पद्मपुराण - पर्व 8: Difference between revisions
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<span id="1" /><span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर | |||
<p><u>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में</u></p> | <p><u>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में</u></p> | ||
<p><u>दशानन का वर्णन करनेवाला आठवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।8।।</u></p> | <p><u>दशानन का वर्णन करनेवाला आठवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।8।।<span id="9" /></u></p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में असुर संगीत नाम का नगर है। वहाँ कांति में सूर्य की उपमा धारण करनेवाला प्रबल योद्धा मय नाम का विद्याधर रहता था। वह पृथिवी तल में दैत्य नाम से प्रसिद्ध था। उसकी हेमवती नाम की स्त्री थी जो स्त्रियों के समस्त गुणों से सहित थी ।।1-2।। उसकी मंदोदरी नाम की पुत्री थी। उसके समस्त अवयव सुंदर थे, उदर कृश था, नेत्र विशाल थे और वह सौंदर्य रूपी जल की धारा के समान जान पड़ती थी ।।3।। एक दिन नवयौवन से संपूर्ण उस पुत्री को देखकर पिता चिंता से व्याकुल हो अपनी स्त्री से बड़े आदर के साथ बोला कि हे प्रिये! पुत्री मंदोदरी नवयौवन को प्राप्त हो चुकी है। इसे देख मेरी इस विषय की मानसिक चिंता कई गुणी बढ़ गयी है ।।4-5।। किसी ने ठीक ही कहा है कि संतापरूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाले कन्याओं के यौवनारंभ में माता-पिता अन्य परिजनों के साथ ही साथ ईंधन पने को प्राप्त होते हैं ।।6।। इसीलिए तो कन्या जन्म के बाद दुःख से आकुलित है चित्त जिनका ऐसे विद्वज्जन इसके लिए नेत्ररूपी अंजलि के द्वारा जल दिया करते हैं ।।7।। अहो, जिन्हें अपरिचित जन आकर ले जाते हैं ऐसे अपने शरीर से समुत्पन्न संतान (पुत्री) के साथ जो वियोग होता है वह मर्म को भेदन कर देता है ।।8।। इसलिए हे प्रिये! कहो, यह तारुण्यवती पुत्री हम किसके लिए देवें। गुण, कुल और कांति से कौन वर इसके अनुरूप होगा ।।9।। पति के ऐसा कहने पर रानी हेमवती ने कहा कि माताएँ तो कन्याओं के शरीर की रक्षा करने में ही उपयुक्त होती हैं और उनके दान करने में पिता उपयुक्त होते हैं ।।10।। जहाँ आपके लिए कन्या देना रुचता हो वहीं मेरे लिए भी रुचेगा क्योंकि कुलांगनाएँ पति के अभिप्राय के अनुसार ही चलती हैं ।।11।। रानी के ऐसा कहने पर राजा ने मंत्रियों के साथ सलाह की तो किसी मंत्री ने किसी विद्याधर का उल्लेख किया ।।12।। तदनंतर किसी दूसरे मंत्री ने कहा कि इसके लिए इंद्र विद्याधर ठीक होगा क्यों कि वह समस्त विद्याधरों का अधिपति है और सब विद्याधर उसके विरुद्ध जाने में भयभीत भी रहेंगे ।।13।। तब राजा मय ने स्वयं कहा कि मैं आप लोगों के मन की बात तो नहीं जानता पर मुझे जिसे समस्त विद्याएँ सिद्ध हुई हैं ऐसा प्रसिद्ध दशानन अच्छा लगता है ।।14।। निश्चित ही वह जगत् में कोई अद्भुत कार्य करनेवाला होगा अन्यथा उसे छोटी ही उमर में शीघ्र ही अनेक विद्याएँ सिद्ध कैसे हो जातीं ।।15।। तदनंतर मंत्र करने में निपुण मारीच आदि समस्त प्रमुख मंत्रियों ने बड़े हर्ष के साथ राजा मय की बात का समर्थन किया ।।16।।
तदनंतर महाबलवान् मारीच आदि मंत्रियों और भाइयों ने राजा मय के मन को शीघ्रता से युक्त किया अर्थात् प्रेरणा की कि इस कार्य को शीघ्र ही संपन्न कर लेना चाहिए ।।17।। तब राजा मय ने भी विचार किया कि समय बीत जाने से कार्य सिद्ध नहीं हो पाता है ऐसा विचार कर वह किसी शुभ दिन, जबकि सौम्य ग्रह सामने स्थित थे, क्रूर ग्रह विमुख थे और लग्न मंगलकारी थी, कन्या के साथ पुष्पांतक विमान में बैठकर चला। प्रस्थान करते समय तुरही का मधुर शब्द हो रहा था और स्त्रियां मंगलगीत गा रही थीं। बीच-बीच में जब तुरही का शब्द बंद होता था तो स्त्रियों के मंगल गीतों से आकाश ऐसा गूँज उठता था मानो शब्दमय ही हो गया हो ।।18―20।। दशानन भीम वन में है, यह समाचार, पुष्पांतक विमान से उतरकर जो जवान आगे गये थे उन्होंने लौटकर राजा मय से कहा। तब राजा मय उस देश के जानकार गुप्तचरों से पता चलाकर भीम वन की ओर चला। वहाँ जाकर उसने काली घटा के समान वह वन देखा ।।21-22।। दशानन के खास स्थान का पता बताते हुए किसी गुप्तचर ने कहा कि हे राजन्! जिस प्रकार सम्मेदाचल और कैलास पर्वत के बीच में मंदारुण नाम का वन है उसी प्रकार वलाहक और संध्यावर्त नामक पर्वतों के बीच में यह उत्तम वन देखिए। देखिए कि यह वन स्निग्ध अंधकार की राशि के समान कितना सुंदर मालूम होता है और यहाँ कितने ऊँचे तथा सघन वृक्ष लग रहे हैं ।।23-24।। इस वन के मध्य में शंख के समान सफेद बड़े-बड़े घरों से सुशोभित जो वह नगर दिखाई दे रहा है वह शरद् ऋतु के बादलों के समूह के समान कितना भला जान पड़ता है? ।।25।। उसी नगर के समीप देखो एक बहुत ऊँचा महल दिखाई दे रहा है। ऐसा महल कि जो अपने शिखरों के अग्रभाग से मानो सौधर्म स्वर्ग को ही छूना चाहता है ।।26।। राजा मय की सेना आकाश से उतरकर उसी महल के समीप यथायोग्य विश्राम करने लगी ।।27।।
तदनंतर दैत्यों का अधिपति राजा मय तुरही आदि वादित्रों का आडंबर छोड़कर तथा विनीत मनुष्यों के योग्य वेष-भूषा धारणकर कुछ आप्तजनों के साथ उस महल के समीप पहुँचा। कन्या मंदोदरी उसके साथ थी। महल को देखते ही राजा मय का जहाँ अहंकार छूटा वहाँ उसे आश्चर्य भी कम नहीं हुआ। तदनंतर द्वारपाल के द्वारा समाचार भेजकर वह महल के ऊपर चढ़ा ।।28-29।। सावधानी से पैर रखता हुआ जब वह क्रम से सातवें खंड में पहुँचा तब वहाँ उसने मूर्तिधारिणी वनदेवी के समान उत्तम कन्या देखी ।।30।। वह कन्या दशानन की बहन चंद्रनखा थी सो उसने सबका अतिथि-सत्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि कुल के जानकार मनुष्य योग्य उपचार से कभी नहीं चूकते ।।31।। तदनंतर जब मय सुखकारी आसन पर बैठ गया और चंद्रनखा भी कन्याओं के योग्य आसन पर बैठ चुकी तब विनय दिखाती हुई उस कन्या से मय ने बड़ी नम्रता से पूछा ।।32।। कि हे पुत्री! तू कौन है? और किस कारण से इस भयावह वन में रहती है तथा यह बड़ा भारी महल किसका है? ।।33।। इस महल में अकेली रहते हुए तुझे कैसे धैर्य उत्पन्न होता है। तेरा यह उत्कृष्ट शरीर पीड़ा का पात्र तो किसी तरह नहीं हो सकता ।।34।। स्त्रियों के लज्जा स्वभाव से ही होती है इसलिए मय के इस प्रकार पूछने पर उस सती कन्या का मुख लज्जा से नत हो गया। साथ ही वन की हरिणी के समान भोली थी ही अत: धीरे-धीरे इस प्रकार बोली कि मेरा भाई दशानन षष्ठोपवास अर्थात् तेला के द्वारा इस चंद्रहास खड्ग को सिद्ध कर जिनेंद्र भगवान् की वंदना करने के लिए सुमेरु पर्वत पर गया है। दशानन मुझे इस खड्ग की रक्षा करने के लिए कह गया है सो हे आर्य! मैं चंद्रप्रभ भगवान से सुशोभित इस चैत्यालय में स्थित हूँ। यदि आप लोग दशानन को देखने के लिए आये हैं तो क्षण मात्र यहीं पर विश्राम कीजिए ।।35-38।।
जब तक उन दोनों में इस प्रकार का मधुर आलाप चल रहा था तब तक आकाशतल में तेज का मंडल दिखाई देने लगा ।।39।। उसी समय कन्या ने कहा कि जान पड़ता है अपनी प्रभा से सूर्य को निष्प्रभ करता हुआ दशानन आ गया है ।।40।। बिजली के सहित मेघराशि के समान उस दशानन को निकटवर्ती देख मय हड़बड़ाकर आसन से उठ खड़ा हुआ ।।41।। यथायोग्य आचार प्रदर्शित करने के बाद सब पुन: आसनों पर आरूढ़ हुए। तलवार की कांति से जिनके शरीर श्यामल हो रहे थे ऐसे मारीच, वज्रमध्य, वज्रनेत्र, नभस्तडित्, उग्रनक्र, मरुद्वक्त्र, मेधावी, सारस और शुक आदि मय के मंत्री लोग दशानन को देखकर परम संतोष को प्राप्त हुए और निम्नलिखित मंगल वचन मय से कहने लगे कि हे दैत्यराज! आपकी बुद्धि हम सबसे अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि आपने ही इस पुरुषोत्तम को हृदय में स्थान दिया था अर्थात् हम लोगों का इसकी ओर ध्यान नहीं गया जबकि आपने इसका अपने मन में अच्छी तरह विचार रखा ।।42-45।। मय से इतना कहकर उन मंत्रियों ने दशानन से कहा कि अहो तुम्हारा उज्जवल रूप आश्चर्यकारी है, तुम्हारा विनय का भार अद्भुत है और तुम्हारा पराक्रम भी अतिशय से सहित है ।।46।। यह दैत्यों का राजा दक्षिण श्रेणी के असुर संगीत नामा नगर का रहनेवाला है तथा संसार में मय नाम से प्रसिद्ध है। यह आपके गुणों से आकर्षित होकर यहाँ आया है सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष किसे दर्शन के लिए उत्कंठित नहीं करते? ।।47-48।। तब रत्नश्रवा के पुत्र दशानन ने कहा कि आपका स्वागत है। आचार्य कहते हैं कि जो मधुर भाषण है वह सत्पुरुषों की कुलविद्या है ।।49।। दैत्यों के अधिपति उत्तम पुरुष हैं जिन्होंने कि हमें प्रेमपूर्वक दर्शन दिये। मैं चाहता हूँ कि ये उचित आदेश देकर इस जन को अनुगृहीत करें ।।50।। तदनंतर मय ने कहा कि हे तात! तुम्हें यह कहना उचित है क्योंकि जो उत्तम पुरुष हैं वे विरुद्ध आचरण कभी नहीं करते ।।51।। जिनका चित्त कौतुक से व्याप्त था ऐसे मय के मंत्रियों ने भी दशानन के दर्शन किये और आकुलता से भरे तथा बार-बार कहे हुए उत्तम वचनों से उसे आनंदित किया ।।52।।
तदनंतर अच्छी भावना से युक्त दशानन ने चंद्रप्रभ जिनालय के महामनोहर गर्भगृह में प्रवेश किया। वहाँ उसने प्रधान रूप से जिनेंद्र भगवान की बड़ी भारी पूजा की ।।53।। रोमांच उत्पन्न करने वाले अनेक प्रकार के स्तवन पढ़ें, हाथ जोड़कर चूड़ामणि से सुशोभित मस्तक पर लगाये और ललाट तट तथा घुट तल का स्पर्श कर जिनेंद्र भगवान के पवित्र चरणों को देर तक नमस्कार किया ।।54-55।। तदनंतर परम अभ्युदय को धारण करनेवाला दशानन जिनमंदिर से बाहर निकलकर दैत्यराज मय के साथ आसन पर सुख से बैठा ।।56।। वार्तालाप के प्रकरण में जब वह विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले विद्याधरों का समाचार पूछ रहा था तब मंदोदरी उसके दृष्टिगोचर हुई ।।57।। मंदोदरी सुंदर लक्षणों से पूर्ण थी, सौभाग्य रूपी मणियों की मानो भूमि थी, उसके चरणकमलों का पृष्ठ भाग छोटे किंतु स्निग्ध नखों से ऊपर को उठा हुआ जान पड़ता था ।।58।। वह जिन ऊरुओं से सुशोभित थी वे केले के स्तंभ के समान थे, कामदेव के तरकस के समान जान पड़ते थे अथवा सौंदर्यरूपी जल के प्रवाह के समान मालूम होते थे ।।59।। वह जिस नितंब को धारण कर रही थी वह योग्य विस्तार से सहित था, ऊँचा उठा था, कामदेव के सभामंडप के समान जान पड़ता था और कुछ ऊँचे उठे हुए कूल्हों से मनोहर था ।।60।। उसकी कमर वच के समान मजबूत अथवा हीरा के समान देदीप्यमान थी, लज्जा के कारण उसका मुख नीचे की ओर था, स्वर्ण कलश के समान उसके स्तन थे और शिरीष के फूलों की माला के समान कोमल उसकी दोनों भुजाएँ थीं ।।61।। उसकी गरदन शंख जैसी रेखाओं से सुशोभित तथा कुछ नीचे की ओर झुकी थी, मुख पूर्णचंद्रमा के समान था और नाक तो ऐसी जान पड़ती थी मानो नेत्रों की कांतिरूपी नदी के बीच में पुल ही बांध दिया गया हो ।।62।। उसके स्वच्छ कपोल ओठों की लाल-लाल कांति से व्याप्त थे तथा उसकी आवाज वीणा, भ्रमर और उन्मत्त कोयल की आवाज के समान थी ।।63।। उसकी दृष्टि कामदेव की दूती के समान थी और उससे वह दिशाओं में नीलकमल, लालकमल तथा सफेद कमलों का समूह ही मानो बिखेरती थी ।।64।। उसका ललाट अष्टमी के चंद्रमा के समान था, कान सुंदर थे तथा चिकने, काले और बारीक बाल थे ।।