ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 20
From जैनकोष
अथानंतर जिसकी आत्मा अत्यंत नम्र थी और अत्यंत स्वच्छ थी ऐसा श्रेणिक विद्याधरों का वर्णन सुन आश्चर्यचकित होता हुआ गणधर भगवान के चरणों को नमस्कार कर फिर बोला कि ।।1।। हे भगवन! आपके प्रसाद से मैंने अष्टम प्रतिनारायण का जन्म तथा वानर वंश और राक्षस वंश का भेद जाना। अब इस समय हे नाथ! चौबीस तीर्थंकरों तथा बारह चक्रवर्तियों का चरित्र उनके पूर्वभवों के साथ सुनना चाहता हूँ क्योंकि बह बुद्धि को शुद्ध करने का कार्य है ।।2-3।। इनके सिवाय जो आठवाँ बलभद्र समस्त संसार में प्रसिद्ध है वह किस वंश में उत्पन्न हुआ तथा उसकी क्या-क्या चेष्टाएँ हुईं ।।4।। हे उत्तम मुनिराज! इन सबके पिता आदि के नाम भी मैं जानना चाहता हूँ सो हे नाथ! यह सब कहने के योग्य हो ।।5।। श्रेणिक के इस प्रकार कहने पर महा धैर्यशाली, परमार्थ के विद्वान् गणधर भगवान् उत्तम प्रश्न से प्रसन्न होते हुए इस प्रकार के वचन बोले कि हे श्रेणिक! सुन, मैं तीर्थंकरों का वह भवोपाख्यान कहूंगा जो कि पाप को नष्ट करनेवाला है और रुद्रों के द्वारा नमस्कृत है ।।6-7।। ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, सुविधि (पुष्पदंत), शीतल, श्रेयान्स, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंधु, अर, मल्लि, (मुनि) सुव्रतनाथ, नमि, नेमि, पार्श्व और महावीर ये चौबीस तीर्थंकरों के नाम हैं। इनमें महावीर अंतिम तीर्थकर हैं तथा इस समय इन्हीं का शासन चल रहा है ।।8-10।।
अब इनकी पूर्व भव की नगरियों का वर्णन करते हैं- अत्यंत श्रेष्ठ पुंडरीकिणी, सुसीमा, अत्यंत मनोहर क्षेमा, और उत्तमोत्तम रत्नों से प्रकाशमान रत्नसंचयपुरी ये चार नगरियाँ अत्यंत उत्कृष्ट तथा उत्तम व्यवस्था से युक्त थीं। ऋषभदेव को आदि लेकर वासुपूज्य भगवान् तक क्रम से तीन-तीन तीर्थंकरों की ये पूर्व भव की राजधानियाँ थीं। इन नगरियों में सदा उत्सव होते रहते थे ।।11-13।। अवशिष्ट बारह तीर्थंकरों की पूर्वभव की राजधानियाँ निम्न प्रकार थीं-सुमहानगर, अरिष्टपुर, सुमाद्रिका, पुंडरीकिणी, सुसीमा, क्षेमा, बीतशोका, चंपा, कौशांबी, नागपुर, साकेता और छत्राकारपुर। ये सभी राजधानियाँ स्वर्गपुरी के समान सुंदर, महा विस्तृत तथा उत्तमोत्तम भवनों से सुशोभित थीं ।।14-17।। अब इनके पूर्वभव के नाम कहता हूं—1 वज्रनाभि, 2 विमलवाहन, 3 विपुलख्याति, 4 विपुलवाहन, 5 महाबल, 6 अतिबल, 7 अपराजित, 8 नंदिषेण, 9 पद्म, 10 महापद्म, 11 पद्मोत्तर, 12 कमल के समान मुख वाला पंकजगुल्म, 13 नलिनगुल्म, 14 पद्मासन, 15 पद्मरथ, 16 दृढ़रथ, 17 महामेघरथ, 18 सिंहरथ, 19 वैश्रवण, 20 श्रीधर्म, 21 उपमारहित सुरश्रेष्ठ, 22 सिद्धार्थ, 23 आनंद और 24 सुनंद। हे मगधराज! ये बुद्धिमान् चौबीस तीर्थंकरों के पूर्वभव के नाम तुझ से कहे हैं। ये सब नाम संसार में अत्यंत प्रसिद्ध थे ।।18-24।। अब इनके पूर्वभव के पिताओं के नाम सुन-1 वज्रसेन, 2 महातेज, 3 रिपुंदम, 4 स्वयंप्रभ, 5 विमलवाहन, 6 सीमंधर, 7 पिहितास्रव, 8 अरिंदम, 9 युगंधर, 10 सार्थक नाम के धारक सर्वजनानंद, 11 अभयानंद, 12 वज्रदंत, 13 वज्रनाभि, 14 सर्वगुप्ति, 15 गुप्तिमान्, 16 चिंतारक्ष, 17 विपुलवाहन, 18 घनरव, 19 धीर, 20 उत्तम संवर को धारण करने वाले संवर, 21 उत्तम धर्म को धारण करने वाले त्रिलोकीय, 22 सुनंद, 23 वीतशोक डामर और 24 प्रोष्ठिल । इस प्रकार ये चौबीस तीर्थंकरों के पूर्वभव संबंधी चौबीस पिताओं के नाम जानना चाहिए ।।25-30।। अब चौबीस तीर्थंकर जिस-जिस स्वर्गलोक से आये उनके नाम सुन- 1 सर्वार्थसिद्धि, 2 वैजयंत, 3 ग्रैवेयक, 4 वैजयंत, 5 वैजयंत, 6 ऊर्ध्व ग्रैवेयक, 7 मध्यम ग्रैवेयक, 8 वैजयंत, 9 अपराजित, 10 आरण, 11 पुष्पोत्तर, 12 कापिष्ट, 13 महाशुक्र, 14 सहस्रार, 15 पुष्पोत्तर, 16 पुष्पोत्तर, 17 पुष्पोत्तर, 18 सर्वार्थसिद्धि, 19 विजय, 20 अपराजित, 21 प्राणत, 22 आनत, 23 वैजयंत और 24 पुष्पोत्तर। ये चौबीस तीर्थंकरों के आने के स्वर्गों के नाम कहे ।।31-35।।
अब आगे चौबीस तीर्थंकरों की जन्म नगरी, जन्म नक्षत्र, माता, पिता, वैराग्य का वृक्ष और मोक्ष का स्थान कहता हूं- विनीता (अयोध्या) नगरी, नाभिराजा पिता, मरुदेवी रानी, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, वट वृक्ष, कैलास पर्वत और प्रथम जिनेंद्र हे श्रेणिक! तेरे लिए ये मंगल स्वरूप हों ।।36-37।। साकेता (अयोध्या) नगरी, जितशत्रु पिता, विजया माता, रोहिणी नक्षत्र, सप्तपर्ण वृक्ष और अजितनाथ जिनेंद्र, हे श्रेणिक! ये तेरे लिए मंगलस्वरूप हों ।।38।। श्रावस्ती नगरी, जितारि पिता, सेना माता, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, शाल वृक्ष और संभवनाथ जिनेंद्र, ये तेरे लिए मंगलस्वरूप हों ।।39।। अयोध्या नगरी, संवर पिता, सिद्धार्था माता, पुनर्वसु नक्षत्र, सरल अर्थात् देवदारु वृक्ष और अभिनंदन जिनेंद्र, ये तेरे लिए मंगलस्वरूप हों ।।40।। साकेता (अयोध्या) नगरी, मेघप्रभ राजा पिता, सुमंगला माता, मघा नक्षत्र, प्रियंगु वृक्ष और सुमतिनाथ जिनेंद्र, ये जगत् के लिए उत्तम मंगलस्वरूप हों ।।41।। वत्स नगरी (कौशांबीपुरी), धरण राजा पिता, सुसीमा माता, चित्रा नक्षत्र, प्रियंगु वृक्ष और पद्मप्रभ जिनेंद्र, ये तेरे लिए मंगल स्वरूप हों ।।42।। काशी नगरी, सुप्रतिष्ठ पिता, पृथ्वी माता, विशाखा नक्षत्र, शिरीष वृक्ष और सुपार्श्व जिनेंद्र, हे राजन्! ये तेरे लिए मंगलस्वरूप हों ।।43।। चंद्रपुरी नगरी, महासेन पिता, लक्ष्मणा माता, अनुराधा नक्षत्र, नाग वृक्ष और चंद्रप्रभ भगवान्, ये तेरे लिए मंगलस्वरूप हों ।।44।।
