद्रवों से रहित अपने संपूर्ण राज्य का अपने ही स्थान में रहकर पालन करो ।।91।।<span id="92" /> इस प्रकार कहने पर वरुण ने हाथ जोड़कर वीर रावण से कहा कि इस संसार में आपका पुण्य विशाल है जो आपके साथ वैर रखता है वह मूर्ख है ।।92।।<span id="93" /> अहो! यह तुम्हारा बड़ा धैर्य है, यह मुनि के धैर्य के समान हजारों स्तवन करने के योग्य है कि जो तुमने दिव्य रत्नों का प्रयोग किये बिना ही मुझे जीत लिया। यथार्थ में तुम्हारा शासन उन्नत है ।।93।।<span id="94" /> अथवा आश्चर्यकारी कार्य करने वाले हनुमान का ही प्रभाव कैसे कहा जाये? क्योंकि हे सत्पुरुष! वह महानुभाव भी आपके ही शुभोदय से यहाँ आया था ।।94।।<span id="95" /> पराक्रम रूपी कोश से जिसकी रक्षा की गयी ऐसी यह पृथिवी गोत्र की परिपाटी के अनुसार किसी को प्राप्त नहीं हुई। यह तो वीर मनुष्य के भोगने योग्य है और आप वीर मनुष्यों में अग्रसर हो अत: आप लोक का पालन करो ।।95।।<span id="96" /> हे उदार यश के धारक! आप हमारे स्वामी हो। मेरे दुर्वचनों से आपको जो दुःख हुआ हो उसे क्षमा करो। हे नाथ! ऐसा कहना चाहिए, इसीलिए कह रहा हूँ। वैसे आपकी अत्यंत उदार क्षमा तो देख ही ली है ।।96।।<span id="97" /> आप अत्यंत चेष्टा के धारक हो इसलिए आपके साथ संबंध कर मैं कृतकृत्य होना चाहता हूँ। आप मेरी पुत्री स्वीकृत कीजिए क्योंकि इसके योग्य आप ही हैं ।।97।।<span id="98" /> ऐसा कहकर उसने सुंदर रूप की धारक, सुदेवी रानी से उत्पन्न, कमल के समान मुख वाली, सत्यवती नाम से प्रसिद्ध अपनी विनीत कन्या रावण के लिए समर्पित कर दी ।।98।।<span id="99" /> उन दोनों के विवाह में ऐसा बड़ा भारी उत्सव हुआ था कि जिसमें सब लोगों का सम्मान किया गया तो ठीक ही है क्योंकि दोनों ही समस्त समृद्धि को प्राप्त थे, अत: उन्हें कोई भी वस्तु खोजनी नहीं पड़ी थी ।।99।।<span id="100" /> इस प्रकार सम्मान को प्राप्त हुए रावण ने जिसका सम्मान किया था तथा रावण स्वयं जिसे भेजने के लिए पीछे-पीछे गया था ऐसा वरुण अपनी राजधानी में प्रविष्ट हुआ। वहाँ पुत्री के वियोग से कुछ दिन तक उसकी अंतरात्मा दुःखी रही ।।100।।<span id="101" /><span id="102" /> कैलास को कंपित करने वाले रावण ने भी लंका में आकर तथा बहुत भारी सम्मान कर हनूमान के लिए चंद्रनखा की कांतिमती पुत्री समर्पित की। उस कन्या का नाम लोक में ‘अनंगपुष्पा’ प्रसिद्ध था। वह गुणों की राजधानी थी और उसके नेत्र कामदेव के पुष्प रूपी शस्त्र अर्थात् कमल के समान थे। उसे पाकर हनूमान अत्यधिक संतोष को प्राप्त हुआ ।।101-102।।<span id="103" /> कन्या ही नहीं दी किंतु लक्ष्मी से भरपूर कर्णकुंडलनामा नगर में उसका राज्याभिषेक भी किया सो जिस प्रकार स्वर्गलोक में इंद्र रहता है उसी प्रकार वह उस नगर में उत्तम भोग भोगता हुआ रहने लगा ।।103।।<span id="104" /> किष्कुपुर के राजा नल ने भी रूपसंपदा के द्वारा लक्ष्मी को जीतने वाली अपनी हरिमालिनी नाम की प्रसिद्ध पुत्री बड़े वैभव के साथ हनूमान को दी ।।104।।<span id="105" /> इसी प्रकार किन्नरगीत नामा नगर में भी उसने किन्नर जाति के विद्याधरों की सौ कन्याएँ प्राप्त कीं। इस तरह उस महात्मा के यथाक्रम से एक हजार से भी अधिक स्त्रियाँ हो गयीं ।।105।।<span id="106" /> चूँकि श्रीशैल नाम को धारण करने वाले हनूमान भ्रमण करते हुए उस पर्वत पर आकर ठहर गये थे इसलिए सुंदर शिखरों वाला वह पर्वत पृथिवी में श्रीशैल इस नाम से ही प्रसिद्ध हो गया ।।106।।<span id="107" /></p> | ||
<p>अथानंतर उस समय किष्किंधपुर नामा नगर में विद्याधरों के राजा उदारचेता सुग्रीव रहते थे। उनकी चंद्रमा के समान मुख वाली तथा सुंदरता में रति की समानता करने वाली तारा नाम की स्त्री थी ।।107।। उन दोनों के एक पद्मरागा नाम की पुत्री थी। उस पुत्री का रंग नूतन कमल के समान था, गुणों के द्वारा वह पृथिवी में अत्यंत प्रसिद्ध थी, रूप से लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, उसके नेत्र विशाल थे, उसका मुखकमल कांति के समूह से आवृत था, उसके स्तन किसी बड़े हाथी के गंडस्थल के समान उन्नत और स्थूल थे, उसका उदर इंद्रायुध अर्थात् वज्र के पकड़ने की जगह के समान कृश था, वह अत्यधिक सौंदर्य रूपी सरोवर के मध्य में संचार करने वाली थी तथा सर्व मनुष्यों की अंतरात्मा को चुराने वाली थी ।।108-109।। | <p>अथानंतर उस समय किष्किंधपुर नामा नगर में विद्याधरों के राजा उदारचेता सुग्रीव रहते थे। उनकी चंद्रमा के समान मुख वाली तथा सुंदरता में रति की समानता करने वाली तारा नाम की स्त्री थी ।।107।।<span id="108" /><span id="109" /> उन दोनों के एक पद्मरागा नाम की पुत्री थी। उस पुत्री का रंग नूतन कमल के समान था, गुणों के द्वारा वह पृथिवी में अत्यंत प्रसिद्ध थी, रूप से लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, उसके नेत्र विशाल थे, उसका मुखकमल कांति के समूह से आवृत था, उसके स्तन किसी बड़े हाथी के गंडस्थल के समान उन्नत और स्थूल थे, उसका उदर इंद्रायुध अर्थात् वज्र के पकड़ने की जगह के समान कृश था, वह अत्यधिक सौंदर्य रूपी सरोवर के मध्य में संचार करने वाली थी तथा सर्व मनुष्यों की अंतरात्मा को चुराने वाली थी ।।108-109।।<span id="110" /> सुंदर विभ्रमों से सुन। उस कन्या के योग्य वर की खोज करते हुए माता-पिता न रात में सुख से नींद लेते थे और न दिन में चैन। उनका चित्त सदा इसी उलझन में उलझा रहता था ।।110।।<span id="111" /></p> | ||