65।। वह मुख तथा चरणों की शोभा से चलती-फिरती कमलिनी को, हाथों की शोभा से हस्तिनी को तथा गति और विभ्रम के द्वारा क्रमश: हंसी और सिंहनी को जीत रही थी ।।66।। विद्याओं ने दशानन का आलिंगन प्राप्त कर लिया और मैं ऐसी ही रह गयी इस प्रकार ईर्ष्या को धारण करती हुई लक्ष्मी ही मानो कमलरूपी घर को छोड़कर मंदोदरी के बहाने आ गयी थी ।।67।। कर्मरूपी विधाता ने संसार के समस्त सौंदर्य को इकट्ठा कर उसके बहाने स्त्री विषयक अपूर्व सृष्टि ही मानो रची थी ।।68।। वह सूर्य की किरणों का स्पर्श तथा राहु ग्रह के आक्रमण के भय से चंद्रमा को छोड़कर पृथ्वी पर आयी हुई कांति के समान जान पड़ती थी ।।69।। उसने अपने सीमंत (माँग) में जो मणि पहन रखा था उसकी कांति का समूह उसके मुख पर घूँघट का काम देता था। वह जिस हार से सुशोभित थी वह मुख के सौंदर्य के प्रवाह के समान जान पड़ता था ।।70।। उसने अपने कानों में मोती जड़ित बालियाँ पहन रखी थीं सो उनकी प्रभा से ऐसी जान पड़ती थी मानो सफेद सिंदुवार (निर्गुंडी) की मंजरी ही धारण कर रही हो ।।71।। चूँकि जघनस्थल काम के दर्पजन्य क्षोभ को सहन नहीं करता था इसलिए ही मानो उसे मणि समूह से सुशोभित कटिसूत्र से वेष्टित कर रखा था ।।72।। वह मंदोदरी अत्यंत सुंदर थी फिर भी दशानन उसे देख चिंता से दुःखी हो गया सो ठीक ही है क्योंकि धैर्यवान् मनुष्य भी प्राय: विषयों के अधीन हो जाते हैं ।।73।। मंदोदरी माधुर्य से युक्त थी इसलिए उस पर पड़ी दशानन की दृष्टि स्वयं भी मानो मधु से मत्त हो गयी थी, यही कारण था कि वह उस पर से हटा लेने पर भी नशा में झूमती थी ।।74।। दशानन विचारने लगा कि यह उत्तम स्त्री कौन हो सकती है? क्या यह श्री, लक्ष्मी, वृति, कीर्ति अथवा सरस्वती है? ।।75।। यह विवाहित है या अविवाहित? अथवा किसी के द्वारा की हुई माया है? अहो, यह तो समस्त स्त्रियों की शिरोधार्य सर्वश्रेष्ठ सृष्टि है ।।76।। यदि मैं इंद्रियों को हरने वाली इस कन्या को प्राप्त कर सकूँ तो मेरा जन्म कृतकृत्य हो जाये अन्यथा तृण के समान तुच्छ है ही ।।77।। इस प्रकार विचार करते हुए दशानन से अभिप्राय के जानने वाले मय ने पुत्री मंदोदरी को पास ले जाकर कहा कि इसके स्वामी आप हैं ।।78।। मय के इस वचन से दशानन को इतना आनंद हुआ मानो तत्क्षण अमृत से ही सींचा गया हो। उसके सारे शरीर में रोमांच उठ आये मानो संतोष के अंकुर ही उत्पन्न हुए हों ।।79।।
तदनंतर जहाँ क्षणभर में ही समस्त वस्तुओं का समागम हो गया था और कुटुंबीजन जहाँ आनंद से फूल रहे थे ऐसा इन दोनों का पाणिग्रहण- मंगल संपन्न हुआ ।।80।। तदनंतर दशानन कृतकृत्य होता हुआ मंदोदरी के साथ स्वयंप्रभ नगर गया। वह मंदोदरी को पाकर ऐसा मान रहा था मानो समस्त संसार की लक्ष्मी ही मेरे हाथ लग गयी है ।।81।। पुत्री की चिंता रूपी शल्य के निकल जाने से जिसे हर्ष हो रहा था तथा साथ ही उसके वियोग से जिसे शोक हो रहा था ऐसा राजा मय भी अपने योग्य स्थान में जाकर रहने लगा ।।82।। जिसके हाव-भाव सुंदर थे तथा जिसने अपने गुणों से पति का मन आकृष्ट कर लिया था ऐसी मंदोदरी ने क्रम से हजारों देवियों में प्रधानता प्राप्त कर ली ।।83।। समस्त इंद्रियों को प्रिय लगने वाली उस रानी मंदोदरी के साथ दशानन, इच्छित स्थानों में इंद्राणी के साथ इंद्र के समान क्रीड़ा करने लगा ।।84।। उत्कृष्ट कांति से सहित दशानन अपनी विद्याओं का प्रभाव जानने के लिए निम्नांकित बहुत सारे कार्य करता था ।।85।। वह एक होकर भी अनेक रूप धरकर समस्त स्त्रियों के साथ समागम करता था। कभी सूर्य के समान संताप उत्पन्न करता था तो कभी चंद्रमा के समान चाँदनी छोड़ने लगता था ।।86।। कभी अग्नि के समान ज्वालाएँ छोड़ता था तो कभी मेघ के समान वर्षा करने लगता था। कभी वायु के समान बड़े-बड़े पहाड़ों को चला देता था तो कभी इंद्र जैसा प्रभाव जमाता था ।।87।। कभी समुद्र बन जाता था, कभी पर्वत हो जाता था, कभी मदोन्मत्त हाथी बन जाता था और कभी महावेगशाली घोड़ा हो जाता था ।।88।। वह क्षण-भर में पास आ जाता था, क्षण-भर में दूर पहुँच जाता था, क्षण-भर में दृश्य हो जाता था, क्षण-भर में अदृश्य हो जाता था, क्षण-भर में महान् हो जाता था, क्षणभर में सूक्ष्म हो जाता था, क्षण-भर में भयंकर दिखाई देने लगता था और क्षण भर में भयंकर नहीं रहता था ।।89।। इस प्रकार रमण करता हुआ वह एक बार मेघरव नामक पर्वत पर गया और वहाँ स्वच्छ जल से भरी वापिका के पास पहुँचा ।।90।। उस वापिका में कुमुद, नीलकमल, लालकमल, सफेद कमल तथा अन्यान्य प्रकार के कमल फूल रहे थे और उसके किनारे पर क्रौंच, हंस, चकवा तथा सारस आदि पक्षी घूम रहे थे ।।91।। उसके तट हरी-हरी कोमल घास-रूपी वस्त्र से आच्छादित थे, सीढ़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं और उसका जल तो ऐसा जान पड़ता था, मानो सूर्य की किरणों से पिघलकर आकाश ही उसमें भर गया हो ।।92।। अर्जुन (कोहा) आदि बड़े-बड़े ऊँचे वृक्षों से उसका तट व्याप्त था। जब कभी उसमें मछलियों के समूह ऊपर को उछलते थे तब उनसे जल के छींटे ऊपर उड़ने लगते थे ।।93।। अत्यंत भंगुर अर्थात् जल्दी-जल्दी उत्पन्न होने और मिटने वाली तरंगों से वह ऐसी जान पड़ती थी मानो भौंहें ही चला रही हो तथा पक्षियों के मधुर शब्द से ऐसी मालूम होती थी मानो वार्तालाप ही कर रही हो ।।94।। उस वापिका पर परम शोभा को धारण करने वाली छह हजार कन्याएँ कीड़ा में लीन थीं सो दशानन ने उन सबको देखा ।।95।। उनमें से कुछ कन्याएँ तो दूर तक उड़ने वाले जल के फव्वारे से क्रीड़ा कर रही थीं और कुछ अपराध करने वाली सखियों से दूर हटकर अकेली-अकेली ही घूम रही थीं ।।96।। कोई एक कन्या शेवाल से सहित कमलों के समूह में बैठकर दाँत दिखा रही थी और उसकी सखियों के लिए कमल की आशंका उत्पन्न कर रही थी ।।97।। कोई एक कन्या पानी को हथेली पर रख दूसरे हाथ की हथेली से उसे पीट रही थी और उससे मृदंग जैसा शब्द निकल रहा था। इसके सिवाय कोई एक कन्या भ्रमरों के समान गाना गा रही थी। तदनंतर वे सबकी सब कन्याएँ एक साथ दशानन को देखकर: जलक्रीड़ा भूल गयीं और आश्चर्य से चकित रह गयीं ।।98-99।। दशानन क्रीड़ा करने की इच्छा से उनके बीच में चला गया तथा वे कन्याएँ भी उसके साथ क्रीड़ा करने के लिए बड़े हर्ष से तैयार हो गयीं ।।100।। क्रीड़ा करते-करते ही वे सब कन्याएँ एक साथ काम के बाणों से आहत (घायल) हो गयीं और दशानन पर उनकी दृष्टि ऐसी बँधी कि वह फिर अन्यत्र संचार नहीं कर सकी ।।101।। उस अपूर्व समागम के कारण उन कन्याओं का कामरूपी रस लज्जा से मिश्रित हो रहा था अत: उनका मन दोला पर आरूढ़ हुए के समान अत्यंत आकुल हो रहा था ।।102।। अब उन कन्याओं में जो मुख्य हैं उनके नाम सुनो। राजा सुर सुंदर से सर्वश्री नाम को स्त्री में उत्पन्न हुई पद्मावती नाम को शुभ कन्या थी। उसके नेत्र किसी बड़े नीलकमल की कलिका के समान थे ।।103।। राजा बुध की मनोवेगा रानी से उत्पन्न अशोकलता नाम की कन्या थी जो नूतन अशोकलता के समान थी ।।104।। राजा कनक से संख्या नामक रानी से उत्पन्न हुई विद्युत्प्रभा नाम की श्रेष्ठ कन्या थी जो इतनी सुंदरी थी कि अपनी प्रभा से बिजली को भी लज्जा प्राप्त करा रही थी ।।105।। ये कन्याएँ महाकुल में उत्पन्न हुई थीं और शोभा से उन सबमें श्रेष्ठ थीं। विभूति से तो ऐसी जान पड़ती थीं मानो तीनों लोक की सुंदरता ही रूप धरकर इकट्ठी हुई हो ।।106।। उक्त तीनों कन्याएँ अन्य समस्त कन्याओं के साथ दशानन के समीप आयीं सो ठीक ही है क्योंकि लज्जा तभी तक सही जाती है जब तक कि काम की वेदना असह्य न हो उठे ।।107।। तदनंतर किसी प्रकार की शंका से रहित दशानन ने उन सब कन्याओं को गंधर्व विधि से उस प्रकार विवाह लिया कि जिस प्रकार चंद्रमा ताराओं के समूह को विवाह लेता है ।।108।।
तदनंतर मैं पहले पहुंचूं, मैं पहले पहुँचूँ इस प्रकार परस्पर में होड़ लगाकर वे कन्याएँ दशानन के साथ पुन: क्रीड़ा करने लगीं ।।109।। जो कन्या दशानन के साथ क्रीड़ा करती थी वही भली मालुम होती थी सो ठीक ही है क्योंकि चंद्रमा से रहित ताराओं की क्या शोभा है? ।।110।। तदनंतर जो कंचुकी इन कन्याओं के साथ वापिका पर आये थे उन्होंने शीघ्र ही जाकर कन्याओं के पिता से दशानन का यह वृत्तांत कह सुनाया ।।111।। तब कन्याओं के पिता ने दशानन को नष्ट करने के लिए ऐसे क्रूर पुरुष भेजे कि जो क्रोधवश ओठों को डंस रहे थे तथा बद्ध भौंहों के अग्रभाग से भयानक मालूम होते थे ।।112।। वे सब एक ही साथ अनेक प्रकार के शस्त्र चला रहे थे पर दशानन ने उन्हें भौंह उठाते ही जीत लिया ।।113।। तदनंतर जिनका सारा शरीर भय से कांप रहा था तथा जिनके हाथ से शस्त्र छूट गये थे ऐसे वे सब पुरुष राजा सुरसुंदर के पास जाकर कहने लगे ।।114।। कि हे नाथ! चाहे हमारा जीवन हर लो, चाहे हमारे हाथपैर तथा गरदन काट लो पर हम उस पुरुष को नष्ट करने में समर्थ नहीं हैं ।।115।। इंद्र के समान सुंदर तथा कांति से चंद्रमा की तुलना करनेवाला कोई एक धीर-वीर मनुष्य कन्याओं के बीच में बैठा हुआ सुशोभित हो रहा है ।।116।। सो जब वह क्रुद्ध होता है तब उसकी दृष्टि को इंद्र आदि देव भी सहन नहीं कर सकते फिर हमारे जैसे क्षुद्र प्राणियों की तो बात ही क्या है ।।117।। रथनूपुर नगर के राजा इंद्र आदि बहुत से उत्तम पुरुष हमने देखे हैं पर यह उन सबमें परम आदर को प्राप्त है ।।118।। यह सुनकर बहुत भारी क्रोध से जिसका मुँह लाल हो रहा था ऐसा राजा सुरसुंदर राजा कनक और बुध के साथ तैयार होकर बाहर निकला ।।119।। इनके सिवाय और भी बहुत से शूरवीर विद्याधरों के अधिपति शस्त्रों की किरणों से आकाश को देदीप्यमान करते हुए बाहर निकले ।।120।। तदनंतर उन्हें आता देख, जिनका मन भय से व्याकुल हो रहा था ऐसी वे विद्याधर कन्याएँ दशानन से बोली कि हे नाथ! आप हमारे निमित्त से अत्यंत संशय को प्राप्त हुए हैं। यथार्थ में हम सब पुण्यहीन तथा शुभलक्षणों से रहित हैं ।।121-122।। हे नाथ! उठो और किसी की शरण में जाओ। हम लोगों पर प्रसन्न होओ और शीघ्र ही आकाश में उड़कर अपने दुर्लभ प्राणों की रक्षा करो ।।123।। अथवा ये क्रूर पुरुष जब तक आपका शरीर नहीं देख लेते हैं उसके पहले ही इस जिन-मंदिर में छिपकर बैठ रहो ।।124।। कन्याओं के यह दीन वचन सुनकर तथा सेना को निकट देख दशानन ने अपने कुमुद के समान सफेद नेत्र कमल के समान लाल कर लिये ।।125।। उसने कन्याओं से कहा कि निश्चय ही आप हमारा पराक्रम नहीं जानती हो इसलिए ऐसा कह रही हो। जरा सोचो तो सही बहुत से कौए एक साथ मिलकर भी गरुड का क्या कर सकते हैं? ।।126।। जिसकी सफेद जटाएँ फहरा रही हैं ऐसा अकेला सिंह का बालक क्या मदोन्मत्त हाथियों के झुंड को नष्ट नहीं कर देता? ।।127।। दशानन के वीरता भरे वचन सुन उन कन्याओं ने फिर कहा कि हे नाथ! यदि आप ऐसा मानते हैं तो हमारे पिता, भाई तथा कुटुंबीजनों की रक्षा कीजिए, अर्थात् युद्ध में उन्हें नहीं मारिए ।।128।। हे प्रिया जनो! ऐसा ही होगा, तुम सब भयभीत न होओ इस प्रकार दशानन जब तक उन कन्याओं को सांतवना देता है कि तब तक वह सेना आ पहुँची ।।125।।
