ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 7
From जैनकोष
अथानंतर रथनूपुर में अत्यंत पराक्रम का धारक राजा सहस्त्रार राज्य करता था ।।1।। उसकी मैनासुंदरी नामक प्रिय स्त्री थी। मैनासुंदरी मन तथा शरीर दोनों से ही सुंदर थी और अनेक उत्तमोत्तम गुणों से युक्त थी ।।2।। वह गर्भिणी हुई। गर्भ के कारण उसका समस्त शरीर कृश हो गया और समस्त आभूषण शिथिल पड़ गये। उसे बड़े आदर के साथ देखकर राजा सहस्त्रार ने पूछा कि हे प्रिये! तेरे अंग अत्यंत कृशता को क्यों धारण कर रहे है? तेरी क्या अभिलाषा है? जो मेरे राज्य में दुर्लभ हो ।।3-4।। हे प्राणों से अधिक प्यारी देवी! कह तेरी क्या अभिलाषा है? मैं आज ही उसे अच्छी तरह पूर्ण करूंगा ।।5।। हे कांते! देवांगनाओं पर शासन करने वाली इंद्राणी को भी मैं ऐसा करने में समर्थ हूँ कि वह अपनी हथेलियों से तेरे पाद मर्दन करे ।।6।। पति के ऐसा कहने पर उसकी सुंदर गोद में बैठी मैनासुंदरी, विनय से लीला पूर्वक इस प्रकार के वचन बोली ।।7।। हे नाथ! जब से यह कोई बालक मेरे गर्भ में आया है तभी से इंद्र की संपदा भोगने की मेरी इच्छा है ।।8।। हे स्वामिन्! अत्यंत विवशता के कारण ही मैंने लज्जा छोड़कर ये मनोरथ आपके लिए प्रकट किये है ।।9।। वल्लभा के ऐसा कहते ही विध्याचल से समृद्ध सहस्त्रार ने तत्क्षण ही उसके लिए इंद्र जैसी भोग संपदा तैयार कर दी ।।10।। इस प्रकार दोहद पूर्ण होने से उसका समस्त शरीर पुष्ट हो गया और वह कहने में न आवे ऐसी दीप्ति तथा कांति धारण करने लगी ।।11।। उसका इतना तेज बढ़ा कि वह ऊपर आकाश में जाते हुए सूर्य से भी खिन्न हो उठती थी तथा समस्त दिशाओं को आज्ञा देने की उसकी इच्छा होती थी ।।12।। समय पूर्ण होने पर उसने, जिसका शरीर समस्त लक्षणों से युक्त था तथा जो बांधव जनों के हर्ष और संपदा का उत्तम कारण था ऐसा पुत्र उत्पन्न किया ।।13।। तदनंतर हर्ष से भरे सहस्त्रा ने पुत्र-जन्म का महान् उत्सव किया। उस समय शंख और तुरही के शब्दों से दिशाएँ बहरी हो गयी थीं ।।14।। नगर की स्त्रियां नृत्य करते समय जब नुपूरों की झनकार के साथ अपने पैर पृथिवी पर पटकती थीं तो पृथिवी तल काँप उठता था ।।15।। बिना विचार किये इच्छानुसार धन दान में दिया गया । मनुष्यों की बात दूर रही हाथियों ने भी उस समय अपनी चंचल सूंड़ ऊपर उठाकर गर्जना करते हुए नृत्य किया था ।।16।। शत्रुओं के घरों में शोक सूचक उत्पात होने लगे और बंधुजनों के घरों में बहुत भारी संपदाओं की सूचना देने वाले शुभ शकुन होने लगे ।।17।। चूँकि बालक के गर्भ में रहते हुए माता को इंद्र के भोग भोगने की इच्छा हुई थी इसलिए पिता ने उस बालक का इंद्र नाम रखा ।।18।। वह बालक था फिर भी उसकी क्रीड़ाएँ शक्ति संपन्न तरुण मनुष्य को जीतने वाली थी, शत्रुओं का मान खंडित करने वाली थीं और उत्तम कार्य में प्रवृत्त थीं ।।19।। क्रम-क्रम से वह उस यौवन को प्राप्त हुआ जिसने तेज से सूर्य को, कांति से चंद्रमा को और स्थैर्य से पर्वत को जीत लिया था ।।20।। उसके कंधे दिग्गज के गंडस्थल के समान स्थूल और भुजाएँ गोल थीं तथा उसने विशाल वक्षस्थल से समस्त दिशाएँ मानो आच्छादित ही कर रखी थीं ।।21।। जिनके घुटने मांसपेशियों में वद्ध थे ऐसी उसकी दोनों गोल जाँघें स्तंभों की तरह वक्षस्थल रूपी भवन को धारण करने के कारण परम स्थिरता को प्राप्त हुई थीं ।।22।। बहुत भारी विद्याबल और ऋद्धि से संपन्न उस तरुण इंद्र ने विजयार्ध पर्वत के समस्त विद्याधर राजाओं को बेंत के समान नम्र वृत्ति धारण करा रखी थी अर्थात् सब उसके आज्ञाकारी थे ।।23।। उसने इंद्र के महल के समान सुंदर महल बनवाया। अड़तालीस हजार उसकी स्त्रियाँ थीं। छब्बीस हजार नृत्यकार नृत्य करते थे। आकाश में चलने वाले हाथियों और घोड़ों की तो गिनती ही नहीं थी ।।24-25।। एक हाथी था, जो चंद्रमा के समान सफेद था, ऊँचा था, आकाशरूपी आँगन में चलनेवाला था, जिसे कोई रोक नहीं सकता था, महा शक्तिशाली था, आठ दाँतों से सुशोभित था, बड़ी मोटी गोल सूंड़ से जो दिशाओं में मानो अर्गल लगा रखता था, तथा गुणों के द्वारा पृथिवी पर प्रसिद्ध था, उसका उसने ऐरावत नाम रखा था ।।26-27।। चारों दिशाओं में परम शक्ति से युक्त चार लोकपाल नियुक्त किये, पट्टरानी का नाम शची और सभा का नाम सुधर्मा रखा ।।28।। वज नाम का शस्त्र, तीन सभाएं, अप्सराओं के समूह, हरिणकेशी सेनापति, अश्विनी कुमार वैद्य, आठ वसु, चार प्रकार के देव, नारद, तुंबुरु, विश्वास आदि गायक, उर्वशी, मेनका, मजुस्वनी आदि अप्सरा, और बृहस्पति मंत्री आदि समस्त वैभव उसने इंद्र के समान ही निश्चित किया था ।।29-31।। तदनंतर यह, नमि विद्याधर के पुण्योदय से प्राप्त इंद्र का ऐश्वर्य धारण करता हुआ समस्त विद्याधरों का अधिपति हुआ ।।32।।
इसी समय लंकापुरी का स्वामी महा मानी माली था सो समस्त विद्याधरों पर पहले ही के समान शासन करता था ।।33।। अपने भाइयों के बल से गर्व को धारण करनेवाला माली, लंका में रहकर ही विजयार्ध पर्वत के समस्त नगरों में अपना शासन करता था ।।34।। वेश्या, वाहन, विमान, कन्या, वस्त्र तथा आभूषण आदि जो-जो श्रेष्ठ वस्तु, दोनों श्रेणियों में गुप्तचरों से इसे मालूम होती थी उस सबको धीर-वीर माली जबरदस्ती शीघ्र ही अपने यहाँ बुलवा लेता था। वह बल, विद्या, विभूति आदि से अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ मानता था ।।35-36।। अब इंद्र का आश्रय पाकर विद्याधर माली की आज्ञा भंग करने लगे सो यह समाचार सुन महाबलवान् माली भाई तथा किष्किंध के पुत्रों के साथ विजयार्ध गिरि को ओर चला ।।37।। कोई अनेक प्रकार की कांति को धारण करने वाले तथा संध्याकार के मेघों के समान ऊँचे विमानों पर बैठकर जा रहे थे, कोई बड़े―बड़े महलों के समान सुवर्ण जड़ित रथों में बैठकर चल रहे थे, कोई मेघों के समान श्यामवर्ण हाथियों पर बैठे थे, कोई मन के समान शीघ्र गमन करने वाले घोड़ों पर सवार थे, कोई शार्दूलों पर, कोई चीतों पर, कोई बैलों पर, कोई सिंहों पर, कोई ऊँटों पर, कोई गधों पर, कोई भैंसों पर, कोई हंसों पर, कोई भेड़ियों पर तथा कोई अन्य वाहनों पर बैठकर प्रस्थान कर रहे थे। इस प्रकार महा देदीप्यमान शरीर के धारक अन्यान्य वाहनों से समस्त आकाश गण को आच्छादित करता हुआ माली विजयार्ध के निकट पहुँचा ।।38-40।।
अथानंतर भाई के स्नेह से भरे सुमाली ने माली से कहा कि हे भाई! हम सब आज यहीं ठहरें, आगे न चलें अथवा लंका को वापस लौट चलें। इसका कारण यह है कि आज मार्ग में बार-बार अपशकुन दिखाई देते ई ।।41-42।। देखो उधर सूखे वृक्ष के अग्रभाग पर बैठा कौआ एक पैर संकुचित कर बार-बार पंख फड़फड़ा रहा है। उसका मन अत्यंत व्याकुल दिखाई देता है, सूखा काठ चोंच में दबाकर सूर्य की ओर देखता हुआ क्रूर शब्द कर रहा है मानो हम लोगों को आगे जाने से रोक रहा है ।।43-44।। इधर ज्वालाओं से जिसका मुख अत्यंत रुद्र मालूम होता है ऐसी यह शृगाली दक्षिण दिशा में रोमांच धारण करती हुई भयंकर शब्द कर रही है ।।45।। देखो, परिवेष से युक्त सूर्य के बिंब में वह भयंकर कबंध दिखाई दे रहा है और उससे खून की बूंदों का समूह बरस रहा है ।।46।। उधर समस्त पर्वतों को कंपित करने वाले भयंकर वज्र गिर रहे हैं तो इधर आकाश में खुले केश धारण करने वाली समस्त स्त्रियाँ दिखाई दे रहीं हैं ।।47।। देखो, दाहिनी ओर वह गदर्भ ऊपर को मुख उठाकर आकाश को बड़ी तीक्ष्णता से मुखरित कर रहा है तथा खुर के अग्रभाग से पृथिवी को खोदता हुआ भयंकर शब्द कर रहा है ।।48।।