<p>तदनंतर जो नाना गुणों के धारक थे, जिनकी कांति अत्यंत मनोहर थी और साथ ही जिनके शील तथा वंश का परिचय दिया गया था ऐसे इंद्रजित् आदि प्रधान विद्याधरों के चित्रपट लिखकर माता-पिता ने पुत्री को दिखलाये ।।111।। अनुक्रम से उन चित्रपटों को देखकर, कन्या ने बार-बार अपनी दृष्टि संकुचित कर ली। अंत में हनूमान का चित्रपट उसे दिखाया गया तो उस ओर उसकी दृष्टि शीघ्र ही आकर्षित होकर निश्चल हो गयी। उसे वह अनुराग से देखती रही ।।112।। तदनंतर जिसका समस्त शरीर सदृशता से रहित था ऐसे चित्रपट में स्थित हनूमान को देखकर वह कन्या एक ही साथ कामदेव के पाँचों दु:सह बाणों से ताड़ित हो गयी ।।113।। उसे हनूमान में अनुरक्त देख, गुणों को जाननेवाला सखी ने कहा कि हे बाले! यह पवनंजय का श्रीशैल नाम से प्रसिद्ध पुत्र है ।।114।। इसके गुण तो तुम्हें पहले से ही विदित थे और सुंदरता तुम्हारे नेत्रों के सामने है इसलिए इसके साथ कामभोग को प्राप्त करो तथा माता-पिता को चिरकाल बाद निद्रा प्रदान करो अर्थात् निश्चिंत होकर सोने दो ।।115।। आश्चर्य की बात है कि हनूमान ने चित्रगत होकर भी तेरे मन में विकार कलन कर दिया ऐसा कहती हुई सखी को कन्या ने लज्जावनत हो लीला कमल से ताड़ित किया ।।116।। </ | <p>तदनंतर जो नाना गुणों के धारक थे, जिनकी कांति अत्यंत मनोहर थी और साथ ही जिनके शील तथा वंश का परिचय दिया गया था ऐसे इंद्रजित् आदि प्रधान विद्याधरों के चित्रपट लिखकर माता-पिता ने पुत्री को दिखलाये ।।111।।<span id="112" /> अनुक्रम से उन चित्रपटों को देखकर, कन्या ने बार-बार अपनी दृष्टि संकुचित कर ली। अंत में हनूमान का चित्रपट उसे दिखाया गया तो उस ओर उसकी दृष्टि शीघ्र ही आकर्षित होकर निश्चल हो गयी। उसे वह अनुराग से देखती रही ।।112।।<span id="113" /> तदनंतर जिसका समस्त शरीर सदृशता से रहित था ऐसे चित्रपट में स्थित हनूमान को देखकर वह कन्या एक ही साथ कामदेव के पाँचों दु:सह बाणों से ताड़ित हो गयी ।।113।।<span id="114" /> उसे हनूमान में अनुरक्त देख, गुणों को जाननेवाला सखी ने कहा कि हे बाले! यह पवनंजय का श्रीशैल नाम से प्रसिद्ध पुत्र है ।।114।।<span id="115" /> इसके गुण तो तुम्हें पहले से ही विदित थे और सुंदरता तुम्हारे नेत्रों के सामने है इसलिए इसके साथ कामभोग को प्राप्त करो तथा माता-पिता को चिरकाल बाद निद्रा प्रदान करो अर्थात् निश्चिंत होकर सोने दो ।।115।।<span id="116" /> आश्चर्य की बात है कि हनूमान ने चित्रगत होकर भी तेरे मन में विकार कलन कर दिया ऐसा कहती हुई सखी को कन्या ने लज्जावनत हो लीला कमल से ताड़ित किया ।।116।।<span id="117" /> </p> | ||
<p>तदनंतर जब पिता को पता चला कि कन्या का मन पवनपुत्र हनूमान के द्वारा हरा गया है तब उसने शीघ्र ही हनूमान के पास कन्या का चित्रपट भेजा ।।117।। सो सुग्रीव का भेजा हुआ दूत श्री नगर पहुँचा। वहाँ जाकर उसने अपना परिचय दिया, प्रणाम किया और उसके बाद हनूमान के लिए तारा की पुत्री पद्मरागा का चित्रपट दिखलाया ।।118।। जैसा कि इस संसार में प्रसिद्ध है कि कामदेव के पाँच बाण हैं यदि यह बात सत्य है तो कन्या ने एक ही समय सौ बाणों के द्वारा हनूमान को कैसे घायल किया ।।119।। यदि मैं इस कन्या को नहीं प्राप्त करता हूँ तो मेरा जन्म लेना व्यर्थ है ऐसा मन में विचारकर हनुमान बड़े वैभव के साथ क्षण एक में सुग्रीव के नगर की ओर चल पड़ा ।।120।। उसे अत्यंत निकट में आया सुन सुग्रीव राजा हर्षित होता हुआ शीघ्र ही उसकी अगवानी के लिए गया। तत्पश्चात् जिसे सैकड़ों अर्घ दिये गये थे ऐसे हनूमान ने श्वसुर के साथ नगर में प्रवेश किया ।।121।। उस समय जब हनुमान राजमहल की ओर जा रहा था तब नगर की स्त्रियां अन्य सब काम छोड़कर महलों के मणिमय झरोखों में जा खड़ी हुई थीं और उस समय उनके नेत्र कमल हनूमान को देखने के लिए व्याकुल हो रहे थे ।।122।। सुकुमार शरीर की धारक सुग्रीव की पुत्री पद्मरागा झरोखे से हनूमान का रूप देखकर मन हीं मन अपने आपके द्वारा अनुभव करने योग्य किसी अद्भुत अवस्था को प्राप्त हुई ।।123।। | <p>तदनंतर जब पिता को पता चला कि कन्या का मन पवनपुत्र हनूमान के द्वारा हरा गया है तब उसने शीघ्र ही हनूमान के पास कन्या का चित्रपट भेजा ।।117।।<span id="118" /> सो सुग्रीव का भेजा हुआ दूत श्री नगर पहुँचा। वहाँ जाकर उसने अपना परिचय दिया, प्रणाम किया और उसके बाद हनूमान के लिए तारा की पुत्री पद्मरागा का चित्रपट दिखलाया ।।118।।<span id="119" /> जैसा कि इस संसार में प्रसिद्ध है कि कामदेव के पाँच बाण हैं यदि यह बात सत्य है तो कन्या ने एक ही समय सौ बाणों के द्वारा हनूमान को कैसे घायल किया ।।119।।<span id="120" /> यदि मैं इस कन्या को नहीं प्राप्त करता हूँ तो मेरा जन्म लेना व्यर्थ है ऐसा मन में विचारकर हनुमान बड़े वैभव के साथ क्षण एक में सुग्रीव के नगर की ओर चल पड़ा ।।120।।<span id="121" /> उसे अत्यंत निकट में आया सुन सुग्रीव राजा हर्षित होता हुआ शीघ्र ही उसकी अगवानी के लिए गया। तत्पश्चात् जिसे सैकड़ों अर्घ दिये गये थे ऐसे हनूमान ने श्वसुर के साथ नगर में प्रवेश किया ।।121।।<span id="122" /> उस समय जब हनुमान राजमहल की ओर जा रहा था तब नगर की स्त्रियां अन्य सब काम छोड़कर महलों के मणिमय झरोखों में जा खड़ी हुई थीं और उस समय उनके नेत्र कमल हनूमान को देखने के लिए व्याकुल हो रहे थे ।।122।।<span id="123" /> सुकुमार शरीर की धारक सुग्रीव की पुत्री पद्मरागा झरोखे से हनूमान का रूप देखकर मन हीं मन अपने आपके द्वारा अनुभव करने योग्य किसी अद्भुत अवस्था को प्राप्त हुई ।।123।।<span id="124" /> सखि! यह वह पुरुष नहीं है, यह तो कोई दूसरा है, अथवा नहीं सखि! यह वही है, इस प्रकार स्त्रियां जिसके विषय में तर्कणा कर रहीं थी ऐसे हनूमान ने नगर में प्रवेश किया ।।124।।<span id="125" /> </p> | ||