तदनंतर क्षण-भर में विद्या निर्मित विमान पर आरूढ़ होकर रावण आकाश में जा पहुँचा और दाँतों से ओठ चबाने लगा ।।130।। दशानन के वे ही सब अवयव थे पर युद्धरूपी महोत्सव को पाकर इतने अधिक फूल गये और रोमांचों से कर्कश हो गये कि आकाश में बड़ी कठिनाई से समा सके ।।131।। तदनंतर जिस प्रकार मेघ किसी पर्वत पर बड़ी मोटी जल की धाराएँ छोड़ते हैं उसी प्रकार सब योद्धा दशानन के ऊपर शस्त्रों के समूह छोड़ने लगे ।।132।। तब दशानन ने शिलाएँ वर्षाना शुरू किया। उसने कितनी ही शिलाओं से तो शत्रुओं के शस्त्र समूह को रोका और कितनी ही शिलाओं से शत्रुसमूह को भयभीत किया ।।133।। इन बेचारे दीन-हीन विद्याधरों को मारने से मुझे क्या लाभ है? ऐसा विचारकर उसने सुरसुंदर, कनक और बुध इन तीन प्रधान विद्याधरों को अपनी दृष्टि का विषय बनाया अर्थात् उनकी ओर देखा ।।134।। तदनंतर उसने तामस शस्त्र से मोहित कर उन्हें निश्चेष्ट बना दिया और नागपाश में बाँधकर तीनों को तीन कन्याओं के सामने रख दिया ।।135।। तब कन्याओं ने उन्हें छुडवाकर उनका सत्कार कराया और तुम्हें शूरवीर वर प्राप्त हुआ है इस समाचार से उन्हें हर्षित भी किया ।।136।। तदनंतर उन्होंने दशानन और उन कन्याओं का विधिपूर्वक पुन: पाणिग्रहण किया। इस उपलक्ष्य में तीन दिन तक विद्या जनित महोत्सव होते रहे ।।137।। तत्पश्चात् ये सब दशानन की अनुमति लेकर अपने-अपने घर चले गये और दशानन भी मंदोदरी के गुणों से आकृष्ट हुआ स्वयंप्रभ नगर चला गया ।।138।।
तदनंतर श्रेष्ठ कांति से युक्त दशानन को अनेक स्त्रियों सहित आया देख, बांधवजन परम हर्ष को प्राप्त हुए। हर्षातिरेक से उनके नेत्र विस्तृत हो गये ।।139।। भानुकर्ण और विभीषण तथा अन्य मित्र और इष्टजन दूर से ही उसे देख अगवानी करने के लिए नगर से बाहर निकले ।।140।। उन सबसे घिरा दशानन, स्वयंप्रभ नगर में प्रविष्ट हो मनचाही क्रीड़ा करने लगा और भानुकर्ण विभीषण आदि बंधुजन भी उत्तम सुख को प्राप्त हुए ।।141।। अथानंतर कुंभपुर नगर में राजा महोदर की सुरूपाक्षी नामा स्त्री से उत्पन्न तडिन्माला नाम की कन्या थी सो भानुकर्ण ने बड़ी प्रसन्नता से प्राप्त की। सुंदर हाव-भाव दिखाने वाली तडिन्माला के साथ भानुकर्ण रतिरूपी सागर में निमग्न हो गया ।।142-143।। एक बार कुंभपुर नगर पर किसी प्रबल शत्रु ने आक्रमण कर हल्ला मचाया तब श्वसुर के स्नेह से भानुकर्ण के कान कुंभपुर पर पड़े अर्थात् वहाँ के दुःख भरे शब्द इसने सुने तब से संसार में इसका कुंभकर्ण नाम प्रसिद्ध हुआ। इसकी बुद्धि सदा धर्म में आसक्त रहती थी, यह शूरवीर था तथा कलाओं में निपुण था ।।144-145।। दुष्टजनों ने इसके विषय में अन्यथा ही निरूपण किया है। वे कहते हैं कि यह मांस और खून का भोजन कर जीवित रहता था तथा छह माह की निद्रा लेता था सो इसका आहार तो इच्छानुसार परम पवित्र मधुर और सुगंधित होता था। प्रथम ही अतिथियों को संतुष्ट कर बंधुजनों के साथ आहार करता था ।।146-147।। संध्याकाल शयन करने का और प्रातःकाल उठने का समय है सो भानुकर्ण इसके बीच में ही निद्रा लेता था। इसका अन्य समय धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत होता था ।।148।। जो परमार्थज्ञान से रहित पापी मनुष्य, सत्पुरुषों का अन्यथा वर्णन करते हैं वे दुर्गति में जानेवाले हैं। ऐसे लोगों को धिक्कार है ।।149।।
अथानंतर दक्षिण श्रेणी में ज्योतिप्रभ नाम का नगर है। वहाँ विशुद्ध कमल राजा राज्य करता था जो मय का महामित्र था ।।150।। उसकी नंदनमाला नाम की स्त्री से राजीवसरसी नाम की कन्या उत्पन्न हुई थी, वह विभीषण को प्राप्त हुई ।।151।। देवों के समान उत्कृष्ट आकार को धारण करनेवाला बुद्धिमान् विभीषण, लक्ष्मी के समान सुंदरी उस राजीवसरसी स्त्री के साथ क्रीड़ा करता हुआ तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ ।।152।। तदनंतर समय पाकर मंदोदरी ने गर्भ धारण किया। उस समय उसके चित्त में जो दोहला उत्पन्न होते थे उनकी पूर्ति तत्काल की जाती थी। उसके हाव―भाव भी मन को हरण करने वाले थे ।।153।। राजा मय पुत्री को अपने घर ले आया वहाँ उसने उस उत्तम बालक को जन्म दिया जो समस्त पृथ्वीतल में इंद्रजित् नाम से प्रसिद्ध हुआ ।।154।। लोगों को आनंदित करनेवाला इंद्रजित् अपने नाना के घर ही वृद्धि को प्राप्त हुआ। वहाँ वह सिंह के बालक के समान उत्तम क्रीड़ा करता हुआ सुख से रहता था ।।155।। तदनंतर मंदोदरी पुत्र के साथ अपने भर्त्ता दशानन के पास लायी गयी सो अपने तथा पुत्र के वियोग से वह पिता को दुःख पहुँचाने वाली हुई ।।156।। दशानन पुत्र का मुख देख परम आनंद को प्राप्त हुआ। यथार्थ में पुत्र से बढ़कर प्रीति का और दूसरा स्थान नहीं है ।।157।। कालक्रम से मंदोदरी ने फिर गर्भ धारण किया सो पुन: पिता के समीप भेजी गयी। अब की बार वहाँ उसने सुखपूर्वक मेघवाहन नामक पुत्र को जन्म दिया ।।158।। तदनंतर वह पुन: पति के पास आयी और पति के मन को वश कर इच्छानुसार भोगरूपी सागर में निमग्न हो गयी ।।159।। सुंदर चेष्टाओं के धारी दोनों बालक आत्मीयजनों का आनंद बढ़ाते हुए तरुण अवस्था को प्राप्त हुए। उस समय उनके नेत्र किसी महावृषभ के नेत्रों के समान विशाल हो गये थे ।।160।।
अथानंतर वैश्रवण जिन नगरों का राज्य करता था, कुंभकर्ण हजारों बार जा-जाकर उन नगरों को विध्वस्त कर देता था ।।161।। उन नगरों में जो भी मनोहर रत्न, वस्त्र, कन्याएँ अथवा गणिकाएँ होती थी शूरवीर कुंभकर्ण उन्हें स्वयंप्रभ नगर ले आता था ।।162।। तदनंतर जब वैश्रवण को कुंभकर्ण की इस बाल चेष्टा का पता चला तब उसने कुपित होकर सुमाली के पास दूत भेजा। वैश्रवण इंद्र का बल पाकर अत्यंत गर्वित रहता था ।।163।। तदनंतर द्वारपाल के द्वारा समाचार भेजकर दूत ने भीतर प्रवेश किया। दूत लोकाचार के अनुसार योग्य विनय को प्राप्त था ।।164।। दूत का नाम वाक्यालंकार था सो उसने दशानन के समक्ष ही सुमाली से इस प्रकार क्रम से कहना शुरू किया ।।165।। जिनकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है ऐसे वैश्रवण महाराज ने आप से जो कहा है उसे चित्त में धारण करो ।।166।। उन्होंने कहा है कि तुम पंडित हो, कुलीन हो, लोक व्यवहार के ज्ञाता हो, महान् हो, अकार्य के समागम से भयभीत हो और सुमार्ग का उपदेश देने वाले हो ।।167।। सो तुम्हें लड़कों जैसी चपलता करने वाले अपने प्रमादी पौत्र को मना करना उचित है ।।168।। तिर्यंच और मनुष्यों में प्राय: यही तो भेद है कि तिर्यंच कृत्य और अकृत्य को नहीं जानते हैं पर मनुष्य जानते हैं ।।169।। जिनका चित्त दृढ़ है ऐसे मनुष्य बिजली के समान भंगुर किसी विभूति के प्राप्त होने पर भी पूर्व वृत्तांत को नहीं भूलते हैं ।।170।। तुम्हारे कुल का प्रधान माली मारा गया इसी से समस्त कुल को शांति धारण करना चाहिए थी क्योंकि ऐसा कौन पुरुष होगा जो अपने कुल का निर्मूल नाश करने वाले काम करेगा ।।171।। शत्रुओं को नष्ट करने वाले इंद्र का वह प्रताप जो कि समुद्र की लहर-लहर में व्याप्त हो रहा है तुमने क्यों भुला दिया? जिससे कि अनुचित काम करने की चेष्टा करते हो ।।172।। तुम मेंढक के समान हो और इंद्र भुजंग के समकक्ष है, सो तुम इंद्ररूपी भुजंग के उस मुखरूपी बिल में क्रीड़ा कर रहे हो जो दाढ़रूपी कंटकों से व्याप्त है तथा विषरूपी अग्नि के तिलगे छोड़ रहा है ।।173।। यदि तुम इस चोर बालक पर नियंत्रण करने में समर्थ नहीं हो तो आज ही मुझे सौंप दो मैं स्वयं इसका नियंत्रण करूँगा ।।174।। यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो अपने पौत्र को जेलखाने के अंदर बेड़ियों से बद्ध तथा अनेक प्रकार को यातना सहते हुए देखोगे ।।175।। जान पड़ता है कि तुमने अलकारोदयपुर (पाताललंका) को छोड़कर बहुत समय तक बाहर रह लिया है अब फिर से उसी बिल में प्रवेश करना चाहते हो ।।176।। यह निश्चित समझ लो कि मेरे या इंद्र के कुपित होने पर पृथ्वी में तुम्हारा कोई शरण नहीं है, जिस प्रकार जरा-सी हवा चलने से पानी का बबूला नष्ट हो जाता है उसी प्रकार तुम भी नष्ट हो जाओगे ।।177।।
तदनंतर उस दूत के कठोर वचनरूपी वायु के वेग से जिसका मनरूपी जल आघात को प्राप्त हुआ था ऐसा दानरूपी महासागर परम क्षोभ को प्राप्त हुआ ।।178।। दूत के वचन सुनते ही दशानन की ऐसी दशा हो गयी मानो किसी ने उसके अंग पकड़कर झकझोर दिया हो, उसके प्रत्येक अंग से पसीना छूटने लगा और उसकी अत्यंत लाल दृष्टि ने समस्त आकाश को लिप्त कर दिया ।।179।। तदनंतर आकाश में गूंजने वाले स्वर से दिशाओं को बहरा करता हुआ दशानन, प्रतिध्वनि से हाथियों को मदरहित करता हुआ बोला ।।180।। कि यह वैश्रवण कौन है? अथवा इंद्र कौन कहलाता है? जो कि हमारी वंश-परंपरा से चली आयी नगरी पर अधिकार किये बैठा है? ।।181।। निर्लज्ज नीच पुरुष अपने भृत्यों के सामने इंद्र जैसा आचरण करता है सो मानो कौआ बाज बन रहा है और भगाल अष्टापद के समान आचरण कर रहा है ।।182।। अरे कुदूत! हमारे सामने निशंक होकर कठोर वचन बोल रहा है सो मैं अभी क्रोध के लिए तेरे मस्तक की बलि चढ़ाता हूँ ।।183।। यह कहकर उसने म्यान से तलवार खींची जिससे आकाशरूपी सरोवर ऐसा दिखने लगा मनो नीलकमल रूपी वन से ही व्याप्त हो गया हो ।।184।। दशानन की वह तलवार हवा से बात कर रही थी, क्रोध से मानो काँप रही थी, ऐसी जान पड़ती थी मानो तलवार का रूप धरकर यमराज ही वहाँ आया हो, अथवा मानो हिंसा का बेटा ही हो ।।185।। दशानन ने वह तलवार ऊपर को उठायी ही थी कि विभीषण ने बीच में आकर रोक दिया और बड़े आदर से इस प्रकार समझाया कि ।।186।। जिसने अपना शरीर बेच दिया है और जो तोते के समान कही बात को ही दुहराता हो ऐसे इस पापी दीन-हीन मृत्य का अपराध क्या है? ।।187।। दूत जो कुछ वचन बोलते हैं सो पिशाच की तरह हृदय में विद्यमान अपने स्वामी से प्रेरणा पाकर ही बोलते हैं। यथार्थ में दूत यंत्रमयी पुरुष के समान पराधीन है ।।188।। इसलिए हे आर्य! प्रसन्न होओ और दुःखी प्राणी पर दया करो। क्षुद्र का वध करने से संसार में अकीर्ति ही फैलती है ।।189।। आपकी तलवार तो शत्रुओं के ही सिर पर पड़ेगी क्योंकि गरुड जल में रहने वाले निर्विष साँपों को मारने के लिए प्रवृत्त नहीं होता ।।190।। इस प्रकार न्याय-नीति को जानने वाले सत्पुरुष विभीषण, सदुपदेशरूपी जल से जब तक दशानन की क्रोधाग्नि को शांत करता है तब तक अन्य लोगों ने उस दूत के पैर खींचकर उसे सभाभवन से शीघ्र ही बाहर निकाल दिया। आचार्य कहते हैं कि दुःख के लिए ही जिसकी रचना हुई है ऐसे मृत्य को धिक्कार हो ।।191-192।। दूत ने जाकर अपनी यह सब दशा वैश्रवण को बतला दी और दशानन के मुख से निकली वह अभद्र वाणी भी सुना दी ।।193।। दूत के वचनरूपी ईंधन से वैश्रवण की क्रोधाग्नि भभक उठी। इतनी भभकी कि वैश्रवण के मन में मानो समा नहीं सकी इसलिए उसने भृत्यजनों के चित्त में बाँट दी अर्थात् दूत के वचन सुनकर वैश्रवण कुपित हुआ और साथ ही उसके भृत्य भी बहुत कुपित हुए ।।194।। उसने तुरही के कठोर शब्दों से युद्ध की सूचना करवा दी जिससे मणिभद्र आदि योद्धा शीघ्र ही युद्ध के लिए तैयार हो गये ।।195।। तदनंतर जिनके हाथों में कृपाण, भाले तथा चक्र आदि शस्त्र सुशोभित हो रहे थे ऐसे यक्षरूपी योद्धाओं से घिरा हुआ वैश्रवण युद्ध के लिए निकला ।।196।। इधर अंजनगिरि का आकार धारण करने वाले बड़े-बड़े काले हाथियों, संध्या की लालिमा से युक्त मेघों के समान दिखने वाले बड़े-बड़े रथों, जिनके दोनों ओर चमर ढुल रहे थे तथा जो वेग से वायु को जीत रहे थे ऐसे घोड़ों, देवभवन के समान सुंदर तथा ऊँची उड़ान भरने वाले विमानों तथा जो घोड़े, विमान, हाथी और रथ―सभी को उल्लंघन कर रहे थे अर्थात् इन सबसे आगे बढ़कर चल रहे थे, जिनका प्रताप बहुत भारी था, जो अधिकता के कारण एक दूसरे को धक्का दे रहे थे तथा समुद्र के समान गरज रहे थे ऐसे पैदल सैनिकों और भानुकर्ण आदि भाइयों के साथ महाबलवान् दशानन पहले से ही बाहर निकलकर बैठा था। युद्ध का निमित्त पाकर दशानन के हृदय में बड़ा उत्सव- उल्लास हो रहा था ।।