तदनंतर बाजूबंदों से दोनों भुजाओं को अच्छी तरह पीड़ित करते हुए माली ने मुस्कराकर सुमाली को इस प्रकार स्पष्ट उत्तर दिया कि शत्रु के वध का संकल्प कर तथा विजयी हाथी पर सवार हो जो पुरुषार्थ का धारी युद्ध के लिए निकल पड़ा है वह वापस कैसे लौट सकता है ।।49-50।। जो मदमत्त हाथी की दाढ़ी को हिला रहा है, अपनी आँखों से ही जिसने शत्रुओं को भयभीत कर दिया है, जो तीक्ष्ण बाणों से परिपूर्ण है, दाँतों से जिसने अधरों को चबा रखा है, तनी हुई भृकुटियों से जिसका मुँह कुटिल हो रहा है तथा देव लोग जिसे आश्चर्यचकित हो देखते हैं ऐसा योद्धा क्या वापस लौटता है ।।51-52।। मैंने मेरु पर्वत की कंदराओं तथा सुंदर नंदन वन में रमण किया है, गगनचुंबी जिनमंदिर बनवाये हैं ।।53।। किमिचछक दान दिया है, उत्तमोत्तम भोग भोगे हैं और समस्त संसार को उज्ज्वल करने वाला यश उपार्जित किया है ।।54।। इस प्रकार जन्म लेने का जो कार्य था उसे मैं कर चुका हूँ- कृतकृत्य हुआ हूँ, अब युद्ध में मुझे प्राण भी छोड़ना पड़े तो इससे क्या? मुझे अन्य की आवश्यकता नहीं ।।55।। वह बेचारा भयभीत हो युद्ध से भाग गया, जनता के ऐसे शब्दों को धीरवीर मनुष्य कैसे सुन सकता है ।।56।। क्रोध से जिसका मुख तमतमा रहा था ऐसा माली भाई से इस प्रकार कहता हुआ तत्क्षण बिना जाने ही विजयार्ध के शिखर पर चला गया ।।57।। तदनंतर जिन-जिन विद्याधरों ने उसका शासन नहीं माना था उन सबके नगर उसने क्रूर सामंतों के द्वारा नष्ट-भ्रष्ट करे ।।58।। जिस प्रकार मदमस्त हाथी कमल वनों को विध्वस्त कर देते हैं उसी प्रकार क्रोध से भरे विद्याधरों ने वहाँ के उद्यान- बाग-बगीचे विध्वस्त कर दिये ।।59।।
तदनंतर माली के सामंतों द्वारा पीड़ित विद्याधरों की प्रजा भय से कांपती हुई सहस्त्रार की शरण में गयी ।।60।। और उसके चरणों में नमस्कार कर इस प्रकार दीनता भरे शब्द कहने लगी। हे नाथ! सुकेश के पुत्रों ने समस्त प्रजा को क्षत-विक्षत कर दिया है सो उसकी रक्षा करो ।।61।। तब सहस्त्रार ने विद्याधरों से कहा कि आप लोग मेरे पुत्र इंद्र के पास जाओ और उससे अपनी रक्षा की बात कहो ।।62।। जिस प्रकार विलक्ष शासन को धारण करनेवाला इंद्र स्वर्ग की रक्षा करता है उसी प्रकार पाप को नष्ट करने वाला मेरा पुत्र इस समस्त लोक की रक्षा करता है ।।63।। इस प्रकार सहस्त्रार का उतर पाकर विद्याधर इंद्र के समीप गये और हाथ जोड़ प्रणाम करने के बाद सब समाचार उससे कहने लगे ।।64।। तदनंतर गर्व पूर्ण मुस्कान से जिसका मुख सफेद हो रहा था ऐसे क्रुद्ध इंद्र ने पास में रखे वज्र पर लाल-लाल नेत्र डालकर कहा कि ।।65।। जो लोक के कंटक हैं मैं उन्हें बड़े प्रयत्न से खोज-खोजकर नष्ट करना चाहता हूँ फिर आप लोग तो स्वयं ही मेरे पास आये हैं और मैं लोक का रक्षक कहलाता हूँ ।।66।।
तदनंतर जिसे सुनकर मदोन्मत्त हाथी अपने बंधन के खंभों को तोड़ देते थे ऐसा तुरही का विषम शब्द उसने युद्ध का संकेत करने के लिए कराया ।।67।। उसे सुनते ही जो कवचरूपी आभूषण से सहित थे, हथियार जिनके हाथ में थे और जो युद्ध संबंधी परम हर्ष धारण कर रहे थे ऐसे विद्याधर अपने-अपने घरों से बाहर निकल पड़े ।।68।। वे विद्याधर मायामयी रथ, घोड़े, हाथी, ऊंट, सिंह, व्याध, भेड़िया, मृग, हंस, बकरा, बैल, मेढ़ा, विमान, मोर और गंधर्व आदि वाहनों पर बैठे ।।69।। इनके सिवाय जो नाना प्रकार के शंखों की प्रभा से आलिंगित थे तथा भौंहों के भंग से जिनके मुख विषम दिखाई देते थे ऐसे लोकपाल भी अपने अपने परिकर के साथ बाहर निकल पड़े ।।70।। जिसका शरीर कवच से आच्छादित था और जिसके ऊपर सफेद छत्र फिर रहा था ऐसा इंद्र विद्याधर भी ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो देवों के साथ बाहर निकला ।।71।।
तदनंतर प्रलयकाल के मेघों के समान भयंकर देवों और राक्षसों जे बीच ऐसा विकत युद्ध हुआ कि जो बड़ी कठिनाई से देखा जाता था तथा क्रूर चेष्टाओं से भरा था ।।72।। घोड़ा घोड़ा को गिरा रहा था, रथ रथ को चूर्ण कर रहा था, हाथी हाथी को भग्न कर रहा था और पैदल सिपाही पैदल सिपाही को नष्ट कर रहा था ।।73।। भाले, मुद्गर, चक्र, तलवार, बंदूक, मूसल, बाण, गदा, कनक और पाश आदि शंखों से समस्त आकाश आच्छादित हो गया था ।।74।। तदनंतर देव कहने वाले विद्याधरों ने एक ऐसी सेना बनायी जो महान् उत्साह से युक्त थी, आगे चलने में कुशल थी, उदार थी और शत्रु के उद्योग को विचलित करने वाली थी ।।75।। देवों की सेना के प्रधान विद्युत्वान्, चारुदान, चंद्र, नित्यगति तथा चलज्ज्योति प्रभाढ़्य आदि देवों ने राक्षसों की सेना को क्षत विक्षत बना दिया। तब वानरवंशियों में प्रधान, दुर्धर पराक्रम के धारी ऋक्षरज और सूर्यरज राक्षसों को नष्ट होते देख युद्ध करने के लिए तैयार हुए ।।76-77।। ये दोनों ही वीर विजयी जैसे वेग को धारण करते थे इसलिए क्षण-क्षण में अन्यत्र दिखाई देते थे। इन दोनों ने देवों को इतना मारा कि उनसे पीठ दिखाते ही बनी ।।78।। इधर राक्षस भी इन दोनों का बल पाकर शस्त्रों के समूह से आकाश में अंधकार फैलाते हुए युद्ध करने के लिए उद्यत हुए ।।79।। उधर जब इंद्र ने देखा कि राक्षसों और वानरवंशियों के द्वारा देवों की सेना नष्ट की जा रही है तब वह क्रुद्ध हो स्वयं युद्ध करने के लिए उठा ।।80।। तदनंतर शंख वर्षा और गंभीर गर्जना करने वाले वानर तथा राक्षस रूपी मेघों ने उस इंद्र रूपी पर्वत को घेर लिया ।।81।। तब लोकपालों की रक्षा करते हुए इंद्र ने जोर से गर्जना की और सब ओर छोड़े हुए बाणों से वानर तथा राक्षसों को नष्ट करना शुरू कर दिया ।।82।। तदनंतर सेना को व्याकुल देख माली स्वयं उठा। उस समय वह क्रोध से उत्पन्न तेज से समस्त आकाश को देदीप्यमान कर रहा था ।।83।। तदनंतर माली और इंद्र का अत्यंत भयंकर युद्ध हुआ। आश्चर्य से जिनके चित्त भर रहे थे ऐसी दोनों ओर की सेनाएं उनके उस युद्ध को बड़े गौरव से देख रही थीं ।।84।। तदनंतर इंद्र ने, जो कान तक खींचकर छोड़ा गया था तथा अपने नाम से चिह्नित था ऐसा एक बाण माली के ललाट पर गाड़ दिया ।।85।। इधर माली ने भी उसकी पीड़ा रोककर वेग से छोड़ी हुई शक्ति के द्वारा इंद्र के ललाट के समीप ही जमकर चोट पहुंचाई ।।86।। खून से जिसका शरीर लाल हो रहा था, ऐसा क्रोधयुक्त माली शीघ्र ही इंद्र के पास इस तरह पहुँचा जिस तरह कि सूर्य अग्रगण्य के समीप पहुँचता है ।।87।। तदनंतर माली ज्यों ही सामने आया त्यों ही इंद्र ने सूर्यबिंब के समान चक्र से उसका सिर काट डाला ।।88।। भाई को मरा देख सुमाली बहुत दुखी हुआ। उसने विचार किया कि विद्याधरों का चक्रवर्ती इंद्र महा शक्तिशाली है अत: इसके सामने हमारा स्थिर रहना असंभव है। ऐसा विचारकर नीतिकुशल सुमाली अपने समस्त परिवार के साथ उसी समय युद्ध से भाग गया ।।89-90।। उसका वध करने के लिए इंद्र उसी मार्ग से जाने को उद्यत हुआ तब स्वामीभक्ति में तत्पर सोम ने नम्र होकर प्रार्थना को कि हे प्रभो! शत्रु को मारने वाले मुझ जैसे भृत्य के रहते हुए आप स्वयं क्यों प्रयत्न करते हैं? मुझे आज्ञा दीजिए ।।91-92।। ऐसा ही हो, इस प्रकार इंद्र के कहते ही सोम शत्रु के पीछे उसी मार्ग से चल पड़ा। वह शत्रु तक पहुंचने वाली किरणों के समूह के समान बाणों के समूह की वर्षा करता जाता था ।।93।।
तदनंतर जिस प्रकार जल वृष्टि से पीड़ित गायों का समूह व्याकुलता को प्राप्त होता है उसी प्रकार सोम के बाणों से पीड़ित वानर और राक्षसों की सेना व्याकुलता को प्राप्त हुई ।।94।। तदनंतर अवसर के योग्य कार्य करने वाले, क्रोध से देदीप्यमान माल्यवान् ने मुड़कर सोम से कहा कि अरे पापी! तू मूर्ख लोगों से घिरा है अत: तू युद्ध की मर्यादा की नहीं जानता। यह कहकर उसने भिंडिमाल नामक शस्त्र से सोम के वक्षस्थल में इतनी गहरी चोट पहुँचायी कि वह वहीं मूर्च्छित हो गया ।।95-96।। मूर्च्छा के कारण जिसके नेत्र निमीलित थे, ऐसा सोम जब तक कुछ विश्राम लेता है तब तक राक्षस और वानर अंतर्हित हो गये ।।97।।जिस प्रकार कोई सिंह के उदर से सुरक्षित निकल आवे उसी प्रकार वे भी सोम की चपेट से सुरक्षित निकलकर अलकारोदयपुर अर्थात् पाताल लंका में वापस आ गये। उस समय उन्हें ऐसा लगा मानो पुनर्जन्म को ही प्राप्त हुए हों ।।98।। इधर जब सोम की मूर्च्छा दूर हुई तो उसने दिशाओं को शत्रु से खाली देखा। निदान, शत्रु की विजय से जिसकी स्तुति हो रही थी ऐसा सोम इंद्र के समीप वापस पहुँचा ।।99।।