<p>तदनंतर बड़े वैभव के साथ उन दोनों का विवाह हुआ। विवाह में समस्त बंधुजन सम्मिलित हुए और अत्यंत सुंदर रूप के धारक दोनों दंपती परम प्रमोद को प्राप्त हुए ।।125।। जिसका चित्त संतुष्ट हो रहा था ऐसे हनुमान पुत्री तथा अपने आपके वियोग से परिवार सहित सास श्वसुर को शोक युक्त करता हुआ नववधू के साथ अपने स्थान पर चला गया ।।126।। इस प्रकार जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही थी ऐसे शोभा अथवा लक्ष्मी संपन्न पुत्र के रहते हुए राजा पवनंजय और अंजना मह सुखानुभव रूपी सागर के मध्य में गोता लगा रहे थे ।।127।।</p> | <p>तदनंतर बड़े वैभव के साथ उन दोनों का विवाह हुआ। विवाह में समस्त बंधुजन सम्मिलित हुए और अत्यंत सुंदर रूप के धारक दोनों दंपती परम प्रमोद को प्राप्त हुए ।।125।।<span id="126" /> जिसका चित्त संतुष्ट हो रहा था ऐसे हनुमान पुत्री तथा अपने आपके वियोग से परिवार सहित सास श्वसुर को शोक युक्त करता हुआ नववधू के साथ अपने स्थान पर चला गया ।।126।।<span id="127" /> इस प्रकार जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही थी ऐसे शोभा अथवा लक्ष्मी संपन्न पुत्र के रहते हुए राजा पवनंजय और अंजना मह सुखानुभव रूपी सागर के मध्य में गोता लगा रहे थे ।।127।।<span id="128" /></p> | ||
<p>अथानंतर हनूमान जैसे उत्तमोत्तम विद्याधर राजा जिसका सम्मान करते थे, जो अत्यधिक मान को धारण करनेवाला था, तीन खंड का स्वामी था और हीरकंठ के समान था ऐसा रावण समस्त शत्रुओं से रहित हो गया ।।128।। जिस प्रकार इंद्र स्वर्गलोक में क्रीड़ा करता है उसी प्रकार समस्त लोकों को आनंद प्रदान करता हुआ विशाल कांति का धारक रावण विशाल भोगों से समुत्पन्न सुख से लंका नगरी में क्रीड़ा करने लगा ।।129।। स्त्रियों के मुखरूपी कमल का भ्रमर रावण स्त्रीजनों के स्तनों पर हाथ चलाता हुआ बीते हुए बहुत भारी काल को भी नहीं जान पाया अर्थात् कितना अधिक काल बीत गया इसका उसे पता ही नहीं चला ।।130।। | <p>अथानंतर हनूमान जैसे उत्तमोत्तम विद्याधर राजा जिसका सम्मान करते थे, जो अत्यधिक मान को धारण करनेवाला था, तीन खंड का स्वामी था और हीरकंठ के समान था ऐसा रावण समस्त शत्रुओं से रहित हो गया ।।128।।<span id="129" /> जिस प्रकार इंद्र स्वर्गलोक में क्रीड़ा करता है उसी प्रकार समस्त लोकों को आनंद प्रदान करता हुआ विशाल कांति का धारक रावण विशाल भोगों से समुत्पन्न सुख से लंका नगरी में क्रीड़ा करने लगा ।।129।।<span id="130" /> स्त्रियों के मुखरूपी कमल का भ्रमर रावण स्त्रीजनों के स्तनों पर हाथ चलाता हुआ बीते हुए बहुत भारी काल को भी नहीं जान पाया अर्थात् कितना अधिक काल बीत गया इसका उसे पता ही नहीं चला ।।130।।<span id="131" /> जिस मनुष्य के पास एक ही विरूप तथा निरंतर झगड़ने वाली स्त्री होती है वह भी सांसारिक सुख में निमग्न हो अपने आपको रतिपति अर्थात् कामदेव समझता है ।।131।।<span id="132" /> फिर रावण तो लक्ष्मी की उपमा धारण करने वाली अठारह हजार स्त्रियों से युक्त था, महा प्रभावशाली था, तीन खंड का स्वामी था, अनुपम कांति का धारी था अत: उसके विषय में क्या कहना है ।।132।।<span id="133" /> इस प्रकार समस्त विद्याधर जिसकी स्तुति करते थे, सब लोग घबराकर नम्रीभूत मस्तक पर जिसकी आज्ञा धारण करते थे और तीन खंड के राज्य पर जिसका अभिषेक किया गया था ऐसा रावण जनसमूह के द्वारा स्तुत साम्राज्य को प्राप्त हुआ ।।133।।<span id="134" /> समस्त विद्याधर राजा जिसके चरणकमलों की पूजा करते थे और जिसका शरीर श्री, कीर्ति और कांति से मनोज्ञ था ऐसा रावण सर्वग्रहों से परिवृत चंद्रमा के समान किसका मन हरण नहीं करता था ।।134।।<span id="135" /> जिसकी मध्यजाली मध्याह्न के सूर्य की किरणों के समान थी, जों उद्दंड शत्रु राजाओं के नष्ट करने में समर्थ था, जिसके अर स्पष्ट दिखाई देते थे, तथा जो अत्यंत देदीप्यमान रत्नों से चित्र-विचित्र जान पड़ता था ऐसा इसका सुदर्शन नाम का अमोघ देवोपनीत चक्र अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।135।।<span id="136" /> </p> | ||
<p>जिसका उग्र तेज सब ओर फैल रहा था ऐसा रावण, दुष्टजनों को तो ऐसा भय उत्पन्न कर रहा था मानो शरीरधारी दंड अथवा मृत्यु ही हो। जब वह शस्त्रशाला में शस्त्रों की पूजा करता था तब ऐसा जान पड़ता था मानो इकट्ठा हुआ प्रचंड उल्काओं का समूह ही हो ।।136।। इस प्रकार विशाल तथा सुंदर कीर्ति को धारण करने वाला रावण स्वकीय कर्मोदय से वश परंपरागत लंकापुरी को पाकर सर्वकल्याण युक्त आश्चर्यकारक ऐश्वर्य को तथा संसार संबंधी श्रेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ था ।।137।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का कारण जो मुनिसुव्रत भगवान का तीर्थ था उसे व्यतीत हुए जब बहुत दिन हो गये तब परमार्थ से दूर रहनेवाले अत्यंत मूढ़ कवियों ने इस प्रधान पुरुष का लोक में अन्यथा ही कथन कर डाला ।।138।। जो विषयों के अधीन हैं, जिनका तत्वज्ञान नष्ट हो गया है, जो अत्यंत कुशील हैं और निरंतर पाप में अनुरक्त रहते हैं ऐसे कवि लोग स्वरचित पाप वर्धक ग्रंथ रूपी जाल से मंदभाग्य तथा अत्यंत सरल मनुष्य रूपी मृगों के समूह को नष्ट करते रहते है। इसलिए जिसने वस्तु का यथार्थस्वरूप समझ लिया है, जिसने मिथ्यादृष्टि जनों के द्वारा रचित कुशास्त्ररूपी कीचड़ का प्रसंग नष्ट कर दिया है, जिसका सूर्य के समान विशाल तेज है और जो लक्ष्मी से विशाल है ऐसे हे श्रेणिक! तू इंद्र द्वारा वंदनीय जिन शास्त्ररूपी रत्न की उपासना कर- उसी का अध्ययन-मनन कर ।।139-140।।</p> | <p>जिसका उग्र तेज सब ओर फैल रहा था ऐसा रावण, दुष्टजनों को तो ऐसा भय उत्पन्न कर रहा था मानो शरीरधारी दंड अथवा मृत्यु ही हो। जब वह शस्त्रशाला में शस्त्रों की पूजा करता था तब ऐसा जान पड़ता था मानो इकट्ठा हुआ प्रचंड उल्काओं का समूह ही हो ।।