197-200।। तदनंतर गुंज नामक पर्वत के शिखर पर दोनों सेनाओं का समागम हुआ। ऐसा समागम कि जिसमें शस्त्रों के पड़ने से अग्नि उत्पन्न हो रही थी ।।201।। तदनंतर तलवारों की खनखनाहट, घोड़ों―की हिनहिनाहट, पैदल सैनिकों की आवाज, हाथियों की गर्जना, परस्पर के समागम से उत्पन्न रथों की सुंदर चीत्कार, तुरही की बुलंद आवाज और बाणों की सनसनाहट से उस समय कोई मिश्रित― विलक्षण ही शब्द हो रहा था। उसकी प्रतिध्वनि आकाश और पृथिवी के बीच गूँज रही थी तथा योद्धाओं में उत्तम मद उत्पन्न कर रही थी ।।202-204।। इस तरह जिनका आकार यमराज के मुख के समान था तथा जिनकी धार पैनी थी, ऐसे चक्रों, यमराज की जिह्वा के समान दिखने वाली तथा खून की बूँदें बरसाने वाली तलवारों, उसके रोम के समान दिखने वाले भाले, यमराज की प्रदेशिनी अँगुली की उपमा धारण रहनेवाले बाणों, यमराज की भुजा के आकार परिघ नामक शस्त्रों और उनकी मुट्ठी के समान दिखने वाले मुद्गरों से दोनों सेनाओं में बड़ा भारी युद्ध हुआ। उस युद्ध से जहाँ पराक्रमी मनुष्यों को हर्ष हो रहा था वहाँ कातर मनुष्यों को भय भी उत्पन्न हो रहा था। दोनों ही सेनाओं के शूरवीर अपना सिर दे-देकर यशरूपी महाधन खरीद रहे थे ।।205-207।। तदनंतर चिरकाल तक यक्षरूपी भटों के द्वारा अपनी सेना को खेद खिन्न देख दशानन उसे संभालने के लिए तत्पर हुआ ।।208।। तदनंतर जिसके ऊपर सफेद छत्र लग रहा था और उससे जो उस काले मेघ के समान दिखाई देता था जिस पर कि चंद्रमा का मंडल चमक रहा था, जो धनुष से सहित था और उससे इंद्रधनुष सहित श्याम मेघ के समान जान पड़ता था, सुवर्णमय कवच से युक्त होने के कारण जो बिजली से युक्त श्याम मेघ के समान दिखाई देता था, जो नाना रत्नों के समागम से सुशोभित मुकुट धारण कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो कांति से आकाश को आच्छादित करता हुआ वज्र से युक्त श्याम मेघ ही हो, ऐसे दशानन को आता हुआ देख यक्षों की आँखें चौंधिया गयीं, उनका सब ओज नष्ट हो गया, युद्ध से विमुख हो भागने की चेष्टा करने लगे और क्षण-भर में उनका युद्ध का अभिप्राय समाप्त हो गया ।।206-212।। तदनंतर जिनके चित्त भय से व्याकुल हो रहे थे ऐसे यक्षों के पैदल सैनिक महाशब्द करते हुए जब भ्रमर में पड़े के समान घूमने लगे तब यक्षों के बहुत सारे अधिपति अपनी सेना के सामने आये और उन्होंने सेना को फिर से युद्ध के सम्मुख किया ।।213-214।। तदनंतर जिस प्रकार सिंह आकाश में उछल-उछलकर मत्त हाथियों को नष्ट करता है उसी प्रकार दशानन यक्षाधिपतियों को नष्ट करने के लिए तत्पर हुआ ।।215।। शस्त्र रूपी ज्वालाओं से युक्त दशानन रूपी अग्नि, क्रोधरूपी वायु से प्रेरित होकर शत्रु सेना रूपी वन में वृद्धि को प्राप्त हो रही थी ।।216।। उस समय पृथिवी, रथ, घोड़े, हाथी अथवा विमान पर ऐसा एक भी आदमी नहीं बचा था जो रावण के बाणों से सछिद्र न हुआ हो ।।217।।
तदनंतर युद्ध में दशानन को सामने आता देख वैश्रवण, क्षण-भर में भाई के उत्तम स्नेह को प्राप्त आ ।।218।। साथ ही अनुपम और राज्यलक्ष्मी से उदासीनता को प्राप्त हुआ। जिस प्रकार पहले बाहुबलि अपने भाई भरत से द्वेष कर पछताये उसी प्रकार वैश्रवण भी भाई दशानन से विरोध कर पछताया। वह मन ही मन शांत अवस्था को प्राप्त होता हुआ विचार करने लगा कि जिस संसार में प्राणी नाना योनियों में चक्र की भाँति परिवर्तन करते रहते हैं वह संसार दुःख का पात्र है, कष्ट स्वरूप है, अत: उसे धिक्कार हो ।।219-220।। देखो, ऐश्वर्य में मत्त होकर मैंने यह कौन-सा कार्य प्रारंभ कर रखा है कि जिसमें अहंकारवश अपने भाई का विध्वंस किया जाता हूँ ।।221।। वह इस प्रकार उत्कृष्ट वचन कहने लगा कि हे दशानन! सुन, क्षणिक राज्यलक्ष्मी से प्रेरित होकर यह कौन सा पापकर्म किया जा रहा है? ।।222।। मैं तेरी मौसी का पुत्र हूँ अत: तुझ पर सगे भाई जैसा स्नेह करता हूँ। भाइयों के साथ अनुचित व्यवहार करना उचित नहीं है ।।223।। यह प्राणी मनोहर विषयों की आशा से प्राणियों का वध कर बहुत भारी दुःखों से युक्त भयंकर नरक में जाता है ।।224।। जिस प्रकार कोई मनुष्य एक दिन का तो राज्य प्राप्त करे और उसके फलस्वरूप वर्ष भर मृत्यु को प्राप्त हो उसी प्रकार निश्चय से यह प्राणी विषयों के द्वारा क्षणस्थायी सुख प्राप्त करता हैं और उसके फलस्वरूप अपरिमित काल तक दु:ख प्राप्त करता है ।।225।। यथार्थ में यह जीवन नेत्रों की टिमकार के समान क्षणभंगुर है सो हे दशानन! क्या तू यह जानता नहीं है जिससे भोगों के निमित्त यह कार्य कर रहा है? ।।226।। तब दयाहीन दशानन ने हँसते हुए कहा कि हे वैश्रवण! यह धर्म श्रवण करने का समय नहीं है ।।227।। मदोन्मत्त हाथियों पर चढ़े तथा तलवार को हाथ में धारण करने वाले मनुष्य तो शत्रु का संहार करते हैं न कि धर्म का उपदेश ।।228।। व्यर्थ ही बहुत क्यों बक रहा है? या तो तलवार के मार्ग में खड़ा हो या मेरे लिए प्रणाम कर। तेरी तीसरी गति नहीं है ।।229।। अथवा तू धनपाल है सो मेरे धन की रक्षा कर। क्योंकि जिसका जो अपना कार्य होता है उसे करता हुआ वह लज्जित नहीं होता ।।230।। तब वैश्रवण फिर दशानन से बोला कि निश्चय ही तेरी आयु अल्प रह गयी है इसीलिए तू इस प्रकार क्रूर वचन बोल रहा है ।।231।। इसके उत्तर में रोष से रूषित मन को धारण करने वाले दशानन ने फिर कहा कि यदि तेरी सामर्थ्य है तो मार ।।232।। तब वैश्रवण ने कहा कि तू बड़ा है इसलिए प्रथम तू ही मुझे मार क्योंकि जिनके शरीर में घाव नहीं लगता ऐसे शूर वीरों का पराक्रम वृद्धि को प्राप्त नहीं होता ।।233।। तदनंतर मध्याह्न के समय जिस प्रकार सूर्य अपनी किरण पृथिवी के ऊपर छोड़ता है उसी प्रकार वैश्रवण ने दशानन के ऊपर बाण छोड़े ।।234।। तत्पश्चात् दशानन ने अपने बाणों से उसके बाण छेद डाले और बिना किसी आकुलता के लगातार छोड़े हुए बाणों से उसके ऊपर मंडप सा तान दिया ।।235।। तदनंतर अवसर पाकर वैश्रवण ने अर्धचंद्र बाण से दशानन का धनुष तोड़ डाला और उसे रथ से च्युत कर दिया ।।236।। तत्पश्चात् अद्भुत पराक्रम का धारी दशानन मेघ के समान शब्द करने वाले मेघनाद नामा दूसरे रथ पर वेग से चढ़कर वैश्रवण के समीप पहुँचा ।।237।। वहाँ बहुत भारी क्रोध से उसने जोर-जोर से चलाये हुए उल्का के समान आकार वाले वज्रदंडों से वैश्रवण का कवच चूर-चूर कर डाला ।।238।। और सफेद माला को धारण करने वाले उसके हृदय में वेगशाली भिंडिमाल से इतने जमकर प्रहार किया कि वह वहीं मूर्छित हो गया ।।239।। यह देख वैश्रवण की सेना में रुदन का महाशब्द होने लगा और राक्षसों की सेना में हर्ष के कारण बड़ा भारी कल-कल शब्द होने लगा ।।240।। तब अतिशय दुखी और वीर शय्या पर पड़े वैश्रवण को उसके भृत्य गण शीघ्र ही यक्षपुर ले गये ।।241।। रावण भी शत्रु को पराजित जान युद्ध से विमुख हो गया सो ठीक ही है क्योंकि वीर मनुष्यों का कृतकृत्यपना शत्रुओं के पराजय से ही हो जाता है, धनादि की प्राप्ति से नहीं ।।242।।
अथानंतर वैद्यों ने वैश्रवण का उपचार किया सो वह पहले के समान स्वस्थ शरीर को प्राप्त हो गया। स्वस्थ होने पर उसने मन में विचार किया ।।243।। कि इस समय मैं पुष्परहित वृक्ष, फूटे हुए घट अथवा कमल रहित सरोवर के समान हूँ ।।244।। जब तक मनुष्य मान को धारण करता है तभी तक संसार में जीवित रहते हुए उसे सुख होता है। इस समय मेरा वह मान नष्ट हो गया है इसलिए मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता हूँ ।।245।। चूँकि यह विषयजन्य सुख अनित्य है, थोड़ा है, सांतराय है और दुःखों से सहित है इसलिए सत्पुरुष उसकी चाह नहीं रखते ।।246।। इसमें किसी का अपराध नहीं है, यह तो प्राणियों ने अन्य जन्म में जो कर्म कर रखे हैं उन्हीं की समस्त चेष्टा है ।।247।। दुःख अथवा सुख के दूसरे लोग निमित्त मात्र, इसलिए संसार की स्थिति के जानने वाले विद्वान् उनसे कुपित नहीं होते हैं अर्थात् निमित्त के प्रति हर्ष-विषाद नहीं करते हैं ।।248।। वह दशानन मेरा कल्याणकारी मित्र है कि जिसने मुझ दुर्बुद्धि को गृहवास रूपी महाबंधन से मुक्त करा दिया ।।249।। भानुकर्ण भी इस समय मेरा परम हितैषी हुआ है कि जिसके द्वारा किया हुआ संग्राम मेरे परम वैराग्य का कारण हुआ है ।।250।। इस प्रकार विचारकर उसने दिगंबरी दीक्षा धारण कर ली और समीचीन तप की आराधना कर परम धाम प्राप्त किया ।।251।।
इधर दशानन भी अपने कुल के ऊपर जो पराभवरूपी मैल जमा हुआ था उसे धोकर पृथिवी में सुख से रहने लगा तथा समस्त बंधुजनों ने उसे अपना शिरमौर माना ।।252।। अथानंतर वैश्रवण का जो पुष्पक विमान था उसे रावण के भृत्यजन रावण के समीप ले आये। वह पुष्पक विमान अत्यंत सुंदर था, वैश्रवण उसका स्वामी था, उसके शिखर में नाना प्रकार के रत्न जड़े हुए थे, झरोखे उसके नेत्र थे, उसमें जो मोतियों की झालर लगी थी उससे निर्मल कांति का समूह निकल रहा था और उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो स्वामी का वियोग हो जाने के कारण निरंतर आँसू ही छोड़ता रहता हो। उसका अग्रभाग पद्मराग मणियों से बना था इसलिए उसे धारण करता हुआ वह ऐसा जान पड़ता था मानो शोक के कारण उसने हृदय को बहुत कुछ पीटा था इसीलिए वह अत्यंत लालिमा को धारण कर रहा था। कहीं-कहीं इंद्रनील मणियों की प्रभा उस पर आवरण कर रही थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो शोक के कारण ही वह अत्यंत श्यामलता को प्राप्त हुआ हो। चैत्यालय, वन, मकानों के अग्रभाग, वापिका तथा महल आदि से सहित होने के कारण वह किसी नगर के समान जान पड़ता था। नाना शस्त्रों ने उस विमान में चोटें पहुँचायी थीं, वह बहुत ही ऊँचा था, देव भवन के समान जान पड़ता था और आकाशतल का मानो आभूषण ही था ।।253-258।। मानी दशानन ने शत्रु की पराजय का चिह्न समझ उस पुष्पक विमान को अपने पास रखने की इच्छा की थी अन्यथा उसके पास विद्या निर्मित कौन-सा वाहन नहीं था? ।।259।। वह उस विमान पर आरूढ़ होकर मंत्रियों, वाहनों, नागरिक जनों, पुत्रों, माता-पिताओं तथा बंधुजनों के साथ चला ।।260।। वह उस विमान के अंदर अंत:पुररूपी महाकमल वन के बीच में सुख से बैठा था, उसकी गति को कोई नहीं रोक सकता था तथा अपनी इच्छानुसार उसने हाव-भाव रूपी आभूषण धारण कर रखे थे ।।261।। चाप, त्रिशूल, तलवार, भाला तथा पाश आदि शस्त्र जिनके हाथ में थे तथा जिन्होंने अनेक आश्चर्यजनक कार्य करके दिखलाये थे ऐसे अनेक सेवक उसके पीछे-पीछे चल रहे थे ।।262।। जिन्होंने शत्रुओं के समूह का अंत कर दिया था, जो चक्राकार मंडल बनाकर पास खड़े थे, जिनका चित्त गुणों के अधीन था तथा जो महा वैभव से शोभित थे ऐसे अनेक सामंत उसके साथ जा रहे थे ।।263।। गोशीर्ष आदि विलेपनों से उसका सारा शरीर लिप्त था तथा उत्तमोत्तम विद्याधरियाँ हाथ में लिये हुए सुंदर चमरों से उसे हवा कर रही थीं ।।264।। वह चंद्रमा के समान सुशोभित ऊपर तने हुए छत्र से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो शत्रु की पराजय से उत्पन्न यश से ही सुशोभित हो रहा हो ।।265।। वह सूर्य के समान उत्कृष्ट तेज को धारण कर रहा था तथा लक्ष्मी से इंद्र के समान जान पड़ता था। इस प्रकार पुण्य से उत्पन्न फल को प्राप्त होता हुआ वह दक्षिणसमुद्र की ओर चला ।।266।। हाथी पर बैठा हुआ कुंभकर्ण और रथ पर बैठा तथा स्वाभिमान रूपी वैभव से युक्त विभीषण इस प्रकार दोनों भाई उसके पीछे―पीछे जा रहे थे ।।267।। भाई-बांधवों एवं सामंतों से सहित महादैत्य मय भी, जिन में सिंह-शरभ आदि जंतु जुते थे ऐसे रथों पर बैठकर जा रहा था ।।268।। मरीच, अंबर विद्युत्, वज्र, वज्रोदर, बुध, वज्राक्ष, क्रूरनक्र, सारण और सुनय ये राजा मय के मंत्री तथा उत्कृष्ट वैभव से युक्त अन्य अनेक विद्याधरों के राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे ।।269-270।। इस प्रकार समस्त दक्षिण दिशा को वश कर वह वन, पर्वत तथा समुद्र से सहित पृथ्वी को देखता हुआ अन्य दिशा की ओर चला ।।271।।