काकंदी नगरी, सुग्रीव राजा पिता, रामा माता, मूल नक्षत्र, साल वृक्ष और पुष्पदंत अथवा सुविधिनाथ जिनेंद्र, ये तेरे चित्त को पवित्र करने वाले हों ।।45।। भद्रिकापुरी, दृढ़रथ पिता, सुनंदा माता, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, प्लक्ष वृक्ष और शीतलनाथ जिनेंद्र, ये तेरे लिए परम मंगलस्वरूप हों।।46।। सिंहपुरी नगरी, विष्णुराज पिता, विष्णुश्री माता, श्रवण नक्षत्र, तेंदू का वृक्ष और श्रेयान्सनाथ जिनेंद्र हे राजन्! ये तेरे लिए कल्याण करें ।।47।। चंपापुरी, वसुपूज्य राजा पिता, जया माता, शतभिषा नक्षत्र, पाटला वृक्ष, चंपापुरी सिद्धक्षेत्र और वासुपूज्य जिनेंद्र, ये तेरे लिए लोकप्रतिष्ठा प्राप्त करावे ।।48।। कांपिल्य नगरी, कृतवर्मा पिता, शर्मा माता, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, जंबू वृक्ष, विमलनाथ जिनेंद्र ये तुझे निर्मल करें ।।49।। विनीता नगरी, सिंहसेन पिता, सर्वयशा माता, रेवती नक्षत्र, पीपल का वृक्ष और अनंतनाथ जिनेंद्र, ये तेरे लिए मंगलस्वरूप हों ।।50।। रत्नपुरी नगरी, भानुराजा पिता, सुव्रता माता, पुष्य नक्षत्र, दधिपर्ण वृक्ष और धर्मनाथ जिनेंद्र, हे श्रेणिक! ये तेरी धर्मयुक्त लक्ष्मी को पुष्ट करें ।।51।। हस्तिनापुर नगर, विश्वसेन राजा पिता, ऐराणी माता, भरणी नक्षत्र, नंद वृक्ष और शांतिनाथ जिनेंद्र, ये तेरे लिए सदा शांति प्रदान करें ।।52।।
हस्तिनापुर नगर, सूर्य राजा पिता, श्रीदेवी माता, कृत्तिका नक्षत्र, तिलक वृक्ष और कुंथुनाथ जिनेंद्र, हे राजन्! ये तेरे पाप दूर करने में कारण हो ।।53।। हस्तिनापुर नगर, सुदर्शन पिता, मित्रा माता, रोहिणी नक्षत्र, आल वृक्ष और अर जिनेंद्र, ये तेरे पाप को नष्ट करें ।।54।। मिथिला नगरी, कुंभ पिता, रक्षिता माता, अश्विनी नक्षत्र, अशोक वृक्ष और मल्लिनाथ जिनेंद्र, हे राजन्! ये तेरे मन को शोक रहित करें ।।55।। कुशाग्र नगर (राजगृह), सुमित्र पिता, पद्मावती माता, श्रवण नक्षत्र, चंपक वृक्ष और सुव्रतनाथ जिनेंद्र, ये तेरे मन को प्राप्त हों अर्थात् तू हृदय से इनका ध्यान कर ।।56।। मिथिला नगरी, विजय पिता, वप्रा माता, अश्विनी नक्षत्र, वकुल वृक्ष और नेमिनाथ तीर्थंकर, ये तेरे लिए धर्म का समागम प्रदान करें ।।57।। शौरिपुरनगर, समुद्र विजय पिता, शिवा माता, चित्रा नक्षत्र, मेष शृंग वृक्ष, ऊर्जयंत (गिरनार) पर्वत और नेमि जिनेंद्र, ये तेरे लिए सुखदायक हों ।।58।। वाराणसी (बनारस) नगरी, अश्वसेन पिता, वर्मादेवी माता, विशाखा नक्षत्र, धव (धौ) वृक्ष और पार्श्वनाथ जिनेंद्र, ये तेरे मन में धैर्य उत्पन्न करें ।।55।। कुंडपुर नगर, सिद्धार्थ पिता, प्रियकारिणी माता, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, साल वृक्ष, पावा नगर और महावीर जिनेंद्र, ये तेरे लिए परम मंगलस्वरूप हों ।।60।।
इनमें से वासुपूज्य भगवान का मोक्ष-स्थान चंपापुरी ही है। ऋषभदेव, नेमिनाथ तथा महावीर इनके मोक्षस्थान क्रम से कैलास, ऊर्जयंत गिरि तथा पावापुर ये तीन पहले कहे जा चुके हैं और शेष बीस तीर्थंकर सम्मेदाचल से निर्वाण धाम को प्राप्त हुए हैं ।।61।। शांति, कुंथु और अर ये तीन राजा चक्रवर्ती होते हुए तीर्थंकर हुए। शेष तीर्थकर सामान्य राजा हुए ।।62।। चंद्रप्रभ और पुष्पदंत ये चंद्रमा के समान श्वेतवर्ण के धारक थे। सुपार्श्व जिनेंद्र प्रियंगु के फूल के समान हरित वर्ण के थे। पार्श्वनाथ भी कच्ची धान्य के समान हरित वर्ण के थे। धरणेंद्र ने पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति भी की थी। पद्मप्रभ जिनेंद्र कमल के भीतरी दल के समान लाल कांति के धारक थे ।।63-64।। वासुपूज्य भगवान् पलाश पुष्प के समूह के समान लाल वर्ण के थे। मुनिसुव्रत तीर्थंकर नील गिरि अथवा अंजनगिरि के समान श्यामवर्ण के थे ।।65।। यदुवंश शिरोमणि नेमिनाथ भगवान् मयूर के कंठ के समान नील वर्ण के थे और बाकी के समस्त तीर्थंकर तपाये हुए स्वर्ण के समान लाल-पीत वर्ण के धारक थे ।।66।। वासुपूज्य, मल्लि, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पाँच तीर्थंकर कुमार अवस्था में ही घर से निकल गये थे, बाकी तीर्थंकरों ने राज्यपाट स्वीकार कर दीक्षा धारण की थी ।।67।। इन सभी तीर्थंकरों को देवेंद्र तथा धरणेंद्र नमस्कार करते थे, इनकी पूजा करते थे, इनकी स्तुति करते थे और सुमेरु पर्वत के शिखर पर सभी परम अभिषेक को प्राप्त हुए थे ।।68।। जिनकी सेवा व्यस्त कल्याणों की प्राप्ति का कारण है तथा जो तीनों लोकों के परम आश्चर्य स्वरूप थे, ऐसे ये चौबीसों जिनेंद्र निरंतर तुम सबकी रक्षा करें ।।65।।
अथानंतर राजा श्रेणिक ने गौतमस्वामी से कहा कि हे गणनाथ! अब मुझे इन चौबीस तीर्थंकरों की आयु का प्रमाण जानने के लिए मन की पवित्रता का कारण जो परम तत्त्व है वह कहिए ।।70।। साथ ही जिस तीर्थंकर के अंतराल में रामचंद्रजी हुए हैं, हे पूज्य! वह सब आपके प्रसाद से जानना चाहता हूँ ।।71।। राजा श्रेणिक ने जब बड़े आदर से इस प्रकार पूछा तब क्षीर सागर के समान निर्मल चित्त के धारक परम शांत गणधर स्वामी इस प्रकार कहने लगे ।।72।। कि हे श्रेणिक! काल नामा जो पदार्थ है वह संख्या के विषय को उल्लंघन कर स्थित है अर्थात् अनंत है, इंद्रियों के द्वारा उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता फिर भी महात्माओं ने बुद्धि में दृष्टांत की कल्पना कर उसका निरूपण किया है ।।73।। कल्पना करो कि एक योजन प्रमाण आकाश सब ओर से दीवालों से वेष्टित अर्थात् घिरा हुआ है तथा तत्काल उत्पन्न हुए भेड़ के बालों के अग्रभाग से भरा हुआ है ।।