136।।<span id="137" /> इस प्रकार विशाल तथा सुंदर कीर्ति को धारण करने वाला रावण स्वकीय कर्मोदय से वश परंपरागत लंकापुरी को पाकर सर्वकल्याण युक्त आश्चर्यकारक ऐश्वर्य को तथा संसार संबंधी श्रेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ था ।।137।।<span id="138" /> गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का कारण जो मुनिसुव्रत भगवान का तीर्थ था उसे व्यतीत हुए जब बहुत दिन हो गये तब परमार्थ से दूर रहनेवाले अत्यंत मूढ़ कवियों ने इस प्रधान पुरुष का लोक में अन्यथा ही कथन कर डाला ।।138।।<span id="139" /><span id="140" /> जो विषयों के अधीन हैं, जिनका तत्वज्ञान नष्ट हो गया है, जो अत्यंत कुशील हैं और निरंतर पाप में अनुरक्त रहते हैं ऐसे कवि लोग स्वरचित पाप वर्धक ग्रंथ रूपी जाल से मंदभाग्य तथा अत्यंत सरल मनुष्य रूपी मृगों के समूह को नष्ट करते रहते है। इसलिए जिसने वस्तु का यथार्थस्वरूप समझ लिया है, जिसने मिथ्यादृष्टि जनों के द्वारा रचित कुशास्त्ररूपी कीचड़ का प्रसंग नष्ट कर दिया है, जिसका सूर्य के समान विशाल तेज है और जो लक्ष्मी से विशाल है ऐसे हे श्रेणिक! तू इंद्र द्वारा वंदनीय जिन शास्त्ररूपी रत्न की उपासना कर- उसी का अध्ययन-मनन कर ।।139-140।।<span id="19" /></p> | ||
<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में रावण के साम्राज्य का कथन करनेवाला उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।19।। </p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में रावण के साम्राज्य का कथन करनेवाला उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।19।।<span id="20" /> </p> | ||
<p>इस प्रकार विद्याधर कांड नामक प्रथम कांड समाप्त हुआ ।</p> | <p>इस प्रकार विद्याधर कांड नामक प्रथम कांड समाप्त हुआ ।</p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर रावण को संतोष नहीं हुआ सो उसने बहुत भारी क्रोध धारण कर पत्रवाहकों के द्वारा समस्त विद्याधरों को फिर से बुलाया ।।1।। किष्किंधा का राजा, दुंदुभि, अलंकारपुर का अधिपति, रथनूपुर का स्वामी तथा विजयार्ध पर्वत की दोनों श्रेणियों में निवास करने वाले अन्य समस्त विद्याधर सब प्रकार की तैयारी के साथ रावण के समीप जा पहुँचे ।।2-3।। तदनंतर मस्तक पर लेख को धारण करनेवाला एक मनुष्य हनुरुह द्वीप में पवनंजय और प्रतिसूर्य के पास भी आया ।।4।। लेख का अर्थ समझकर दोनों ने रावण के पास जाने का विचार किया सो वहाँ जाने के पूर्व वे राज्य पर हनूमान का अभिषेक करने के लिए उद्यत हुए ।।5।। राज्याभिषेक की बड़ी तैयारी की गयी। तुरही आदि वादित्रों का बड़ा शब्द होने लगा और मनुष्य हाथ में कलश लेकर हनूमान के सामने खड़े हो गये ।।6।। हनूमान ने पवनंजय और प्रतिसूर्य से पूछा कि यह क्या है? तब उन्होंने कहा कि है वत्स! अब तुम हनुरुह द्वीप के राज्य का पालन करो ।।7।। हम दोनों को रावण ने युद्ध में सहायता करने के लिए बुलाया है सो हमें प्रेमपूर्वक यथोचित रूप से आज्ञा पालन करना चाहिए ।।8।। रसातलपुर में जो वरुण रहता है वही उसके विरुद्ध खड़ा हुआ है। उसकी बहुत बड़ी सेना है तथा वह पुत्र और दुर्ग के बल से उत्कट होने के कारण दुर्जय है ।।9।। ऐसा कहने पर हनूमान ने विनय से उत्तर दिया कि मेरे रहते हुए आप गुरुजनों को युद्ध के लिए जाना उचित नहीं है ।।10।। हे बेटा! अभी तुमने रण का स्वाद नहीं जाना है ऐसा जब उससे कहा गया तब उसने उत्तर दिया कि जो मोक्ष प्राप्त होता वह क्या कभी पहले प्राप्त किया हुआ होता है? जब रोकने पर भी उसने रुकने का मन नहीं किया तब उन दोनों ने उस युवा को जाने की स्वीकृति दे दी ।। 11-12।।
तदनंतर प्रातःकाल स्नान कर जिसने अरहंत और सिद्ध भगवान को प्रयत्नपूर्वक प्रणाम किया था, भोजन कर शरीर पर मंगल द्रव्य धारण किये थे, जो महा तेज से सहित था तथा सब विधि-विधान के जानने में निपुण था ऐसा हनूमान माता-पिता तथा माता के मामा को प्रणाम कर और समस्त लोगों से संभाषण कर सूर्य के समान चमकते हुए विमान पर बैठकर शस्त्रों के समूह से दसों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लंकापुरी की ओर चला ।।13-15।। विमान में बैठकर त्रिकूटाचल के सम्मुख जाता हुआ हनूमान ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि मेरु के सम्मुख जाता हुआ ऐशानेंद्र सुशोभित होता है ।।16।। समुद्र की लहरों की संतति जिसके विशाल नितंब को चूम रही थी ऐसे जल वीचि गिरि पर जब वह पहुंचा तब सूर्य अस्त हो गया ।।17।। सो वहाँ उत्तम योद्धाओं के साथ वार्तालाप करते हुए उसने सुख से रात्रि बितायी और प्रातःकाल होने पर बड़े उत्साह से लंका की ओर दृष्टि रखकर आगे चला ।।18।। इस तरह नाना देशों, द्वीपों, तरंगों से आहत, पर्वतों और समुद्र में किलोले करते मगरमच्छों को देखता हुआ राक्षसों की सेना में जा पहुंचा ।।19।। हनूमान की सेना देखकर बड़े-बड़े राक्षसों के शिरोमणि हनुमान की ओर दृष्टि लगाकर परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ।।20।। जिसने पर्वत को चूर्ण किया था यह वही भव्य जनोत्तम है इस शब्द को सुनता हुआ हनूमान रावण के समीप गया ।।21।। उस समय रावण उस शिलातल पर बैठा था जो कि फूलों से व्याप्त था, सुगंधि के कारण खिंचे हुए मदोन्मत्त भ्रमर जिस पर गुंजार कर रहे थे, जिसके ऊपर रत्नों की किरणों से व्याप्त कपड़े का उत्तम मंडप लगा हुआ था और जिसके चारों ओर सामंत लोग बैठे थे। रावण हनुमान को देखकर उस शिलातल से उठकर खड़ा हो गया ।।22-23।। तदनंतर विनय से जिसका शरीर झुक रहा था ऐसे सम्मान का आलिंगन कर वह प्रीति से हँसता हुआ उसके साथ उसी शिलातल पर बैठ गया ।।24।। परस्पर की कुशल पूछकर तथा एक दूसरे की संपदा देखकर दोनों महाभाग्यशाली इस तरह रमण करने लगे मानो दो इंद्र ही परस्पर मिले हों ।।25।।