अथानंतर एक दिन विनय से जिसका शरीर झुक रहा था, ऐसा दशानन आकाश में बहुत ऊँचे चढ़कर अपने दादा सुमाली से आश्चर्यचकित हो पूछता है कि हे पूज्य! इधर इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो नहीं है पर कमलों का वन लहलहा रहा है सो इस महा आश्चर्य को आप देखें ।।272-273।। हे स्वामिन्! यहाँ पृथ्वीतल पर पड़े रंगबिरंगे बड़े-बड़े मेघ निश्चल होकर कैसे खड़े हैं? ।।274।। तब सुमाली ने ‘नम: सिद्धेभ्य:’ कहकर दशानन से कहा कि हे वत्स! ने तो ये कमल हैं और न मेघ ही हैं ।।275।। किंतु सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिन में हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं ऐसे-ऐसे ये जिन-मंदिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं ।।276।। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण-भर में अपने हृदय को पवित्र कर ।।277।। तदनंतर वैश्रवण का मान मर्दन करने वाले दशानन ने वहीं खड़े रहकर जिनालयों को नमस्कार किया और आश्चर्यचकित हो सुमाली से पूछा कि पूज्यवर! हरिषेण का ऐसा क्या माहात्म्य था कि जिससे आपने उनका इस तरह कथन किया है? ।।278-279।। तब सुमाली ने कहा कि हे दशानन! तूने बहुत अच्छा प्रश्न किया । अब पाप को नष्ट करनेवाला हरिषेण का चरित्र सुन ।।280।। कांपिल्य नगर में अपने यश के द्वारा समस्त संसार को व्याप्त करने वाला सिंह ध्वज नाम का एक बड़ा राजा रहता था ।।281।। उसकी वप्रा नाम की पटरानी थी जो स्त्रियों के योग्य गुणों से सुशोभित थी तथा अपने सौभाग्य के कारण सैकड़ों रानियों में आभूषणपना को प्राप्त थी ।।282।। उन दोनों से परम अभ्युदय को धारण करनेवाला हरिषेण नाम का पुत्र हुआ। वह पुत्र उत्तमोत्तम चौंसठ लक्षणों से युक्त था तथा पापों को नष्ट करनेवालाथा ।।283।। किसी एक समय अष्टाह्निक महोत्सव आया सो धर्मशील वप्रा रानी ने नगर में जिनेंद्र भगवान का रथ निकलवाना चाहा ।।284।। राजा सिंह ध्वज की महालक्ष्मी नामक दूसरी रानी थी जो कि सौभाग्य के गर्व से सदा विह्वल रहती थी। अनेक खोटी चेष्टाओं से भरी महालक्ष्मी वप्रा की सौत थी इसलिए उसने उसके विरुद्ध आवाज उठायी कि पहले मेरा ब्रह्मरथ नगर की गलियों में घूमेगा। उसके पीछे वप्रा रानी के द्वारा बनवाया हुआ जैन रथ घूम सकेगा ।।285-286।। यह सुनकर वप्रा को इतना दुःख हुआ कि मानो उसके हृदय में वज्र की ही चोट लगी हो। दुःख से संतप्त होकर उसने प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा यह रथ नगर में पहले घूमेगा तो मैं पूर्व की तरह पुन: आहार करूँगी अन्यथा नहीं ।।287-288।। यह कहकर उसने प्रतिज्ञा की वेणी बाँध ली और सब काम छोड़ दिया। उसका मुखकमल शोक से मुरझा गया, वह निरंतर मुख से श्वास और नेत्रों से आँसू छोड़ रही थी। माता की, ऐसी दशा देख हरिषेण ने कहा कि हे माता! जिसका पहले कभी स्वप्न में भी तुमने सेवन नहीं किया वह अमांगलिक रुदन तुमने क्यों प्रारंभ किया? अब बस करो और रुदन का कारण कहो ।।289-291।। तदनंतर माता का कहा कारण सुनकर हरिषेण ने इस प्रकार विचार किया कि अहो! मैं क्या करूँ? यह बहुत भारी पीड़ा प्राप्त हुई है सो पिता से इसे कैसे कहूं? ।।292।। वह पिता हैं और यह माता हैं, दोनों ही मेरे लिए परम गुरु हैं। मैं किसके प्रति द्वेष करूँ? आश्चर्य है कि मैं बड़े संकट में आ पड़ा हूँ ।।293।। कुछ भी हो पर मैं रुदन करती माता को देखने में असमर्थ हूँ। ऐसा विचारकर वह महल से निकल पड़ा और हिंसक जंतुओं से भरे हुए वन में चला गया ।।294।। वहाँ वह निर्जन वन में मूल, फल आदि खाता और सरोवर में पानी पीता हुआ निर्भय हो घूमने लगा ।।295।। हरिषेण का ऐसा रूप था कि उसे देखकर दुष्ट पशु भी क्षण-भर में उपशम भाव को प्राप्त हो जाते थे सो ठीक ही है क्योंकि भव्य जीव किसे नहीं प्रिय होता है? ।।296।। निर्जन वन में ही जब हरिषेण को माता के द्वारा किये हुए रुदन की याद आती थी तब वह अत्यंत दुःखी हो उठता था। माता ने गद्गद कंठ से जो भी प्रलाप किया वह सब स्मरण आने पर उसे बहुत कुछ बाधा पहुँचा रहा था ।।297।। कोमल चित्त से निरंतर भ्रमण करने वाले हरिषेण को वन के भीतर एक-से-एक बढ़कर मनोहर स्थान मिलते थे पर उनमें उसे धैर्य प्राप्त नहीं होता था ।।298।। क्या यह वनदेव है? इस प्रकार की भ्रांति वह निरंतर करता रहता था और हरिणियाँ उसे दूर तक आँख फाड़-फाड़कर देखती रहती थीं ।।299।। इस प्रकार घूमता हुआ हरिषेण, जहाँ वन में प्राणी परस्पर का वैरभाव दूर छोड़कर शांति से रहते थे ऐसे अंगिरस ऋषि के शिष्य शतमन्यु के आश्रम में पहुँचा ।।300।।
अथानंतर एक काल कल्प नाम का राजा था जो महा भयंकर, महा प्रतापी और बहुत बड़ी सेना को धारण करनेवाला था सो उसने चारों ओर से चंपा नगरी को घेर लिया ।।301।। चंपा का राजा जनमेजय जब तक उसके साथ युद्ध करता है तब तक पहले से बनवायी हुई लंबी सुरंग से माता नागवती अपनी पुत्री के साथ निकलकर शतमन्यु ऋषि के उस आश्रम में पहले से ही पहुँच गयी थी ।।302-303।। वहाँ नागवती की पुत्री सुंदर रूप से सुशोभित हरिषेण को देखकर शरीर में बेचैनी उत्पन्न करने वाले कामदेव के बाणों से घायल हो गयी ।।304।। तदनंतर पुत्री को अन्यथा देख नागवती ने कहा कि हे पुत्री! सावधान रह, तू महामुनि के वचन स्मरण कर ।।305।। सम्यग्ज्ञानरूपी चक्षु को धारण करने वाले मुनिराज ने पहले कहा था कि तू चक्रवर्ती का स्त्री रत्न होगी ।।306।। तपस्वियों को जब मालूम हुआ कि नागवती की पुत्री हरिषेण से बहुता अनुराग रखती है तो अपकीर्ति से डरकर उन मूढ़ तपस्वियों ने हरिषेण को आश्रम से निकाल दिया ।।307।। तब अपमान से जला हरिषेण हृदय में कन्या को धारण कर निरंतर इधर-उधर घूमता रहा। ऐसा जान पड़ता था मानो वह भ्रामरी विद्या से आलिंगित होकर ही निरंतर घूमता रहता था ।।308।। उत्कंठा के भार से दबा हरिषेण निरंतर शोकग्रस्त रहता था। उसे न भोजन में, न पुष्प और पल्लवों से निर्मित शय्या में, न फलों के भोजन में, न सरोवर का जल पीने में, न गाँव में, न नगर में और न मनोहर निकुंजों से युक्त उपवन में धीरज प्राप्त होता था ।।309-310।। कमलों के समूह को वह दावानल के समान देखता था और चंद्रमा की किरण उसे वज्र की सुई के समान जान पड़ती थीं ।।311।। विशाल तटों से सुशोभित एवं स्वच्छ जल को धारण करने वाली नदियां इसके मन को इसलिए आकर्षित करती थीं, क्योंकि उनके तट, इसके प्रति आकर्षित कन्या के नितंबों की समानता रखते थे ।।312।। केतकी की अनी भाले के समान इसके मन को भेदती रहती थी और कदंबवृक्षों के सुगंधित फूल चक्र के समान छेदते रहते थे ।।313।। वायु के मंद-मंद झोंके से हिलते हुए कुटज वृक्षों के फूल कामदेव के बाणों के समान उसके मर्मस्थल छेदते रहते थे ।।314।। हरिषेण ऐसा विचार करता रहता था कि यदि मैं उस स्त्री रत्न को पा सका तो नि:संदेह माता का शोक दूर कर दूँगा ।।315।। यदि वह कन्या मिल गयी तो मैं यही समझूँगा कि मुझे समस्त भरत क्षेत्र का स्वामित्व मिल गया है। क्योंकि उसकी जो आकृति है वह अल्प भोगों को भोगने वाली नहीं है ।।316।। यदि मैं उसे पा सका तो नदियों के तटों पर, वनों में, गाँवों में, नगरों में और पर्वतों―पर जिन-मंदिर बनवाऊँगा ।।317।। यदि मैं उसे नहीं देखता तो माता के शोक से संतप्त होकर कभी का मर जाता। वास्तव में मेरे प्राण उसी के समागम की आशा से रुके हुए हैं ।।318।। जिसका मन अत्यंत दुखी था ऐसा हरिषेण इस प्रकार तथा अन्य प्रकार की चिंता करता हुआ माता का शोक भूल गया। अब तो वह भूताक्रांत मानव के समान इधर-उधर घूमने लगा ।।319।। इस प्रकार अनेक देशों में घूमता हुआ सिंधुनद नामक नगर में पहुँचा। यद्यपि उसकी वैसी अवस्था हो रही थी तो भी वह बहुत भारी पराक्रम और विशाल तेज से युक्त था ।।320।। उस नगर की जो स्त्रियाँ क्रीड़ा करने के लिए नगर के बाहर गयी थीं वे हरिषेण को देखकर आश्चर्यचकित की तरह निश्चेष्ट हो गयीं। वे सैकड़ों बार आँखें फाड़-फाड़कर उसे देखती थीं ।।321।। जिसके नेत्र कमल के समान थे, वक्षःस्थल मेरुपर्वत के कटक के समान लंबा-चौड़ा था, जिसके कंधे दधिज के गंडस्थल के समान थे और जिसकी जाँघें हाथी बाँधने के खंभे के समान संपुष्ट थीं ऐसे हरिषेण को देखकर वे स्त्रियाँ पागल-सी हो गयीं, उनके चित्त ठिकाने नहीं रहे तथा उसे देखने-देखते उन्हें तृप्ति नहीं हुई ।।322-323।।
अथानंतर- अंजनगिरि के समान काला और झरते हुए मद से भरा एक हाथी बलपूर्वक उन स्त्रियों के सामने आया ।।324।। हाथी का महावत जोर-जोर से चिल्ला रहा था कि हे स्त्रियो! यदि तुम लोगों में शक्ति है तो शीघ्र ही भाग जाओ, मैं हाथी को रोकने में असमर्थ हूँ ।।325।। पर स्त्रियाँ तो श्रेष्ठ पुरुष हरिषेण के देखने में आसक्त थीं इसलिए महावत के वचन नहीं सुन सकी और न भागने में ही समर्थ हुईं ।।326।। जब महावत ने बार-बार जोर से चिल्लाना शुरू किया तब स्त्रियों ने उस ओर ध्यान दिया और तब वे भय से व्याकुल हो गयीं ।।327।। तदनंतर काँपती हुई वे स्त्रियाँ हरिषेण की शरण में गयीं। इस तरह उसके साथ समागम की इच्छा करने वाली स्त्रियों का भय ने उपकार किया ।।328।। तत्पश्चात् घबड़ायी हुई उत्तम स्त्रियों के शरीर के संपर्क से जिसे रोमांच उठ आये थे ऐसे हरिषेण ने दया युक्त हो विचार किया ।।329।। कि इस ओर गहरा समुद्र है, उस ओर प्राकार है और उधर हाथी है इस तरह संकट उपस्थित होने पर मैं प्राणियों की रक्षा अवश्य करूँगा ।।330।। जिस प्रकार बैल अपने सींगों से वामी को खोदता है पर्वत को नहीं और पुरुष बाण से केले के वृक्ष को छेदता है शिला को नहीं ।।331।। इसी प्रकार दुष्ट चेष्टाओं से भरा मानव कोमल प्राणी का ही पराभव करता है, कठोर प्राणी को दुःख पहुंचाने की वह इच्छा भी नहीं करता ।।332।। वे तपस्वी तो अत्यंत दीन थे इसलिए मैंने उन पर क्षमा धारण की थी। उन तपस्वियों ने आश्रम से निकालकर यद्यपि अपराध किया था पर उनकी वृत्ति हरिणों के समान दीन थी, साथ ही वे गुरुओं के घर रहते थे इसलिए उनपर क्षमा धारण करना अत्यंत श्रेष्ठ था। यथार्थ में मैंने उनपर जो क्षमा की थी वह मेरे लिए अत्यंत हितावह तथा परमाभ्युदय का कारण हुई है ।।333-334।। तदनंतर हरिषेण ने बड़े जोर से चिल्लाकर कहा कि रे महावत! तू हाथी दूसरे स्थान से ले जा ।।335।। तब महावत ने कहा कि अहो! तेरी बडी धृष्टता है कि जो तू हाथी को मनुष्य समझता है और अपने को हाथी मानता है ।।336।। जान पड़ता है कि तू मृत्यु के समीप पहुँचने वाला है इसलिए तो हाथी के विषय में गर्व धारण कर रहा है अथवा तुझे कोई भूत लग रहा है। यदि भला चाहता है तो शीघ्र ही इस स्थान से चला जा ।।337।। तदनंतर क्रोधवश लीला पूर्वक नृत्य करते हुए हरिषेण ने जोर से अट्टहास किया, स्त्रियों को सांतवना दी और स्वयं स्त्रियों को अपने पीछे कर हाथी के सामने गया ।।338।। तदनंतर बिजली की चमक के समान शीघ्र ही आकाश में उछलकर और शीश पर पैर रखकर वह हाथी पर सवार हो गया ।।339।। तदनंतर उसने लीला पूर्वक हाथी के साथ क्रीड़ा करना शुरू किया। क्रीड़ा करते-करते कभी तो वह दिखाई देता था और कभी अदृश्य हो जाता था। इस तरह उसने हाथी के समस्त शरीर पर क्रीड़ा की। पश्चात् पृथ्वी पर नीचे उतरकर भी उसके साथ नाना क्रीड़ाएँ कीं ।।340।। तदनंतर परंपरा से इस महान् कल-कल को सुनकर नगर के सब लोग इस महा आश्चर्य को देखने के लिए बाहर निकल आये ।।341।। बड़ी-बड़ी स्त्रियों ने झरोखों में बैठकर उसे देखा तथा कन्याओं ने उसके साथ समागम की इच्छाएँ कीं ।।342।। आस्फालन अर्थात् पीठ पर हाथ फेरने से, जोरदार डांट-डपट के शब्दों से और बार-बार शरीर के कंपन से हरिषेण ने उस हाथी को क्षण भर में मदरहित कर दिया ।।343।। नगर का राजा सिंध, महल की छत पर बैठा हुआ यह सब आश्चर्य देख रहा था। वह इतना प्रसन्न हुआ कि उसने हरिषेण को बुलाने के लिए अपना समस्त परिकर भेजा ।।344।। तदनंतर रंग-बिरंगी झूल से जिसकी शोभा बढ़ रही थी तथा नाना रंगों के चित्राम से जो शोभायमान था ऐसे उसी हाथी पर वह बड़े वैभव से आरूढ़ हुआ ।।345।। जो पसीने की बूँदों के बहाने मानो मोतियों से सहित था ऐसा हरिषेण अपने सौंदर्य रूपी हाथ से नगर की स्त्रियों का मन संचित करता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ ।।346।।
