हरिवंश पुराण - सर्ग 56: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर― व्रत गुप्ति और समितियों से उत्कृष्टता को प्राप्त एवं परीषहों को सहन करने वाले मुनिराज नेमिनाथ रत्नत्रय और तपरूपी लक्ष्मी से सुशोभित होने लगे ॥1॥ उज्ज्वल बुद्धि के धारक भगवान्<strong>, </strong>आर्त और रौद्र नामक अप्रशस्त ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान नामक प्रशस्त ध्यानों का ध्यान करने के लिए उद्यत हुए ॥2॥ उत्तमसंहनन के धारक पुरुष की चिंता का किसी एक पदार्थ में अंतर्मुहूर्त के लिए रुक जाना सो ध्यान है और चिंता का अर्थ चंचल मन है ॥ 3 ॥ पीडा को आर्ति कहते हैं । आर्ति के समय जो ध्यान होता है उसे आर्तध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान अत्यंत कृष्ण<strong>, </strong>नील और कापोत लेश्या के बल से उत्पन्न होता है | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर― व्रत गुप्ति और समितियों से उत्कृष्टता को प्राप्त एवं परीषहों को सहन करने वाले मुनिराज नेमिनाथ रत्नत्रय और तपरूपी लक्ष्मी से सुशोभित होने लगे ॥1॥<span id="2" /> उज्ज्वल बुद्धि के धारक भगवान्<strong>, </strong>आर्त और रौद्र नामक अप्रशस्त ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान नामक प्रशस्त ध्यानों का ध्यान करने के लिए उद्यत हुए ॥2॥<span id="3" /> उत्तमसंहनन के धारक पुरुष की चिंता का किसी एक पदार्थ में अंतर्मुहूर्त के लिए रुक जाना सो ध्यान है और चिंता का अर्थ चंचल मन है ॥ 3 ॥<span id="4" /> पीडा को आर्ति कहते हैं । आर्ति के समय जो ध्यान होता है उसे आर्तध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान अत्यंत कृष्ण<strong>, </strong>नील और कापोत लेश्या के बल से उत्पन्न होता है ॥ 4 ॥<span id="5" /> बाह्य और अभ्यंतर के भेद से आर्तध्यान दो प्रकार का है । उनमें रोना आदि तथा दूसरे की लक्ष्मी देख कर आश्चर्य करना और विषयों में आसक्त होना आदि बाह्य आर्तध्यान है ॥ 5 ॥<span id="6" /> अपने-आपका आर्तध्यान स्वसंवेदन से जाना जाता है और दूसरों का अनुमान से । आभ्यंतर आर्तध्यान के चार भेद हैं जो नीचे लिखे अनुसार अपने-अपने लक्षणों से सहित हैं ॥ 6 ॥<span id="7" /><span id="8" /> अभीष्ट वस्तु को उत्पत्ति न हो ऐसा चिंतवन करना सो पहला आर्तध्यान है । यदि अनिष्ट वस्तु उत्पन्न हो चुकी है तो उसके वियोग का बार-बार चिंतवन करना दूसरा आर्तध्यान है । इष्ट विषय का कभी वियोग न हो ऐसा चिंतवन करना सो तीसरा आर्तध्यान है और इष्ट विषय का यदि वियोग हो गया है तो उसके अंत का विचार करना यह चौथा आर्तध्यान है ॥7-8॥<span id="9" /> अमनोज्ञ दुःख के बाह्य साधन चेतन और अचेतन के भेद से दो प्रकार के हैं । उनमें मनुष्य आदि तो चेतन साधन हैं और विष-शस्त्र आदि अचेतन साधन हैं ॥ 9॥<span id="10" /> अंतरंग साधन भी शारीरिक और मानसिक के भेद से दो प्रकार का है । वात आदि के प्रकोप से उत्पन्न उदर-शूल<strong>, </strong>नेत्र-शूल<strong>, </strong>दंत-शूल आदि नाना प्रकार को दुःसह बीमारियां शारीरिक साधन हैं ॥10॥<span id="11" /> और शोक<strong>, </strong>अरति<strong>, </strong>भय<strong>, </strong>उद्वेग<strong>, </strong>विषाद आदि विष से दूषित जो जुगुप्सा तथा सौमनस्य बेचैनी आदि विकार हैं वे मानसिक दुःख के साधन हैं ॥ 11 ॥<span id="12" /> सभी प्रकार के अमनोज्ञ-अनिष्ट विषयों की उत्पत्ति नहीं हो इस प्रकार बार-बार चिंता करना सो पहला मलिन आर्तध्यान है ॥12॥<span id="13" /> यदि किसी प्रकार के अमनोज्ञ<strong>-</strong>अनिष्ट विषय की उत्पत्ति हो गयी है तो उसका अभाव किस प्रकार होगा ? इसी बात का निरंतर संकल्प करना दूसरा आर्तध्यान कहा गया है ॥13॥<span id="14" /> मनोज्ञ सुख के बाह्यसाधन चेतन<strong>-</strong>अचेतन के भेद से दो प्रकार के हैं । उनमें पशु<strong>, </strong>स्त्री<strong>, </strong>पुत्र आदि सचेतन साधन हैं और धन<strong>-</strong>धान्यादि अचेतन साधन हैं ॥14॥<span id="15" /> आभ्यंतर साधन भी शारीरिक और मानसिक के भेद से दो प्रकार के हैं । इनमें पित्त आदि को समता से जो आरोग्य अवस्था है वह शारीरिक साधन है और रति<strong>, </strong>अशोक<strong>, </strong>अभय आदि से उत्पन्न जो सौमनस्य आदि है वह मानसिक साधन है ॥15॥<span id="16" /> मुझे इस लोक<strong>-</strong>संबंधी और परलोक संबंधी इष्टविषय का वियोग न हो ऐसा संकल्प करना तीसरा आर्तध्यान कहलाता है ॥16॥<span id="17" /> और पहले उत्पन्न इष्टविषय के वियोग के अभाव का संकल्प करना― बार<strong>-</strong>बार चिंतवन करना चौथा आर्तध्यान है ॥17॥<span id="18" /> इस आर्तध्यान का आधार प्रमाद है<strong>, </strong>फल तिर्यंचगति है । यह परोक्ष क्षायोपशमिक भाव है और पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक पाया जाता है ॥18॥<span id="19" /></p> | ||
<p>क्रूर अभिप्राय वाले जीव को रुद्र कहते हैं । उसके जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है । यह हिंसानंद<strong>, </strong>चौर्यानंद<strong>, </strong>मृषानंद और परिग्रहानंद के भेद से चार प्रकार का है | <p>क्रूर अभिप्राय वाले जीव को रुद्र कहते हैं । उसके जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है । यह हिंसानंद<strong>, </strong>चौर्यानंद<strong>, </strong>मृषानंद और परिग्रहानंद के भेद से चार प्रकार का है ॥ 19 ॥<span id="20" /> जिनको हिंसा आदि में आनंद अर्थात् अभिरुचि होती है वे संक्षेप से हिंसानंद आदि कहे जाते हैं ॥20॥<span id="21" /><span id="22" /> बाह्य और आभ्यंतर के भेद से ारौद्रध्यान के दो भेद हैं । उनमें क्रूर व्यवहार करना तथा गाली आदि अशिष्ट वचन बकना<strong>, </strong>बाह्य रौद्रध्यान है । अपने<strong>-</strong>आपमें पाया जाने वाला रौद्रध्यान स्वसंवेदन से जाना जाता है― स्वयं ही अनुभव में आ जाता है और दूसरे में पाया जाने रौद्रध्यान अनुमान से जाना जाता है । हिंसा आदि कार्यों में जो संरंभ<strong>,</strong> समारंभ और आरंभ रूपी प्रवृत्ति है वह आभ्यंतर आर्तध्यान है । इसके हिंसानंद आदि चार भेद हैं जिनके लक्षण इस प्रकार हैं । हिंसा में तीव्र आनंद मानना सो हिंसानंद नामक पहला रौद्रध्यान है ॥21-22॥<span id="23" /> श्रद्धान करने योग्य पदार्थों के विषय में अपनी कल्पित युक्तियों से दूसरों को ठगने का संकल्प करना मृषानंद नाम का दूसरा रौद्र ध्यान है ॥23॥<span id="24" /> प्रमादपूर्वक दूसरे के धन को जबरदस्ती हरने का अभिप्राय रखना सो स्तेयानंद नाम का तीसरा रोद्रध्यान कहा गया है ॥24॥<span id="25" /> और चेतन<strong>, </strong>अचेतन दोनों प्रकार के परिग्रह की रक्षा का निरंतर अभिप्राय रखना तथा मैं इसका स्वामी हूँ और यह मेरा स्व है इस प्रकार बार-बार चिंतवन करना सो परिग्रह संरक्षणानंद नाम का चौथा रोद्र में चारों प्रकार का ध्यान है ॥25॥<span id="26" /> यह रौद्रध्यान तीव्र कृष्ण<strong>, </strong>नील तथा कापोत लेश्या के बल से होता है<strong>, </strong>प्रमाद से संबंध रखता है और नीचे के पांच गुणस्थानों में होता है ॥26॥<span id="27" /> इसका काल अंतर्मुहूर्त है क्योंकि इससे अधिक एक पदार्थ में उपयोग का स्थिर होना दुर्धर है । यह परोक्ष ज्ञान से होता है अतः क्षयोपशम भाव रूप है ॥27॥<span id="28" /> भावलेश्या और कषाय के अधीन होता है इसलिए औदयिकभाव रूप भी है । इस ध्यान का उत्तर फल नरकगति है ॥ 28॥<span id="29" /> जो पुरुष मोक्षाभिलाषी हैं वे आर्त रौद्र नामक दोनों अशुभ ध्यानों को छोड़ शुद्ध भिक्षा को ग्रहण करने वाले भिक्षु-मुनि होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में अपनी बुद्धि लगावें ॥29॥<span id="30" /><span id="31" /></p> | ||