74।। इसे ठोक-ठोककर बहुत ही कड़ा बना दिया गया है, इस एक योजन लंबे-चौड़े तथा गहरे गर्त को द्रव्य पल्य कहते हैं। जब यह कह दिया गया है कि यह कल्पित दृष्टांत है तब यह गर्त किसने खोदा, किसने भरा आदि प्रश्न निरर्थक हैं ।।75।। उस भरे हुए रोमगर्त में से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक रोम खंड निकाला जाय जितने समय में खाली हो जाय उतना समय एक पल्य कहलाता है। दश कोडाकोडी पल्यों का एक सागर होता है और दश कोड़ा-कोड़ी सागरों की एक अवसर्पिणी होती है ।।76-77।। उतने ही समय की एक उत्सर्पिणी भी होती है। हे राजन्! जिस प्रकार शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष निरंतर बदलते रहते हैं उसी प्रकार काल-द्रव्य के स्वभाव से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल निरंतर बदलते रहते हैं ।।78।। महात्माओं ने इन दोनों में से प्रत्येक के छह-छह भेद बतलाये हैं। संसर्ग में आने वाली वस्तुओं के वीर्य आदि में भेद होने से इन छह-छह भेदों की विशेषता सिद्ध होती है ।।71।। अवसर्पिणी का पहला भेद सुषमा-सुषमा काल कहलाता है। इसका चार कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण काल कहा जाता है ।।।। दूसरा भेद सुषमा कहलाता है। इसका प्रमाण तीन कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है। तीसरा भेद सुषमा-दु:षमा कहा जाता है। इसका प्रमाण दो कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है। चौथा भेद दुषमा-सुषमा कहलाता है। इसका प्रमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है। पांचवां भेद दुषमा और छठा भेद दुषमा-दुषमा काल कहलाता है। इनका प्रत्येक का प्रमाण इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष का जिनेंद्र देव ने कहा है ।।81-82।।
अब तीर्थंकरों का अंतर काल कहते है। भगवान् ऋषभदेव के बाद पचास लाख करोड़ सागर का अंतर बीतने पर द्वितीय अजितनाथ तीर्थंकर हुए। उसके बाद तीस लाख करोड़ सागर का अंतर बीतने पर तृतीय संभवनाथ उत्पन्न हुए। उनके बाद दश लाख करोड़ सागर का अंतर बीतने पर चतुर्थ अभिनंदननाथ उत्पन्न हुए ।।83।। उनके बाद नौ लाख करोड़ सागर के बीतने पर पंचम सुमतिनाथ हुए, उनके बाद नब्बे हजार करोड़ सागर बीतने पर छठे पद्मप्रभ हुए, उनके बाद नौ हजार करोड़ सागर बीतने पर सातवें सुपार्श्वनाथ हुए, उनके बाद नौ सौ करोड़ सागर बीतने पर आठवें चंद्रप्रभ हुए, उनके बाद नब्बे करोड़ सागर बीतने पर नवें पुष्पदंत हुए, उनके बाद नौ करोड़ सागर बीतने पर दशवें शीतलनाथ हुए, उनके बाद सौ सागर कम एक करोड़ सागर बीतने पर ग्यारहवें श्रेयांसनाथ हुए, उनके बाद चौवन सागर बीतने पर बारहवें वासुपूज्य स्वामी हुए, उनके बाद तीस सागर बीतने पर तेरहवें विमलनाथ हुए, उनके बाद नौ सागर बीतने पर चौदहवें अनंतनाथ हुए, उनके बाद चार सागर बीतने पर पंद्रहवें श्रीधर्मनाथ हुए, उनके बाद पौन पल्य कम तीन सागर बीतने पर सोलहवें शांतिनाथ हुए, उनके बाद आधा पल्य बीतने पर सत्रहवें कुंथुनाथ हुए, उनके बाद हजार वर्ष कम पावपल्य बीतने पर अठारहवें अरनाथ हुए, उनके बाद पैंसठ लाख चौरासी हजार वर्ष कम हजार करोड़ सागर बीतने पर उन्नीसवें मल्लिनाथ हुए, उनके बाद चौवन लाख वर्ष बीतने पर बीसवें मुनी सुव्रतनाथ हुए, उनके बाद छह लाख वर्ष बीतने पर इक्कीसवें नमिनाथ हुए, उनके बाद पांच लाख वर्ष बीतने पर बाईसवें नेमिनाथ हुए, उनके बाद पौने चौरासी हजार वर्ष बीतने पर तेईसवें श्रीपार्श्वनाथ हुए और उनके बाद ढाई सौ वर्ष बीतने पर चौबीसवे श्री वर्धमान स्वामी हुए हैं। भगवान् वर्धमान स्वामी का धर्म ही इस समय पंचम काल में व्याप्त हो रहा है। इंद्रों के मुकुटों की कांतिरूपी जल से जिनके दोनों चरण धुल रहे हैं, जो धर्मचक्र का प्रवर्तन करले हैं तथा महान् ऐश्वर्य के धारक थे, ऐसे महावीर स्वामी के मोक्ष चले जाने के बाद जो पंचम काल आवेगा, उसमें देवों का आगमन बंद हो जायेगा, सब अतिशय नष्ट हो जावेंगे, केवलज्ञान की उत्पत्ति समाप्त हो जावेगी। बलभद्र, नारायण तथा चक्रवर्तियों का उत्पन्न होना भी बंद हो जायेगा। और आप जैसे महाराजाओं के योग्य गुणों से समय शून्य हो जायेगा। तब प्रजा अत्यंत दुष्ट हो जावेगी, एक दूसरे की धोखा देने में ही उसका मन निरंतर उद्यत रहेगा। उस समय के लोग निःशील तथा निर्व्रत होंगे, नाना प्रकार के क्लेश और व्याधियों से सहित होंगे, मिथ्यादृष्टि तथा अत्यंत भयंकर होंगे ।।84-94।। कहीं अतिवृष्टि होगी, कहीं अवृष्टि होगी और कहीं विषम वृष्टि होगी। साथ ही नाना प्रकार की दु:सह रीतियां प्राणियों को दु:सह दुःख पहुँचावेंगी ।।95।। उस समय के लोग मोहरूपी मदिरा के नशा में चूर रहेंगे, उनके शरीर राग-द्वेष के पिंड के समान जान पड़ेंगे, उनकी भौंहें तथा हाथ सदा-चलते रहेंगे, वे अत्यंत पापी होंगे, बार-बार अहंकार से मुसकराते रहेंगे, खोटे वचन बोलने में तत्पर होंगे, निर्दय होंगे, धनसंचय करने में ही निरंतर लगे रहेंगे और पृथ्वी पर ऐसे विचरेंगे जैसे कि रात्रि में जुगुनू अथवा पटवीजना विचरते हैं अर्थात् अल्प प्रभाव के धारक होंगे ।।96-97।। वे स्वयं मूर्ख होंगे और गोदंड पथ के समान जो नाना कुधर्म हैं उनमें स्वयं पड़कर दूसरे लोगों को भी ले जायेंगे। दुर्जय प्रकृति के होंगे, दूसरे के तथा अपने अपकार में रात दिन लगे रहेंगे। उस समय के लोग होंगें तो दुर्गति में जाने वाले पर आने आप को ऐसा समझेंगे जैसे सिद्ध हुए जा रहे हों अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने वाले हों ।।