अथानंतर जो प्रसन्न चित्त का धारक था और अत्यंत स्नेह भरी दृष्टि से बार-बार उसी की ओर देख रहा था ऐसा रावण सम्मान से बोला कि ।।26।। अहो, सज्जनोत्तम पवन कुमार ने मेरे साथ खूब प्रेम बढ़ाया है जो प्रसिद्ध गुणों के सागरस्वरूप इस पुत्र को भेजा है ।।27।। इस महाबलवान् तथा तेजोमंडल के धारक वीर को पाकर मुझे इस संसार में कोई भी कार्य कठिन नहीं रह जायेगा ।।28।। जब रावण हनूमान के गुणों का वर्णन कर रहा था तब वह लज्जित के समान नम्र शरीर का धारक हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषों को यही वृत्ति है ।।29।। तदनंतर जिसकी किरणों का समूह लाल पड़ गया था ऐसा सूर्य मानो होनेवाले संग्राम के भय से ही अस्त हो गया था ।।30।। उसके पीछे-पीछे जाती और उत्कट राग अर्थात् लालिमा (पक्ष में प्रेम) को धारण करती हुई संध्या ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो अपने प्राणनाथ के पीछे-पीछे जाती हुई विनीत स्त्री-कुलवधू ही हो ।।31।। जो निरंतर सूर्य के पीछे-पीछे चला करती थी ऐसी रात्रिरूपी वधू चंद्रमा रूपी तिलक धारण कर अतिशय सुशोभित होने लगी ।।32।।
दूसरे दिन जब सूर्य की किरणों से संसार प्रकाशमान हो गया तब रावण तैयार होकर वरुण के नगर की ओर चला। उस समय रावण अपनी समस्त सेना के मध्य में चल रहा था। हनुमान उसके पास ही स्थित था और मंगल द्रव्य उसने शरीर पर धारण कर रखे थे। वह विद्या के द्वारा समुद्र को भेदन कर वरुण के नगर की ओर चला ।।33-34।। जिस प्रकार परशुराम को लक्ष्य कर चलने वाले सुभीम चक्रवर्ती की अनुपम दीप्ति थी इसी प्रकार शत्रु के सम्मुख जानेवाले रावण की दीप्ति भी अनुपम थी ।।35।। सेना की कल-कल से दशानन को आया जान वरुण का समस्त नगर क्षुभित हो गया उसमें बड़ा कुहराम मच गया ।।36।। वरुण का वह नगर पाताल पुंडरीक नाम से प्रसिद्ध था। उसमें मजबूत ध्वजाएं लगी हुई थी और रत्नमयी तोरण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे पर रावण के पहुँचने पर सारा नगर युद्ध की तैयारी संबंधी कल-कल से व्याप्त हो गया ।।37।। असुरों के नगर के समान सबके मन को हरने वाले उस नगर में खासकर स्त्रियों में बड़ी आकुलता उत्पन्न हो रही थी। भय से उनके नेत्र चकित हो गये थे ।।38।। वहाँ भवनवासी देवों के समान जो योद्धा थे वे बाहर निकल आये तथा चमरेंद्र के समान पराक्रम से गर्वीला वरुण भी निकलकर बाहर आया ।।39।। जिन्होंने नाना प्रकार के शस्त्रों के समूह से सूर्य का दिखना रोक दिया था ऐसे वरुण के सौ पराक्रमी पुत्र भी युद्ध करने के लिए उठ खड़े हुए ।।40।। सो जिस प्रकार असुरकुमार अन्य क्षुद्र देवताओं को क्षण एक में पराजित कर देते हैं उसी प्रकार वरुण के सौ पुत्रों ने क्षण एक में ही राक्षसों की सेना को पराजित कर दिया ।।41।। जिसके अंदर सौ भाई अपनी कला दिखा रहे थे ऐसी वरुण की सेना से खंडित हुई रावण की सेना गायों के झुंड के समान भयभीत हो तितर-बितर हो गयी ।।42।।
राक्षसों के हाथ पसीने से गीले हो गये जिससे चक्र, धनुष, घन, प्रास, शतघ्नी आदि शस्त्र उनसे छूट-छूटकर नीचे गिरने लगे ।।43।। तदनंतर रावण ने देखा कि हमारी सेना बाणों के समूह से व्याकुल होकर प्रात:कालीन सूर्य की किरणों के समान लाल-लाल हो रही है तब वह बाणों की वेगशाली वर्षा से स्वयं ताड़ित होता हुआ भी क्रुद्ध हो क्षण एक में शत्रुदल को भेदकर भीतर घुस गया और जिस प्रकार गजराज वृक्षों को नीचे गिराता है उसी प्रकार वरुण की सेना के वीरों को मार-मारकर नीचे गिराने लगा ।।44-45।। तदनंतर वरुण के सौ पुत्रों ने रावण को इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि वर्षाऋतु के गरजते हुए बादल सूर्य को घेर लेते हैं ।।46।। यद्यपि सब दिशाओं से आने वाले बाणों से रावण का शरीरं खंडित हो गया तो भी वह अभिमानी युद्ध के मैदान को नहीं छोड़ रहा था ।।47।। उधर वरुण ने भी देदीप्यमान कानों को धारण करने वाले नरश्रेष्ठ इंद्रजित् तथा राक्षसों के अन्य अनेक राजाओं को अपने सामने किया अर्थात् उनसे युद्ध करने लगा ।।48।।
तदनंतर वरुण के पुत्र ने जिसे अपने बाणों का निशाना बनाया था और जो रुधिर के बहने से पलाश के फूलों के समूह के समान जान पड़ता था ऐसे रावण को देखकर हनूमान शीघ्र ही महापुरुषों के बीच में चलने पर रथ पर सवार हुआ। उस समय उसका चित्त रावण के भाई के समान प्रीति से युक्त था तथा वह सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था ।।49-50।। तत्पश्चात् जो अपने वेग से पवन को जीत रहा था, विजय प्राप्त करने में जिसका आदर था और जो सूर्यमंडल के समान देदीप्यमान हो रहा था ऐसा हनूमान यमराज के समान युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ।।51।। सो जिस प्रकार महावेगशाली वायु से प्रेरित उन्नत मेघों का समूह इधर-उधर उड़ जाता है उसी प्रकार हनूमान के द्वारा प्रेरित हुए वरुण के सब पुत्र इधर-उधर भाग खड़े हुए ।।52।। वह बार-बार शत्रुओं के शरीरों के साथ कदली वन को छेदने की क्रीड़ा करता था अर्थात् शत्रुओं के शरीर को कदली वन के समान अनायास ही काट रहा था ।।53।। जिस प्रकार कोई पुरुष स्नेह के द्वारा अपने मित्र को खींच लेता है उसी प्रकार उसने किसी वीर को विद्या निर्मित लांगूलरूपी पाश से खींच लिया था ।।54।। और जिस प्रकार कोई जिनभक्त हेतु रूपी मुद्गर के प्रहार से मिथ्यादृष्टि के मस्तक पर प्रहार करता है उसी प्रकार वह किसी के शिर पर उल्का के प्रहार से चोट पहुँचा रहा था ।।55।। इस प्रकार वानर की ध्वजा से सुशोभित हनूमान को क्रीड़ा करते देख क्रोध से लाल-लाल नेत्र करता हुआ वरुण उसके सामने आया ।।