तदनंतर उसने राजा की सौ कन्याओं के साथ विवाह किया। इस प्रकार से जहाँ देखो वहीं- सर्वत्र हरिषेण की चर्चा फैल गयी ।।347।। यद्यपि उसने राजा से बहुत भारी सम्मान प्राप्त किया था तो भी तपस्वियों के आश्रम में जो स्त्रीरत्न देखा था उसके बिना उसने एक रात को वर्ष के समान समझा ।।348।। वह विचार करने लगा कि इस समय निश्चय ही वह कन्या मेरे बिना विषम बन में हरिणी के समान परम आकुलता को प्राप्त होती होगी ।।349।। यदि यह रात्रि किसी तरह एक बार भी समाप्त हो जाये तो मैं शीघ्र ही उस बाला पर दया करने के लिए दौड़ पड़ूँगा ।।350।। यह अत्यंत सुशोभित शय्या पर पड़ा हुआ ऐसा विचार करता रहा। विचार करते-करते बड़ी देर बाद बहुत कठिनाई से उसे नींद आयी ।।351।। स्वप्न में भी वह उसी कमल-लोचना को देखता रहा, सो ठीक ही है क्योंकि प्राय: करके इसके मन का वही एक विषय रह गयी थी ।।352।।
अथानंतर विद्याधर राजा की कन्या की सहेली वेगवती जो कि सर्व प्रकार की कलाओं और गुणों में विशारद थी, सोते हुए हरिषेण को एक क्षणमें हर कर ले गयी ।।353।। जब उसकी निद्रा भग्न हुई तो उसने अपने आपको आकाश में हरा जाता देख क्रोधपूर्वक वेगवती से कहा कि री पापिनि! तू मुझे किस लिए हर लिये जा रही है? ।।354।। जिसके नेत्रों की समस्त पुतलियां दिख रही थीं तथा जिसने ओंठ डँस रखा था ऐसे हरिषेण ने उस वेगवती को मारने के लिए वज्रमय मुद्गर के समान मुट्ठी बाँधी ।।355।। तदनंतर सुंदर लक्षणों के धारक हरिषेण को कुपित देख वेगवती यद्यपि विद्याबल से समृद्ध थी तो भी भयभीत हो गयी। उसने उससे कहा कि, हे आयुष्मन्! जिस प्रकार वृक्ष की शाखा पर चढ़ा कोई मनुष्य उसी की जड़ को काटता है उसी प्रकार मुझ पर आरूढ़ हुए तुम मेरा ही घात कर रहे हो ।।356-357।। हे तात! मैं तुझे जिस लिए ले जा रही हूँ तुम जब उसको प्राप्त होओगे तब मेरे वचनों की यथार्थता जान सकोगे। यह निश्चित समझो कि वहाँ जाकर तुम्हारे इस शरीर को रंचमात्र भी दुःख नहीं होगा ।।358।। वेगवती का कहा सुनकर हरिषेण ने विचार किया कि यह स्त्री भद्र तथा मधुरभाषिणी है। इसकी आकृति ही बतला रही है कि यह पर-पीड़ा से निवृत्त है अर्थात् कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाती ।।359।। और चूँकि इस समय मेरी दाहिनी आँख फड़क रही है इससे निश्चय होता है कि यह अवश्य ही प्रियजनों का समागम करावेगी ।।360।। तब हरिषेण ने उससे फिर पूछा कि हे भद्रे! तू ठीक-ठीक कारण बता और मनोहर कथा सुनाकर मेरे कानों को संतुष्ट कर ।।361।। इसके उत्तर में वेगवती ने कहा कि सूर्योदय नामक श्रेष्ठ नगर में राजा शक्रधनु रहता है। उसकी स्त्री धी नाम से प्रसिद्ध है। उन दोनों के जयचंद्रा नाम की पुत्री है जो कि गुण तथा रूप के अहंकार से ग्रस्त है, पुरुषों के साथ द्वेष रखती है और पिता के वचनों की अवहेलना करती है ।।362-363।। समस्त भरत क्षेत्र में जो-जो उत्तम पुरुष थे उन सबके चित्रपट बनाकर मैंने पहले उसे दिखलाये हैं पर उसकी रुचि में एक भी नहीं आया ।।364।। तब मैंने आपका चित्रपट उसे दिखलाया सो उसे देखते ही वह तीव्र उत्कंठारूपी शल्य से विद्ध होकर बोली कि कामदेव के समान इस पुरुष के साथ यदि मेरा समागम न होगा तो मैं मृत्यु को भले ही प्राप्त हो जाऊँगी पर अन्य अधम मनुष्य को प्राप्त नहीं होऊँगी ।।365-366।। उसके गुणों से जिसका चित्त आकृष्ट हो रहा था ऐसी मैंने उसका बहुत भारी शोक देखकर उसके आगे यह कठिन प्रतिज्ञा कर ली कि तुम्हारे मन को चुराने वाले इस पुरुष को यदि मैं शीघ्र नहीं ले आऊँ तो हे सखि! ज्वालाओं से युक्त अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी ।।367-368।। मैंने ऐसी प्रतिज्ञा की ही थी कि बड़े भारी पुण्योदय से आप मिल गये। अब आपके प्रसाद से अपनी प्रतिज्ञा को अवश्य ही सफल बनाऊँगी ।।369।। ऐसा कहती हुई वह सूर्योदय पुर आ पहुंची। वहाँ आकर उसने राजा शक्रधनु और कन्या जयचंद्रा के लिए सूचना दे दी कि तुम्हारे मन को हरण करनेवाला हरिषेण आ गया है ।।370।।
तदनंतर आश्चर्यकारी रूप को धारण करने वाले दोनों- वर कन्या का पाणिग्रहण किया गया। जिनका चित्त आश्चर्य से भर रहा था ऐसे सभी आत्मीय जनों ने उनके उस पाणिग्रहण का अभिनंदन किया था ।।371।। जिसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी थी ऐसी वेगवती ने राजा और कन्या दोनों की ओर से परम सन्मान प्राप्त किया था। उसके हर्ष और सुयश का भी ठिकाना नहीं था ।।372।। इस कन्या ने हम लोगों को छोड़कर भूमिगोचरी पुरुष स्वीकृत किया ऐसा विचारकर कन्या के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर बहुत ही कुपित हुए। कुपित ही नहीं हुए अपमान से प्रेरित हो बड़ी भारी सेना लेकर युद्ध करने की भी इच्छा करने लगे ।।373-374।। तदनंतर करुणा में आसक्त है चित्त जिसका ऐसे राजा शक्रधनु ने अपने सुचाप नामक पुत्र के साथ हरिषेण से इस प्रकार निवेदन किया कि हे जामातः! तुम यहीं ठहरो, मैं युद्ध करने के लिए जाता हूँ। तुम्हारे निमित्त से दो उत्कट शत्रु कुपित होकर दुःख का अनुभव कर रहे हैं ।।375-376।। तब हँसकर हरिषेण ने कहा कि जो परकीय कार्यों में सदा तत्पर रहता है उसके अपने ही कार्य में उदासीनता कैसे हो सकती है? ।।377।। हे पूज्य! प्रसन्नता करो और मेरे लिए युद्ध का आदेश दो। मेरे जैसा भृत्य पाकर आप इस प्रकार स्वयं क्यों युद्ध करते हो? ।।278।। तदनंतर अमंगल से भयभीत श्वसुर ने चाहते हुए भी उसे नहीं रोका। फलस्वरूप जिसमें हवा के समान शीघ्रगामी घोड़े जुते थे, जो नाना प्रकार के शस्त्रों से पूर्ण था, जिसका सारथी शूरवीर था और जो योद्धाओं के समूह से घिरा था ऐसे रथ को हरिषेण प्राप्त हुआ ।।379-380।। उसके पीछे विद्याधर लोग शत्रु के मन को असहनीय बहुत भारी कोलाहल कर घोड़ों और हाथियों पर सवार होकर जा रहे थे ।।381।। तदनंतर शूरवीर मनुष्य जिसकी व्यवस्था बनाये हुए थे ऐसा महायुद्ध प्रवृत्त हुआ सो कुछ ही समय बाद शक्रधनु की सेना को पराजित देख हरिषेण युद्ध के लिए उठा ।।382।। तदनंतर जिस दिशा से उसका उत्तम रथ निकल जाता था उस दिशा में न घोड़ा बचता था, न हाथी दिखाई देता था, न मनुष्य शेष रहता था और न रथ ही बाकी बचता था ।।383।। उसने एक साथ डोरी पर चढ़ाये हुए बाणों से शत्रु की सेना को इस प्रकार मारा कि वह पीछे बिना देखे ही एकदम सरपट कहीं पर भाग खड़ी हुई ।।384।। जिनके शरीर में बहुत भारी कंपकंपी छूट रही थी ऐसे भय से पीड़ित कितने ही योद्धा कह रहे थे कि गंगाधर और महीधर ने यह बड़ा अनिष्ट कार्य किया है ।।385।। यह कोई अद्भुत पुरुष युद्ध में सूर्य की भांति सुशोभित हो रहा है। जिस प्रकार सूर्य समस्त दिशाओं में किरणें छोड़ता है उसी प्रकार यह भी समस्त दिशाओं में बहुत बाण छोड़ रहा है ।।386।। तदनंतर अपनी सेना को उस महात्मा के द्वारा नष्ट होती देख भय से ग्रस्त हुए गंगाधर और महीधर दोनों ही कहीं भाग खड़े हुए ।।387।।
तदनंतर उसी समय पुण्योदय से रत्न प्रकट हो गये जिससे हरिषेण महान् अम्युदय को धारण करने वाला दसवाँ चक्रवर्ती प्रसिद्ध हुआ ।।388।। यद्यपि वह चक्ररत्न से चिह्नित परम लक्ष्मी से युक्त हो गया था तो भी मदनावली से रहित अपने आपको तृण के समान तुच्छ समझता था ।।389।। तदनंतर बारह योजन लंबी-चौड़ी सेना को चलाता और समस्त शत्रुओं को नम्रीभूत करता हुआ वह तपस्वियों के आश्रम में पहुँचा ।।390।। जब तपस्वियों को इस बात का पता चला कि यह वही है जिसे हम लोगों ने आश्रम से निकाल दिया था तो बहुत ही भयभीत हुए। निदान, हाथों में फल लेकर उन्होंने हरिषेण को अर्घ दिया और आशीर्वाद से युक्त वचनों से उसका सम्मान किया ।।391।। शतमन्यु के पुत्र जनमेजय और माता नागवती ने संतुष्ट होकर वह कन्या इसके लिए समर्पित कर दी ।।392।। तदनंतर उन दोनों का विधिपूर्वक विवाहोत्सव हुआ। इस कन्या को पाकर राजा हरिषेण ने अपना पुनर्जन्म माना ।।393।। तदनंतर चक्रवर्ती की लक्ष्मी से युक्त होकर वह कांपिल्यनगर आया। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसके साथ थे ।।394।। उसने मुकुट में लगे मणियों के समूह से सुशोभित शिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर बड़ी विनय से माता के चरणों में नमस्कार किया ।।395।। सुमाली दशानन से कहते हैं कि हे दशानन! उस समय उक्त प्रकार के पुत्र को देखकर वप्रा के हर्ष का पार नहीं रहा। वह अपने अंगों में नहीं समा सकी तथा हर्ष के आँसुओं से उसके दोनों नेत्र भर गये ।।396।। तदनंतर उसने सूर्य के समान तेजस्वी बड़े-बड़े रथ कांपिल्यनगर में घुमाये और इस तरह अपनी माता का मनोरथ सफल किया ।।397।। इस कार्य से मुनि और श्रावकों को परम हर्ष हुआ तथा बहुत से लोगों ने जिन-धर्म धारण किया ।।398।। पृथिवी, पर्वत, नदियों के समागम स्थान, नगर तथा गाँव आदि में जो नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे जिनालय शोभित हो रहे हैं वे सब उसी के बनवाये हैं ।।399।। उदार हृदय को धारण करने वाले हरिषेण ने चिर काल तक राज्य कर दीक्षा ले ली और परम तपश्चरण कर तीन लोक का शिखर अर्थात् सिद्धालय प्राप्त कर लिया ।।400।। इस प्रकार हरिषेण चक्रवर्ती का चरित्र सुनकर दशानन आश्चर्य को प्राप्त हुआ। तदनंतर जिनेंद्र भगवान को नमस्कार कर वह आगे बढ़ा ।।401।।
अथानंतर संध्या काल आया और सूर्य डूब गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्य ने दशानन को विजयी जानकर भय से ही उसके नेत्रों का गोचर- स्थान छोड़ दिया था ।।402।। संध्या की लालिमा से समस्त लोक व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो दशानन से उत्पन्न हुए बहुत भारी अनुराग से ही व्याप्त हो गया था ।।403।। क्रम-क्रम से संध्या को नष्ट कर काला अंधकार आकाश में व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो दशानन की सेवा करने के लिए ही व्याप्त हुआ था ।।404।। तदनंतर दशानन ने आकाश से उतरकर सम्मेदाचल के समीप संस्थली नामक पर्वत के ऊपर अपना डेरा डाला ।।405।।