98-99।। जो मिथ्या शास्त्रों का अध्ययन कर अहंकारवश हुंकार छोड़ रहे हैं, जो कार्य करने में म्लेच्छों के समान हैं, सदा मद से उद्धत रहते हैं, निरर्थक कार्यों में जिनका उत्साह उत्पन्न होता है, जो मोहरूपी अंधकार से सदा आवृत रहते हैं और सदा दांव-पेंच लगाने में ही तत्पर रहते हैं, ऐसे ब्राह्मणादिक के द्वारा उस समय के अभव्य जीवरूपी वृक्ष, हिंसा शास्त्र रूपी कुठार से सदा छेदे जावेंगे। यह सब हीन काल का प्रभाव ही समझना चाहिए ।।100-101।। दुषमा नाम पंचम काल के आदि में मनुष्यों की ऊँचाई सात हाथ प्रमाण होगी फिर क्रम से हानि होती जावेगी। इस प्रकार क्रय से हानि होते—होते अंत में दो हाथ ऊँचे रह जावेंगे। बीस वर्ष की उनकी आयु रह जावेगी। उसके बाद जब छठा काल आवेगा तब एक हाथ ऊँचा शरीर और सोलह वर्ष की आयु रह जावेगी। उस समय के मनुष्य सरीसृपों के समान एक दूसरे को मारकर बड़े कष्ट से जीवन बितावेंगे ।।102-104।। उनके समस्त अंग विरूप होंगे, वे निरंतर पाप-क्रिया में लीन रहेंगे, तिर्यंचों के समान मोह से दुःखी तथा रोग से पीड़ित होंगे ।।105।। छठे काल में न कोई व्यवस्था रहेगी, न कोई संबंध रहेंगे, न राजा रहेंगे, न सेवक रहेंगे। लोगों के पास न धन रहेगा, न घर रहेगा और न सुख ही रहेगा ।।106।। उस समय की प्रजा धर्म, अर्थ, काम संबंधी चेष्टाओं से सदा शून्य रहेगी और ऐसी दिखेगी मानो पाप के समूह से व्याप्त ही हो ।।107।। जिस प्रकार कृष्ण पक्ष में चंद्रमा ह्रास को प्राप्त होता है और एक पक्ष में वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार अवसर्पिणी काल में लोगों की आयु आदि में ह्रास होने लगता है तथा उत्सर्पिणी काल में वृद्धि होने लगती है ।।108।। अथवा जिस प्रकार रात्रि में उत्सवादि अच्छे कार्यों की प्रवृत्ति का ह्रास होने लगता है और दिन में वृद्धि होने लगती है उसी प्रकार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीकाल का हाल जानना चाहिए ।।109।। अवसर्पिणी काल में जिस क्रम से क्षय का उल्लेख किया है उत्सर्पिणीकाल में उसी क्रम से वृद्धि का उल्लेख जानना चाहिए ।।110।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! मैंने चौबीस तीर्थंकरों का अंतर तो कहा। अब क्रम से उनकी ऊँचाई कहूँगा सो सावधान होकर सुन ।।111।। पहले ऋषभदेव भगवान् शरीर की ऊंचाई पाँच सौ धनुष कही गयी है ।।112।। उसके बाद शीतलनाथ के पहले तक अर्थात् पुष्पदंत भगवान् तक प्रत्येक की पचास-पचास धनुष कम होती गयी है। शीतलनाथ भगवान की ऊँचाई नब्बे धनुष है। उसके आगे धर्मनाथ के पहले तक प्रत्येक की दश धनुष कम होती गयी है। धर्मनाथ की पैंतालीस धनुष प्रमाण है। उनके आगे पार्श्वनाथ के पहले तक प्रत्येक की पाँच-पांच धनुष कम होती गयी है। पार्श्वनाथ की नौ हाथ और वर्धमान स्वामी के उनसे दो हाथ कम अर्थात् सात हाथ की ऊंचाई है। भावार्थ- 1 ऋषभनाथ की 500 धनुष, 2 अजितनाथ की 450 धनुष, 3 संभवनाथ की 400 धनुष, 4 अभिनंदननाथ की 350 धनुष, 5 सुमतिनाथ की 300 धनुष, 6 पद्मप्रभ की 250 धनुष, 7 सुपार्श्वनाथ की 200 धनुष, 8 चंद्रप्रभ की 150 धनुष, 9 पुष्पदंत की 100 धनुष, 10 शीतलनाथ की 90 धनुष, 11 श्रेयान्यनाथ की 80 धनुष, 12 वासुपूज्य की 70 धनुष, 13 विमलनाथ की 60 धनुष, 14 अनंतनाथ की 50 धनुष, 15 धर्मनाथ की 45 धनुष, 16 शांतिनाथ की 40 धनुष, 17 कुंथुनाथ की 35 धनुष, 18 अरनाथ की 30 धनुष, 19 मल्लिनाथ की 25 धनुष, 20 मुनिसुव्रतनाथ की 20 धनुष, 21 नमिनाथ की 15 धनुष, 22 नेमिनाथ की 10 धनुष, 23 पार्श्वनाथ की 9 हाथ और 24 वर्धमान स्वामी की 7 हाथ की ऊँचाई है ।।113-115।। अब कुलकर तथा तीर्थंकरों की आयु का वर्णन करता हूं- हे राजन्! लोक तथा अलोक के देखने वाले सर्वज्ञदेव ने प्रथम कुलकर की आयु पल्य के दशवें भाग बतलाई है। उसके आगे प्रत्येक कुलकर की आयु दश भाग बतलाये गयी हैं अर्थात् प्रथम कुलकर की आयु में दश का भाग देने पर जो लब्ध आये वह द्वितीय कुलकर की आयु है और उसमें दश का भाग देने पर जो लब्ध आवे वह तृतीय कुलकर की आयु है। इस तरह चौदह कुलकरों की आयु जानना चाहिए ।।116-117।। प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की चौरासी लाख पूर्व, द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ भगवान् की बहत्तर लाख पूर्व, तृतीय तीर्थंकर श्री संभवनाथ की साठ लाख पूर्व, उनके बाद पांच तीर्थंकरों में प्रत्येक की दश दश लाख पूर्व कम अर्थात् चतुर्थ अभिनंदननाथ की पचास लाख पूर्व, पंचम सुमतिनाथ की चालीस लाख पूर्व, षष्ठ पद्मप्रभ की तीस लाख पूर्व सप्तम सुपार्श्वनाथ की बीस लाख पूर्व, अष्टम चंद्रप्रभ की दश लाख पूर्व, नवम पुष्पदंत की दो लाख पूर्व, दशम शीतलनाथ की एक लाख पूर्व, ग्यारहवें श्रेयान्यनाथ की चौरासी लाख वर्ष, बारहवें वासुपूज्य की बहत्तर लाख वर्ष, तेरहवें विमलनाथ की साठ लाख वर्ष, चौदहवें अनंतनाथ की तीस लाख वर्ष, पंद्रहवें धर्मनाथ की दश लाख वर्ष, सोलहवें शांतिनाथ की एक लाख वर्ष, सत्रहवें कुंथुनाथ की पंचानवे हजार वर्ष, अठारहवें अरनाथ की चौरासी हजार वर्ष, उन्नीसवें मल्लिनाथ की पचपन हजार वर्ष, बीसवें मुनि सुव्रतनाथ की तीस हजार वर्ष, इक्कीसवें नमिनाथ की दश हजार वर्ष, बाईसवें नेमिनाथ की एक हजार वर्ष, तेईसवें पार्श्वनाथ की सौ वर्ष और चौबीसवे महावीर की बहत्तर वर्ष आयु थी ।।118-122।। हे श्रेणिक! मैंने इस प्रकार क्रम से तीर्थंकरों की आयु का वर्णन किया।