<p>जिस समय एकांत<strong>, </strong>प्रासुक तथा क्षुद्र जीवों के उपद्रव से रहित क्षेत्र<strong>, </strong>दिव्य संहनन-आदि के तीन संहनन रूप द्रव्य<strong>, </strong>उष्णता आदि की बाधा से रहित काल और निर्मल अभिप्राय रूप श्रेष्ठ भाव<strong>, </strong>इस प्रकार क्षेत्रादि चतुष्टय रूप सामग्री मुनि को उपलब्ध होती है तब समस्त बाधाओं को सहन करने वाला मुनि प्रशस्त ध्यान का आरंभ करता है | <p>जिस समय एकांत<strong>, </strong>प्रासुक तथा क्षुद्र जीवों के उपद्रव से रहित क्षेत्र<strong>, </strong>दिव्य संहनन-आदि के तीन संहनन रूप द्रव्य<strong>, </strong>उष्णता आदि की बाधा से रहित काल और निर्मल अभिप्राय रूप श्रेष्ठ भाव<strong>, </strong>इस प्रकार क्षेत्रादि चतुष्टय रूप सामग्री मुनि को उपलब्ध होती है तब समस्त बाधाओं को सहन करने वाला मुनि प्रशस्त ध्यान का आरंभ करता है ॥ 30-31॥<span id="32" /> ध्यान करने वाला पुरुष<strong>, </strong>गंभीर<strong>, </strong>निश्चल शरीर और सुखद पर्यंकासन से युक्त होता है । उसके नेत्र न तो अत्यंत खुले होते हैं और न बंद ही रहते हैं ॥32॥<span id="33" /> नीचे के दांतों के अग्रभाग पर उसके ऊपर के दाँत स्थित वह इंद्रियों के समस्त व्यापार से निवृत्त हो चुकता है<strong>, </strong>श्रुत का पारगामी होता है<strong>, </strong>धीरे-धीरे श्वासोच्छ̖वास का संचार करता है ॥33॥<span id="34" /> मोक्ष का अभिलाषी मनुष्य अपनी मनोवृत्ति को नाभि के ऊपर मस्तक पर<strong>, </strong>हृदय में अथवा ललाट में स्थिर कर आत्मा को एकाग्र करता हआ धर्मध्यान और शुक्लध्यान इन दो हितकारी ध्यानों का चिंतवन करता है ॥34॥<span id="35" /> बाह्य और आध्यात्मिक भावों का जो यथार्थ भाव है वह धर्म कहलाता है<strong>, </strong>उस धर्म से जो सहित है उसे धर्मध्यान कहते हैं ॥35॥<span id="36" /><span id="37" /><span id="38" /> बाह्य और आभ्यंतर के भेद से धर्म्यध्यान का लक्षण दो प्रकार का है । शास्त्र के अर्थ की खोज करना<strong>, </strong>शीलव्रत का पालन करना<strong>, </strong>गुणों के समूह में अनुराग रखना<strong>, </strong>अंगड़ाई<strong>, </strong>जमुहाई<strong>, </strong>छींक<strong>, </strong>डकार और स्वासोच्छ्वास में मंदता होना<strong>, </strong>शरीर को निश्चल रखना तथा आत्मा को व्रतों से युक्त करना<strong>, </strong>यह धर्म्यध्यान का बाह्य लक्षण है और आभ्यंतर लक्षण अपाय विचय आदि के भेद से दस प्रकार का है । इनमें अपाय का अर्थ त्याग है और मीमांसा का अर्थ विचार है ॥36-38॥<span id="39" /><span id="40" /> मन<strong>, </strong>वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति ही प्रायः संसार का कारण है सो इन प्रवृत्तियों का मेरे अपाय-त्याग किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रकार शुभ लेश्या से अनुरंजित जो चिंता का प्रबंध है वह अपाय विचय नाम का प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है ॥ 39-40॥<span id="41" /> पुण्यरूप योग प्रवृत्तियों को अपने अधीन करना उपाय कहलाता है । यह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है इस प्रकार के संकल्पों की जो संतति है वह उपाय विचय नाम का दूसरा धर्मध्यान है ॥ 41 ॥<span id="42" /><span id="43" /> द्रव्यार्थिक नय से जीव अनादि निधन हैं― आदि-अंत से रहित हैं और पर्यायार्थिक नय से सादि सनिधन हैं<strong>,</strong> असंख्यात प्रदेशी हैं<strong>, </strong>अपने उपयोगरूप लक्षण से सहित हैं<strong>, </strong>शरीररूप अचेतन उप करण से युक्त हैं और अपने द्वारा किये हुए कर्म के फल को भोगते है...... इत्यदि रूप से जीव का जो ध्यान करना है वह जीव विचय नाम का तीसरा धर्मध्यान है ॥ 42-43 ॥<span id="44" /> धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिंतन करना यह अजीव विचय नाम का चौथा धर्म्यध्यान है ॥44॥<span id="45" /> ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृति<strong>, </strong>प्रदेश<strong>, </strong>स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के बंधों के विपाक फल का विचार करना सो विपाक विचय नाम का पाँचवां धर्म्यध्यान है ॥45॥<span id="46" /></p> | ||
<p>शरीर अपवित्र है और भोग विपाक फल के समान तदात्व मनोहर हैं इसलिए इनसे विरक्त बुद्धि का होना ही श्रेयस्कर है..... इत्यादि चिंतन करना सो विराग विचय नाम का छठा धर्म्यध्यान है ॥46॥ चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों की मरने के बाद जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं । यह भव दुःखरूप है । इस प्रकार चिंतवन करना सो भव विचय नाम का सातवां धर्म्य-ध्यान है ॥47॥ | <p>शरीर अपवित्र है और भोग विपाक फल के समान तदात्व मनोहर हैं इसलिए इनसे विरक्त बुद्धि का होना ही श्रेयस्कर है..... इत्यादि चिंतन करना सो विराग विचय नाम का छठा धर्म्यध्यान है ॥46॥<span id="47" /> चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों की मरने के बाद जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं । यह भव दुःखरूप है । इस प्रकार चिंतवन करना सो भव विचय नाम का सातवां धर्म्य-ध्यान है ॥47॥<span id="48" /> यह लोकाकाश अलोकाकाश में स्थित है तथा चारों ओर से तीन वातवलयों से वेष्टित है इत्यादि लोक के संस्थान-आकार का विचार करना सो संस्थान विचय नाम का आठवां धर्म्यध्यान है ॥ 48॥<span id="49" /> जो इंद्रियों से दिखाई नहीं देते ऐसे बंध<strong>, </strong>मोक्ष आदि पदार्थों में जिनेंद्र भगवान् की आज्ञा के अनुसार निश्चय का ध्यान करना सो आज्ञा विचय नाम का नौवाँ धर्म्यध्यान है ॥ 49 ॥<span id="50" /> और तर्क का अनुसरण करने वाले पुरुष स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेते हुए समीचीन मार्ग का आश्रय करते हैं― उसे ग्रहण करते हैं<strong>, </strong>इस प्रकार चिंतवन करना सो हेतु विचय नाम का दसवां धर्म्यध्यान है ॥50॥<span id="51" /><span id="52" /> यह दस प्रकार का धर्म्यध्यान अप्रमत्त गुणस्थान में होता है<strong>, </strong>प्रमाद के अभाव से उत्पन्न होता है<strong>, </strong>पीत और पद्म नामक शुभ लेश्याओं के बल से होता है<strong>, </strong>काल और भाव के विकल्प में स्थित है तथा स्वर्ग और मोक्षरूप फल को देने वाला है । ध्यान में तत्पर मनुष्यों को यह ध्यान अवश्य ही करना चाहिए । भावार्थ― यहां उत्कृष्टता की अपेक्षा धर्मध्यान को सातवें अप्रमत्त-गुणस्थान में बताया है परंतु सामान्य रूप से यह चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है और स्वर्ग का साक्षात् तथा मोक्ष का परंपरा से कारण है ॥51-52॥<span id="53" /></p> | ||