अथानंतर-जिस प्रकार वर्षाकालीन मेघों के समूह से वज्र का शब्द निकलता है इसी प्रकार कहीं से ऐसा भयंकर शब्द निकला कि जिसने समस्त सेना को भयभीत कर दिया ।।406।। बड़े-बड़े हाथियों ने अपने आलान भूत वृक्ष तोड़ डाले और घोड़े कान खड़े कर फरुरी लेते हुए हिनहिनाने लगे ।।407।। वह शब्द सुनकर दशानन शीघ्रता से बोला कि यह क्या है? क्या है? अपराध के बहाने मरने के लिए आज कौन उद्यत हुआ है? ।।408।। जान पड़ता है कि वैश्रवण आया है अथवा शत्रु से प्रेरित हुआ सोम आया है अथवा मुझे निश्चिंत रूप से ठहरा जानकर शत्रु पक्ष का कोई दूसरा व्यक्ति यहाँ आया है ।।409।। तदनंतर दशानन की आज्ञा पाकर प्रहस्त नामा मंत्री उस स्थान पर गया जहाँ से कि वह शब्द आ रहा था। वहाँ जाकर उसने पर्वत के समान आकार वाला, क्रीड़ा करता हुआ एक हाथी देखा ।।410।। वहाँ से लौटकर प्रहस्त ने बड़े आश्चर्य के साथ दशानन को सूचना दी कि हे देव! मेघों की महा राशि के समान उस हाथी को देखो ।।411।। ऐसा जान पड़ता है कि इस हाथी को मैंने पहले भी कभी देखा है। इंद्र विद्याधर भी इसे पकड़ने में समर्थ नहीं था इसीलिए उसने इसे छोड़ दिया है अथवा इंद्र विद्याधर की बात जाने दो साक्षात् देवेंद्र भी इसे पकड़ने में असमर्थ है, इसे कोई सहन नहीं कर सकता। नहीं जान पड़ता कि यह हाथी है या समस्त प्राणियों का एकत्रित तेज का समूह है? ।।412-413।। तब दशानन ने हँसकर कहा कि हे प्रहस्त! यद्यपि अपनी प्रशंसा स्वयं करना ठीक नहीं है फिर भी मैं इतना तो कहता ही हूँ कि यदि मैं इस हाथी को क्षण भर में न पकड़ लूँ तो बाजुबंद से पीड़ित अपनी इन दोनों भुजाओं को काट डालूँ ।।414-415।। तदनंतर वह इच्छानुसार चलने वाले पुष्पक विमान पर सवार हो, जाकर उत्तम लक्षणों से युक्त उस हाथी को देखता है ।।416।। वह हाथी चिकने इंद्रनील मणि के समान था, उसका तालु कमल के समान लाल था, वह लंबे, गोल तथा अमृत के फेन के समान सफेद दांतों को धारण कर रहा था ।।417।। वह सात हाथ ऊँचा, दस हाथ चौड़ा और नौ हाथ लंबा था। उसके नेत्र मधु के समान कुछ पीतवर्ण के थे ।।418।। उसकी पीठ की हड्डी मांसपेशियों में निमग्न थी, उसके शरीर का अगला भाग ऊँचा था, पूंछ लंबी थी, सूँड विशाल थी और नखरूपी अंकुर चिकने तथा पीले थे ।।419।। उसका मस्तक गोल तथा स्थूल था, उसके चरण अत्यंत जमे हुए थे, वह स्वयं बलवान् था, उसकी विशाल गर्जना भीतर से मधुर तथा गंभीर थी और वह विनय से खड़ा था ।।420।। उसके गंडस्थल से जो मद चू रहा था उसकी सुगंधि के कारण भ्रमरों की पंक्तियाँ उसके समीप खिंची चली आ रही थीं। वह कर्णरूपी ताल पत्रों की फटकार से दुंदुभि के समान विशाल शब्द कर रहा था ।।421।। वह अपनी स्थूलता के कारण आकाश को मानो निरवकाश कर रहा था और चित्त तथा नेत्रों को चुराने वाली क्रीड़ा कर रहा था ।।422।। उस हाथी को देख दशानन परम प्रीति को प्राप्त हुआ। उसने अपने आपको कृतकृत्य सा माना और उसका रोम-रोम हर्षित हो उठा ।।423।। तदनंतर दशानन ने विमान छोड़कर अपना परिकर मजबूत बाँधा और उसके सामने शब्द से लोक को व्याप्त करनेवाला शंख फूंका ।।424।। तत्पश्चात् शंख के शब्द से जिसके चित्त में क्षोभ उत्पन्न हुआ था तथा जो बल के गर्व से युक्त था ऐसा हाथी गर्जना करता हुआ दशानन के सम्मुख चला ।।425।। जब हाथी वेग से दशानन के सामने दौड़ा तो घूमने में चतुर दशानन ने उसके सामने अपना सफेद चद्दर घरियाकर फेंक दिया ।।426।। हाथी जब तक उस चद्दर को सूँघता है तब तक दशानन ने उछलकर भ्रमर समूह के शब्दों से तीक्ष्ण उसके दोनों कपोलों का स्पर्श कर लिया ।।427।। हाथी जब तक दशानन को सूँड से लपेटने की इच्छा करता है कि तब तक शीघ्रता से युक्त दशानन उसके दाँतों के बीच से बाहर निकल गया ।।428।। घूमने में बिजली के समान चंचल दशानन उसके चारों ओर के अंगों का स्पर्श करता था। बार-बार दाँतों पर टक्कर लगाता था और कभी खीसों पर झूला झूलने लगता था ।।429।। तदनंतर दशानन विलासपूर्वक उसकी पीठ पर चढ़ गया और हाथी उसी क्षण उत्तम शिष्य के समान विनीत भाव से खड़ा हो गया ।।430।। उसी समय देवों ने फूलों की वर्षा की, बार-बार धन्यवाद दिये, और विद्याधरों की सेना कल-कल करती हुई परम हर्ष को प्राप्त हुई ।।431।। वह हाथी दशानन से त्रिलोकमंडन इस नाम को प्राप्त हुआ। यथार्थ में उस हाथी से तीनों लोक मंडित हुए थे इसलिए दशानन ने बड़े हर्ष से उसका त्रिलोकमंडन नाम सार्थक माना था ।।432।। फूलों से व्याप्त उस रमणीय पर्वत पर नृत्य करते हुए विद्याधरों ने उस श्रेष्ठ हाथी के मिलने का महोत्सव किया था ।।433।। इस हाथी के प्रकरण से यद्यपि सब लोग जाग रहे थे तो भी रात्रि और दिवस की मर्यादा बतलाने के लिए प्रभातकालीन तुरही ने ऐसा जोरदार शब्द किया कि वह पर्वत की प्रत्येक गुफा में गूँज उठा ।।434।। तदनंतर सूर्य बिंब का उदय हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो सेवा की चतुराई को जानने वाले दिवस ने दशानन के लिए मंगल कलश ही समर्पित किया हो ।।435।।
तदनंतर दशानन शारीरिक क्रियाएँ कर सोफा पर बैठा था। साथ ही अन्य विद्याधर भी हाथी की चर्चा करते हुए उसे घेरकर बैठे थे ।।436।। उसी समय आकाश से उतरकर एक पुरुष वहाँ आया। वह पुरुष अत्यंत काँप रहा था, पसीने को बूँदों से व्याप्त था, खेद को धारण कर रहा था, प्रहार जन्य घावों से सहित था, आँसू छोड़ रहा था और अपना जर्जर शरीर दिखला रहा था। उसने हाथ जोड़ मस्तक से लगा बड़े दुःख के साथ निवेदन किया ।।437-438।। कि हे देव! आज से दस दिन पहले हृदय में आपके बल का भरोसा कर सूर्यरज और ऋक्षरज दोनों भाई, अपनी वंश-परंपरा से चले आये किष्कु नगर को लेने के लिए बड़े उत्साह से अलंकारपुर अर्थात् पाताल लंका से निकलकर चले थे ।।439-440।। दोनों ही भाई महान् अभिमान से युक्त, बड़ी भारी सेना से सहित तथा निशंक थे। वे आपके गर्व से संसार को तृण के समान तुच्छ मानते थे ।।441।। इन दोनों भाइयों की प्रेरणा से अत्यंत क्षोभ को प्राप्त हुए बहुत से लोग एक साथ आक्रमण कर किष्कुपुर को लूटने लगे ।।442।। तदनंतर जिनके हाथों में नाना प्रकार के शस्त्र चमक रहे थे ऐसे यम नामा दिक्पाल के उत्तम योद्धा युद्ध करने के लिए उठे सो मध्य रात्रि में उन सबके बीच बड़ा भारी युद्ध हुआ। उस युद्ध में परस्पर के शस्त्र प्रहार से अनेक पुरुषों का क्षय हुआ ।।443-444।। अथानंतर बड़ी गौर से उनका कल-कल शब्द सुनकर यह दिक्पाल स्वयं क्रोध से युद्ध करने के लिए निकला। उस समय वह यम क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान भयंकर जान पड़ता था ।।445।। जिसका तेज अत्यंत दु:सह था ऐसे यम ने आते ही के साथ हमारी सेना को नाना प्रकार के शस्त्रों से घायल कर भग्न कर दिया ।।446।। अथानंतर वह दूत इस प्रकार कहता कहता बीच में ही मूर्च्छित हो गया। वस्त्र के छोर से हवा करने पर पुन: सचेत हुआ ।।447।। यह क्या है? इस प्रकार पूछे जाने पर उसने हृदय पर हाथ रखकर कहा कि हे देव! मुझे ऐसा जान पड़ा कि मैं वहीं पर हूँ। उसी दृश्य को सामने देख मैं मूर्च्छित हो गया ।।448।।
तदनंतर आश्चर्य को धारण करने वाले रावण ने पूछा कि फिर क्या हुआ? इस प्रश्न के उत्तर में वह कुछ विश्राम कर फिर कहने लगा ।।449।। कि हे नाथ! जब ऋक्षरज ने देखा कि हमारी सेना अत्यंत दु:ख पूर्ण शब्दों से व्याकुल होती हुई पराजित हो रही है- नष्ट हुई जा रही है तब स्नेह युक्त हो वह युद्ध करने के लिए स्वयं उद्यत हुआ ।।450।। वह अत्यंत बलवान् यम के साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा। युद्ध करते करते उसका हृदय नहीं टूटा था फिर भी शत्रु ने छल से उसे पकड़ लिया ।।451।। तदनंतर जब ऋक्षरज युद्ध कर रहा था उसी समय सूर्यरज भी युद्ध के लिए उठा। उसने भी चिरकाल तक युद्ध किया पर अंत में वह शस्त्र की गहरी चोट खाकर मूर्च्छित हो गया ।।452।। आत्मीय लोग उसे उठाकर शीघ्र ही मेखला नामक वन में ले गये। वहाँ वह चंदन मिश्रित शीतल जल से श्वास को प्राप्त हो गया अर्थात् शीतलोपचार से उसकी मूर्च्छा दूर हुई ।।453।। लोकपाल यम ने अपने आपको सचमुच ही यमराज समझकर नगर के बाहर वैतरणी नदी आदि कष्ट देने के स्थान बनवाये ।।454।। तदनंतर उसने अथवा इंद्र विद्याधर ने जिन्हें युद्ध में जीता था उन सबको उसने उस कष्टदायी स्थान में रखा सो वे वहाँ दु:खपूर्वक मरण को प्राप्त हो रहे हैं ।।455।। इस वृत्तांत को देख मैं बहुत ही व्याकुल हूँ। मैं ऋक्षरज की वंश परंपरा से चला आया प्यारा नौकर हूँ। शाखावली मेरा नाम है, मैं सुश्रोणी और रणदक्ष का पुत्र हूँ। आप चूँकि रक्षक हो इसलिए किसी तरह भागकर आपके पास आया हूँ ।।456-457।। इस प्रकार अपने पक्ष के लोगों की दुर्दशा जानकर मैंने आप से कही है। इस विषय में अब आप ही प्रमाण हैं अर्थात् जैसा उचित समझें सो करें। मैं तो आप से निवेदन कर कृतकृत्य हो चुका ।।458।।
तदनंतर महाक्रोधी रावण ने अपने पक्ष के लोगों को बड़े आदर से आदेश दिया कि इस शाखावली के घाव ठीक किये जावें। तदनंतर मुसकराता हुआ वह उठा और साथ ही उठे अन्य लोगों से कहने लगा कि मैं कष्टरूपी महासागर में पड़े तथा वैतरणी आदि कष्टदायी स्थानों में डाले गये लोगों का उद्धार करूँगा ।।459-460।। प्रहस्त आदि बड़े बड़े राजा सेना के आगे दौड़े। वे शस्त्रों के तेज से आकाश को देदीप्यमान कर रहे थे ।।461।। नाना प्रकार के वाहनों पर सवार थे, छत्र और ध्वजाओं को धारण करने वाले थे। तुरही के शब्दों से उनका बड़ा भारी उत्साह प्रकट हो रहा था और वे महा तेजस्वी थे ही ।।462।। इस प्रकार विद्याधरों के अधिपति आकाश से उतरकर पृथिवी पर आये और नगर के समीप महलों की पंक्ति की शोभा देख परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ।।463।। तदनंतर रावण ने किष्कुपुर नगर की दक्षिण दिशा में कृत्रिम नरक के गर्त में पड़े मनुष्यों के समूह को देखा ।।464।। देखते ही उसने नरक की रक्षा करने वाले लोगों को नष्ट किया और जिस प्रकार बंधुजन अपने इष्ट लोगों को कष्ट से निकालते हैं उसी प्रकार उसने सब लोगों को नरक से निकाला ।।465।। तदनंतर शत्रुसेना को आया सुनकर बड़े भारी आडंबर को धारण करनेवाला, शक्तिशाली यम नाम लोकपाल का साटोप नाम का प्रमुख भट युद्ध करने के लिए अपनी सब सेना के साथ बाहर निकला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो क्षोभ को प्राप्त हुआ सागर ही हो ।।466।। पहाड़ के समान ऊँचे, भयंकर और मद की धारा से अंधकार फैलाने वाले हाथी, चलते हुए सुंदर चामर रूपी आभूषणों को धारण करने वाले घोड़े, सूर्य के समान देदीप्यमान तथा ध्वजाओं की पंक्ति से सुशोभित रथ और कवच धारण करने वाले एवं शस्त्रों से युक्त शूरवीर योद्धा इस प्रकार चतुरंग सेना उसके साथ थी ।।467-468।। तदनंतर रथ पर आरूढ़ एवं रण कला में निपुण विभीषण ने हँसते-हँसते ही बाणों के द्वारा उस साटोप को क्षण-भर में मार गिराया ।।469।। यम के जो दीन हीन किंकर थे वे भी बाणों से ताड़ित हो आकाश को लंबा करते हुए शीघ्र ही कहीं भाग खड़े हुए ।।470।। जब यम नाम लोकपाल को पता चला कि सूर्यरज ऋक्षरज आदि को नरक से छुड़ा दिया है तथा साटोप नामक प्रमुख भट को मार डाला है तब यमराज के समान क्रूर तथा महा शस्त्रों को धारण करनेवाला वह यम लोकपाल बड़े वेग से रथ पर सवार हो युद्ध करने के लिए बाहर निकला। वह धनुष तथा क्रोध को धारणकर रहा था, बढ़े हुए प्रताप और ऊँची उठी ध्वजा से युक्त था, महाबलवान् था, काले सर्प के समान भयंकर भौंहों से उसका ललाट कुटिल हो रहा था, वह अपने लाल-लाल नेत्रों से ऐसा जान पड़ता था मानो जगत्रूपी वन को जला ही रहा हो। अपने ही प्रतिबिंब के समान दिखने वाले अन्य सामंत उसे घेरे हुए थे तथा तेज से वह आकाश को आच्छादित कर रहा था ।।