जिस अंतराल में चक्रवर्ती हुए हैं उनका वर्णन सुन ।।123।। भगवान् ऋषभदेव की यशस्वती रानी से भरत नामा प्रथम चक्रवर्ती हुआ। इस चक्रवर्ती के नाम से ही यह क्षेत्र तीनों जगत् में भरत नाम से प्रसिद्ध हुआ ।।124।। यह भरत पूर्व जन्म में पुंडरीकिणी नगरी में पीठ नाम का राजकुमार था। तदनंतर कुशसेन मुनि का शिष्य होकर सर्वार्थसिद्धि गया। वहाँ से आकर भरत चक्रवर्ती हुआ। इसके परिणाम निरंतर वैराग्यमय रहते थे जिससे केशलोंच के अनंतर ही लोकालोकावभासी केवलज्ञान कर निर्वाण धाम को प्राप्त हुआ ।।125-126।। फिर पृथ्वी पुर नगर में राजा विजय था जो यशोधर गुरु का शिष्य होकर मुनि हो गया। अंत में सल्लेखना से मरकर विजय नामक अनुत्तम विमान में गया। वहाँ उत्तम भोग भोगकर अयोध्या नगरी में राजा विजय और रानी सुमंगला के सगर नाम का द्वितीय चक्रवर्ती हुआ। वह इतना प्रभावशाली था कि देव भी उसकी आज्ञा का सम्मान करते थे। उसने उत्तमोत्तम भोग भोगकर अंत में पुत्रों के शोक से प्रवृत्ति हो जिन दीक्षा धारण कर ली और केवलज्ञान उत्पन्न कर सिद्धालय प्राप्त किया ।।127-130।। तदनंतर पुंडरीकिणी नगरी में शशिप्रभ नाम का राजा था। वह विमल गुरु का शिष्य होकर ग्रैवेयक गया। वहाँ संसार का उत्तम सुख भोगकर वहाँ से च्युत हो श्रावस्ती नगरी में राजा सुमित्र और रानी भद्रवती के मघवा नाम का तृतीय चक्रवर्ती हुआ। यह चक्रवर्ती की लक्ष्मीरूपी लता के लिपटने के लिए मानो वृक्ष ही था। यह धर्मनाथ और शांतिनाथ तीर्थंकर के बीच में हुआ था तथा मुनिव्रत धारण कर समाधि के अनुरूप सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ था ।।131-133।। इसके बाद गौतमस्वामी चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार की बहुत प्रशंसा करने लगे तब राजा श्रेणिक ने पूछा कि हे भगवन्! वह किस पुण्य के कारण इस तरह अत्यंत रूपवान् हुआ था ।।134।। इसके उत्तर में गणधर भगवान ने संक्षेप से ही पुराण का सार वर्णन किया क्योंकि उसका पूरा वर्णन तो सौ वर्ष में भी नहीं कहा जा सकता था ।।135।। उन्होंने कहा कि जब तक यह जीव जैनधर्म को प्राप्त नहीं होता है तब तक तिर्यंच नरक तथा कुमानुष संबंधी दुःख भोगता रहता है ।।।। पूर्वभव का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि मनुष्यों से भरा एक गोवर्धन नाम का ग्राम था उसमें जिनदत्त नाम का उत्तम गृहस्थ रहता था ।।137।। जिस प्रकार समस्त जलाशयों में सागर, समस्त पर्वतों में सुंदर गुफाओं से युक्त सुमेरु पर्वत, समस्त ग्रहों में सूर्य, समस्त तृणों में इक्षु, समस्त लताओं में नागवल्ली और समस्त वृक्षों में हरिचंदन वृक्ष प्रधान है, उसी प्रकार समस्त कुलों में श्रावकों का कुल सर्वप्रधान है क्योंकि वह आचार की अपेक्षा पवित्र है तथा उत्तम गति प्राप्त कराने में तत्पर है ।।138-140।। वह गृहस्थ श्रावक कुल में उत्पन्न हो तथा श्रावकाचार का पालन कर गुणरूपी आभूषणों से युक्त होता हुआ उत्तम गति को प्राप्त हुआ ।।141।। उसकी विनयवती नाम की पतिव्रता तथा गृहस्थ का धर्म पालन करने में तत्पर रहने वाली स्त्री थी सो पति के वियोग से बहुत दुःखी हुई ।।142।। उसने अपने घर में जिनेंद्र भगवान का उत्तम मंदिर बनवाया तथा अंत में आर्यिका की दीक्षा ले उत्तम तपश्चरण कर देवगति प्राप्त की ।।143।। उसी नगर में हेमबाहु नाम का एक महा गृहस्थ रहता था जो आस्तिक, परमोत्साही और दुराचार से विमुख था ।।144।। विनयमती ने जो जिनालय बनवाया था तथा उसमें जो भगवान की महा पूजा होती थी उसकी अनुमोदना कर वह आयु के अंत में यक्ष जाति का देव हुआ ।।145।। वह यक्ष चतुर्विध संघ की सेवा में सदा तत्पर रहता था। सम्यग्दर्शन से सहित था और जिनेंद्रदेव की वंदना करने में सदा तत्पर रहता था ।।146।। वहाँ से आकर वह उत्तम मनुष्य हुआ, फिर देव हुआ। इस प्रकार तीन बार मनुष्य देवगति में आवागमन कर महापुरी नगरी में धर्मरुचि नाम का राजा हुआ। यह धर्मरुचि सनतकुमार स्वर्ग से आकर उत्पन्न हुआ था। इसके पिता का नाम सुप्रभ और माता का नाम तिलक सुंदरी था। सुंदरी उत्तम स्त्रियों के गुणों की मानो मंजूषा ही थी ।।147-148।। राजा धर्मरुचि सुप्रभ मुनि का शिष्य होकर पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का धारक हो गया ।।149।। वह सदा आत्मनिंदा में रहता था, आगत उपसर्गादि के सहने में धीर था, अपने शरीर से अत्यंत निस्पृह रहता था, दया और दम को धारण करनेवाला था, बुद्धिमान् था, शीलरूपी काँवर का धारक था, शंका आदि सम्यग्दर्शन के आठ दोषों से बहुत दूर रहता था और साधुओं की यथायोग्य वैयावृत्य में सदा लगा रहता था ।।150-151।। अंत में आयु समाप्त कर वह माहेंद्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और वहाँ देवियों के समूह के मध्य में स्थित हो परम भोगों को प्राप्त हुआ ।।152।। तदनंतर वहाँ से च्युत होकर हस्तिनापुर में राजा विजय और रानी सहदेवी के सनत्कुमार नाम का चतुर्थ चक्रवर्ती हुआ ।।153।। एक बार सौधर्मेंद्र ने अपनी सभा में कथा के अनुक्रम से सनत्कुमार चक्रवर्ती के रूप की प्रशंसा की। सो आश्चर्य उत्पन्न करने वाले उसके रूप को देखने के लिए कुछ देव आये ।।154।। जिस समय उन देवों ने छिपकर उसे देखा उस समय वह व्यायाम कर निवृत्त हुआ था, उसके शरीर की कांति अखाड़े की धूलि से धूसरित हो रही थी, शिर में सुगंधित आँवले का पंक लगा हुआ था, शरीर अत्यंत ऊँचा था, स्नान के समय धारण करने योग्य एक वस्त्र पहने था, स्नान के योग्य आसन पर बैठा था और नाना वर्ण के सुगंधित जल से भरे हुए कलशों के बीच में स्थित था ।।155—156।। उसे देखकर देवों ने कहा कि अहो! इंद्र ने जो इसके रूप की प्रशंसा की है सो ठीक ही की है। मनुष्य होने पर भी इसका रूप देवों के चित को आकर्षित करने का कारण बना हुआ है ।।157।। जब सनत्कुमार को पता चला कि देव लोग हमारा रूप देखना चाहते हैं तब उसने उनसे कहा कि आप लोग थोड़ी देर यहीं ठहरिए। मुझे स्नान और भोजन करने के बाद आभूषण धारण कर लेने दीजिए फिर आप लोग मुझे देखें ।।158।। ‘ऐसा ही हो’ इस प्रकार कहने पर चक्रवर्ती सनत्कुमार सब कार्य यथायोग्य कर सिंहासन पर आ बैठा। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो रत्नमय पर्वत का शिखर ही हो ।।151।।