जिसने शत्रुओं को नष्ट कर दिया था तथा वंदीजनों के समूह जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसे इंद्र विद्याधर ने संतोष से भरे लोकपालों के साथ रथनूपुर नगर में प्रदेश किया। वह ऐरावत हाथी पर सवार था, उसके दोनों ओर चमर ढोले जा रहे थे, सफेद छत्र की उस पर छाया थी, नृत्य करते हुए देव उसके आगे-आगे चल रहे थे, तथा झरोखों में बैठी उत्तम स्त्रियाँ अपने नयनों से उसे देख रही थीं। उस समय रत्नमयी ध्वजाओं से रथनूपुर नगर की शोभा बढ़ रही थी, उसमें ऊँचे-ऊँचे तोरण खड़े किये गये थे, उसकी गलियों में घुटनों तक फूल बिछाये गये थे और केशर के जल से समस्त नगर सींचा गया था। ऐसे रथनूपुर नगर में उसने बडी विभूति के साथ प्रवेश किया ।।100-103।। राजमहल में पहुँचने पर उसने हाथ जोड़कर माता-पिता के चरणों में नमस्कार किया और माता-पिता ने भी काँपते हुए हाथ से उसके शरीर का स्पर्श किया ।।104।। इस प्रकार शत्रुओं को जीतकर वह परम हर्ष को प्राप्त हुआ और उत्कृष्ट भोग भोगता हुआ प्रजा पालन में तत्पर रहने लगा ।।105।। तदनंतर वह लोक में इंद्र की प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और विजयार्ध पर्वत स्वर्ग कहलाने लगा ।।106।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! अब लोकपालों की उत्पत्ति कहता हूँ सो मन को एकाग्र कर सुनो ।।107।। स्वर्ग लोक से च्युत होकर मकरध्वज विद्याधर की अदिति नामा स्त्री के उदर से सोम नाम का लोकपाल उत्पन्न हुआ था। यह बहुत ही कांतिवां था। इंद्र ने इसे द्योति:संग नामक नगर की पूर्व दिशा में लोकपाल स्थापित किया था। इस तरह यह परम ऋद्धि का धारी होता हुआ हर्ष से समय व्यतीत करता था ।।108-109।। मेघरथ नामा विद्याधर की वरुणा नामा स्त्री से वरुण नाम का लोकपाल विद्याधर उत्पन्न हुआ था। इंद्र ने इसे मेघपुर नगर की पश्चिम दिशा में स्थापित किया था। इसका शस्त्र पाश था जिसे सुनकर शत्रु दूर से ही भयभीत हो जाते थे ।।110-111।। महात्मा किंसूर्य विद्याधर की कनकावली स्त्री से कुबेर नाम का लोकपाल विद्याधर उत्पन्न हुआ था। यह परम विभूति से युक्त था। इंद्र ने इसे कांचनपुर नगर की उत्तर दिशा में स्थापित किया था। यह संसार में लक्ष्मी के कारण प्रसिद्ध था तथा उत्कृष्ट भोगों को प्राप्त था ।।112-113।। कालविन नामा विद्याधर की श्रीप्रभा स्त्री के गर्भ से यम नाम का लोकपाल विद्याधर उत्पन्न हुआ था। यह रुद्रकर्मा तथा परम तेजस्वी था ।।114।। इंद्र ने इसे दक्षिण सागर के द्वीप में विद्यमान किष्किंध नामक नगर की दक्षिण दिशा में स्थापित किया था। इस प्रकार यह अपने पुण्य के प्रबल फल को भोगता हुआ समय व्यतीत करता था ।।115।। जिस नगर का जो नाम पृथिवी पर प्रसिद्ध था इंद्र ने उस नगर के निवासियों को उसी नाम से प्रसिद्ध कराया था ।।116।। विद्याधरों के असुर नामक नगर में जो विद्याधर रहते थे पृथ्वीतल पर वे असुर नाम से प्रसिद्ध हुए ।।117।। यक्षगीत नगर के विद्य यक्ष कहलाये। किन्नर नामा नगर के निवासी विद्याधर किन्नर कहलाये और गंधर्वनगर के रहनेवाले विद्याधर गंधर्व नाम से प्रसिद्ध हुए ।।118।।
अश्विनीकुमार, विश्वास तथा वैश्वानर आदि विद्याधर विद्याबल से सहित हो देवों की क्रीड़ा करते थे ।।119।। इंद्र यद्यपि मनुष्य योनि में उत्पन्न हुआ था फिर भी वह पृथिवी पर लक्ष्मी का विस्तार पाकर अपने आपको इंद्र मानने लगा। सब लोग उसे नमस्कार करते थे ।।120।। संपदाओं से परम प्रीति को प्राप्त तथा निरंतर उत्सव करने वाले उस इंद्र विद्याधर की समस्त प्रजा यह भूल गयी थी कि यथार्थ में कोई इंद्र है, स्वर्ग है अथवा देव हैं ।।121।। वैभव के गर्व में फँसा इंद्र, अपने आपको इंद्र, विजयार्ध गिरि को स्वर्ग, विद्याधरों को लोकपाल और अपनी समस्त प्रजा को देव मानता था ।।122।। तीनों ही लोकों में मुझ से अधिक महापुरुष और कोई दूसरा नहीं है। मैं ही इस समस्त जगत् का प्रणेता तथा सब पदार्थों को ज्ञाता हूँ ।।123।। इस प्रकार विद्याधरों का चक्रवर्तीपन पाकर गर्व से फूला इंद्र विद्याधर अपने पूर्व जन्मोपार्जित पुण्य कर्म का फल भोगता था ।।124।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! इस भाग का जो वृत्तांत निकल चुका है उसे सुनो, जिससे धनद की उत्पत्ति का ज्ञान हो सके ।।125।। कौतुक मंगल नामा नगर में व्योम बिंदु नाम का विद्याधर रहता था। उसकी नंदवती भार्या के उदर से दो पुत्रियां उत्पन्न हुई ।।126।। उनमें बड़ी का नाम कौशिकी और छोटी का नाम कैकसी था। बडी पुत्री कौशिकी यक्षपुर के धनी विश्रवस के लिए दी गयी। उससे वैश्रवण नाम का पुत्र हुआ। उसका समस्त शरीर शुभ लक्षणों से सहित था, कमल के समान उसके नेत्र थे, वह लक्ष्मी संपन्न था तथा स्त्रियों के नेत्रों को आनंद देनेवाला था ।।127―128।। इंद्र विद्याधर ने वैश्रवण को बुलाकर उसका सत्कार किया और कहा कि तुम मुझे बहुत प्रिय हो इसलिए लंका नगरी जाकर विद्याधरों पर शासन करो ।।129।। तुम चूँकि महाबलवान् हो अत: मेरे प्रसाद के कारण आज से लेकर चार लोकपालों के सिवाय पंचम लोकपाल हो ।।130।। जो आपकी आज्ञा है वैसा ही करूँगा, यह कहकर वैश्रवण ने उसके चरणों में नमस्कार किया। तदनंतर माता-पिता से पूछकर और उन्हें नमस्कार कर वैश्रवण मंगलाचार पूर्वक अपने नगर से निकला ।।131।। विद्याधरों का समूह जिसकी आज्ञा सिर पर धारण करते थे ऐसा वैश्रवण निशंक हो बड़ी प्रसन्नता से लंका में रहने लगा ।।132।। इंद्र से हारकर सुमाली अलकारपुर नगर (पाताल लोक) में रहने लगा था। वहाँ उसकी प्रीतिमती रानी से रत्नश्रवा नाम का पुत्र हुआ। वह बहुत ही शूरवीर, त्यागी और लोक वत्सल था ।।133।। उस उदार हृदय का जीवन मित्रों का उपकार करने के लिए था, उस तेजस्वी का तेज भृत्यों का उपकार करने के लिए था ।।134।। दुर्बुद्धि को नष्ट करने वाले उस रत्नश्रवा का चातुर्य विद्वानों का उपकार करने के लिए था, वह लक्ष्मी की रक्षा बंधुजनों का उपकार करने के लिए करता था ।।135।। उसका बढ़ा-चढ़ा ऐश्वर्य दरिद्रों का उपकार करने के लिए था। सबकी रक्षा करने वाले उस रत्नश्रवा का सर्वस्व साधुओं का उपकार करने के लिए था ।।136।। उस स्वाभिमानी का मन पुण्य कार्यों का स्मरण करने के लिए था। उसकी आयु धर्म का उपकार करने वाली थी और उसका शरीर पराक्रम का उपकार करने के लिए था ।।137।। वह पिता के समान प्राणियों के समूह पर अनुकंपा करनेवाला था। बीते हुए सुकाल की तरह आज भी प्राणी उसका स्मरण करते है ।।138।। शीलरूपी आभूषण को धारण करने वाले उस रत्नश्रवा के लिए परस्त्री माता के समान थी। परद्रव्य तृण के समान था और परपुरुष अपने शरीर के समान था अर्थात् जिस प्रकार वह अपने शरीर की रक्षा करता था उसी प्रकार परपुरुष को भी रक्षा करता था ।।139।। जब गुणी मनुष्यों की गणना शुरू होती थी तब विद्वान् लोग सबसे पहले इसी को गिनते थे और जब दोषों की चर्चा होती थी तब प्राणी इसका स्मरण ही नहीं करते थे ।।140।। उसका शरीर मानो पृथिवी आदि के अतिरिक्त अन्य महा भूतों से रचा गया था अन्यथा उसकी वह अनोखी शोभा कैसे होती? ।।141।। वह जब वार्तालाप करता था तब ऐसा जान पड़ता था मानो अमृत ही सींच रहा हो। वह इतना उदात्तचरित्र था कि मानो हमेशा महादान ही देता रहता हो ।।142।। जंमांतर में भी उस महा बुद्धिमान ने धर्म, अर्थ, काम में से एक धर्म में ही महान् प्रयत्न किया था ।।143।। सब आभूषणों का आभूषण यश ही उसका आभूषण था। गुण उसमें कीर्ति के साथ इस प्रकार रह रहे थे मानो उसके कुटुंबी ही हों ।।144।। वह रत्नश्रवा, अपनी वंश-परंपरा से चली आयी उत्कृष्ट विभूति को प्राप्त करना चाहता था पर इंद्र विद्याधर ने उसे अपने स्थान से च्युत कर रखा था ।।145।। निदान, वह धीर-वीर विद्या सिद्ध करने के लिए, जहाँ भूत-पिशाच आदि शब्द कर रहे थे ऐसे महा भयंकर पुष्प वन में गया ।।146।। सो रत्नश्रवा तो इधर विद्या सिद्ध कर रहा था उधर विद्या के विषय में पहले से ही परिज्ञान रखने वाली तथा जो बाद में रत्नश्रवा की पत्नी होनेवाली थी ऐसी अपनी छोटी कन्या कैकसी को व्योम बिंदु ने उसकी तत्कालीन परिचर्या के लिए भेजा ।।147।। सो कैकसी उस योगी के समीप बड़े विनय से हाथ जोड़े खड़ी हुई उसके मुख से निकलने वाले आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी।।148।।