471-474।। तदनंतर यम लोकपाल को बाहर निकला देख दशानन ने विभीषण को मना किया और स्वयं ही क्रोध को धारण करता हुआ युद्ध करने के लिए उठा ।।475।। साटोप के मारे जाने से जो अत्यंत देदीप्यमान दिख रहा था ऐसे भयंकर मुख को धारण करनेवाला यम ने दशानन के साथ युद्ध करना शुरू किया ।।476।। यम को देख राक्षसों की सेना भयभीत हो उठी, उसकी चेष्टाएँ चंद पड़ गयीं और वह निरुत्साह हो दशानन के समीप भाग खड़ी हुई ।।477।। तदनंतर रथ पर बैठा हुआ दशानन बाणों की वर्षा करता हुआ यम के सम्मुख गया। यम भी बाणों की वर्षा कर रहा था ।।478।। तदनंतर सघन मंडल बाँधने वाले मेघों से जिस प्रकार समस्त आकाश व्याप्त हो जाता है उसी प्रकार उन दोनों के भयंकर शब्द करने वाले बाणों से समस्त आकाश व्याप्त हो गया ।।479।। अथानंतर दशानन के बाण की चोट खाकर यम का सारथी पुण्यहीन ग्रह के समान भूमि पर गिर पड़ा ।।480।। यम लोकपाल भी दशानन के तीक्ष्ण बाण से ताड़ित हो रथरहित हो गया। इस कार्य से वह इतना घबड़ाया कि क्षण-भर में छिपकर आकाश में जा उड़ा ।।481।। तदनंतर भय से जिसका शरीर काँप रहा था ऐसा यम अपने अंतःपुर, पुत्र और मंत्रियों को साथ लेकर रथनूपुर नगर में पहुँचा ।।482।। और बड़ी घबराहट के साथ इंद्र को नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगा कि हे देव! मेरी बात सुनिए। अब मुझे यमराज की लीला से प्रयोजन नहीं है ।।483।। हे नाथ! चाहे आप प्रसन्न हों, चाहे क्रोध करें, चाहे मेरा जीवन हरण करें अथवा चाहे जो आपकी इच्छा हो सो करें परंतु अब मैं यम पना अर्थात् यम नामा लोकपाल का कार्य नहीं करूँगा ।।484।। विशाल तेज को धारण करने वाले जिस योद्धा ने पहले युद्ध में वैश्रवण को जीता था उसी योद्धा दशानन ने मुझे भी पराजित किया है। यद्यपि मैं चिरकाल तक उसके साथ युद्ध करता रहा पर स्थिर नहीं रह सका ।।485।। उस महात्मा का शरीर ऐसा जान पड़ता है मानो वीर रस से ही बना हो। वह आकाश के मध्य में स्थित ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान दुनिरीक्ष्य है अर्थात् उसकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता है ।।486।। यह सुनकर इंद्र युद्ध के लिए उद्यत हुआ परंतु नीति की यथार्थता को जानने वाले मंत्री मंडल ने उसे रोक दिया ।।487।। इंद्र, यम का जामाता था सो यम की बात सुन मंद हास्य करते हुए उसने कहा कि हे मातुल! दशानन कहां जायेगा? तुम भय को छोड़ो और निश्चिंत होकर इस आसन पर सुख से बैठो ।।488।। इस प्रकार जामाता के वचन से शत्रु का भय छोड़कर यम इंद्र के द्वारा बतलाये हुए नगर में सुख से रहने लगा ।।489।। बहुत भारी गर्व को धारण करनेवाला इंद्र यम का सन्मान कर अंतःपुर में चला गया और वहाँ जाकर काम भोगरूपी समुद्र में निमग्न हो गया ।।490।। यम ने दशानन का जो चरित्र इंद्र के लिए कहा था तथा युद्ध में दशानन से पराजित होकर वैश्रवण को जो वनवास करना पड़ा था, ऐश्वर्य के मद में मस्त रहनेवाले इंद्र के लिए वह सब क्षण भर में उस प्रकार विस्मृत हो गया जिस प्रकार कि पहले पढ़ा शास्त्र अभ्यास न करने पर विस्मृत हो जाता है ।।491-492।। स्वप्न में उपलब्ध वस्तु का कुछ तो भी स्मरण रहता है परंतु इंद्र के लिए पूर्व कथित बात का निर्मूल विस्मरण हो गया ।।493।। इधर इंद्र का यह हाल हुआ उधर यम सुरसंगीत नामा नगर का स्वामित्व पाकर दशानन से प्राप्त हुए तिरस्कार को बिलकुल भूल गया ।।494।। वह मानता था कि मेरी पुत्री सर्वश्री अत्यंत रूपवती है और इंद्र को प्राणों से भी अधिक प्रिय है ।।495।। इस प्रकार एक बड़े पुरुष के साथ मेरा अंतरंग संबंध है इसलिए इंद्र का सम्मान पाकर मेरा जन्म कृतकृत्य अर्थात् सफल हुआ है ।।466।।
तदनंतर महान् अभ्युदय और उत्साह को धारण करने वाले दशानन ने यम को हटाकर किष्किंध नामा नगर सूर्यरज के लिए दिया ।।497।। और ऋक्षरज के लिए परम संपत्ति को धारण करनेवाला किष्कुपुर नगर दिया। इस प्रकार सूर्यरज और ऋक्षरज दोनों ही अपनी कुलपरंपरा से आगत नगरों को पाकर सुख से रहने लगे ।।498।। जिनकी शोभा इंद्र के नगर के समान थी और जिन में सुवर्णमय भवन बने हुए थे ऐसे वे दोनों नगर योग्य स्वामी से युक्त होकर परम लक्ष्मी को प्राप्त हुए ।।499।। बहुत भारी लक्ष्मी और कीर्ति को धारण करने वाले दशानन ने कृतकृत्य होकर बड़े वैभव के साथ त्रिकूटाचल के शिखर की ओर प्रस्थान किया। उस समय शत्रु राजा प्रणाम करते हुए उससे मिल रहे थे। वह स्वयं उत्तम था और जिस प्रकार शुक्लपक्ष में चंद्रमा प्रतिदिन पूर्ण होता रहता है उसी प्रकार वह भी प्रतिदिन सेवनीय वैभव से पूर्ण होता रहता था। रत्नमयी मालाओं से युक्त, ऊँचे शिखरों की पंक्ति से सुशोभित, सुंदर और इच्छानुसार गमन करने वाले पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर वह जा रहा था। वह परम धैर्य से युक्त था तथा पुण्य के फलस्वरूप अनेक अम्युदय उसे प्राप्त थे ।।500-503।।
तदनंतर परम हर्ष को प्राप्त, नाना अलंकारों से युक्त एवं उत्तमोत्तम वस्त्र धारण करने वाले राक्षसों के झुंड के झुंड जोर-जोर से निम्नांकित मंगल वाक्यों का उच्चारण कर रहे थे कि हे देव! तुम्हारी जय हो, तुम समृद्धि को प्राप्त होओ, चिरकाल तक जीते रहो, बढ़ते रहो और निरंतर अभ्युदय को प्राप्त होते रहो ।।504-505।। वे राक्षस, सिंह, शार्दूल, हाथी, घोड़े तथा हंस आदि वाहनों पर आरूढ़ थे। नाना प्रकार के विभ्रमों से युक्त थे। हर्ष से उनके नेत्र फूल रहे थे। वे देवों जैसी आकृतियों को धारण कर रहे थे। अपने तेज से उन्होंने दिशाओं को व्याप्त कर रखा था। उनकी प्रभा से समस्त दिशाएँ जगमगा रही थीं और वे वन, पर्वत तथा समुद्र आदि सर्व स्थानों में चल रहे थे ।।506-507।। जिसका किनारा नहीं दीख रहा था, जो अत्यंत गहरा था, बड़े-बड़े ग्राह-मगरमच्छों से व्याप्त था, तमाल वन के समान श्याम था, पर्वतों जैसी ऊँची-ऊँची तरंगों के समूह उठ रहे थे, जो रसातल के समान अनेक बड़े-बड़े नागों-सर्पों से भयंकर था और नाना-प्रकार के रत्नों की किरणों के समूह से अनुरक्त स्थलों से सुशोभित था ऐसे अनेक आश्चर्यों से युक्त समुद्र को देखते हुए वे राक्षस आश्चर्य से भर रहे थे। अहो, ही, आदि आश्चर्य व्यंजक शब्दों से उनके मुख बार-बार मुखरित हो रहे थे। इस प्रकार अनेक राक्षस दशानन के पीछे पीछे चल रहे थे ।।508-510।।
अथानंतर जिसमें बड़ी-बड़ी शालाएँ देदीप्यमान हो रही थीं, जो गंभीर परिखा से आवृत्त थी, जो झरोखों में लगे हुए मणियों से कहीं तो कुंद के समान सफेद, कहीं महानील मणियों के समान नील, कहीं पद्मरागमणि के समान लाल, कहीं पुष्परागमणियों के समान प्रभास्वर और कहीं गरुड़मणियों के समान गहरे नील वर्ण वाले महलों में व्याप्त थी। जो स्वभाव से ही सुशोभित थी फिर राक्षसों के अधिपति दशानन के शुभागमन के अवसर पर आश्चर्यकारी हर्ष से भरे भक्त नागरिकजनों के द्वारा और भी अधिक सुशोभित की गयी थी ऐसी अपनी लंका नगरी में हितकारी उदार शासक दशानन ने नि:शंक हो इंद्र के समान प्रवेश किया। प्रवेश करते समय दशानन, पर्वतों के समान ऊँचे-ऊँचे हाथियों, बड़े-बड़े महलों के समान रत्नों से रंजित रथों, जिनकी लगाम के स्वर्णमयी छल्ले शब्द कर रहे थे एवं जिनके आजूबाजू चमर ढोले जा रहे थे ऐसे घोड़ों जिनके शिखर दूर तब आकाश में चले गये थे ऐसे रंगबिरंगे विमानों, चंद्रमा के समान उज्ज्वल छत्रों, और जिनका अंचल आकाश में दूर-दूर तक फहरा रहा था ऐसी ध्वजाओं से लंका की शोभा को अत्यंत अधिक बढ़ा रहा था। उत्तमोत्तम चारणों के झुंड मंगल शब्दों का उच्चारण कर रहे थे। वीणा, बाँसुरी और शंखों के शब्द से मिश्रित तुरही की विशालध्वनि से समस्त दिशा और आकाश व्याप्त हो रहे थे ।।511-518।। तदनंतर कुलक्रम से आगत स्वामी के दर्शन करने की जिनकी लालसा बढ़ रही थी, जिन्होंने आभूषण तथा अत्यंत सुंदर वस्त्रादि संपदाएँ धारण कर रखी थी और जो नृत्य करती हुई नयनाभिराम गणिकाओं के समूह से युक्त थे, ऐसे समस्त पुरवासी जन, फलों-फूलों, पत्तों और रत्नों से निर्मित अर्घ लेकर बार-बार आर्शीवाद का उच्चारण करते हुए दशानन के समक्ष आये। उन पुरवासियों ने वृद्धजनों को अपने आगे कर रखा था। उन्होंने आते ही दशानन को नमस्कार कर उसकी पूजा की ।।519-521।। दशानन ने सबका सम्मान कर उन्हें विदा किया और सब अपने मुखों से उसी का गुणगान करते हुए अपने-अपने घर चले गये।।522।। अथानंतर जिनकी बुद्धि कौतुक से व्याप्त हो रही थी और जिन्होंने तरह-तरह के आभूषण धारण कर रखे थे ऐसी उसकी दर्शनाभिलाषी स्त्रियों से दशानन का घर भर गया ।।523।। उन स्त्रियों में कितनी ही स्त्रियाँ झरोंखों के सम्मुख आ रही थी। शीघ्रता के कारण उनके वस्त्र खुल रहे थे और परस्पर की धक्काधूमी से उनके मोतियों के हार तथा अन्य आभूषण टूट-टूटकर गिरे रहे थे ।।524।। कितनी ही स्त्रियाँ अपने स्थूल स्तनों से एक दूसरे को पीड़ा पहुँचा रही थीं और उससे उनके कुंडल हिल रहे थे। कितनी ही स्त्रियों के दोनों पैर रुनझुन करते हुए नुपूरों से झंकृत हो रहे थे ।।525।। कोई स्त्री सामने खड़ी दूसरी स्त्री से कह रही थी कि हे माता! क्या देख नहीं रही हो? अरी दुर्भगे! जरा बगल में हो जा, मुझे भी रास्ता दे दे। कोई कह रही थी कि अरी भली आदमिन! तू यहाँ से चली जा, तू यहाँ शोभा नहीं देती ।।526।। इत्यादि शब्द वे स्त्रियाँ कर रहीं थीं। उस समय उनके मुखकमल हर्ष से खिल रहे थे। वे अन्य सब काम छोड़कर एक दशानन को ही देख रही थीं ।।527।। इस प्रकार यम का मान मर्दन करनेवाला दशानन, लंका नगरी में स्थित चूड़ामणि के समान मनोहर अपने सुसज्जित महल में अंतःपुर सहित सुख से रहने लगा ।।528।। इसके सिवाय अन्य विद्याधर राजा भी देवों के समान निरंतर महा आनंद को प्राप्त हुए यथायोग्य स्थान में रहने लगे ।।529।।
गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! जो निर्मल कार्य करते हैं उन्हें नाना प्रकार के रत्नादि संपदाओं की प्राप्ति होती है, उनके प्रबल शत्रुओं का समूह नष्ट होता है और समस्त संसार में फैलने वाला उज्जवल यश उन्हें प्राप्त होता है ।।530।। पंचेंद्रियों के विषय सबसे प्रबल शत्रु हैं सो जो निर्मल कार्य करते हैं उनके ये प्रबल शत्रु भी तीनों लोकों में अपनी स्मृति नष्ट कर देते हैं अर्थात् इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं कि उनका स्मरण भी नहीं रहता। इसी प्रकार बाह्य में स्थित होनेवाला जो शत्रुओं का समूह है वह भी निर्मल कार्य करने वाले मनुष्यों के चरणों के समीप निरंतर नमस्कार करता रहता है। भावार्थ- निर्मल कार्य करने वाले मनुष्यों के अंतरंग और बहिरंग दोनों ही शत्रु नष्ट हो जाते हैं ।।531।। ऐसा विचारकर हे श्रेष्ठ चित्त के धारक पुरुषो! विषयरूपी शत्रुसमूह की उपासना करना उचित नहीं है। क्योंकि उनकी उपासना करनेवाला मनुष्य अंधकार से युक्त नरकरूपी गर्त में पड़ता है न कि सूर्य की किरणों से प्रकाशमान उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ।।532।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में
दशानन का वर्णन करनेवाला आठवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।8।।