<p>जो शुचित्व अर्थात् शौच के संबंध से होता है वह शुक्लध्यान कहलाता है । दोष आदिक का अभाव हो जाना शौच है । यह शुक्ल और परम शुक्ल के भेद से दो प्रकार है तथा शुक्ल और परम शुक्ल दोनों के दो-दो भेद माने गये हैं ॥53 | <p>जो शुचित्व अर्थात् शौच के संबंध से होता है वह शुक्लध्यान कहलाता है । दोष आदिक का अभाव हो जाना शौच है । यह शुक्ल और परम शुक्ल के भेद से दो प्रकार है तथा शुक्ल और परम शुक्ल दोनों के दो-दो भेद माने गये हैं ॥53 ॥<span id="54" /> पृथक्त्व वितर्क वीचार और एकत्व वितर्क ये दो भेद शुक्लध्यान के हैं और सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती तथा व्युपरत क्रिया निवृति ये दो परम शुक्लध्यान के भेद हैं ॥54॥<span id="55" /><span id="56" /> बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से शुक्लध्यान का लक्षण दो प्रकार का कहा गया है । इनमें श्वासोच्छ̖वास के प्रचार को अव्यक्त अथवा उच्छिन्न दशा से युक्त मनुष्य के जो अंगड़ाई और जमुहाई आदि का छूट जाना है वह बाह्य लक्षण है एवं अपने-आपको जिसका स्वसंवेदन होता है तथा दूसरे को जिसका अनुमान होता है वह आध्यात्मिक लक्षण है । आगे उन शुक्ल और परम शुक्ल ध्यानों का आध्यात्मिक लक्षण कहा जाता है ॥55-56॥<span id="57" /><span id="58" /> पृथग्भाव अथवा नानात्व को पृथकत्व कहते हैं । निर्दोष द्वादशांग-श्रुतज्ञान वितर्क कहलाता है । अर्थ<strong>, </strong>व्यंजन (शब्द) और योगों का जो क्रम से संक्रमण होता है उसे वीचार कहते हैं । जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह अर्थ कहलाता है<strong>, </strong>उसके प्रतिपादक शब्द को व्यंजन कहते हैं और वचन आदि योग हैं ॥ 57-58॥<span id="59" /> जिसमें वितर्क (द्वादशांग) के अर्थादि में क्रम से नानारूप परिवर्तन हो वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नाम का पहला शुक्लध्यान माना जाता है ॥59॥<span id="60" /><span id="61" /><span id="62" /> इसका स्पष्टीकरण यह है कि निश्चल चित्र का धारक कोई पूर्वविद् मुनि द्रव्याणु अथवा भावाणु का अवलंबन कर ध्यान कर रहा है सो जिस प्रकार कोई अतीक्ष्ण-भोथले शस्त्र से किसी वृक्ष को धीरे-धीरे काटता है उसी प्रकार वह विशुद्धता का वेग कम होने से मोहनीय कर्म के उपशम अथवा शम को धीरे-धीरे करता है । कर्मों की अत्यधिक निर्जरा को करता हुआ वह मुनि द्रव्य से द्रव्यांतर को<strong>, </strong>पर्याय से पर्यायांतर को<strong>, </strong>व्यंजन से व्यंजनांतर को और योग से योगांतर को प्राप्त होता है ॥60-62॥<span id="63" /><span id="64" /> वह प्रथम शुक्लध्यान शुक्लतर लेश्या के बल से होता है । उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी―दोनों गुणस्थानों में होता है । क्षायोपशमिक भाव से सहित है । समस्त पूर्वो के ज्ञाता मुनि के यह ध्यान अंतर्मुहूर्त तक रहता है तथा दोनों श्रेणियों के वश से यह स्वर्ग और मोक्ष रूप फल को देने वाला है । भावार्थ― उपशम श्रेणी में होने वाला शुक्लध्यान स्वर्ग का कारण है और क्षपकश्रेणी में होने वाला मोक्ष का कारण है ॥ 63-64॥<span id="65" /></p> | ||
<p>जिसमें वीचार-अर्थादि के संक्रमण से रहित होने के कारण एक रूप में ही वितर्क का उपयोग होता है अर्थात् वितर्क के अर्थ एवं व्यंजन आदि पर अंतर्मुहूर्त तक चित्त को गति स्थिर रहती है वह एकत्व वितर्क वीचार नाम का दूसरा शुक्लध्यान है ॥65॥ | <p>जिसमें वीचार-अर्थादि के संक्रमण से रहित होने के कारण एक रूप में ही वितर्क का उपयोग होता है अर्थात् वितर्क के अर्थ एवं व्यंजन आदि पर अंतर्मुहूर्त तक चित्त को गति स्थिर रहती है वह एकत्व वितर्क वीचार नाम का दूसरा शुक्लध्यान है ॥65॥<span id="66" /><span id="67" /><span id="68" /> यह ध्यान एक ही अणु अथवा पर्याय को विषय कर प्रवृत्त होता है । मोह आदि घातिया कर्मों का घात करने वाला है<strong>, </strong>पूर्व धारी के होता है और इस ध्यान के प्रभाव से ध्यान करने वाला कुशल मुनि ज्ञान<strong>, </strong>दर्शन<strong>, </strong>सम्यक्त्व<strong>, </strong>वीर्य और चारित्र आदि क्षायिक भावों से सुशोभित होने लगता है । अब वह तीर्थंकर अथवा सामान्य केवली हो जाता है । वह सबके द्वारा पूज्य एवं सेवनीय हो जाता है और तीन लोकों का परमेश्वर हो उत्कृष्ट रूप से देशो में कोटि पूर्व तक विहार करता रहता है ॥ 66-68 ॥<span id="69" /><span id="70" /><span id="71" /> </p> | ||
<p>जब उन केवली भगवान् की आयु अंतर्मुहूर्त की शेष रह जाती है तथा आयु के बराबर ही वेदनीय आदि तीन अघातिया कर्मों को स्थिति अवशिष्ट रहती है तब वे समस्त वचन योग<strong>, </strong>मनोयोग और स्थूल काय योग को छोड़कर स्वभाव से ही सामान्य शुक्ल की अपेक्षा तीसरे और विशेष― परमशुक्ल की अपेक्षा प्रथम सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक ध्यान को प्राप्त करने योग्य होते हैं | <p>जब उन केवली भगवान् की आयु अंतर्मुहूर्त की शेष रह जाती है तथा आयु के बराबर ही वेदनीय आदि तीन अघातिया कर्मों को स्थिति अवशिष्ट रहती है तब वे समस्त वचन योग<strong>, </strong>मनोयोग और स्थूल काय योग को छोड़कर स्वभाव से ही सामान्य शुक्ल की अपेक्षा तीसरे और विशेष― परमशुक्ल की अपेक्षा प्रथम सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक ध्यान को प्राप्त करने योग्य होते हैं ॥ 69-71 ॥<span id="72" /><span id="73" /><span id="74" /><span id="75" /><span id="76" /> जब उन केवली भगवान् की स्थिति अंतर्मुहूर्त की हो और शेष तीन अघातिया कर्मो की स्थिति अधिक हो तब वे स्वभाववश अपने-आप चार समयों द्वारा आत्मप्रदेशों को फैलाकर दंड<strong>, </strong>कपाट<strong>, </strong>प्रतर और लोक पूरण कर तथा उसने ही समयों में उन्हें संकुचित कर सब कर्मों को स्थिति एक बराबर कर लेते हैं । इस क्रिया के समय उनका उपयोग विशेष अपने-आप में होता है<strong>, </strong>वे विशिष्ट करण अर्थात् भाव का अवलंबन करते हैं<strong>, </strong>सामायिक भाव से युक्त होते हैं<strong>, </strong>महासंवर से सहित होते हैं-नवीन कर्मों का आस्रव प्रायः बंद कर देते हैं और सत्ता में स्थित कर्मों के नष्ट करने तथा उदयावली में लाने में समर्थ रहते हैं । यह सब करने के बाद जब वे पुनः पूर्व शरीर प्रमाण हो जाते हैं तब प्रथम परम शुक्लध्यान को पूर्ण कर द्वितीय परमशुक्लध्यान को प्राप्त होते हैं ॥ 72-76॥<span id="77" /> आत्मप्रदेशों के परिस्पंदरूप योग तथा कायबल आदि प्राणों के समुच्छिन्न― नष्ट हो जाने से यह ध्यान समुच्छिन्नक्रिय नाम से कहा गया है ॥