तदनंतर पुन: उसका रूप देखकर देव लोग आपस में निंदा करने लगे कि मनुष्यों की शोभा असार तथा क्षणिक है, अतः इसे धिक्कार है ।।160।। प्रथम दर्शन के समय जो इसकी शोभा यौवन से संपन्न देखी थी वह बिजली के समान नश्वर होकर क्षण-भर में ही ह्रास को कैसे प्राप्त हो गयी? ।।161।। लक्ष्मी क्षणिक है ऐसा देवों से जानकर चक्रवर्ती सनत्कुमार का राग छूट गया। फलस्वरूप वह मुनि दीक्षा लेकर अत्यंत कठिन तप करने लगा ।।162।। यद्यपि उसके शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो गए थे तो भी वह उन्हें बड़ी शांति से सहन करता रहा। तप के प्रभाव से अनेक ऋद्धियाँ भी उसे प्राप्त हुई थी। अंत में आत्मज्ञान के प्रभाव से वह सनतकुमार स्वर्ग में देव हुआ ।।163।।
अब पंचम चक्रवर्ती का वर्णन करते हैं –
पुंडरीकणी नगर में राजा मेघरथ रहते थे। वे अपने पिता धनरथ तीर्थंकर के शिष्य होकर सर्वार्थसिद्धि हए वहाँ से च्युत होकर हस्तीनागपुर में राजा विश्वसेन और रानी एरा देवी के मनुष्यों को शांति उत्पन्न करने वाले शांतिनाथ नामक प्रसिद्ध पुत्र हुए ।।164-165।। उत्पन्न होते ही वे देवों ने सुमेरु पर्वत पर इनका अभिषेक किया था। इंद्र ने स्तुति की थी और इस तरह वे चक्रवर्ती के भोगों की स्वामी हुए ।।166।। ये पंचम चक्रवर्ती तथा सोलहवें तीर्थंकर थे। अंत में तृण के सम्मान राज्य छोड़ कर इन्होंने दीक्षा धारण की थी ।।167।। इनके बाद क्रम से कुंथुनाथ और अरनाथ नामक छठे और सातवें चक्रवर्ती हुए। ये पूर्व भव में सोलह कारण भावनाओं का संचय करने की कारण तीर्थंकर पद को भी प्राप्त हुए थे ।।168।। सनतकुमार नाम का चौथा चक्रवर्ती धर्मनाथ और शांतिनाथ तीर्थंकर के बीच में हुआ था और शांति, कुंथू तथा अर इन तीन तीर्थंकर तथा चक्रवर्तीयों का अंतर अपना अपना काल ही जानना चाहिए ।।169।।
अब आठवीं चक्रवर्ती का वर्णन करते हैं –
धान्य पुर नगर में राजा कनकाभ रहता था वह विचित्रगुप्त मुनि का शिष्य होकर जयंत नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ ।।170।। वहाँ से आकर वह ईशावती नगरी में राजा कार्तवीर्य तथा रानी तारा के सुभूम नाम का आठवा चक्रवर्ती हुआ। वह उत्तम चेष्टाओं को धारण करने वाला था इसने भूमि को उत्तम किया था इसलिए इसका शुभूम नाम सार्थक था ।।171-172।। परशुराम ने युद्ध में इसके पिता को मारा था सो इसने उसे मारा। परशुराम ने क्षत्रियों को मारकर उनके दंत इकट्ठे किये थे। किसी निमित्त ज्ञानी ने उसे बताया था कि जिसके देखने से ये दंत खीर रूप में परिवर्तित हो जाएंगे उसी के द्वारा तेरी मृत्यु होगी। शुभूम एक यज्ञ में परशुराम के यहाँ गया था। जब वह भोजन करने को उद्यत हुआ तब परशुराम ने वे सब दंत एक वर्तन में रख कर उसे दिखाए। उसके पुण्य प्रभाव से वे दंत खीर बन गए और पात्र चक्र के रूप में बदल गया। शुभूम ने उसी चक्र के द्वारा परशुराम को मारा था। परशुराम ने पृथ्वी को सात बार क्षत्रियों से रहित किया था इसलिए उसके बदले इसने इक्कीस बार पृथ्वी को ब्राह्मण रहित किया था ।।173-175।। जिस प्रकार पहले परशुराम के भय से क्षत्रिय धोबी आदि के कुलों में छिपते फिरते थे उसी प्रकार अत्यंत कठिन शासन के धारक सुभूम चक्रवर्ती से ब्राह्मण लोग भयभीत होकर धोबी आदि के कुलों में छिपते फिरते थे ।।176।। यह चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथ के बीच में हुआ था तथा भोगों से विरक्त न होने के कारण मरकर सातवें नरक गया था ।।177।।
अब नौवे चक्रवर्ती का वर्णन करते हैं –
वीतशोका नगरी में चिंतन नाम का राजा था। वह सुप्रभमुनि का शिष्य होकर ब्रह्मस्वर्ग गया ।।178।। वहाँ से च्युत होकर हस्तिनापुर में राजा पद्मरथ और रानी मयूरी के महापद्म नाम का नवाँ चक्रवर्ती हुआ ।।179।। इसकी आठ पुत्रियां थीं जो सौंदर्य के अतिशय से गर्वित थीं तथा पृथ्वी पर किसी भर्ता की इच्छा नहीं करती थीं। एक समय विद्याधर इन्हें हरकर ले गये। पता चलाकर चक्रवर्ती ने उन्हें वापस बुलाया परंतु विरक्त होकर उन्होंने दीक्षा धारण कर ली तथा आत्म-कल्याण कर स्वर्गलोक प्राप्त किया ।।180-181।। जो आठ विद्याधर उन्हें हरकर ले गये थे वे भी उनके वियोग से तथा संसार की विचित्र दशा के देखने से भयभीत हो दीक्षित हो गये ।।182।। इस घटना से महा गुणों का धारक चक्रवर्ती प्रतिबोध को प्राप्त हो गया तथा पद्म नामक पुत्र के लिए राज्य दे विष्णु नामक पुत्र के साथ घर से निकल गया अर्थात् दीक्षित हो गया ।।183।। इस प्रकार महापद्म मुनि ने परम तप कर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा अंत में लोक के शिखर में जा पहुँचा। यह चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथ के बीच में हुआ था ।।184।।
अब दशवें चक्रवर्ती का वर्णन करते हैं-
विजय नामक नगर में महेंद्रदत्त नाम का राजा रहता था। वह नंदन मुनि का शिष्य बन कर महेंद्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ।।185।। वहाँ से च्युत होकर कांपिल्यनगर में राजा हरिकेतु और रानी वप्रा के हरिषेण नाम का दसवाँ प्रसिद्ध चक्रवर्ती हुआ ।।186।। उसने अपने राज्य की समस्त पृथिवी को जिन प्रतिमाओं से अलंकृत किया था तथा मुनिसुव्रतनाथ भगवान के तीर्थ में सिद्धपद प्राप्त किया था ।।187।।
अब ग्यारहवें चक्रवर्ती का वर्णन करते हैं-