56।। ज्योंही रावण ने वरुण को हनूमान के सामने दौड़ता आता देखा त्यों ही उसने शत्रु को बीच में उस प्रकार रोक लिया जिस प्रकार कि पहाड़ नदी के जल को रोक लेता है ।।57।। इधर जब तक वरुण का रावण के साथ घोड़े, हाथी, पैदल सिपाही तथा शस्त्रों के समूह से व्याप्त युद्ध हुआ ।।58।। तब तक हनूमान ने वरुण के सौ के सौ ही पुत्र बाँध लिये। वे चिरकाल तक युद्ध करते करते थक गये थे तथा उनके सैनिक मारे गये थे ।।51।। सौ के सौ ही पुत्रों को बँधा सुनकर वरुण शोक से विह्वल हो गया। वह विद्या का स्मरण भूल गया और उसका पराक्रम ढीला पड़ गया ।।60।। रण-निपुण रावण ने छिद्र पाकर वरुण की योगिनी नामा विद्या छेद डाली तथा उसे जीवित पकड़ लिया ।।61।। उस समय जिसके पुत्र रूपी किरणों की शोभा नष्ट हो गयी थी तथा जो उदय से रहित था ऐसे वरुण रूपी चंद्रमा के लिए रावण ने राहु का काम किया था ।।62।। जो शत्रुरूपी पिंजड़े के मध्य में स्थित था, जिसका मान नष्ट हो गया था और जिसे लोग बड़े आश्चर्य से देखते थे ऐसा वरुण रक्षा करने के लिए आदर के साथ कुंभकर्ण को सौंपा गया ।।63।।
तदनंतर बहुत दिन बाद निश्चिंतता को प्राप्त हुआ रावण सेना को विश्राम देता हुआ भवनोन्माद नामक उत्कृष्ट उद्यान में ठहरा रहा ।।64।। वृक्षों की छाया के नीचे ठहरी हुई इसकी सेना का युद्धजनित खेद समुद्र के संबंध से शीतल वायु ने दूर कर दिया था ।।65।। स्वामी को पकड़ा जानकर वरुण की समस्त सेना भयभीत हो व्याकुलता से भरे पुंडरीक नगर में घुस गयी ।।66।। यद्यपि वही सेना थी और वे ही महायोद्धा थे तो भी प्रधान पुरुष के बिना सब व्यर्थ हो गये ।।67।। अहो! पुण्य का माहात्म्य देखो कि पुण्यवान के उत्पन्न होते ही अनेक पुरुषों का उद्भव हो जाता है और उसके नष्ट होने पर अनेक पुरुषों का पतन हो जाता है ।।68।।
अथानंतर कुंभकर्ण घबराये हुए समस्त मनुष्यों के समूह से व्याप्त के उस नगर को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा ।।69।। योद्धाओं ने उस नगर की धन-रत्न आदिक समस्त कीमती वस्तुएँ छूट लीं। यह लूट शत्रु के नगर पर क्रोध होने के कारण ही की गयी थी न कि लोभ के वशीभूत होकर ।।70।। जो रति के समान विभ्रम को धारण करने वाली थीं, जिनके नेत्र झरते हुए आँसुओं से व्याप्त थे तथा जो विलाप कर रही थीं ऐसी बेचारी उत्तमोत्तम स्त्रियां पकड़कर लायी गयीं ।।71।। जिनके शरीर स्तनों के भार से नम्र थे, जिनके पल्लवों के समान कोमल हाथ हिल रहे थे और जो समस्त बंधुजनों को चिल्ला-चिल्लाकर पुकार रही थीं ऐसी उन स्त्रियों को निष्ठुर मनुष्य पकड़कर ला रहे थे ।।72।। जिसका मुखरूपी पूर्ण चंद्रमा शोक रूपी राहु के द्वारा ग्रसा गया था ऐसी विमान के भीतर डाली गयी कोई स्त्री सखी से कह रही थी कि हे सखि! यदि कदाचित् मेरे शील का भंग होगा तो मैं वस्त्र की पट्टी से लटककर मर जाऊँगी इसमें संशय नहीं है ।।73-74।। जिसके मरने में संदेह था ऐसे पति को बार-बार पुकारती हुई म्लान लोचनों वाली कोई स्त्री उसके गुणों का स्मरण कर मूर्च्छा को प्राप्त हो रही थी ।।75।। जो माता, पिता, भाई, मामा और पुत्र को बुला रही थीं तथा जिनके नेत्रों से आँसू झर रहे थे ऐसी वे स्त्रियां मुनि के लिए भी दुःख दायिनी हो रही थीं अर्थात् उनकी दशा देख मुनि के हृदय में भी दुःख उत्पन्न हो जाता था ।।76।। कुंभकर्ण की शोभा से जिसके नेत्र हरे गये थे ऐसी कोई एक कमल लोचना स्त्री एकांत पाकर विश्वासपूर्वक सखी से कह रही थी कि हे सखि! इस श्रेष्ठ नर को देखकर मुझे कोई अद्भुत ही आनंद उत्पन्न हुआ है और जिस आनंद से मानो मेरा समस्त शरीर पराधीन ही हो गया है ।।77-78।। इस प्रकार कर्मो की विचित्रता से उन स्त्रियों में शुद्ध तथा विरुद्ध दोनों प्रकार के विकल्प उत्पन्न हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि लोगों की चेष्टाएँ विचित्र हुआ करती हैं ।।79।।
तदनंतर जो कुबेर के समान समीचीन विभूति का धारक था, अत्यंत बलवान् योद्धा जिसकी सेवा कर रहे थे, जो जय-जय की ध्वनि से मुखर था और सुंदर लीला से सहित था ऐसे कुंभकर्ण ने विमान से उतरकर बड़े हर्ष के साथ उन धूसर ओठों वाली अपहृत स्त्रियों को रावण के सामने खड़ा कर दिया ।।80-81।। वे स्त्रियाँ विषाद से युक्त थीं, उनके नेत्र आँसुओं से भरे हुए थे, बंधुजनों से रहित थीं, नम्र थीं, उनके शरीर कांप रहे थे, वे इच्छानुसार कुछ दयनीय शब्दों का उच्चारण कर रही थीं तथा लज्जा से युक्त थीं। उन स्त्रियो को देखकर रावण करुणायुक्त हो कुंभकर्ण से इस प्रकार कहने लगा ।।82-83।। कि अहो बालक! जो तू कुलवती स्त्रियों को बंदी के समान पकड़कर लाया है यह तूने अत्यंत दुश्चरित का कार्य किया है ।।84।। इन बेचारी भोलीभाली स्त्रियों का इसमें क्या दोष था जो तूने व्यर्थ ही इन्हें कष्ट पहुंचाया है? ।।85।। जो चेष्टा मुग्ध जनों का पालन करने वाली है, शत्रुओं का नाश करने वाली है और गुरुजनों की शुश्रूषा करने वाली है यथार्थ में वही महापुरुषों की चेष्टा कहलाती है ।।86।। ऐसा कहकर उसने उन्हें शीघ्र ही छुड़वा दिया जिससे वे अपने-अपने घर चली गयीं। यही नहीं उसने साध्वी स्त्रियों को अपनी वाणी से आश्वासन भी दिया जिससे उन सबका भय शीघ्र ही कम हो गया ।।87।।