77॥<span id="78" /> इस ध्यान के समय यत्नपूर्वक समस्त कर्मों के बंध और आस्रवों का निरोध हो चुकता है । ध्याता अयोग-योगरहित हो जाता है और उसके मोक्ष का साक्षात् कारण परम यथाख्यातचारित्र प्रकट हो जाता है ॥78॥<span id="79" /> वह अयोगकेवली आत्मा<strong>, </strong>समस्त कर्मों को नष्ट कर सोलहवानी के स्वर्ण के समान प्रकट हुई चेतनाशक्ति से देदीप्यमान हो उठता है ॥79 ॥<span id="80" /><span id="81" /> इसी समय वह सिद्ध होता हुआ अनादि सिद्ध ऊर्ध्वगमन स्वभाव<strong>, </strong>पूर्व प्रयोग<strong>, </strong>असंगत्व और बंधच्छेद रूप हेतुओं से अग्निशिखा<strong>, </strong>आविद्धकुलालचक्र<strong>, </strong>व्यपगतलेपालाबु और एरंडबीज के समान ऊपर को जाता हुआ एक समय मात्र में ऊर्ध्वलोक के अंत में पहुँच जाता है ॥ 80-81॥<span id="82" /> धर्मास्तिकाय का अभाव होने से सिद्धात्मा लोकांत को उल्लंघन कर आगे नहीं जाता । वह उसी स्थानपर अनंत सुख का उपभोग करता हुआ विराजमान हो जाता है ॥ 82॥<span id="83" /> चारों वर्गों में प्राणियों के लिए मोक्ष ही अतिशय हितकारी है<strong>, </strong>अपने समस्त कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष का लक्षण है और ऐसा मोक्ष ऊपर कहे हुए समीचीन ध्यान से ही प्राप्त होता है ॥83॥<span id="84" /><span id="85" /> कर्मप्रकृतियों का अभाव हो जाना ही अनंत सुख को देने वाला मोक्ष है । वह कर्म प्रकृतियों का अभाव यत्नसाध्य तथा अयत्नसाध्य को अपेक्षा दो प्रकार का है । चरमशरीरी जीव के भुज्यमान आयु को छोड़कर अन्य आयुओं का जो अभाव है वह अयत्नसाध्य अभाव है क्योंकि इनकी सत्ता पहले से आती नहीं है और चरमशरीरी के नवीन बंध होता नहीं है । अब यत्नसाध्य प्रकृतियों का अभाव किस तरह होता है यह कहते हैं ॥ 84-85॥<span id="86" /><span id="87" /></p> | ||
<p>असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान तक किसी गुणस्थान में कर्म भूमि का मनुष्य मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों का क्षय कर विशुद्ध बुद्धि का धारक होता हुआ सूर्य के समान क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है | <p>असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान तक किसी गुणस्थान में कर्म भूमि का मनुष्य मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों का क्षय कर विशुद्ध बुद्धि का धारक होता हुआ सूर्य के समान क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है ॥ 86-87॥<span id="88" /> तदनंतर सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती मनुष्य क्षपक श्रेणी में चढ़कर अथाप्रवत्तकरण ( अधःप्रवत्तकरण ) को करके उसके बाद अपूर्वकरण को करता है ॥ 88॥<span id="89" /> फिर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती होकर पापप्रकृतियों की स्थिति तथा अ<u>नु</u>भाग को क्षीण करता हुआ अनिवृत्तिकरण को प्राप्त होता है ॥ 89 ॥<span id="90" /> तदनंतर अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान में क्षपक संज्ञा को प्राप्त होता हुआ कर्मप्रकृतिरूप वन को शुक्लध्यानरूपी अग्नि से आक्रांत करता है ॥ 90॥<span id="91" /><span id="92" /> फिर सत्ता में स्थित निद्रानिद्रा<strong>, </strong>प्रचलाप्रचला<strong>, </strong>स्त्यानगृद्धि<strong>, </strong>नरक गति<strong>, </strong>नरकगत्यानुपूर्वी<strong>, </strong>तिर्यंचगति<strong>, </strong>तिर्यंचगत्यानुपूर्वी<strong>, </strong>एकेंद्रियादि चार जातियाँ<strong>, </strong>स्थावर<strong>, </strong>आतप<strong>, </strong>उद्योत<strong>, </strong>सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है ॥ 91-92 ॥<span id="93" /><span id="94" /><span id="95" /> इसी गुणस्थान में सोलह प्रकृतियों के क्षय के बाद अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण नामक आठ कषायों को नष्ट करता है । फिर नपुंसकवेद और स्त्रीवेद को नष्ट कर हास्यादि छह नोकषायों को संवेद में डालकर एक साथ नष्ट करता है । फिर वेद को संज्वलन क्रोधरूपी अग्नि में<strong>, </strong>क्रोध को संज्वलन मान में<strong>, </strong>संज्वलन मान को संज्वलन माया में और संज्वलन माया को संज्वलन लोभ में डालकर क्रम से दग्ध करता है ॥ 93-95 ॥<span id="96" /> फिर संज्वलन लोभ को और भी सूक्ष्म कर सूक्ष्मसांपराय नामक दसम गुणस्थान में पहुंचता है । इसके अंत में संज्वलन लोभ का अंत कर मोहकर्म का बिल्कुल अभाव कर चुकता है ॥ 96 ॥<span id="99" /><span id="100" /><span id="101" /><span id="102" /><span id="103" /><span id="104" /><span id="105" /><span id="106" /> फिर क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होकर एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान रूपी अग्नि से इसके उपांत्य समय में निद्रा और प्रचला को तथा अंत समय में ज्ञानावरण और अंत राय को पाँच-पाँच और दर्शनावरण को चार प्रकृतियों को जलाकर सयोगकेवली होता है ꠰꠰97-98॥ तदनंतर सयोगकेवली गुणस्थान को उल्लंघ कर जब आगामी गुणस्थान को प्राप्त होता है तब अयोगकेवली होकर अर्हंत अवस्था के उपांत्य समय में सातावेदनीय और असातावेदनीय में से कोई एक<strong>, </strong>देवगति<strong>, </strong>औदारिक शरीर को आदि लेकर पांच शरीर<strong>, </strong>पांच संघात<strong>, </strong>पांच बंधन<strong>,</strong> औदारिक<strong>, </strong>वैक्रियिक और आहारक ये तीन अंगोपांग<strong>, </strong>छह संस्थान<strong>, </strong>छह संहनन<strong>, </strong>पांच वर्ण<strong>, </strong>पांच रस<strong>, </strong>आठ स्पर्श<strong>, </strong>दो गंध<strong>, </strong>देवगत्यानुपूर्वी<strong>, </strong>अगुरुलघु<strong>, </strong>उच्छ्वास<strong>, </strong>परघात<strong>, </strong>उपघात<strong>, </strong>प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार को विहायोगति<strong>, </strong>प्रत्येक शरीर<strong>, </strong>अपर्याप्त<strong>, </strong>स्थिर<strong>, </strong>अस्थिर<strong>, </strong>शुभ<strong>, </strong>अशुभ<strong>, </strong>दुर्भग<strong>, </strong>सुस्वर<strong>, </strong>दुःस्वर<strong>, </strong>अनादेय<strong>, </strong>अयशःकीर्ति<strong>, </strong>निर्माण और नीच गोत्र इन बहत्तर प्रकृतियों को नष्ट करता है ॥ 99-106 ॥<span id="107" /><span id="108" /><span id="109" /> फिर अंत समय में सातावेदनीय<strong>, </strong>असातावेदनीय में से एक<strong>, </strong>मनुष्य आयु<strong>, </strong>मनुष्यगति<strong>, </strong>मनुष्यगत्यानुपूर्वी<strong>, </strong>पंचेंद्रिय जाति<strong>, </strong>त्रस<strong>, </strong>बादर<strong>, </strong>पर्याप्त<strong>, </strong>सुभग<strong>,</strong>आदेय<strong>, </strong>उच्चगोत्र<strong>, </strong>यशस्कीर्ति और तीर्थंकर इन तेरह प्रकृतियों को नष्ट करता है । अयोगकेवली गुणस्थान में यह जीव प्रदेशपरिस्पंद का अभाव हो जाने के कारण स्वभाव से स्थिर रहता है ॥107-109॥<span id="110" /> अ इ उ ऋ ल इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने काल तक चौदहवें गुणस्थान में रहकर यह जीव सिद्ध हो जाता है । जीव को यह सिद्धि सादि तथा अनंत है और अनंत गुणों के सन्निधान से युक्त है ॥110॥<span id="111" /></p> | ||