तदनंतर जब रत्नश्रवा का नियम समाप्त हुआ तब वह सिद्ध भगवान् को नमस्कार कर उठा। उसी समय उसकी दृष्टि अकेली खड़ी कैकसी पर पड़ी। कैकसी की आंखों से सरलता टपक रही थी ।।149।। उसके नेत्र नीलकमल के समान थे, मुख कमल के समान था, दांत कुंद की कली के समान थे, भुजाएँ शिरीष की माला के समान थीं, अधरोष्ठ गुलाब के समान था ।।150।। उसकी श्वास से मौलिश्री के फूलों की सुगंधि आ रही थी, उसकी कांति चंपा के फूल के समान थी, उस का सारा शरीर मानो फूलों से ही बना था ।।151।। रत्नश्रवा के पास खड़ी कैकसी ऐसी जान पड़ती थी मानो उसके रूप से वशीभूत हो लक्ष्मी ही कमलरूपी घर को छोड़कर बड़ी उत्कंठा से उसके पास आयी हो और उसके चरणों में नेत्र गड़ाकर खड़ी हो ।।152।। अपूर्व पुरुष के देखने से उत्पन्न लज्जा के कारण उसका शरीर नीचे की ओर झुक रहा था तथा भयरहित निकलते हुए श्वासोच्छवास से उसके स्तन कंपित हो रहे थे ।।153।। वह अपने लावण्य से समीप में पड़े पल्लवों को लिप्त कर रही थी तथा श्वासोच्छवास की सुगंधि से आकृष्ट मदोन्मत्त भ्रमरों के समूह से वन को आकुलित कर रही थी ।।154।। वह अत्यधिक सौकुमार्य के कारण इतनी अधिक नीचे को झुक रही थी कि यौवन डरते-डरते ही उसका आलिंगन कर रहा था। कैकसी क्या थी मानो स्त्रीत्व की परम सृष्टि थी ।।155।। समस्त संसार संबंधी आश्चर्य इकट्ठा करने के लिए ही मानो त्रिभुवन संबंधी समस्त स्त्रियों का सौंदर्य एकत्रित कर कर्मों ने उसकी रचना की थी ।।156।। वह कैकसी ऐसी जान पड़ती थी मानो रत्नश्रवा के उत्कृष्ट तप से वशीभूत हुई कांति से सुशोभित साक्षात् विद्या ही शरीर धरकर सामने खड़ी हो ।।157।। रत्नश्रवा स्वभाव से ही दयालु था और विशेषकर स्त्रियों पर तथा उनसे भी अधिक कन्याओं पर अधिक दयालु था अत: उसने प्रिय वचनों से पूछा कि हे बाले! तू किसकी लड़की है? और इस महावन में झुंड से बिछुड़ी हरिणी के समान किस लिए खड़ी है? ।।158-159।। हे पुण्य मनोरथ! कौन से अक्षर तेरे नाम को प्राप्त हैं? रत्नश्रवा ने कैकसी से ऐसा पूछा सो उचित ही था क्योंकि सज्जन के ऊपर साधुओं का भी पक्षपात हो ही जाता है ।।160।। इसके उत्तर में अनंत माधुर्य को धारण करने वाली एवं चित्त के चुराने में समर्थ गद्गद वाणी से कैकसी ने कहा कि मैं मंदवती के शरीर से उत्पन्न राजा व्योम बिंदु की पुत्री हूँ, कैकसी मेरा नाम है और पिता की प्रेरणा से आपकी सेवा करने के लिए आयी हूँ ।।161-162।। उसी समय महा तेजस्वी रत्नश्रवा को मानसंस्तंभिनी नाम की विद्या सिद्ध हो गयी सो उस विद्या ने उसी समय अपना शरीर प्रकट कर दिखाया ।।163।।
तदनंतर उस विद्या के प्रभाव से उसने उसी वन में तत्क्षण ही पुष्पांतक नाम का नगर बसाया ।।164।। और कैकसी को विधिपूर्वक अपनी स्त्री बनाकर उसके साथ मनचाहे भोग भोगता हुआ वह उस नगर में क्रीड़ा करने लगा ।।164-165।। शोभनीय हृदय को धारण करने वाले उन दोनों दंपतियों में ऐसी अनुपम प्रीति उत्पन्न हुई कि वह आधे क्षण के लिए भी उनका वियोग सहन नहीं कर सकती थी ।।166।। यदि कैकसी क्षण-भर के लिए भी रत्नश्रवा के नेत्रों के ओझल होती थी तो वह उसे ऐसा मानने लगता था मानो मर ही गयी हो। और कैकसी भी यदि उसे पल-भर के लिए नहीं देखती थी तो म्लानि को प्राप्त हो जाती थी- उसकी मुख की कांति मुरझा जाती थी। कोमल चित तो उसका था ही ।।167।। रत्नश्रवा के नेत्र सदा कैकसी के मुखचंद्र पर ही गड़े रहते थे अथवा यों कहना चाहिए कि कैकसी, रत्नश्रवा की समस्त इंद्रियों का मानो बंधन थी ।।168।। परम रूप, यौवन, धन-संपदा, विद्याबल और उपार्जित धर्म के कारण उन दोनों में परस्पर परम आसक्ति थी ।।169।। जब रत्नश्रवा चलता था तब कैकसी भी चलने लगती थी और जब रत्नश्रवा बैठता था तो कैकसी भी बैठ जाती थी। इस तरह वह छाया के समान पति की अनुगामिनी थी ।।170।।
अथानंतर एक दिन रानी कैकसी रत्नों के महल में ऐसी शय्या पर पड़ी थी कि जो विशाल थी, सुंदर थी, क्षीर समुद्र के समान सफेद थी, रत्नों के दीपकों का जिस पर प्रकाश फैल रहा था, जो रेशमी वस्त्र से कोमल थी ।।171।। जिस पर यथेष्ट गद्दा बिछा हुआ था, रंगबिरंगी तकियाँ रखी हुई थीं, जिसके आस-पास श्वासोच्छवास की सुगंधि से जागरूक भौंरे मँडरा रहे थे ।।172।। चारों ओर पहरे पर खड़ी स्त्रियाँ जिसे निद्रारहित नेत्रों से देख रही थीं और जिसके समीप ही हाथीदाँत की बनी छोटी-सी चौकी रखी हुई थी ऐसी उत्तम शय्या पर कैकसी मन का बंधन करने वाले पति के गुणों का चिंतवन करती और पुत्रोत्पत्ति की इच्छा रखती हुई सुख से सो रही थी ।।173-174।। उसी समय स्थिर होकर ध्यान करने वाली अर्थात् सूक्ष्म देख-रेख रखने वाली सखियां जिसके शरीर का निरीक्षण कर रही थीं। ऐसी कैकसी ने महा आश्चर्य उत्पन्न रहनेवाले उत्कृष्ट स्वप्न देखे ।।175।। तदनंतर शंखों के शब्द का अनुकरण करने वाली प्रातःकालीन तुरही की मधुर ध्वनि और चारणों की रम्य वाणी से कैकसी प्रबोध को प्राप्त हुई ।।176।। सो मंगल कार्य करने के अनंतर शुभ तथा श्रेष्ठ नेपथ्य को धारण कर मन को हरण करती हुई, सखियों के साथ पति के समीप पहुँची ।।177।। वहाँ हाथ जोड़, हाव-भाव दिखाती हुई, पति के समीप, उत्तम वस्त्र से आच्छादित सोफा पर बैठकर उसने स्वप्न देखने की बात कही ।।178।। उसने कहा कि हे नाथ! आज रात्रि के पिछले पहर मैंने तीन स्वप्न देखे हैं सो उन्हें सुनकर प्रसन्नता कीजिए ।।179।। पहले स्वप्न में मैंने देखा है कि अपने उत्कृष्ट तेज से हाथियों के बड़े भारी झुंड को विध्वस्त करता हुआ एक सिंह आकाशतल से नीचे उतरकर मुख्य-द्वार से मेरे उदर में प्रविष्ट हुआ है ।।180।। दूसरे स्वप्न में देखा है कि किरणों से हाथियों के समूह के समान काले अंधकार को दूर हटाता हुआ सूर्य आकाश के मध्य भाग में स्थित है ।।181।। और तीसरे स्वप्न में देखा है कि मनोहर लीला को करता और किरणों से अंधकार को दूर हटाता हुआ पूर्ण चंद्रमा हमारे सामने खड़ा है ।।182।। इन स्वप्नों के दिखते ही मेरा मन आश्चर्य से भर गया और उसी समय प्रातःकालीन तुरही को ध्वनि से मेरी निद्रा टूट गयी ।।183।। हे नाथ! यह क्या है? इसे आप ही जानने के योग्य हैं क्योंकि स्त्रियों के जानने योग्य कार्यों में पति का मन प्रमाणभूत है ।।184।। तदनंतर अष्टांग निमित्त के जानकार एवं जिन-शासन में कुशल रत्नश्रवा ने बड़े हर्ष से क्रमपूर्वक स्वप्नों का फल कहा ।।185।। उन्होंने कहा कि हे देवि! तुम्हारे तीन पुत्र होंगे। ऐसे पुत्र कि जिनकी कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त होगी, जो महापराक्रम के धारी तथा कुल की वृद्धि करने वाले होंगे ।।186।। वे तीनों ही पुत्र पूर्व भव में संचित पुण्यकर्म से उत्तम कार्य करने वाले होंगे, देवों के समान होंगे और देवों के भी प्रीति पात्र होंगे ।।187।। वे अपनी कांति से चंद्रमा को दूर हटावेंगे, तेज से सूर्य को दूर भगावेंगे और स्थिरता से पर्वत को ठुकरावेंगे ।।188।। स्वर्ग में पुण्य कर्म का फल भोगने के बाद जो कुछ कर्म शेष बचा है अब उसका फल भोगेंगे। वे इतने बलवान् होंगे कि देव भी उन्हें पराजित नहीं कर सकेंगे ।।189।। वे दान के द्वारा मनोरथ को पूर्ण करने वाले मेघ होंगे, चक्रवर्तियों के समान ऋद्धि के धारक होंगे और श्रेष्ठ स्त्रियों के मन तथा नेत्रों को चुगने वाले होंगे ।।190।। उनका उन्नत वक्षःस्थल श्रीवत्स चिह्न से अत्यंत सुशोभित होगा और उनका नाम सुनते ही बड़ी-बड़ी सेनाओं के अधिपति शत्रु नष्ट हो जावेंगे ।।191।। उन तीनों पुत्रों में प्रथम पुत्र जगत् का अत्यंत हितकारी होगा, साहस के कार्य में वह बड़े प्रेम से आसक्त होगा तथा शत्रुरूपी कमलों को निमीलित करने के लिए चंद्रमा के समान होगा ।।192।। वह युद्ध का इतना प्रेमी होगा कि युद्ध में जाते ही उसका सारा शरीर खड़े हुए रोमांच रूपी कंटकों से व्याप्त हो जावेगा ।।193।। वह घोर भयंकर कार्यों का भंडार होगा तथा जिस कार्य को स्वीकृत कर लेगा उससे उसे इंद्र भी दूर नहीं हटा सकेगा ।।194।। पति के ऐसे वचन सुन परम प्रमोद को प्राप्त हुई कैकसी, मंद हासकर तथा पति का मुख देखकर विनय से इस प्रकार बोली कि हे नाथ! हम दोनों का चित्त तो जिनमतरूपी अमृत के आस्वाद से अत्यंत निर्मल है फिर हम लोगों से जन्म पाकर यह पुत्र क्रूरकर्मा कैसे होगा? ।।195-196।। निश्चय से हम दोनों की मज्जा भी जिनेंद्र भगवान के वचनों से संस्कारित है फिर हम से ऐसे पुत्र का जन्म कैसे होगा? क्या कहीं अमृत की बेल से विष की भी उत्पत्ति होती है? ।।197।।