अथानंतर जो लज्जा से सहित था तथा जिसने सुभटों के देखने मात्र से राक्षसों का मुख नीचा कर दिया था ऐसे वरुण को बुलाकर रावण ने कहा कि हे प्रवीण! युद्ध में पकड़े जाने का शोक मत करो क्योंकि युद्ध में वीरों का पकड़ा जाना तो उनकी उत्तम कीर्ति का कारण है ।।88-89।। मान शाली वीर युद्ध में दो ही वस्तुएँ प्राप्त करते हैं एक तो पकड़ा जाना और दूसरा मारा जाना। इनके सिवाय जो कायर लोग हैं वे भाग जाना प्राप्त करते हैं ।।90।। तुम पहले के समान ही समस्त मित्र और बंधुजनों से संपन्न हो सकल उपद्रवों से रहित अपने संपूर्ण राज्य का अपने ही स्थान में रहकर पालन करो ।।91।। इस प्रकार कहने पर वरुण ने हाथ जोड़कर वीर रावण से कहा कि इस संसार में आपका पुण्य विशाल है जो आपके साथ वैर रखता है वह मूर्ख है ।।92।। अहो! यह तुम्हारा बड़ा धैर्य है, यह मुनि के धैर्य के समान हजारों स्तवन करने के योग्य है कि जो तुमने दिव्य रत्नों का प्रयोग किये बिना ही मुझे जीत लिया। यथार्थ में तुम्हारा शासन उन्नत है ।।93।। अथवा आश्चर्यकारी कार्य करने वाले हनुमान का ही प्रभाव कैसे कहा जाये? क्योंकि हे सत्पुरुष! वह महानुभाव भी आपके ही शुभोदय से यहाँ आया था ।।94।। पराक्रम रूपी कोश से जिसकी रक्षा की गयी ऐसी यह पृथिवी गोत्र की परिपाटी के अनुसार किसी को प्राप्त नहीं हुई। यह तो वीर मनुष्य के भोगने योग्य है और आप वीर मनुष्यों में अग्रसर हो अत: आप लोक का पालन करो ।।95।। हे उदार यश के धारक! आप हमारे स्वामी हो। मेरे दुर्वचनों से आपको जो दुःख हुआ हो उसे क्षमा करो। हे नाथ! ऐसा कहना चाहिए, इसीलिए कह रहा हूँ। वैसे आपकी अत्यंत उदार क्षमा तो देख ही ली है ।।96।। आप अत्यंत चेष्टा के धारक हो इसलिए आपके साथ संबंध कर मैं कृतकृत्य होना चाहता हूँ। आप मेरी पुत्री स्वीकृत कीजिए क्योंकि इसके योग्य आप ही हैं ।।97।। ऐसा कहकर उसने सुंदर रूप की धारक, सुदेवी रानी से उत्पन्न, कमल के समान मुख वाली, सत्यवती नाम से प्रसिद्ध अपनी विनीत कन्या रावण के लिए समर्पित कर दी ।।98।। उन दोनों के विवाह में ऐसा बड़ा भारी उत्सव हुआ था कि जिसमें सब लोगों का सम्मान किया गया तो ठीक ही है क्योंकि दोनों ही समस्त समृद्धि को प्राप्त थे, अत: उन्हें कोई भी वस्तु खोजनी नहीं पड़ी थी ।।99।। इस प्रकार सम्मान को प्राप्त हुए रावण ने जिसका सम्मान किया था तथा रावण स्वयं जिसे भेजने के लिए पीछे-पीछे गया था ऐसा वरुण अपनी राजधानी में प्रविष्ट हुआ। वहाँ पुत्री के वियोग से कुछ दिन तक उसकी अंतरात्मा दुःखी रही ।।100।। कैलास को कंपित करने वाले रावण ने भी लंका में आकर तथा बहुत भारी सम्मान कर हनूमान के लिए चंद्रनखा की कांतिमती पुत्री समर्पित की। उस कन्या का नाम लोक में ‘अनंगपुष्पा’ प्रसिद्ध था। वह गुणों की राजधानी थी और उसके नेत्र कामदेव के पुष्प रूपी शस्त्र अर्थात् कमल के समान थे। उसे पाकर हनूमान अत्यधिक संतोष को प्राप्त हुआ ।।101-102।। कन्या ही नहीं दी किंतु लक्ष्मी से भरपूर कर्णकुंडलनामा नगर में उसका राज्याभिषेक भी किया सो जिस प्रकार स्वर्गलोक में इंद्र रहता है उसी प्रकार वह उस नगर में उत्तम भोग भोगता हुआ रहने लगा ।।103।। किष्कुपुर के राजा नल ने भी रूपसंपदा के द्वारा लक्ष्मी को जीतने वाली अपनी हरिमालिनी नाम की प्रसिद्ध पुत्री बड़े वैभव के साथ हनूमान को दी ।।104।। इसी प्रकार किन्नरगीत नामा नगर में भी उसने किन्नर जाति के विद्याधरों की सौ कन्याएँ प्राप्त कीं। इस तरह उस महात्मा के यथाक्रम से एक हजार से भी अधिक स्त्रियाँ हो गयीं ।।105।। चूँकि श्रीशैल नाम को धारण करने वाले हनूमान भ्रमण करते हुए उस पर्वत पर आकर ठहर गये थे इसलिए सुंदर शिखरों वाला वह पर्वत पृथिवी में श्रीशैल इस नाम से ही प्रसिद्ध हो गया ।।106।।
अथानंतर उस समय किष्किंधपुर नामा नगर में विद्याधरों के राजा उदारचेता सुग्रीव रहते थे। उनकी चंद्रमा के समान मुख वाली तथा सुंदरता में रति की समानता करने वाली तारा नाम की स्त्री थी ।।107।। उन दोनों के एक पद्मरागा नाम की पुत्री थी। उस पुत्री का रंग नूतन कमल के समान था, गुणों के द्वारा वह पृथिवी में अत्यंत प्रसिद्ध थी, रूप से लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी, उसके नेत्र विशाल थे, उसका मुखकमल कांति के समूह से आवृत था, उसके स्तन किसी बड़े हाथी के गंडस्थल के समान उन्नत और स्थूल थे, उसका उदर इंद्रायुध अर्थात् वज्र के पकड़ने की जगह के समान कृश था, वह अत्यधिक सौंदर्य रूपी सरोवर के मध्य में संचार करने वाली थी तथा सर्व मनुष्यों की अंतरात्मा को चुराने वाली थी ।।108-109।। सुंदर विभ्रमों से सुन। उस कन्या के योग्य वर की खोज करते हुए माता-पिता न रात में सुख से नींद लेते थे और न दिन में चैन। उनका चित्त सदा इसी उलझन में उलझा रहता था ।।110।।
तदनंतर जो नाना गुणों के धारक थे, जिनकी कांति अत्यंत मनोहर थी और साथ ही जिनके शील तथा वंश का परिचय दिया गया था ऐसे इंद्रजित् आदि प्रधान विद्याधरों के चित्रपट लिखकर माता-पिता ने पुत्री को दिखलाये ।।111।। अनुक्रम से उन चित्रपटों को देखकर, कन्या ने बार-बार अपनी दृष्टि संकुचित कर ली। अंत में हनूमान का चित्रपट उसे दिखाया गया तो उस ओर उसकी दृष्टि शीघ्र ही आकर्षित होकर निश्चल हो गयी। उसे वह अनुराग से देखती रही ।।112।। तदनंतर जिसका समस्त शरीर सदृशता से रहित था ऐसे चित्रपट में स्थित हनूमान को देखकर वह कन्या एक ही साथ कामदेव के पाँचों दु:सह बाणों से ताड़ित हो गयी ।।113।। उसे हनूमान में अनुरक्त देख, गुणों को जाननेवाला सखी ने कहा कि हे बाले! यह पवनंजय का श्रीशैल नाम से प्रसिद्ध पुत्र है ।।114।। इसके गुण तो तुम्हें पहले से ही विदित थे और सुंदरता तुम्हारे नेत्रों के सामने है इसलिए इसके साथ कामभोग को प्राप्त करो तथा माता-पिता को चिरकाल बाद निद्रा प्रदान करो अर्थात् निश्चिंत होकर सोने दो ।।115।। आश्चर्य की बात है कि हनूमान ने चित्रगत होकर भी तेरे मन में विकार कलन कर दिया ऐसा कहती हुई सखी को कन्या ने लज्जावनत हो लीला कमल से ताड़ित किया ।।116।।