<p>भगवान् नेमिनाथ ने धर्म्यध्यान के पूर्वोक्त दस भेदों का यथायोग्य ध्यान करते हुए<strong>, </strong>छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन समीचीन तपश्चरण के द्वारा व्यतीत किये ॥111 | <p>भगवान् नेमिनाथ ने धर्म्यध्यान के पूर्वोक्त दस भेदों का यथायोग्य ध्यान करते हुए<strong>, </strong>छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन समीचीन तपश्चरण के द्वारा व्यतीत किये ॥111 ॥<span id="112" /><span id="113" /> तदनंतर आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल के समय भगवान् ने शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चार घातियारूपी महावन को जलाकर तीन लोक के इंद्रों के आसन कंपा देने वाले एवं अन्य जन दुर्लभ<strong>, </strong>केवलज्ञान<strong>, </strong>केवलदर्शन आदि अनंतचतुष्टय प्राप्त किये ॥112-113॥<span id="114" /> घंटाओं के शब्द<strong>, </strong>विशाल सिंहनाद<strong>, </strong>दुंदुभियों के स्पष्ट शब्द और शंखों की भारी आवाज से समस्त देवों ने शीघ्र ही निश्चय कर लिया कि जिनेंद्र भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है तथा इंद्रों ने भी सिंहासन और उन्नत मुकुटों के कंपित होने से अपने-अपने अवधिज्ञान का प्रयोग कर उक्त बात का ज्ञान कर लिया । तदनंतर तीनों लोकों के इंद्र<strong>, </strong>समुद्रों के समूह को क्षुभित करने वाली अपनी-अपनी सेनाओं के साथ गिरनार पर्वत की ओर चल पड़े ॥114॥<span id="115" /></p> | ||
<p>उस समय इंद्रों ने अवार्य वेग से युक्त वाहनों के समूह और सात प्रकार को अनेक सेनाओं से आकाशरूपी समुद्र को व्याप्त कर दिया और आकर गिरनार पर्वत की तीन प्रदक्षिणाएं दीं । उस समय वह पर्वत<strong>, </strong>ऊंचे शिखर का अभिमान धारण करने वाले गिरिराज-सुमेरु पर्वत को भी जीत रहा था क्योंकि सुमेरु पर्वतपर तो भगवान् का मात्र जन्मकल्याणक संबंधी अभिषेक हुआ था और गिरनार पर्वतपर दीक्षाकल्याणक के बाद पुनः ज्ञानकल्याणक होने से अनेक गुण प्रकट हुए थे ॥115 | <p>उस समय इंद्रों ने अवार्य वेग से युक्त वाहनों के समूह और सात प्रकार को अनेक सेनाओं से आकाशरूपी समुद्र को व्याप्त कर दिया और आकर गिरनार पर्वत की तीन प्रदक्षिणाएं दीं । उस समय वह पर्वत<strong>, </strong>ऊंचे शिखर का अभिमान धारण करने वाले गिरिराज-सुमेरु पर्वत को भी जीत रहा था क्योंकि सुमेरु पर्वतपर तो भगवान् का मात्र जन्मकल्याणक संबंधी अभिषेक हुआ था और गिरनार पर्वतपर दीक्षाकल्याणक के बाद पुनः ज्ञानकल्याणक होने से अनेक गुण प्रकट हुए थे ॥115 ॥<span id="56" /> देव लोग<strong>, </strong>दिशाओं को सुगंधित करने वाले मंदार आदि वृक्षों के फूलों की वर्षा करने लगे । देवांगनाओं के सुंदर संगीत से मिश्रित दुंदुभियों के शब्द संसार को मुखरित करने लगे । लोगों के शोक को नष्ट करने वाला फल और फूलों से युक्त अशोक वृक्ष प्रकट हो गया । तीन लोक की विभुता के चिह्न स्वरूप श्वेत छत्रत्रय सिर पर फिरने लगे । हंसावली के पात के समान सुशोभित एवं पर्वत को भूमि को सफेद करने वाले हजारों चमर ढुलने लगे । अपनी कांति से देदीप्यमान सूर्य की प्रभा के समूह को पराजित करने वाला भामंडल प्रकट हो गया । नाना रत्नसमूह की किरणों से इंद्रधनुष को उत्पन्न करने वाला स्वर्ण<strong>-</strong>सिंहासन आविर्भूत हो गया और नाना भाषाओं के भेद से युक्त एवं ओठों के स्फुरण से रहित दिव्यध्वनि खिरने लगी । इस प्रकार पूर्वोक्त आठ प्रातिहार्यों<strong>, </strong>दूसरों को अत्यंत शांत करने वाली अपनी समस्त विशेषताओं और केवलज्ञान<strong>-</strong>संबंधी<strong>,</strong> जंमसंबंधी तथा देवकृत चौंतीस अतिशयों से विभूषित<strong>, </strong>तीन लोक के उद्धार के लिए स्वाभाविक धैर्य के धारक और अनेक गुणों के समूह को प्रकट करने के लिए सूर्य के समान<strong>, </strong>हरिवंश के शिरोमणि बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् पृथिवी पर प्रकट हुए ॥116<strong>-</strong>118॥</p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में भगवान्</strong> <strong>नेमिनाथ के केवलज्ञान को उत्पत्ति का वर्णन करने वाला छप्पनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥56॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में भगवान्</strong> <strong>नेमिनाथ के केवलज्ञान को उत्पत्ति का वर्णन करने वाला छप्पनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥56॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर― व्रत गुप्ति और समितियों से उत्कृष्टता को प्राप्त एवं परीषहों को सहन करने वाले मुनिराज नेमिनाथ रत्नत्रय और तपरूपी लक्ष्मी से सुशोभित होने लगे ॥1॥ उज्ज्वल बुद्धि के धारक भगवान्, आर्त और रौद्र नामक अप्रशस्त ध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान नामक प्रशस्त ध्यानों का ध्यान करने के लिए उद्यत हुए ॥2॥ उत्तमसंहनन के धारक पुरुष की चिंता का किसी एक पदार्थ में अंतर्मुहूर्त के लिए रुक जाना सो ध्यान है और चिंता का अर्थ चंचल मन है ॥ 3 ॥ पीडा को आर्ति कहते हैं । आर्ति के समय जो ध्यान होता है उसे आर्तध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान अत्यंत कृष्ण, नील और कापोत लेश्या के बल से उत्पन्न होता है ॥ 4 ॥ बाह्य और अभ्यंतर के भेद से आर्तध्यान दो प्रकार का है । उनमें रोना आदि तथा दूसरे की लक्ष्मी देख कर आश्चर्य करना और विषयों में आसक्त होना आदि बाह्य आर्तध्यान है ॥ 5 ॥ अपने-आपका आर्तध्यान स्वसंवेदन से जाना जाता है और दूसरों का अनुमान से । आभ्यंतर आर्तध्यान के चार भेद हैं जो नीचे लिखे अनुसार अपने-अपने लक्षणों से सहित हैं ॥ 6 ॥ अभीष्ट वस्तु को उत्पत्ति न हो ऐसा चिंतवन करना सो पहला आर्तध्यान है । यदि अनिष्ट वस्तु उत्पन्न हो चुकी है तो उसके वियोग का बार-बार चिंतवन करना दूसरा आर्तध्यान है । इष्ट विषय का कभी वियोग न हो ऐसा चिंतवन करना सो तीसरा आर्तध्यान है और इष्ट विषय का यदि वियोग हो गया है तो उसके अंत का विचार करना यह चौथा आर्तध्यान है ॥7-8॥ अमनोज्ञ दुःख के बाह्य साधन चेतन और अचेतन के भेद से दो प्रकार के हैं । उनमें मनुष्य आदि तो चेतन साधन हैं और विष-शस्त्र आदि अचेतन साधन हैं ॥ 9॥ अंतरंग साधन भी शारीरिक और मानसिक के भेद से दो प्रकार का है । वात आदि के प्रकोप से उत्पन्न उदर-शूल, नेत्र-शूल, दंत-शूल आदि नाना प्रकार को दुःसह बीमारियां शारीरिक साधन हैं ॥10॥ और शोक, अरति, भय, उद्वेग, विषाद आदि विष से दूषित जो जुगुप्सा तथा सौमनस्य बेचैनी आदि विकार हैं वे मानसिक दुःख के साधन हैं ॥ 11 ॥ सभी प्रकार के अमनोज्ञ-अनिष्ट विषयों की उत्पत्ति नहीं हो इस प्रकार बार-बार चिंता करना सो पहला मलिन आर्तध्यान है ॥12॥ यदि किसी प्रकार के अमनोज्ञ-अनिष्ट विषय की उत्पत्ति हो गयी है तो उसका अभाव किस प्रकार होगा ? इसी बात का निरंतर संकल्प करना दूसरा आर्तध्यान कहा गया है ॥13॥ मनोज्ञ सुख के बाह्यसाधन चेतन-अचेतन के भेद से दो प्रकार के हैं । उनमें पशु, स्त्री, पुत्र आदि सचेतन साधन हैं और धन-धान्यादि अचेतन साधन हैं ॥14॥ आभ्यंतर साधन भी शारीरिक और मानसिक के भेद से दो प्रकार के हैं । इनमें पित्त आदि को समता से जो आरोग्य अवस्था है वह शारीरिक साधन है और रति, अशोक, अभय आदि से उत्पन्न जो सौमनस्य आदि है वह मानसिक साधन है ॥15॥ मुझे इस लोक-संबंधी और परलोक संबंधी इष्टविषय का वियोग न हो ऐसा संकल्प करना तीसरा आर्तध्यान कहलाता है ॥16॥ और पहले उत्पन्न इष्टविषय के वियोग के अभाव का संकल्प करना― बार-बार चिंतवन करना चौथा आर्तध्यान है ॥17॥ इस आर्तध्यान का आधार प्रमाद है, फल तिर्यंचगति है । यह परोक्ष क्षायोपशमिक भाव है और पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक पाया जाता है ॥18॥
क्रूर अभिप्राय वाले जीव को रुद्र कहते हैं । उसके जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है । यह हिंसानंद, चौर्यानंद, मृषानंद और परिग्रहानंद के भेद से चार प्रकार का है ॥ 19 ॥ जिनको हिंसा आदि में आनंद अर्थात् अभिरुचि होती है वे संक्षेप से हिंसानंद आदि कहे जाते हैं ॥20॥ बाह्य और आभ्यंतर के भेद से ारौद्रध्यान के दो भेद हैं । उनमें क्रूर व्यवहार करना तथा गाली आदि अशिष्ट वचन बकना, बाह्य रौद्रध्यान है । अपने-आपमें पाया जाने वाला रौद्रध्यान स्वसंवेदन से जाना जाता है― स्वयं ही अनुभव में आ जाता है और दूसरे में पाया जाने रौद्रध्यान अनुमान से जाना जाता है । हिंसा आदि कार्यों में जो संरंभ, समारंभ और आरंभ रूपी प्रवृत्ति है वह आभ्यंतर आर्तध्यान है । इसके हिंसानंद आदि चार भेद हैं जिनके लक्षण इस प्रकार हैं । हिंसा में तीव्र आनंद मानना सो हिंसानंद नामक पहला रौद्रध्यान है ॥21-22॥ श्रद्धान करने योग्य पदार्थों के विषय में अपनी कल्पित युक्तियों से दूसरों को ठगने का संकल्प करना मृषानंद नाम का दूसरा रौद्र ध्यान है ॥23॥ प्रमादपूर्वक दूसरे के धन को जबरदस्ती हरने का अभिप्राय रखना सो स्तेयानंद नाम का तीसरा रोद्रध्यान कहा गया है ॥24॥ और चेतन, अचेतन दोनों प्रकार के परिग्रह की रक्षा का निरंतर अभिप्राय रखना तथा मैं इसका स्वामी हूँ और यह मेरा स्व है इस प्रकार बार-बार चिंतवन करना सो परिग्रह संरक्षणानंद नाम का चौथा रोद्र में चारों प्रकार का ध्यान है ॥25॥ यह रौद्रध्यान तीव्र कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्या के बल से होता है, प्रमाद से संबंध रखता है और नीचे के पांच गुणस्थानों में होता है ॥26॥ इसका काल अंतर्मुहूर्त है क्योंकि इससे अधिक एक पदार्थ में उपयोग का स्थिर होना दुर्धर है । यह परोक्ष ज्ञान से होता है अतः क्षयोपशम भाव रूप है ॥27॥ भावलेश्या और कषाय के अधीन होता है इसलिए औदयिकभाव रूप भी है । इस ध्यान का उत्तर फल नरकगति है ॥ 28॥ जो पुरुष मोक्षाभिलाषी हैं वे आर्त रौद्र नामक दोनों अशुभ ध्यानों को छोड़ शुद्ध भिक्षा को ग्रहण करने वाले भिक्षु-मुनि होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में अपनी बुद्धि लगावें ॥29॥
जिस समय एकांत, प्रासुक तथा क्षुद्र जीवों के उपद्रव से रहित क्षेत्र, दिव्य संहनन-आदि के तीन संहनन रूप द्रव्य, उष्णता आदि की बाधा से रहित काल और निर्मल अभिप्राय रूप श्रेष्ठ भाव, इस प्रकार क्षेत्रादि चतुष्टय रूप सामग्री मुनि को उपलब्ध होती है तब समस्त बाधाओं को सहन करने वाला मुनि प्रशस्त ध्यान का आरंभ करता है ॥ 30-31॥ ध्यान करने वाला पुरुष, गंभीर, निश्चल शरीर और सुखद पर्यंकासन से युक्त होता है । उसके नेत्र न तो अत्यंत खुले होते हैं और न बंद ही रहते हैं ॥32॥ नीचे के दांतों के अग्रभाग पर उसके ऊपर के दाँत स्थित वह इंद्रियों के समस्त व्यापार से निवृत्त हो चुकता है, श्रुत का पारगामी होता है, धीरे-धीरे श्वासोच्छ̖वास का संचार करता है ॥33॥ मोक्ष का अभिलाषी मनुष्य अपनी मनोवृत्ति को नाभि के ऊपर मस्तक पर, हृदय में अथवा ललाट में स्थिर कर आत्मा को एकाग्र करता हआ धर्मध्यान और शुक्लध्यान इन दो हितकारी ध्यानों का चिंतवन करता है ॥34॥ बाह्य और आध्यात्मिक भावों का जो यथार्थ भाव है वह धर्म कहलाता है, उस धर्म से जो सहित है उसे धर्मध्यान कहते हैं ॥35॥ बाह्य और आभ्यंतर के भेद से धर्म्यध्यान का लक्षण दो प्रकार का है । शास्त्र के अर्थ की खोज करना, शीलव्रत का पालन करना, गुणों के समूह में अनुराग रखना, अंगड़ाई, जमुहाई, छींक, डकार और स्वासोच्छ्वास में मंदता होना, शरीर को निश्चल रखना तथा आत्मा को व्रतों से युक्त करना, यह धर्म्यध्यान का बाह्य लक्षण है और आभ्यंतर लक्षण अपाय विचय आदि के भेद से दस प्रकार का है । इनमें अपाय का अर्थ त्याग है और मीमांसा का अर्थ विचार है ॥36-38॥ मन, वचन और काय इन तीन योगों की प्रवृत्ति ही प्रायः संसार का कारण है सो इन प्रवृत्तियों का मेरे अपाय-त्याग किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रकार शुभ लेश्या से अनुरंजित जो चिंता का प्रबंध है वह अपाय विचय नाम का प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है ॥ 39-40॥ पुण्यरूप योग प्रवृत्तियों को अपने अधीन करना उपाय कहलाता है । यह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है इस प्रकार के संकल्पों की जो संतति है वह उपाय विचय नाम का दूसरा धर्मध्यान है ॥ 41 ॥ द्रव्यार्थिक नय से जीव अनादि निधन हैं― आदि-अंत से रहित हैं और पर्यायार्थिक नय से सादि सनिधन हैं, असंख्यात प्रदेशी हैं, अपने उपयोगरूप लक्षण से सहित हैं, शरीररूप अचेतन उप करण से युक्त हैं और अपने द्वारा किये हुए कर्म के फल को भोगते है...... इत्यदि रूप से जीव का जो ध्यान करना है वह जीव विचय नाम का तीसरा धर्मध्यान है ॥ 42-43 ॥ धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिंतन करना यह अजीव विचय नाम का चौथा धर्म्यध्यान है ॥44॥ ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के बंधों के विपाक फल का विचार करना सो विपाक विचय नाम का पाँचवां धर्म्यध्यान है ॥45॥