इसके उत्तर में राजा रत्नश्रवा ने कहा कि हे प्रिये! हे नखि! इस कार्य में कर्म ही कारण हैं हम नहीं ।।198।। संसार के स्वरूप की योजना में कर्म ही मूल कारण हैं माता-पिता तो निमित्त मात्र हैं ।।199।। इसके दोनों छोटे भाई जिनमार्ग के पंडित, गुणों के समूह से व्याप्त, उत्तम चेष्टाओं के धारक तथा शील के सागर होंगे ।।200।। संसार में कहीं मेरा स्खलन न हो जाये इस भय से वे सदा पुण्य कार्य में अच्छी तरह संलग्न रहेंगे, सत्य वचन बोलने में तत्पर होंगे और सब जीवों पर दया करने वाले होंगे ।।201।। हे कोमल शब्दों वाली तथा दया से युक्त प्रिये! उन दोनों पुत्रों का पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म ही उनके इस स्वभाव का कारण होगा। सो ठीक ही है क्योंकि कारण के समान ही फल होता है ।।202।। ऐसा कहकर रात-दिन सावधान रहनेवाले माता-पिता ने प्रसन्न चित्त से जिनेंद्र भगवान की पूजा की ।।203।।
तदनंतर जब गर्भ में प्रथम बालक आया तब माता की चेष्टा अत्यंत क्रूर हो गयी। वह हठपूर्वक पुरुषों के समूह की जीतने की इच्छा करने लगी। वह चाहने लगी कि मैं खून की कीचड़ से लिप्त तथा छटपटाते हुए शत्रुओं के मस्तकों पर पैर रखूँ ।।204-25।। देवराज इंद्र के ऊपर भी आज्ञा चलाने का उसका अभिप्राय होने लगा। बिना कारण ही इसका मुख हुंकार से मुखर हो उठता ।।206।। उसका शरीर कठोर हो गया था, शत्रुओं को जीतने में वह अधिक श्रम करती थी, उसकी वाणी कर्कश तथा घर्घर स्वर से युक्त हो गयी थी, उसके दृष्टिपात भी निःशब्द होने से स्पष्ट होते थे ।।207।। दर्पण रहते हुए भी वह कृपाण में मुख देखती थी और गुरुजनों की वंदना में भी उसका मस्तक किसी तरह बड़ी कठिनाई से झुकता था ।।208।। तदनंतर समय पूर्ण होने पर वह बालक शत्रुओं के आसन कँपाता हुआ माता के उदर से बाहर निकला अर्थात् उत्पन्न हुआ ।।209।। सूर्य के समान कठिनाई से देखने योग्य उस बालक की प्रभा से प्रसूति गृह में काम करने वाले परिजनों के नेत्र ऐसे हो गये जैसे मानो किसी सघन वन से ही आच्छादित हो गये हों ।।210।। भूत जाति के देवों द्वारा ताड़ित होने के कारण दुंदुभि बाजों से बहुत भारी शब्द उत्पन्न होने लगा और शत्रुओं के घरों में सिर रहित धड़ उत्पात सूचक नृत्य करने लगे ।।211।।
तदनंतर पिता ने बड़ा भारी जन्मोत्सव किया। ऐसा जन्मोत्सव कि जिसमें प्रजा पागल के समान अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार विभिन्न प्रकार के कार्य करती थी ।।212।। अथानंतर जिसके पैर के तलुए लाल-लाल थे ऐसा वह बालक मेरुपर्वत की गुहा के समान आकार वाले प्रसूतिका गृह में शय्या के ऊपर मंद-मंद हँसता हुआ पड़ा था। हाथपैर हिलाने से चंचल था, चित्त अर्थात् ऊपर की ओर मुख कर पड़ा था, अपनी लीला से शय्या की समीपवर्ती भूमि को कंपित कर रहा था और तत्काल उदित हुए सूर्यमंडल के समान देदीप्यमान था ।।213-214।। बहुत पहले मेघ वाहन के लिए राक्षसों के इंद्र भीम ने जो हार दिया था, हजार नागकुमार जिसकी रक्षा करते थे, जिसकी किरणें सब ओर फैल रही थीं और राक्षसों के भय से इस अंतराल में जिसे किसीने नहीं पहना था ऐसे हार को उस बालक ने अनायास ही हाथ से खींच लिया ।।215-216।। बालक को मुट्ठी में हार लिये देख माता घबड़ा गयी। उसने बड़े स्नेह से उसे उठाकर गोद में ले लिया और शीघ्र ही उसका मस्तक सूँघ लिया ।।217।। पिता ने भी उस बालक को हार लिये बड़े आश्चर्य से देखा और विचार किया कि यह अवश्य ही कोई महापुरुष होगा ।।218।। जिसकी शक्ति लोकोत्तर नहीं होगी। ऐसा कौन पुरुष नागेंद्रों के द्वारा सुरक्षित इस हार के साथ क्रीड़ा कर सकता है ।।219।। चारणऋद्धिधारी मुनिराज ने पहले जो वचन कहे थे वे यही थे क्योंकि मुनियों का भाषण कदापि मिथ्या नहीं होता ।।220।। यह आश्चर्य देख माता ने निर्भय होकर वह हार उस बालक को पहना दिया। उस समय वह हार अपनी किरणों के समूह से दसों दिशाओं को प्रकाशमान कर रहा था ।।221।। उस हार में जो बड़े-बड़े स्वच्छ रत्न लगे हुए थे उनमें असली मुख के सिवाय नौ मुख और भी प्रतिबिंबित हो रहे थे इसलिए उस बालक का दशानन नाम रखा गया ।।222।। दशानन के बाद कितना ही समय बीत जाने पर भानुकर्ण उत्पन्न हुआ। भानुकर्ण के कपोल इतने सुंदर थे कि उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो उसके कानों में भानु अर्थात् सूर्य ही पहना रखा हो ।।223।। भानुकर्ण के बाद चंद्रनखा नामा पुत्री उत्पन्न हुई। उसका मुख पूर्ण चंद्रमा के समान था और उगते हुए अर्ध चंद्रमा के समान सुंदर नखों की कांति से उसने समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर दिया था ।।224।। चंद्रनखा के बाद विभीषण हुआ। उसका आकार सौम्य था तथा वह साधु प्रकृति का था। उसके उत्पन्न होते ही पापी लोगों में भय उत्पन्न कर दिया था ।।225।। विभीषण ऐसा जान पड़ता था मानो साक्षात् उत्कृष्ट धर्म ही शरीरवत्ता को प्राप्त हुआ हो। उसके गुणों से उत्पन्न उसकी निर्मल कीर्ति आज भी संसार में सर्वत्र छायी हुई है ।।226।। तेजस्वी दशानन की बालक्रीड़ा भी भयंकर होती था जबकि उसके दोनों छोटे भाइयों की बालक्रीड़ा शत्रुओं को भी आनंद पहुंचाती थी ।।227।। भाइयों के बीच सुंदर शरीर को धारण करने वाली कन्या चंद्रनखा, ऐसी सुशोभित होती थी मानो दिन सूर्य और चंद्रमा के बीच उत्तम क्रियाओं से युक्त संध्या ही हो ।।228।।
अथानंतर चोटी को धारण करनेवाला दशानन एक दिन माता की गोद में बैठा हुआ अपने दांतों की किरणों से मानो दशों दिशाओं में चांदनी फैला रहा था, उसी समय वैश्रवण आकाशमार्ग से कहीं जा रहा था। वह अपनी कांति से दिशाओं को प्रकाशमान कर रहा था, वैभव और पराक्रम से सुशोभित विद्याधरों के समूह से युक्त था तथा उन हाथी रूपी मेघों से घिरा था जो कि मालारूपी बिजली के द्वारा प्रकाश कर रहे थे, मदरूपी जल की धारा को छोड़ रहे थे और जिनके कानों में लटकते हुए शंख वलाकाओ के समान जान पड़ते थे। वैश्रवण कानों को बहरा करने वाले तुरही के विशाल शब्द से दिशाओं के समूह को शब्दायमान कर रहा था। विशाल पराक्रम का धारक था और अपनी बड़ी भारी सेना से ऐसा जान पड़ता था मानो सामने के आकाश को ग्रस कर छोड़ ही रहा हो। दशानन ने उसे बड़ी गंभीर दृष्टि से देखा ।।229-233।। दशानन लड़कपन के कारण चंचल तो था ही अत: उसने वैश्रवण की महिमा देख हँसते-हँसते माता से पूछा कि हे माँ! अपने प्रताप से समस्त संसार को तृण के समान समझता हुआ, बड़ी भारी सेना से घिरा यह कौन यहाँ से जा रहा है ।।234―235।। तब माता उससे कहने लगी कि यह तेरी मौसी का लड़का है। इसे अनेक विद्याएँ सिद्ध हुई हैं, यह बहुत भारी लक्ष्मी से युक्त है, लोक में प्रसिद्ध है, महा वैभव से संपन्न हुआ दूसरे सूर्य के समान शत्रुओं को कंपकंपी उत्पन्न करता हुआ संसार में घूमता फिरता है ।।236-237।। इंद्र विद्याधर ने तेरे बाबा के भाई माली को युद्ध में मारा और बाबा को तेरी कुल-परंपरा से चली आयी लंकापुरी से दूर हटाकर इसे दी, सो उसी लंका का पालन करता है ।।238।। इस लंका के लिए तुम्हारे पिता सैकड़ों मनोरथों का चिंतवन करते हुए न दिन में चैन लेते हैं न रात्रि में नींद ।।239।। हे पुत्र! मैं भी इसी चिंता से सूख रही हूँ। अपने स्थान से भ्रष्ट होने की अपेक्षा पुरुषों का मरण हो जाना अच्छा है ।।240।। हे पुत्र! तू अपने कुल के योग्य लक्ष्मी को कब प्राप्त करेगा? जिसे देख हम दोनों का मन शल्यरहित सा हो सके ।।241।। मैं कब तेरे इन भाइयों को विभूति से युक्त तथा निष्कंटक विश्व में स्वच्छंद विचरते हुए देखूँगी? ।।242।। माता के दीन वचन सुनकर जिसके क्रोधरूपी विष के अंकुर उत्पन्न हो रहे थे ऐसा विभीषण गर्व से मुसकराता हुआ बोला ।।243।। कि हे माँ! यह धनद हो चाहे देव हो, तुमने इसका ऐसा कौन-सा प्रभाव देखा कि जिससे तुम इस प्रकार विलाप कर रही हो ।।244।। तुम तो वीर हो, स्वयं वीर हो, और मनुष्यों की समस्त चेष्टाओं को जानने वाली हो। फिर ऐसी होकर भी अन्य स्त्री की तरह ऐसा क्यों कह रही हो? ।।245।। जरा ध्यान तो करो कि जिसका वक्षस्थल श्रीवत्स के चिह्न से चिह्नित है, विशाल शरीर को धारण करने वाला है, जिसकी प्रतिदिन की चेष्टाएं एक आश्चर्य रस से ही सनी रहती हैं, जो महाबलवान् है और भस्म से आच्छादित अग्नि के समान समस्त संसार को भस्म करने में समर्थ है ऐसा दशानन क्या कभी तुम्हारे मन में नहीं आया? 246-247।। यह अनादर से ही उत्पन्न गति के द्वारा मन को जीत सकता है और हाथ की चपेट से सुमेरु के शिखर विदीर्ण कर सकता है ।।248।। तुम्हें पता नहीं कि इसकी भुजाएँ प्रताप की पक्की सड़क हैं, संसाररूपी घर के खंभे हैं और अहंकार रूपी वृक्ष के अंकुर हैं ।।