राजपुर नामक नगर में एक अमितांक नाम का राजा रहता था। वह सुधर्म मित्र नामक मुनिराज का शिष्य होकर ब्रह्म स्वर्ग गया ।।188।। वहाँ से च्युत होकर उसी कांपिल्यनगर में राजा विजय की यशोवती रानी से जयसेन नाम का ग्यारहवाँ चक्रवर्ती हुआ ।।189।। वह अंत में महा राज्य का परित्याग कर दिगंबरी दीक्षा को धारण कर रत्नत्रय की आराधना करता हुआ सिद्धपद को प्राप्त हुआ ।।190।। यह मुनिसुव्रतनाथ और नमिनाथ के अंतराल में हुआ था।
अब बारहवें चक्रवर्ती का वर्णन करते हैं-
काशी नगरी में संभूत नाम का राजा रहता था। वह स्वतंत्रलिंग नामक मुनिराज का शिष्य हो कमलगुल्म नामक विमान में उत्पन्न हुआ ।।191।। वहाँ से च्युत होकर कांपिल्यनगर में राजा ब्रह्मरथ और रानी चूला के ब्रह्मदत्त नाम का बारहवां चक्रवर्ती हुआ ।।162।। यह चक्रवर्ती लक्ष्मी का उपभोग कर उससे विरत नहीं हुआ और उसी अविरत अवस्था में मरकर सातवें नरक गया। यह नेमिनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बीच में हुआ था ।।193।।
गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे मगधराज! इस प्रकार मैंने छह खंड के अधिपति- चक्रवर्तियों का वर्णन किया। ये इतने प्रतापी थे कि इनकी गति को देव तथा असुर भी नहीं रोक सकते थे ।।194।। यह मैंने पुण्य पाप का फल प्रत्यक्ष कहा है, उसे सुनकर, अनुभव कर तथा देखकर लोग योग्य कार्य क्यों नहीं करते हैं? ।।195।। जिस प्रकार कोई पथिक अपूप आदि पाथेय (मार्ग हितकारी भोजन) लिये बिना ग्रामांतर को नहीं जाता है उसी प्रकार यह जीव भी पुण्य पाप रूपी पाथेय के बिना लोकांतर को नहीं जाता है ।।196।। उत्तमोत्तम स्त्रियों से भरे तथा कैलास के समान ऊंचे उत्तम महलों में जो मनुष्य निवास करते हैं वह पुण्यरूपी वृक्ष का ही फल है ।।197।। और जो दरिद्रता रूपी कीचड़ में निमग्न हो सर्दी, गरमी तथा हवा की बाधा से युक्त खोटे घरों में रहते हैं वह पापरूपी वृक्ष का फल है ।।198।। जिन पर चमर ढुल रहे हैं ऐसे राजा महाराजा जो विंध्याचल के शिखर के समान ऊँचे-ऊंचे हाथियों पर बैठकर गमन करते हैं वह पुण्यरूपी शालि (धान) का फल है ।।199।। जिनके दोनों ओर चमर हिल रहे हैं ऐसे सुंदर शरीर के धारक घोड़ों पर बैठकर जो पैदल सेनाओं के बीच में चलते हैं वह पुण्यरूपी राजा की मनोहर चेष्टा है ।।200।। जो मनुष्य स्वर्ग के भवन के समान सुंदर रथ पर सवार हो गमन करते हैं वह उनके पुण्यरूपी हिमालय से भरा हुआ स्वादिष्ट झरना है ।।201।। जो पुरुष मलिन वस्त्र पहनकर फटे हुए पैरों से पैदल ही भ्रमण करते हैं वह पापरूपी विषवृक्ष का फल है ।।202।। जो मनुष्य सुवर्णमया पात्रों में अमृत के समान मधुर भोजन करते हैं उसे श्रेष्ठ मुनियों ने धर्मरूपी रसायन का प्रभाव बतलाया है ।।203।। जो उत्तम भव्य जीव इंद्रपद, चक्रवर्ती का पद तथा सामान्य राजा का पद प्राप्त करते हैं वह अहिंसा रूपी लता का फल है ।।204।। तथा उत्तम मनुष्य जो बलभद्र और नारायण की लक्ष्मी प्राप्त करते हैं वह भी धर्म का ही फल है।
हे श्रेणिक! अब मैं उन्हीं बलभद्र और नारायणों का कथन करूंगा ।।205।। प्रथम ही भरत क्षेत्र के नौ नारायण की पूर्वभव संबंधी नगरियों के नाम सुनो- 1 मनोहर हस्तिनापुर, 2 पताकाओं से सुशोभित अयोध्या, 3 अत्यंत विस्तृत श्रावस्ती, 4 निर्मल आकाश से सुशोभित कौशांबी, 5 पोदनपुर, 6 शैलनगर, 7 सिंहपुर, 8 कौशांबी और, 9 हस्तिनापुर ये क्रम से नौ नगरियाँ कही गयी हैं। ये सभी नगरियाँ सर्वप्रकार के धन-धान्य से परिपूर्ण थीं, भय के संपर्क से रहित थी तथा वासुदेव अर्थात् नारायणों के पूर्वजन्म संबंधी निवास से सुशोभित थीं ।।206-208।। अब इन वासुदेवों के पूर्वभव के नाम सुनो- 1 महाप्रतापी विश्वनंदी, 2 पर्वत, 3 धनमित्र, 4 क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के समान शब्द करने वाला सागरदत्त, 5 विकट, 6 प्रियमित्र, 7 मानस चेष्टित, 8 पुनर्वसु और 9 गंगदेव ये नारायणों के पूर्व जन्म के नाम कहे ।।209-211।।
ये सभी पूर्वभव में अत्यंत विरूप तथा दुर्भाग्य से युक्त थे। मूलधन का अपहरण 1, युद्ध में हार 2, स्त्री का अपहरण 3, उद्यान तथा वन में क्रीड़ा करना 4, वन क्रीड़ा की आकांक्षा 5, विषयों में अत्यंत आसक्ति 6, इष्टजन वियोग 7, अग्नि बाधा 8 और दौर्भाग्य 9 क्रमश: इन निमित्तों को पाकर ये मुनि हो गये थे। निदान अर्थात् आगामी भोगों की लालसा रखकर तपश्चरण करते थे तथा तत्वज्ञान से रहित थे। इसी अवस्था में मरकर ये नारायण हुए थे। ये सभी नारायण बलभद्र के छोटे भाई होते हैं ।।212-214।। हे श्रेणिक! निदान सहित तप प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए क्योंकि वह पीछे चलकर महा भयंकर दुःख देने में निपुण होता है ।।215।।
अब नारायणों के पूर्वभव के गुरुओं के नाम सुनो- तप की मूर्तिस्वरूप संभूत 1, सुभद्र 2, वसुदर्शन 3, श्रेयान्स 4, सुभूति 5, वसुभूति 6, घोषसेन 7, परांभोधि 8 और द्रुमसेन 9 ये नौ इनके पूर्वभव के गुरु थे अर्थात् इनके पास इन्होंने दीक्षा धारण की थी ।।216-217।। अब जिस जिस स्वर्ग से आकर नारायण हुए उनके नाम सुनो महाशुक्र 1, प्राणत 2, लांतव 3, सहस्रार 4, ब्रह्म 5, माहेंद्र 6, सौधर्म 7, सनत्कुमार 8 और महाशुक्र 9। पुण्य के फलस्वरूप नाना अम्युदयों को प्राप्त करने वाले ये देव इन स्वर्गों से च्युत होकर अवशिष्ट पुण्य के प्रभाव से नारायण हुए हैं ।।218-220।।
अब इन नारायणों की जन्म-नगरियों के नाम सुनो- पोदनपुर 1, द्वापुरी 2, हस्तिनापुर 3, हस्तिनापुर 4, चक्रपुर 5, कुशाग्रपुर 6, मिथिलापुरी 7, अयोध्या 8 और मथुरा 9 ये नगरियाँ क्रम से नौ नारायणों की जन्म नगरियां थीं। ये सभी समस्त धन से परिपूर्ण थीं तथा सदा उत्सवों से आकुल रहतीं थीं ।।221-222।। अब इन नारायणों के पिता के नाम सुनो- प्रजापति 1, ब्रह्मभूति 2, रौद्रनाद 3, सोम 4, प्रख्यात 5, शिवाकर 6, सममूर्धाग्निनाद 7, दशरथ 8 और वसुदेव 9 ये नौ क्रम से नारायणों के पिता कहे गये हैं ।।223-224।।