तदनंतर जब पिता को पता चला कि कन्या का मन पवनपुत्र हनूमान के द्वारा हरा गया है तब उसने शीघ्र ही हनूमान के पास कन्या का चित्रपट भेजा ।।117।। सो सुग्रीव का भेजा हुआ दूत श्री नगर पहुँचा। वहाँ जाकर उसने अपना परिचय दिया, प्रणाम किया और उसके बाद हनूमान के लिए तारा की पुत्री पद्मरागा का चित्रपट दिखलाया ।।118।। जैसा कि इस संसार में प्रसिद्ध है कि कामदेव के पाँच बाण हैं यदि यह बात सत्य है तो कन्या ने एक ही समय सौ बाणों के द्वारा हनूमान को कैसे घायल किया ।।119।। यदि मैं इस कन्या को नहीं प्राप्त करता हूँ तो मेरा जन्म लेना व्यर्थ है ऐसा मन में विचारकर हनुमान बड़े वैभव के साथ क्षण एक में सुग्रीव के नगर की ओर चल पड़ा ।।120।। उसे अत्यंत निकट में आया सुन सुग्रीव राजा हर्षित होता हुआ शीघ्र ही उसकी अगवानी के लिए गया। तत्पश्चात् जिसे सैकड़ों अर्घ दिये गये थे ऐसे हनूमान ने श्वसुर के साथ नगर में प्रवेश किया ।।121।। उस समय जब हनुमान राजमहल की ओर जा रहा था तब नगर की स्त्रियां अन्य सब काम छोड़कर महलों के मणिमय झरोखों में जा खड़ी हुई थीं और उस समय उनके नेत्र कमल हनूमान को देखने के लिए व्याकुल हो रहे थे ।।122।। सुकुमार शरीर की धारक सुग्रीव की पुत्री पद्मरागा झरोखे से हनूमान का रूप देखकर मन हीं मन अपने आपके द्वारा अनुभव करने योग्य किसी अद्भुत अवस्था को प्राप्त हुई ।।123।। सखि! यह वह पुरुष नहीं है, यह तो कोई दूसरा है, अथवा नहीं सखि! यह वही है, इस प्रकार स्त्रियां जिसके विषय में तर्कणा कर रहीं थी ऐसे हनूमान ने नगर में प्रवेश किया ।।124।।
तदनंतर बड़े वैभव के साथ उन दोनों का विवाह हुआ। विवाह में समस्त बंधुजन सम्मिलित हुए और अत्यंत सुंदर रूप के धारक दोनों दंपती परम प्रमोद को प्राप्त हुए ।।125।। जिसका चित्त संतुष्ट हो रहा था ऐसे हनुमान पुत्री तथा अपने आपके वियोग से परिवार सहित सास श्वसुर को शोक युक्त करता हुआ नववधू के साथ अपने स्थान पर चला गया ।।126।। इस प्रकार जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही थी ऐसे शोभा अथवा लक्ष्मी संपन्न पुत्र के रहते हुए राजा पवनंजय और अंजना मह सुखानुभव रूपी सागर के मध्य में गोता लगा रहे थे ।।127।।
अथानंतर हनूमान जैसे उत्तमोत्तम विद्याधर राजा जिसका सम्मान करते थे, जो अत्यधिक मान को धारण करनेवाला था, तीन खंड का स्वामी था और हीरकंठ के समान था ऐसा रावण समस्त शत्रुओं से रहित हो गया ।।128।। जिस प्रकार इंद्र स्वर्गलोक में क्रीड़ा करता है उसी प्रकार समस्त लोकों को आनंद प्रदान करता हुआ विशाल कांति का धारक रावण विशाल भोगों से समुत्पन्न सुख से लंका नगरी में क्रीड़ा करने लगा ।।129।। स्त्रियों के मुखरूपी कमल का भ्रमर रावण स्त्रीजनों के स्तनों पर हाथ चलाता हुआ बीते हुए बहुत भारी काल को भी नहीं जान पाया अर्थात् कितना अधिक काल बीत गया इसका उसे पता ही नहीं चला ।।130।। जिस मनुष्य के पास एक ही विरूप तथा निरंतर झगड़ने वाली स्त्री होती है वह भी सांसारिक सुख में निमग्न हो अपने आपको रतिपति अर्थात् कामदेव समझता है ।।131।। फिर रावण तो लक्ष्मी की उपमा धारण करने वाली अठारह हजार स्त्रियों से युक्त था, महा प्रभावशाली था, तीन खंड का स्वामी था, अनुपम कांति का धारी था अत: उसके विषय में क्या कहना है ।।132।। इस प्रकार समस्त विद्याधर जिसकी स्तुति करते थे, सब लोग घबराकर नम्रीभूत मस्तक पर जिसकी आज्ञा धारण करते थे और तीन खंड के राज्य पर जिसका अभिषेक किया गया था ऐसा रावण जनसमूह के द्वारा स्तुत साम्राज्य को प्राप्त हुआ ।।133।। समस्त विद्याधर राजा जिसके चरणकमलों की पूजा करते थे और जिसका शरीर श्री, कीर्ति और कांति से मनोज्ञ था ऐसा रावण सर्वग्रहों से परिवृत चंद्रमा के समान किसका मन हरण नहीं करता था ।।134।। जिसकी मध्यजाली मध्याह्न के सूर्य की किरणों के समान थी, जों उद्दंड शत्रु राजाओं के नष्ट करने में समर्थ था, जिसके अर स्पष्ट दिखाई देते थे, तथा जो अत्यंत देदीप्यमान रत्नों से चित्र-विचित्र जान पड़ता था ऐसा इसका सुदर्शन नाम का अमोघ देवोपनीत चक्र अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।135।।
जिसका उग्र तेज सब ओर फैल रहा था ऐसा रावण, दुष्टजनों को तो ऐसा भय उत्पन्न कर रहा था मानो शरीरधारी दंड अथवा मृत्यु ही हो। जब वह शस्त्रशाला में शस्त्रों की पूजा करता था तब ऐसा जान पड़ता था मानो इकट्ठा हुआ प्रचंड उल्काओं का समूह ही हो ।।136।। इस प्रकार विशाल तथा सुंदर कीर्ति को धारण करने वाला रावण स्वकीय कर्मोदय से वश परंपरागत लंकापुरी को पाकर सर्वकल्याण युक्त आश्चर्यकारक ऐश्वर्य को तथा संसार संबंधी श्रेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ था ।।137।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का कारण जो मुनिसुव्रत भगवान का तीर्थ था उसे व्यतीत हुए जब बहुत दिन हो गये तब परमार्थ से दूर रहनेवाले अत्यंत मूढ़ कवियों ने इस प्रधान पुरुष का लोक में अन्यथा ही कथन कर डाला ।।138।। जो विषयों के अधीन हैं, जिनका तत्वज्ञान नष्ट हो गया है, जो अत्यंत कुशील हैं और निरंतर पाप में अनुरक्त रहते हैं ऐसे कवि लोग स्वरचित पाप वर्धक ग्रंथ रूपी जाल से मंदभाग्य तथा अत्यंत सरल मनुष्य रूपी मृगों के समूह को नष्ट करते रहते है। इसलिए जिसने वस्तु का यथार्थस्वरूप समझ लिया है, जिसने मिथ्यादृष्टि जनों के द्वारा रचित कुशास्त्ररूपी कीचड़ का प्रसंग नष्ट कर दिया है, जिसका सूर्य के समान विशाल तेज है और जो लक्ष्मी से विशाल है ऐसे हे श्रेणिक! तू इंद्र द्वारा वंदनीय जिन शास्त्ररूपी रत्न की उपासना कर- उसी का अध्ययन-मनन कर ।।139-140।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में रावण के साम्राज्य का कथन करनेवाला उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।19।।
इस प्रकार विद्याधर कांड नामक प्रथम कांड समाप्त हुआ ।