249।। इस प्रकार गुण और कला के जानकार विभीषण भाई के द्वारा जिसकी प्रशंसा की गयी थी ऐसा रावण, घी के द्वारा अग्नि के समान बहुत अधिक प्रताप को प्राप्त हुआ ।।250।। उसने कहा कि माता! अपनी बहुत प्रशंसा करने से क्या लाभ हैं? परंतु सच बात तुम से कहता हूँ सो सुन ।।251।। विद्याओं के अहंकार से फूले यदि सबके सब विद्याधर मिलकर युद्ध के मैदान में आवें तो मेरी एक भुजा के लिए भी पर्याप्त नहीं हैं ।।252।। फिर भी विद्याओं की आराधना करना यह हमारे कुल के योग्य कार्य है अतः उसे करते हुए हमें लज्जित नहीं होना चाहिए ।।253।। जिस प्रकार साधु बड़े प्रयत्न से तप की आराधना करते हैं उसी प्रकार विद्याधरों के गोत्रज पुरुषों को भी बड़े प्रयत्न से विद्या की आराधना करनी चाहिए ।।254।। इस प्रकार कहकर मान को धारण करता हुआ रावण अपने दोनों छोटे भाइयों के साथ विद्या सिद्ध करने के लिए घर से निकलकर आकाश की ओर चला गया। जाते समय माता-पिता ने उसका मस्तक चूमा था, उसने सिद्ध भगवान को नमस्कार किया था, मांगलिक संस्कार उसे प्राप्त हुए थे, उसका मन निश्चय से स्थिर था तथा प्रसन्नता से भरा था ।।255―256।। क्षण-भर में ही वह भीम नामक महावन में जा पहुँचा। जिनके मुख दाढ़ो से भयंकर थे ऐसे दुष्ट प्राणी उस वन में शब्द कर रहे थे ।।257।। सोते हुए अजगरों के श्वासोच्छवास से वहाँ बड़े-बड़े वृक्ष कंपित हो रहे थे तथा नृत्य करते हुए व्यंतरों के चरण निक्षेप से वहाँ का पृथ्वीतल क्षोभित हो रहा था ।।258।। वहाँ की बड़ी-बड़ी गुफाओं में सूची के द्वारा दुर्भेद्य सघन अंधकार का समूह विद्यमान था। वह बन इतना भयंकर था कि मानो साक्षात् काल ही सदा उसमें विद्यमान रहता था ।।259।। देव भी भय से पीड़ित होकर उसके ऊपर नहीं जाते थे तथा अपनी भयंकरता के कारण तीनों लोकों में प्रसिद्ध था ।।260।। जिनकी गुफाओं के अग्रभाग अंधकार से व्याप्त थे ऐसे वहाँ के पर्वत अत्यंत दुर्गम थे और वहाँ के सुदृढ़ वृक्ष ऐसे जान पड़ते थे मानो लोक को ग्रसने के लिए ही खड़े हों ।।261।। जिनके चित्त में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था, जिनकी आत्माएँ खोटी आशाओं से दूर थीं, जो शुक्ल वस्त्र धारण कर रहे थे, जिनके मुख पूर्ण चंद्रमा के समान सौम्य थे और जो चूड़ामणि से सुशोभित थे ऐसे तीनों भाइयों ने उस भीम महावन में उत्तम शांति धारण कर महान् तपश्चरण करना प्रारंभ किया ।।262-263।। उन्होंने एक लाख जप कर सर्वकामान्नदा नाम की आठ अक्षरों वाली विद्या आधे ही दिन में सिद्ध कर ली ।।264।। यह विद्या उन्हें जहाँ―तहां से मनचाहा अन्न लाकर देती रहती थी जिससे उन्हें क्षुधा संबंधी पीड़ा नहीं होती थी ।।265।। तदनंतर हृदय को स्वस्थ कर उन्होंने सोलह अक्षर वाला वह मंत्र जपना शुरू किया कि जिसकी दस हजार करोड़ आवृत्तियाँ शास्त्रों में कही गयी हैं ।।266।।
तदनंतर जंबूद्वीप का अधिपति अनावृत नाम का यक्ष अपनी स्त्रियों से आवृत हो इच्छानुसार क्रीड़ा करने के लिए उस वन में आया ।।267।। जिनकी आत्मा तपश्चरण में लीन थी ऐसे तीनों भाई, हाव-भाव-पूर्वक क्रीड़ा करने वाली उस यक्ष की स्त्रियों के दृष्टिगोचर हुए ।।268।। तदनंतर कौतुक से जिनका चित्त आकुल हो रहा था ऐसी देवियाँ शीघ्र ही उनके पास इस प्रकार आयीं मानो उनके सौंदर्य ने चोटी पकड़कर ही उन्हें खींच लिया हो ।।269।। उन देवियों में कुछ देवियाँ घुँघराले बालों से सुशोभित मुख से भ्रमरसहित कमल की शोभा धारण कर रही थीं। उन्होंने कहा कि जिनके शरीर अत्यंत सुकुमार हैं, जिनकी कांति और तेज सब ओर फैल रहा है तथा वस्त्र का जिन्होंने त्याग नहीं किया है ऐसे आप लोग किस लिए तपश्चरण कर रहे हैं ।।270―271।। शरीरों की ऐसी कांति भोगों के बिना नहीं हो सकती तथा आपके ऐसे शरीर हैं कि जिससे आपको किसी अन्य से भय भी उत्पन्न नहीं हो सकता ।।272।। कहाँ तो यह जटा रूप मुकुटों का भार और कहाँ यह प्रथम तारुण्य अवस्था? निश्चित ही आप लोग विरुद्ध पदार्थो का समागम सृजन के लिए ही उत्पन्न हुए हैं ।।273।। स्थूल स्तन-तटों के आस्थान से उत्पन्न सुख की प्राप्ति के योग्य अपने इन हाथों को आप लोग शिला आदि कर्कश पदार्थो के समागम से पीड़ा क्यों-पहुँचा रहे हैं ।।274।। अहो आश्चर्य है कि रूप से सुशोभित आप लोगों की बुद्धि बड़ी हल्की है कि जिससे भोगों के योग्य शरीर को आप लोग इस तरह दुःख दे रहे हैं ।।275।। उठो घर चलें, है विज्ञ पुरुषो! अब भी क्या गया है? प्रिय पदार्थों का अवलोकन कर हम लोगों के साथ महाभोग प्राप्त करो ।।276।। उन देवियों ने यह सब कहा अवश्य, पर उनके चित्त में ठीक उस तरह स्थान नहीं पा सका कि जिस तरह कमलिनी के पत्र पर पानी के बूँदों का समूह स्थान नहीं पाता है ।।277।। तदनंतर कुछ दूसरी देवियाँ परस्पर में इस प्रकार कहने लगी कि हे सखियों! निश्चय ही ये काष्ठ मय हैं, लकड़ी के पुतले हैं इसीलिए तो इनके समस्त अंगों में निश्चलता दिखाई देती है ।।278।। ऐसा बोलकर तथा कुछ कुपित हो पास में जाकर उन देवियों ने उनके हृदय में अपने कर्ण फूलों से चोट पहुँचायी ।।279।। फिर भी निपुण चित्त को धारण करने वाले तीनों भाई क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए। सो ठीक ही है क्योंकि कायर पुरुष ही अपने प्रकृत लक्ष्य से भ्रष्ट होते हैं ।।280।। तदनंतर देवियों के कहने से जिसके चित्त में आश्चर्य उत्पन्न हो रहा था ऐसे जंबूद्वीपाधिपति अनावृत यक्ष ने भी हर्षित हो उन तीनों भाइयों से मुसकराते हुए कहा ।।281।। कि हे सत्पुरुषों! आप लोग किस प्रयोजन से कठिन तपश्चरण कर रहे हो? अथवा किस देव की आराधना कर रहे हो? सो शीघ्र ही कहो। वे मिट्टी से निर्मित पुतलों की तरह निश्चल बैठे रहे तब वह कुपित हो इस प्रकार बोला कि ।।283।। ये लोग मुझे भुलाकर अन्य किस देव का ध्यान करने के लिए उद्यत हुए हैं। अहो! इन मूर्खों की यह सबसे बड़ी चपलता है ।।284।। इस तरह कठोर वचन बोलने वाले उस यक्षेंद्र ने आज्ञा देने की प्रतीक्षा करने वाले अपने सेवकों को इन तीन भाइयों पर उपद्रव करने की आज्ञा दे दी ।।285।। वे किंकर स्वभाव से ही क्रूर थे फिर उससे भी अधिक स्वामी की आज्ञा पा चुके थे इसलिए नाना रूप धारण कर उनके सामने तरह-तरह की क्रियाएँ करने लगे ।।286।। कोई यक्ष वेग से पर्वत के समान ऊँचा उछलकर उनके सामने ऐसा गिरा मानो सब ओर से वज्र ही गिर रहा हो ।।287।। किसी यक्ष ने साँप बनकर उनके समस्त शरीर को लपेट लिया और कोई सिंह बनकर तथा मुँह फाड़कर उनके सामने आ पहुँचा ।।288।। किन्हीं ने कानों के पास ऐसा भयंकर शब्द किया कि उससे समस्त दिशाएँ बहरी हो गयीं तथा कोई दशम शक बनकर, कोई हाथी बनकर, कोई आँधी बनकर, कोई दावानल बनकर और कोई समुद्र बनकर भिन्न-भिन्न प्रकार के उपद्रव करने लगे ।।281।।
ध्यानरूपी खंभे में बद्ध रहने के कारण जिनका चित्त अत्यंत निश्चल था ऐसे तीनों भाई जब पूर्वोक्त उपायों से विकार को प्राप्त नहीं हुए ।।290।। तब उन्होंने विक्रिया से म्लेच्छों की एक बड़ी भयंकर सेना बनायी। वह सेना अत्यंत क्रोधी चांडालों से युक्त थी, तीक्ष्ण शस्त्रों से भयंकर थी और अंधकार के समूह के समान जान पड़ती थी ।।291।। तब उन्होंने दिखाया कि युद्ध में जीतकर पुष्पांतक नगर को विध्वस्त कर दिया है तथा तुम्हारे पिता रत्नश्रवा को भाई बंधुओं सहित गिरफ्तार कर लिया गया है ।।292।। अंतःपुर भी हृदय को तोड़ देनेवाला विलाप कर रहा है और साथ ही साथ यह शब्द कर रहा है कि तुम्हारे जैसे पुत्रों के रहते हुए भी हम दुःख को प्राप्त हुए हैं ।।293।। पिता इस प्रकार चिल्ला-चिल्लाकर उनके सामने बहुत भारी बाधा उत्पन्न कर रहा है कि हे पुत्रों! इस महावन में म्लेच्छ मुझे मार रहे हैं सो मेरी रक्षा करो ।।294।। उन्होंने दिखाया कि तुम्हारी माता को चांडाल बेड़ी में डालकर पीट रहे हैं, चोटी पकड़कर घसीट रहे हैं और वह आँसुओं की धारा छोड़ रही है ।।295।। माता कह रही है कि हे पुत्रो! देखो, वन में मैं ऐसी अवस्था को प्राप्त हो रही हूँ। तुम लोगों के सामने शबर लोग मुझे अपनी पल्ली- वसाति में लिए जा रहे हैं ।।296।। तुम यह पहलर झूठ मूठ ही कहा करते थे कि विदयाबल को प्राप्त सब विद्याधर मिलकर भी मेरी एक भुजा के लिए पर्याप्त नहीं हैं। परंतु इस समय तो तुम तीनों ही इतने निस्तेज हो रहे हो कि एक ही म्लेच्छ के लिए पर्याप्त नहीं हो ।।