अब इनकी माताओं के नाम सुनो- मृगावती 1, माधवी 2, पृथ्वी 3, सीता 4, अंबिका 5, लक्ष्मी 6, कंशिनी 7, कैकयी 8 और देवकी 9 ये क्रम से नौ नारायणों की मातायें थीं। ये सभी महा सौभाग्य से संपन्न तथा उत्कृष्ट रूप से युक्त थीं ।।225-226।।
*[अब इन नारायणों के नाम सुनो- त्रिपृष्ठ 1, द्विपृष्ठ 2 स्वयंभू 3, पुरुषोत्तम 4, पुरुषसिंह 5, पुंडरीक 6, दत्त 7, लक्ष्मण 8 और कृष्ण 9 ये नौ नारायण हैं।] अब इनकी पट्टरानियों का नाम सुनो- सुप्रभा 1, रूपिणी 2, प्रभवा 3, मनोहरा 4, सुनेत्रा 5, विमलसुंदरी 6, आनंदवती 7, प्रभावती 8 और रुक्मिणी 9 ये नौ नारायणों की क्रमश: नौ पट्टरानियाँ कहीं गयी है ।।227-228।।
*हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियों में नारायणों के नाम बतलाने वाले श्लोक उपलब्ध नहीं हैं। परंतु उनका होना आवश्यक है। पं. दौलतरामजी ने भी उनका अनुवाद किया है। अत: प्रकरण संगति के लिए 1 कोष्ठकांतर्गत पाठ अनुवाद में दिया है।
अथानंतर अब नौ बलभद्रों वर्णन करते हैं। सो सर्वप्रथम इनके पूर्व जन्म संबंधी नगरियों के नाम सुनो-उत्तमोत्तम धवल महलों से सहित पुंडरीकिणी 1, पृथ्वी के समान अत्यंत विस्तृत पृथिवीपुरी 2, आनंदपुरी 3, नंदपुरी 4, वीतशोका 5, विजयपुर 6, सुसीमा 7, क्षेमा 8 और हस्तिनापुर 9, ये नौ बलभद्रों के पूर्व जन्म संबंधी नगरों के नाम है ।।229-231।। अब बलभद्रों के पूर्वजन्म के नाम सुनो- बल 1, मारुतवेग 2, नंदिमित्र 3, महाबल 4, पुरुषर्षभ 5, सुदर्शन 6, वसुंधर 7, श्रीचंद्र 8 और सखिसंज्ञ 9, ये नौ बलभद्रों के पूर्वनाम जानना चाहिए ।।232—233।।
अब इनके पूर्वभव संबंधी गुरुओं के नाम सुनो- अमृतार 1, महासुव्रत 2, सुव्रत 3, वृषभ 4, प्रजापाल 5, दमवर 6, सुधर्म 7, अणव 8 और विद्रुम 9, ये नौ बलभद्रों के पूर्वभव के गुरु हैं अर्थात् इनके पास इन्होंने दीक्षा धारण की थी ।।234-235।। अब ये जिस स्वर्ग से आये उसका वर्णन करते हैं- तीन बलभद्र का अनुत्तर विमान, तीन का सहस्रार स्वर्ग, दो का ब्रह्म स्वर्ग और एक का अत्यंत सुशोभित महाशुक्र स्वर्ग पूर्वभव का निवास था। ये सब यहाँ से च्युत होकर उत्तम चेष्टाओं के धारक बलभद्र हुए थे ।।236-237।।
अब इनकी माताओं के नाम सुनो- भद्रांभोजा 1, सुभद्रा 2, सुवेषा 3, सुदर्शना 4, सुप्रभा 5, विजया 6, वैजयंती 7, उदार अभिप्राय को धारण करने वाली तथा महाशीलवती अपराजिता (कौशल्या) 8 और रोहिणी 9, ये नौ बलभद्रों की क्रमश: माताओं के नाम हैं ।।238-239।। इनमें से त्रिपृष्ठ आदि पाँच नारायण और पाँच बलभद्र श्रेयान्यनाथ को आदि लेकर धर्मनाथ स्वामी के समय पर्यंत हुए। छठे और सातवें नारायण तथा बलभद्र अरनाथ स्वामी के बाद हुए। लक्ष्मण नाम के आठवें नारायण और राम नामक आठवें बलभद्र मुनी सुव्रतनाथ और नमिनाथ के बीच में हुए तथा अद्भुत क्रियाओं को करने वाले श्री कृष्ण नामक नौवे नारायण तथा बल नामक नौवें बलभद्र भगवान् नेमिनाथ की वंदना करने वाले हुए ।।240—241।।
*[अब बलभद्रों के नाम सुनो- अचल 1, विजय 2, भद्र 3, सुप्रभ 4, सुदर्शन 5, नंदिमित्र 6, नंदिषेण 7, रामचंद्र (पद्म) और बल 9]
नारायणों के प्रतिद्वंद्वी नौ प्रतिनारायण होते हैं। उनके नगरों के नाम इस प्रकार जानना चाहिए। अलकपुर 1, विजयपुर 2, नंदनपुर 3, पृथ्वीपुर 4, हरिपुर 5, सूर्यपुर 6, सिंहपुर 7, लंका 8 और राजगृह 9। ये सभी नगर मणियों की किरणों से देदीप्यमान थे ।।242-243।। अब प्रतिनारायणों के नाम सुनो- अश्वग्रीव 1, तारक 2, मेरक 3, मधुकैटभ 4, निशुंभ 5, बलि 6, प्रह्लाद 7, दशानन 8 और जरासंध 9, ये नौ प्रतिनारायणों के नाम जानना चाहिए ।।244-245।।
सुवर्णकुंभ 1, सत्कीर्ति 2, सुधर्म 3, मृगांक 4, श्रुतिकीर्ति 5, सुमित्र 6, भवनश्रुत 7, सुव्रत 8 और सुसिद्धार्थ 9 बलभद्रों के गुरुओं के नाम हैं। इन सभी ने तप के भार से उत्पन्न कीर्ति के द्वारा समस्त संसार को व्याप्त कर रखा था ।।246-247।। नौ बलभद्रों में से आठ बलभद्र तो बलभद्र का वैभव प्राप्त कर तथा संसार से उदासीन हो उस कर्मरूपी महावन को भस्म कर निर्वाण को पधारे। जिसमें कि क्षोभ को प्राप्त हुए नाना प्रकार के रोगरूपी जंतु भ्रमण कर रहे थे, जो मृत्युरूपी व्याध से अत्यंत भयंकर था तथा जिसमें जन्मरूपी बड़े-बड़े ऊंचे वृक्षों के खंड लग रहे थे। अंतिम बलभद्र कर्म-बंधन शेष रहने के कारण ब्रह्म स्वर्ग को प्राप्त हुआ था ।।248।। गौतम गणधर राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! मैंने तीर्थंकरों को आदि लेकर भरत क्षेत्र को जीतने वाले चक्रवर्तियों, नारायणों तथा बलभद्रो का अत्यंत आश्चर्य से भरा हुआ पूर्व-जन्म आदि का वृत्तांत तुझ से कहा। इनमें से कितने ही तो विशाल तपश्चरण कर उसी भव से मोक्ष जाते हैं, किन्हीं के कुछ पाप कर्म अवशिष्ट रहते हैं तो वे कुछ समय तक संसार में भ्रमण कर मोक्ष जाते हैं और कुछ कर्मों की सत्ता अधिक प्रबल होने से दीर्घ काल तक अनेक जन्म-मरणों से सघन इस संसार अटवी में निरंतर घूमते रहते हैं ।।249।। ये संसार के विविध प्राणी कलिकाल रूपी अत्यंत मलिन महासागर की भ्रमर में मग्न हैं तथा नरकादि नीच गतियों के महा दु:खरूपी अग्नि में संतप्त हो रहे हैं। ऐसा जानकर कितने ही निकट भव्य तो इस संसार की इच्छा ही नहीं करते हैं। कुछ लोग पुण्य का परिचय करना चाहते हैं और कुछ लोग सूर्य के समान मोह का अवसान कर निर्मल केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं ।।250।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में तीर्थंकरादि के भवों का वर्णन करनेवाला बीसवां पर्व समाप्त हुआ ।।20।।