शरीर अपवित्र है और भोग विपाक फल के समान तदात्व मनोहर हैं इसलिए इनसे विरक्त बुद्धि का होना ही श्रेयस्कर है..... इत्यादि चिंतन करना सो विराग विचय नाम का छठा धर्म्यध्यान है ॥46॥ चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों की मरने के बाद जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं । यह भव दुःखरूप है । इस प्रकार चिंतवन करना सो भव विचय नाम का सातवां धर्म्य-ध्यान है ॥47॥ यह लोकाकाश अलोकाकाश में स्थित है तथा चारों ओर से तीन वातवलयों से वेष्टित है इत्यादि लोक के संस्थान-आकार का विचार करना सो संस्थान विचय नाम का आठवां धर्म्यध्यान है ॥ 48॥ जो इंद्रियों से दिखाई नहीं देते ऐसे बंध, मोक्ष आदि पदार्थों में जिनेंद्र भगवान् की आज्ञा के अनुसार निश्चय का ध्यान करना सो आज्ञा विचय नाम का नौवाँ धर्म्यध्यान है ॥ 49 ॥ और तर्क का अनुसरण करने वाले पुरुष स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेते हुए समीचीन मार्ग का आश्रय करते हैं― उसे ग्रहण करते हैं, इस प्रकार चिंतवन करना सो हेतु विचय नाम का दसवां धर्म्यध्यान है ॥50॥ यह दस प्रकार का धर्म्यध्यान अप्रमत्त गुणस्थान में होता है, प्रमाद के अभाव से उत्पन्न होता है, पीत और पद्म नामक शुभ लेश्याओं के बल से होता है, काल और भाव के विकल्प में स्थित है तथा स्वर्ग और मोक्षरूप फल को देने वाला है । ध्यान में तत्पर मनुष्यों को यह ध्यान अवश्य ही करना चाहिए । भावार्थ― यहां उत्कृष्टता की अपेक्षा धर्मध्यान को सातवें अप्रमत्त-गुणस्थान में बताया है परंतु सामान्य रूप से यह चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है और स्वर्ग का साक्षात् तथा मोक्ष का परंपरा से कारण है ॥51-52॥
जो शुचित्व अर्थात् शौच के संबंध से होता है वह शुक्लध्यान कहलाता है । दोष आदिक का अभाव हो जाना शौच है । यह शुक्ल और परम शुक्ल के भेद से दो प्रकार है तथा शुक्ल और परम शुक्ल दोनों के दो-दो भेद माने गये हैं ॥53 ॥ पृथक्त्व वितर्क वीचार और एकत्व वितर्क ये दो भेद शुक्लध्यान के हैं और सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती तथा व्युपरत क्रिया निवृति ये दो परम शुक्लध्यान के भेद हैं ॥54॥ बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से शुक्लध्यान का लक्षण दो प्रकार का कहा गया है । इनमें श्वासोच्छ̖वास के प्रचार को अव्यक्त अथवा उच्छिन्न दशा से युक्त मनुष्य के जो अंगड़ाई और जमुहाई आदि का छूट जाना है वह बाह्य लक्षण है एवं अपने-आपको जिसका स्वसंवेदन होता है तथा दूसरे को जिसका अनुमान होता है वह आध्यात्मिक लक्षण है । आगे उन शुक्ल और परम शुक्ल ध्यानों का आध्यात्मिक लक्षण कहा जाता है ॥55-56॥ पृथग्भाव अथवा नानात्व को पृथकत्व कहते हैं । निर्दोष द्वादशांग-श्रुतज्ञान वितर्क कहलाता है । अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योगों का जो क्रम से संक्रमण होता है उसे वीचार कहते हैं । जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह अर्थ कहलाता है, उसके प्रतिपादक शब्द को व्यंजन कहते हैं और वचन आदि योग हैं ॥ 57-58॥ जिसमें वितर्क (द्वादशांग) के अर्थादि में क्रम से नानारूप परिवर्तन हो वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नाम का पहला शुक्लध्यान माना जाता है ॥59॥ इसका स्पष्टीकरण यह है कि निश्चल चित्र का धारक कोई पूर्वविद् मुनि द्रव्याणु अथवा भावाणु का अवलंबन कर ध्यान कर रहा है सो जिस प्रकार कोई अतीक्ष्ण-भोथले शस्त्र से किसी वृक्ष को धीरे-धीरे काटता है उसी प्रकार वह विशुद्धता का वेग कम होने से मोहनीय कर्म के उपशम अथवा शम को धीरे-धीरे करता है । कर्मों की अत्यधिक निर्जरा को करता हुआ वह मुनि द्रव्य से द्रव्यांतर को, पर्याय से पर्यायांतर को, व्यंजन से व्यंजनांतर को और योग से योगांतर को प्राप्त होता है ॥60-62॥ वह प्रथम शुक्लध्यान शुक्लतर लेश्या के बल से होता है । उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी―दोनों गुणस्थानों में होता है । क्षायोपशमिक भाव से सहित है । समस्त पूर्वो के ज्ञाता मुनि के यह ध्यान अंतर्मुहूर्त तक रहता है तथा दोनों श्रेणियों के वश से यह स्वर्ग और मोक्ष रूप फल को देने वाला है । भावार्थ― उपशम श्रेणी में होने वाला शुक्लध्यान स्वर्ग का कारण है और क्षपकश्रेणी में होने वाला मोक्ष का कारण है ॥ 63-64॥
जिसमें वीचार-अर्थादि के संक्रमण से रहित होने के कारण एक रूप में ही वितर्क का उपयोग होता है अर्थात् वितर्क के अर्थ एवं व्यंजन आदि पर अंतर्मुहूर्त तक चित्त को गति स्थिर रहती है वह एकत्व वितर्क वीचार नाम का दूसरा शुक्लध्यान है ॥65॥ यह ध्यान एक ही अणु अथवा पर्याय को विषय कर प्रवृत्त होता है । मोह आदि घातिया कर्मों का घात करने वाला है, पूर्व धारी के होता है और इस ध्यान के प्रभाव से ध्यान करने वाला कुशल मुनि ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्य और चारित्र आदि क्षायिक भावों से सुशोभित होने लगता है । अब वह तीर्थंकर अथवा सामान्य केवली हो जाता है । वह सबके द्वारा पूज्य एवं सेवनीय हो जाता है और तीन लोकों का परमेश्वर हो उत्कृष्ट रूप से देशो में कोटि पूर्व तक विहार करता रहता है ॥ 66-68 ॥
जब उन केवली भगवान् की आयु अंतर्मुहूर्त की शेष रह जाती है तथा आयु के बराबर ही वेदनीय आदि तीन अघातिया कर्मों को स्थिति अवशिष्ट रहती है तब वे समस्त वचन योग, मनोयोग और स्थूल काय योग को छोड़कर स्वभाव से ही सामान्य शुक्ल की अपेक्षा तीसरे और विशेष― परमशुक्ल की अपेक्षा प्रथम सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक ध्यान को प्राप्त करने योग्य होते हैं ॥ 69-71 ॥ जब उन केवली भगवान् की स्थिति अंतर्मुहूर्त की हो और शेष तीन अघातिया कर्मो की स्थिति अधिक हो तब वे स्वभाववश अपने-आप चार समयों द्वारा आत्मप्रदेशों को फैलाकर दंड, कपाट, प्रतर और लोक पूरण कर तथा उसने ही समयों में उन्हें संकुचित कर सब कर्मों को स्थिति एक बराबर कर लेते हैं । इस क्रिया के समय उनका उपयोग विशेष अपने-आप में होता है, वे विशिष्ट करण अर्थात् भाव का अवलंबन करते हैं, सामायिक भाव से युक्त होते हैं, महासंवर से सहित होते हैं-नवीन कर्मों का आस्रव प्रायः बंद कर देते हैं और सत्ता में स्थित कर्मों के नष्ट करने तथा उदयावली में लाने में समर्थ रहते हैं । यह सब करने के बाद जब वे पुनः पूर्व शरीर प्रमाण हो जाते हैं तब प्रथम परम शुक्लध्यान को पूर्ण कर द्वितीय परमशुक्लध्यान को प्राप्त होते हैं ॥ 72-76॥ आत्मप्रदेशों के परिस्पंदरूप योग तथा कायबल आदि प्राणों के समुच्छिन्न― नष्ट हो जाने से यह ध्यान समुच्छिन्नक्रिय नाम से कहा गया है ॥77॥ इस ध्यान के समय यत्नपूर्वक समस्त कर्मों के बंध और आस्रवों का निरोध हो चुकता है । ध्याता अयोग-योगरहित हो जाता है और उसके मोक्ष का साक्षात् कारण परम यथाख्यातचारित्र प्रकट हो जाता है ॥78॥ वह अयोगकेवली आत्मा, समस्त कर्मों को नष्ट कर सोलहवानी के स्वर्ण के समान प्रकट हुई चेतनाशक्ति से देदीप्यमान हो उठता है ॥79 ॥ इसी समय वह सिद्ध होता हुआ अनादि सिद्ध ऊर्ध्वगमन स्वभाव, पूर्व प्रयोग, असंगत्व और बंधच्छेद रूप हेतुओं से अग्निशिखा, आविद्धकुलालचक्र, व्यपगतलेपालाबु और एरंडबीज के समान ऊपर को जाता हुआ एक समय मात्र में ऊर्ध्वलोक के अंत में पहुँच जाता है ॥ 80-81॥ धर्मास्तिकाय का अभाव होने से सिद्धात्मा लोकांत को उल्लंघन कर आगे नहीं जाता । वह उसी स्थानपर अनंत सुख का उपभोग करता हुआ विराजमान हो जाता है ॥ 82॥ चारों वर्गों में प्राणियों के लिए मोक्ष ही अतिशय हितकारी है, अपने समस्त कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष का लक्षण है और ऐसा मोक्ष ऊपर कहे हुए समीचीन ध्यान से ही प्राप्त होता है ॥83॥ कर्मप्रकृतियों का अभाव हो जाना ही अनंत सुख को देने वाला मोक्ष है । वह कर्म प्रकृतियों का अभाव यत्नसाध्य तथा अयत्नसाध्य को अपेक्षा दो प्रकार का है । चरमशरीरी जीव के भुज्यमान आयु को छोड़कर अन्य आयुओं का जो अभाव है वह अयत्नसाध्य अभाव है क्योंकि इनकी सत्ता पहले से आती नहीं है और चरमशरीरी के नवीन बंध होता नहीं है । अब यत्नसाध्य प्रकृतियों का अभाव किस तरह होता है यह कहते हैं ॥ 84-85॥
असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान तक किसी गुणस्थान में कर्म भूमि का मनुष्य मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों का क्षय कर विशुद्ध बुद्धि का धारक होता हुआ सूर्य के समान क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है ॥ 86-87॥ तदनंतर सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती मनुष्य क्षपक श्रेणी में चढ़कर अथाप्रवत्तकरण ( अधःप्रवत्तकरण ) को करके उसके बाद अपूर्वकरण को करता है ॥ 88॥ फिर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती होकर पापप्रकृतियों की स्थिति तथा अनुभाग को क्षीण करता हुआ अनिवृत्तिकरण को प्राप्त होता है ॥ 89 ॥ तदनंतर अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान में क्षपक संज्ञा को प्राप्त होता हुआ कर्मप्रकृतिरूप वन को शुक्लध्यानरूपी अग्नि से आक्रांत करता है ॥ 90॥ फिर सत्ता में स्थित निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेंद्रियादि चार जातियाँ, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है ॥ 91-92 ॥ इसी गुणस्थान में सोलह प्रकृतियों के क्षय के बाद अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण नामक आठ कषायों को नष्ट करता है । फिर नपुंसकवेद और स्त्रीवेद को नष्ट कर हास्यादि छह नोकषायों को संवेद में डालकर एक साथ नष्ट करता है । फिर वेद को संज्वलन क्रोधरूपी अग्नि में, क्रोध को संज्वलन मान में, संज्वलन मान को संज्वलन माया में और संज्वलन माया को संज्वलन लोभ में डालकर क्रम से दग्ध करता है ॥ 93-95 ॥ फिर संज्वलन लोभ को और भी सूक्ष्म कर सूक्ष्मसांपराय नामक दसम गुणस्थान में पहुंचता है । इसके अंत में संज्वलन लोभ का अंत कर मोहकर्म का बिल्कुल अभाव कर चुकता है ॥ 96 ॥ फिर क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होकर एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान रूपी अग्नि से इसके उपांत्य समय में निद्रा और प्रचला को तथा अंत समय में ज्ञानावरण और अंत राय को पाँच-पाँच और दर्शनावरण को चार प्रकृतियों को जलाकर सयोगकेवली होता है ꠰꠰97-98॥ तदनंतर सयोगकेवली गुणस्थान को उल्लंघ कर जब आगामी गुणस्थान को प्राप्त होता है तब अयोगकेवली होकर अर्हंत अवस्था के उपांत्य समय में सातावेदनीय और असातावेदनीय में से कोई एक, देवगति, औदारिक शरीर को आदि लेकर पांच शरीर, पांच संघात, पांच बंधन, औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, पांच वर्ण, पांच रस, आठ स्पर्श, दो गंध, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उच्छ्वास, परघात, उपघात, प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार को विहायोगति, प्रत्येक शरीर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीच गोत्र इन बहत्तर प्रकृतियों को नष्ट करता है ॥ 99-106 ॥ फिर अंत समय में सातावेदनीय, असातावेदनीय में से एक, मनुष्य आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेंद्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग,आदेय, उच्चगोत्र, यशस्कीर्ति और तीर्थंकर इन तेरह प्रकृतियों को नष्ट करता है । अयोगकेवली गुणस्थान में यह जीव प्रदेशपरिस्पंद का अभाव हो जाने के कारण स्वभाव से स्थिर रहता है ॥107-109॥ अ इ उ ऋ ल इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने काल तक चौदहवें गुणस्थान में रहकर यह जीव सिद्ध हो जाता है । जीव को यह सिद्धि सादि तथा अनंत है और अनंत गुणों के सन्निधान से युक्त है ॥110॥
भगवान् नेमिनाथ ने धर्म्यध्यान के पूर्वोक्त दस भेदों का यथायोग्य ध्यान करते हुए, छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन समीचीन तपश्चरण के द्वारा व्यतीत किये ॥111 ॥ तदनंतर आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल के समय भगवान् ने शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चार घातियारूपी महावन को जलाकर तीन लोक के इंद्रों के आसन कंपा देने वाले एवं अन्य जन दुर्लभ, केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि अनंतचतुष्टय प्राप्त किये ॥112-113॥ घंटाओं के शब्द, विशाल सिंहनाद, दुंदुभियों के स्पष्ट शब्द और शंखों की भारी आवाज से समस्त देवों ने शीघ्र ही निश्चय कर लिया कि जिनेंद्र भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है तथा इंद्रों ने भी सिंहासन और उन्नत मुकुटों के कंपित होने से अपने-अपने अवधिज्ञान का प्रयोग कर उक्त बात का ज्ञान कर लिया । तदनंतर तीनों लोकों के इंद्र, समुद्रों के समूह को क्षुभित करने वाली अपनी-अपनी सेनाओं के साथ गिरनार पर्वत की ओर चल पड़े ॥114॥
उस समय इंद्रों ने अवार्य वेग से युक्त वाहनों के समूह और सात प्रकार को अनेक सेनाओं से आकाशरूपी समुद्र को व्याप्त कर दिया और आकर गिरनार पर्वत की तीन प्रदक्षिणाएं दीं । उस समय वह पर्वत, ऊंचे शिखर का अभिमान धारण करने वाले गिरिराज-सुमेरु पर्वत को भी जीत रहा था क्योंकि सुमेरु पर्वतपर तो भगवान् का मात्र जन्मकल्याणक संबंधी अभिषेक हुआ था और गिरनार पर्वतपर दीक्षाकल्याणक के बाद पुनः ज्ञानकल्याणक होने से अनेक गुण प्रकट हुए थे ॥115 ॥ देव लोग, दिशाओं को सुगंधित करने वाले मंदार आदि वृक्षों के फूलों की वर्षा करने लगे । देवांगनाओं के सुंदर संगीत से मिश्रित दुंदुभियों के शब्द संसार को मुखरित करने लगे । लोगों के शोक को नष्ट करने वाला फल और फूलों से युक्त अशोक वृक्ष प्रकट हो गया । तीन लोक की विभुता के चिह्न स्वरूप श्वेत छत्रत्रय सिर पर फिरने लगे । हंसावली के पात के समान सुशोभित एवं पर्वत को भूमि को सफेद करने वाले हजारों चमर ढुलने लगे । अपनी कांति से देदीप्यमान सूर्य की प्रभा के समूह को पराजित करने वाला भामंडल प्रकट हो गया । नाना रत्नसमूह की किरणों से इंद्रधनुष को उत्पन्न करने वाला स्वर्ण-सिंहासन आविर्भूत हो गया और नाना भाषाओं के भेद से युक्त एवं ओठों के स्फुरण से रहित दिव्यध्वनि खिरने लगी । इस प्रकार पूर्वोक्त आठ प्रातिहार्यों, दूसरों को अत्यंत शांत करने वाली अपनी समस्त विशेषताओं और केवलज्ञान-संबंधी, जंमसंबंधी तथा देवकृत चौंतीस अतिशयों से विभूषित, तीन लोक के उद्धार के लिए स्वाभाविक धैर्य के धारक और अनेक गुणों के समूह को प्रकट करने के लिए सूर्य के समान, हरिवंश के शिरोमणि बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् पृथिवी पर प्रकट हुए ॥116-118॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में भगवान् नेमिनाथ के केवलज्ञान को उत्पत्ति का वर्णन करने वाला छप्पनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥56॥