297-298।। हे दश ग्रीव, यह विभीषण तेरी व्यर्थ ही स्तुति करता था। जबकि तू माता की रक्षा नहीं कर पा रहा है तब तो मैं समझती हूँ कि तेरे एक भी ग्रीवा नहीं है ।।299।। मान से रहित तू जितने समय तक मेरे उदर में रहकर बाहर निकला है उतने समय तक यदि मैं मल को भी धारण करती तो अच्छा होता ।।300।। जान पड़ता है यह भानुकर्ण भी कर्णों से रहित है इसलिए तो मैं चिल्ला रही हूँ और यहाँ मेरे दुःख भरे शब्द को सुन नहीं रहा है। देखो, कैसा निश्चल शरीर धारण किया ।।301।। यह विभीषण भी इस विभीषण नाम को व्यर्थ ही धारण कर रहा है और मुर्दा जैसा इतना अकर्मण्य हो गया है कि एक भी म्लेच्छ का निराकरण करने में समर्थ नहीं है ।।302। देखो, ये म्लेच्छ बहन चंद्रनखा को धर्महीन बना रहे हैं सो इस पर,भी तुम दया क्यों नहीं करते हो? माता-पिता की अपेक्षा भाई का बहन पर अधिक प्रेम होता है पर इसकी तुम्हें चिंता कहां है? ।।303।। हे पुत्रों! विद्या सिद्ध की जाती है आत्मीयजनों की समृद्धि के लिए, सो उन आत्मीयजनों की अपेक्षा माता-पिता श्रेष्ठ हैं और माता-पिता की अपेक्षा बहन श्रेष्ठ है यही सनातन व्यवस्था है ।।304।। जिस प्रकार विषधर सर्प की दृष्टि पड़ते ही वृक्ष भस्म हो जाते हैं उसी प्रकार तुम्हारी भौंह के संचार मात्र से म्लेच्छ भस्म हो सकते हैं ।305।। मैंने तुम लोगों को सुख पाने की इच्छा से ही उदर में धारण किया था क्योंकि पुत्र वही कहलाते हैं जो पाये की तरह माता-पिता को धारण करते हैं- उनकी रक्षा करते हैं ।।306।।
इतना सब कुछ करने पर भी जब उनका ध्यान भंग नहीं हुआ, तब उन देवों ने अत्यंत भयंकर मायामयी कार्य करना शुरू किया ।।307।। उन्होंने उन तीनों के सामने तलवार की धार से माता-पिता का सिर काटा तथा रावण के सामने उसके अन्य दो भाइयों का सिर काटकर गिराया ।।308।। इसी प्रकार उन दो भाइयों के सामने रावण का सिर काटकर गिराया। इस कार्य से विभीषण और भानुकर्ण के ध्यान में क्रोधवश कुछ चंचलता आ गयी ।।309।। परंतु दशानन भावों की शुद्धता को धारण करता हुआ मेरु के समान स्थिर बना रहा। वह महा शक्तिशाली तथा दृढ़ श्रद्धानी जो था ।।310।। उसने इंद्रियों के संचार को अपने आपमें ही रोककर बिजली के समान चंचल मन को दास के समान आज्ञाकारी बना लिया था ।।311।। शत्रु से बदला लेने की इच्छारूपी कंटक तथा जितेंद्रियतारूपी संवर दोनों ही जिसकी रक्षा कर रहे थे, ऐसा दशानन ध्यान संबंधी दोषों से रहित होकर प्रयत्नपूर्वक मंत्र का ध्यान करता रहा ।।312।। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा ध्यान कोई मुनिराज धारण करते तो वह उस ध्यान के प्रभाव से उसी समय अष्टकर्मों का विच्छेद कर देते ।।313।। इसी बीच में हाथ जोड़―कर सामने खड़ी हुई अनेक हजार शरीर धारिणी विद्याएँ दशानन को सिद्ध हो गयीं ।।314।। मंत्र जपने की संख्या समाप्त नहीं हो पायी कि उसके पहले ही समस्त विद्याएँ उसे सिद्ध हो गयीं, सो ठीक ही है क्योंकि दृढ़ निश्चय से क्या नहीं मिलता है? ।।315।। दृढ़ निश्चय भी पूर्वोपार्जित उज्ज्वल कर्म से ही प्राप्त होता है। यथार्थ में कर्म ही दुखानुभव में विघ्न उत्पन्न करते हैं ।।316।। योग्य समय पात्र के लिए दान देना, क्षेत्र में आयु की स्थिति समाप्त होना तथा रत्नत्रय की प्राप्ति रूपी फल से युक्त विद्या प्राप्त होना, इन तीन कार्यों को अभव्य जीव कभी नहीं पाता है ।।317।। किसी को दस वर्ष में, किसी को एक माह में और किसी को एक क्षण में ही विद्याएँ सिद्ध हो जाती हैं सो यह सब कर्मों का प्रभाव है ।।318।। भले ही पृथिवी पर सोवो, चिरकाल तक भोजन का त्याग रखे, रात-दिन पानी में डूबे रहे, पहाड़ की चोटी से गिरे और जिससे मरण भी हो जावे, ऐसी शरीर सुखाने वाली क्रियाएँ करे तो भी पुण्य रहित जीव अपना मनोरथ सिद्ध नहीं कर सकता ।।319-320।। जिन्होंने पूर्व भव में अच्छे कार्य किये हैं उन्हें सिद्धि अनायास ही प्राप्त होती है। तपश्चरण आदि क्रियाएँ तो निमित्त मात्र हैं पर जिन्होंने पूर्वभव में उत्तम कार्य नहीं किये वे व्यर्थ ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं- उनका जीवन निरर्थक जाता है ।।321।। इसलिए मनुष्य को पूर्ण आदर से आचार्य की सेवा कर सदा पुण्य का ही संचय करना चाहिए क्योंकि पुण्य के बिना सिद्धि कैसे हो सकती है? ।।322।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक! पुण्य का प्रभाव देखो कि महा मनस्वी दशानन, समय पूर्ण न होने पर भी विद्याओं की सिद्धि को प्राप्त हो गया ।।323।। अब मैं संक्षेप से विद्याओं का नामोल्लेख करता हूँ। विद्याओं के ये नाम उनके अर्थ-कार्य की सामर्थ्य से ही प्राप्त हुए हैं- प्रचलित हैं। हे श्रेणिक! सावधान चित्त होकर सुनो ।।324।। संचारिणी, कामदायिनी, कामगामिनी, दुर्निवारा, जगकपा, प्रज्ञप्ति, भानुमालिनी, अणिमा, लघिभा, क्षोभ्या, मनस्तंभनकारिणी, संवाहिनी, सुरध्वंसी, कौमारी, वधकारिणी, सुविधाना, तपोरूपा, दहनी, विपुलोदरी, शुभप्रदा, रजोरूपा, दिनरात्रिविधायिनी, वचोदरी, समाकृष्टि, अदर्शनी, अजरा, अमरा, अनलस्तंभिनी, तोयस्तंभिनी, गिरिदारणी, अवलोकिनी, अरिध्वंसी, घोरा, धीरा, भुजगिनी, वारुणी, भुवना, अवध्या, दारुणा, मदनाशिनी, भास्करी, भयसंभूति, ऐशानी, विजया, जया, बंधनी, मोचनी, वाराही, कुटिलाकृति, चित्तोद्धवकरी, शांति, कौबेरी, वशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्सादी, चंडा, भीति और प्रवर्षिणी आदि अनेक महाविद्याओं को निश्चल परिणामों का धारी दशानन पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से थोड़े ही दिनों में प्राप्त हो गया ।।325-332।। सर्वाहा, रतिसंवृद्धि, जृंभिणी, व्योमगामिनी और निद्राणी ये पाँच विद्याएँ भानुकर्ण को प्राप्त हुई ।।333।। सिद्धार्था, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी ये चार विद्याएँ प्रिय स्त्रियों के समान विभीषण को प्राप्त हुई ।।334।। इस प्रकार विद्याओं के ऐश्वर्य को प्राप्त हुए वे तीनों भाई महाहर्ष के कारणभूत नूतन जन्म को ही मानो प्राप्त हुए थे ।।335।। तदनंतर यक्षों के अधिपति अनावृत यक्ष ने भी विद्याओं को आया देख महा वैभव से उन तीनों भाइयों की पूजा की और उन्हें दिव्य अलंकारों से अलंकृत किया ।।336।। दशाननने विद्या के प्रभाव से स्वयं प्रभ नाम का नगर बसाया। वह नगर मेरुपर्वत के शिखर के समान ऊँचे-ऊँचे मकानों की पंक्ति से सुशोभित था ।।337।। जिनके झरोखों में मोतियों की झालर लटक रही थी, जो बहुत ऊँचे थे तथा जिनके खंभे रत्न और स्वर्ण के बने थे ऐसे जिनमंदिरों से अलंकृत था ।।338।। परस्पर की किरणों के संबंध से जो इंद्रधनुष उत्पन्न कर रहे थे तथा निरंतर स्थिर रहने वाली बिजली के समान जिनकी प्रभा थी ऐसे रत्नों से वह नगर सदा प्रकाशमान रहता था ।।339।। उसी नगर के गगनचुंबी राजमहल में विद्याबल से संपन्न दशानन अपने दोनों भाइयों के साथ सुख से रहने लगा ।।340।।
तदनंतर आश्चर्य से भरे जंबूद्वीप के अधिपति अनावृत यक्ष ने एक दिन दशानन से कहा कि हे महाबुद्धिमान्! मैं तुम्हारे वीर्य से बहुत प्रसन्न हूँ ।।341।। अत: जिसके अंत में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इस प्रकार चार समुद्र हैं तथा जो नागकुमार और व्यंतर देवों से व्याप्त है ऐसे इस जंबूद्वीप में इच्छानुसार रहो ।।342।। मैं इस समस्त द्वीप का अधिपति हूँ, मेरा कोई भी प्रतिद्वंद्वी नहीं है अत: तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम शत्रुसमूह को उखाड़ते हुए इस जंबूद्वीप में इच्छानुसार सर्वत्र विचरण करो ।।343।। हे वत्स! मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ और तेरे स्मरण मात्र से सदा तेरे सामने खड़ा रहूँगा। मेरे प्रभाव से तेरे मनोरथ में बाधा पहुँचाने के लिए इंद्र भी समर्थ नहीं हो सकेगा फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है? ।।344।। तू अपने दोनों भाइयों के साथ सुखी रहता हुआ दीर्घ काल तक जीवित रह। तेरी दिव्य विभूतियाँ सदा बढ़ती रहें और बंधुजन सदा उनका सेवन करते रहें ।।345।। इस प्रकार यथार्थ आशीर्वाद से उन तीनों भाइयों को आनंदित कर वह यक्ष परिवार के साथ अपने स्थान पर चला गया ।।346।।
तदनंतर दशानन को विद्याओं से आलिंगित सुन चारों ओर से राक्षसों के समूह महोत्सव करते हुए उसके समीप आये ।।347।। उनमें कोई तो नृत्य करते थे, कोई ताल बजाते थे, कोई हर्ष से इतने फूल गये थे कि अपने शरीर में ही नहीं समाते थे ।।348।। कितने ही लोग शत्रुपक्ष को भयभीत करनेवाला जोर का सिंहनाद करते थे, कोई आकाश को चूना से लिप्त करते हुए की तरह चिरकाल तक हँसते रहते थे ।।349।। प्रीति से भरे सुमाली, माल्यवान्, सूर्यरज और ऋक्षरज उत्तमोत्तम रथों पर सवार हो उसके समीप आये ।।350।। इनके सिवाय अन्य सभी कुटुंबीजन, कोई विमानों पर बैठकर, कोई घोड़ों पर सवार होकर और कोई हाथियों पर आरूढ़ होकर आये। वे सब भय से रहित थे ।।351।। अथानंतर पुत्र के स्नेह से जिसका मन भर रहा था ऐसा रत्नश्रवा पताकाओं से आकाश को निरंतर शुक्ल करता हुआ बड़ी विभूति के साथ आया। वंदीजनों के समूह उसकी स्तुति कर रहे थे और वह किसी बड़े राजमहल के समान सुंदर रथ पर सवार था ।।352-353।। ये सब मिलकर साथ ही साथ आ रहे थे सो मार्ग में पंच संगम नामक पर्वत पर उन्होंने शत्रु के भय के कारण बहुत ही दुख से रात्रि बितायी ।।354।।
तदनंतर कैकसी के पुत्र दशानन आदि ने आगे जाकर उन सबकी अगवानी की। उन्होंने गुरुजनों को प्रणाम किया, मित्रों का आलिंगन किया और भृत्यों की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखा ।।355।। गुरुजनों ने भी दशानन आदि से शरीर की कुशल-क्षेम पूछी, विद्याएँ किस तरह सिद्ध हुईं आदि का वृत्तांत भी बार-बार पूछा सो ऐसे अवसर पर किसी बात को बार-बार पूछना निंदनीय नहीं है ।।356।। राक्षस तथा वानर वंशियों ने देवलोक के समान उस स्वयंप्रभ नगर को बड़े आश्चर्य के साथ देखा ।।357।। जिनके नेत्र आनंद से व्याप्त थे ऐसे माता-पिता ने प्रणाम करते हुए दशानन आदि के शरीर का काँपते हुए हाथों से चिरकाल तक स्पर्श किया ।।358।। जब सूर्य आकाश के मध्यभाग में था तब दिव्य वनिताओं ने बड़े उत्सव के साथ उन तीनों कुमारों की स्नान विधि प्रारंभ की ।।359।। जिनके चारों ओर मोतियों के समूह व्याप्त थे तथा जो नाना प्रकार के रत्नों से समृद्ध थे ऐसे उत्कृष्ट स्वर्ण निर्मित स्नान की चौकियों पर वे आसीन हुए ।।360।। पल्लवों के समान लाल-लाल कांति के धारक दोनों पैर उन्होंने पाद पीठ पर रखे थे और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उदयाचल के शिखर पर वर्तमान सूर्य ही हो ।।361।। तदनंतर रत्नमयी, सुवर्णमयी और रजतमयी उन कलशों से उनका अभिषेक शुरू हुआ। जिनके मुख पल्लवों से आच्छादित थे, जो हारों से सुशोभित थे, चंद्रमा तथा सूर्य के साथ स्पर्द्धा करने वाली कांति से जिनका आत्म-स्वरूप आच्छादित था, जो अपनी सुगंध से दिग्मंडल को सुवासित करने वाले जल से पूर्ण थे, जिन में एक तो प्रधान मुख था तथा अन्य छोटे―छोटे अनेक मुख थे, जिनके आस-पास भ्रमरों के समूह मँडरा रहे थे और जो जलपान के कारण गंभीर मेघ के समान गरज रहे थे ।।362-364।। तदनंतर शरीर की कांति बढ़ाने में कुशल उबटना आदि लगाकर सुगंधित जल से उनका अभिषेक किया गया । उस समय तुरही आदि वादित्रों के मंगलमय शब्दों से वहाँ का वातावरण आनंदमय हो रहा था ।।365।। तत्पश्चात् दिव्य वस्त्राभूषणों से उनके शरीर अलंकृत किये गये और कुलांगनाओ ने बड़े आदर से अनेक मंगलाचार किये ।।366।। तदनंतर जो देव कुमारों के समान जान पड़ते थे और आत्मीयजनों को आनंद प्रदान कर रहे थे ऐसे उन तीनों कुमारों ने बड़ी विनय से गुरुजनों की चरणवंदना की ।।367।। तदनंतर गुरुजनों ने देखा कि इन्हें जो विद्याओं से संपदाएँ प्राप्त हुई हैं वे हमारे आशीर्वाद से भी अधिक है अत: उन्होंने यही कहा कि तुम लोग चिरकाल तक जीवित रहो ।।368।। सुमाली, माल्यवान्, सूर्यरज, ऋक्षरज और रत्नश्रवा ने स्नेहवश उनका बार-बार आलिंगन किया था ।।369।। तदनंतर इच्छानुसार जिन्हें सब संपदाएँ प्राप्त थीं ऐसे उन सब लोगों ने बंधुजनों तथा भृत्य वर्ग से आवृत होकर भोजन किया ।।370।। तदनंतर दशानन ने वस्त्र आदि देकर गुरुजनों की पूजा की और यथायोग्य भृत्य वर्ग का भी सम्मान किया ।।371।। तत्पश्चात् प्रीति से जिनके नेत्र फूल रहे थे ऐसे समस्त गुरुजन निश्चिंतता से बैठे थे। प्रकरण पाकर उन्होंने कहा कि हे पुत्रों! इतने दिन तक तुम सब सुख से रहे ।।372।। तब दशानन आदि कुमारों ने हाथ जोड़ सिर से लगाकर प्रणाम करते हुए कहा कि आप लोगों के प्रसाद से हम सबकी कुशल है ।।373।। तदनंतर प्रकरणवश माली के मरण की चर्चा करते हुए सुमाली इतने शोकग्रस्त हुए कि उन्हें तत्काल ही मूर्च्छा आ गयी ।।374।। तत्पश्चात् रत्नश्रवा के जेष्ठ पुत्र दशानन ने अपने शीतल हाथ से स्पर्श कर उन्हें पुन: सचेत किया ।।375।। तथा बर्फ के समान ठंडे और समस्त शत्रुसमूह के घात रूपी बीज के अंकुरोद्गम के समान शक्तिशाली वचनों से उन्हें आनंदित किया ।।376।। तब कमल के समान नेत्रों से सुशोभित दशानन को देख, सुमाली तत्काल ही सब शोक छोड़कर पुन: आनंद को प्राप्त हो गये ।।377।। और दशानन से हृदयहारी सत्य वचन कहने लगे कि अहो वत्स! सचमुच ही तुम्हारा उदार बल देवताओं को संतुष्ट करनेवाला है ।।378।। अहो! तुम्हारी यह कांति सूर्य को जीतकर स्थित है और तुम्हारा गांभीर्य समुद्र को दूर हटाकर विद्यमान है ।।379।। अहो! तुम्हारा यह कांतिसहित पराक्रम सर्वजनातिगामी है अर्थात् सब लोगो से बढ़कर है। अहो पुत्र! तुम राक्षस वंश के तिलक स्वरूप उत्पन्न हुए हो ।।380।। हे दशानन! जिस प्रकार सुमेरुपर्वत से जंबूद्वीप सुशोभित है और चंद्रमा तथा सूर्य से आकाश सुशोभित होता है उसी प्रकार लोगों को महान् आश्चर्य में डालने वाली चेष्टाओं से युक्त तुझ सुपुत्र से यह राक्षस वंश सुशोभित हो रहा है ।।381-382।। मेघवाहन आदि तुम्हारे कुल के पूर्वपुरुष थे जो लंकापुरी का पालन कर तथा अंत में तपश्चरण कर मोक्ष गये हैं।।383।। अब हमारे दुःखों को दूर करने वाले पुण्य से तू उत्पन्न हुआ है। हे पुत्र! एक तेरे मुख से मुझे जो संतोष हो रहा है उसका वर्णन कैसे कर सकता हूँ ।।384।। इन विद्याधरों ने तो जीवित रहने की आशा छोड़ दी थी अब तुझ उत्साही के उत्पन्न होने पर फिर से आशा बाँधी है ।।385।। एक बार हम जिनेंद्र भगवान की वंदना करने के लिए कैलास पर्वत पर गये थे। वहाँ अवधिज्ञान के धारी मुनिराज को प्रणाम कर हमने पूछा था कि हे नाथ! लंका में हमारा निवास फिर कब होगा इसके उत्तर में दयालु मुनिराज ने कहा था ।।386-387।। कि तुम्हारे पुत्र से वियद्बिंदु की पुत्री में जो उत्तम पुरुष जन्म प्राप्त करेगा वही तुम्हारा लंका में प्रवेश कराने वाला होगा ।।388।। वह पुत्र बल और पराक्रम का धारी तथा सत्व, प्रताप, विनय, लक्ष्मी, कीर्ति और कांति का अनन्य आश्रय होगा तथा भरतक्षेत्र के तीन खंडों का पालन करेगा ।।389।। शत्रु के द्वारा अपने अधीन की हुई लक्ष्मी को यही पुत्र उससे मुक्त करावेगा इसमें आश्चर्य की भी कोई बात नहीं है क्योंकि वह लंका में परम लक्ष्मी को प्राप्त होगा ।।390।। सो कुल के महोत्सव स्वरूप तू उत्पन्न हो गया है, तेरे सब लक्षण शुभ हैं तथा अनुपम रूप से तू सबके नेत्रों को हरने वाला है ।।391।। सुमाली के ऐसा कहने पर दशानन ने लज्जा से अपना मस्तक नीचा कर लिया और एवमस्तु कह हाथ जोड़ सिर से लगाकर सिद्ध भगवान को नमस्कार किया ।।392।। तदनंतर उस बालक के प्रभाव से सब बंधुजन शत्रु के भय से रहित हो यथास्थान सुख से रहने लगे ।।393।।
तदनंतर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! इस प्रकार पूर्वोपार्जित पुण्यकर्म के प्रभाव से मनुष्य कीर्ति के द्वारा दिग्दिगंतराल तथा लोक की आच्छादित करते हुए लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं। इसमें मनुष्य की आयु कारण नहीं है। क्या अग्नि का एक कण क्षणभर में विशाल वन को भस्म नहीं कर देता अथवा सिंह का बालक मदोन्मत्त हाथियों के झुंड को विदीर्ण नहीं कर देता? ।।394।। चंद्रमा की किरणों का एक अंश सूर्य की किरणों से उत्पादित संताप को दूर करता हुआ शीघ्र ही कुमुदिनियों में उल्लास पैदा कर देता है और सूर्य उदित होते ही निद्रा को दूर हटाने वाला अपनी किरणों से मेघमाला के समान मलिन अंधकार को दूर कर देता है ।।395।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में
दशानन का वर्णन करनेवाला सातवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।7।।