ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 55
From जैनकोष
अथानंतर एक दिन कुबेर के द्वारा भेजे हुए वस्त्र, आभूषण, माला और विलेपन से सुशोभित, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध राजाओं से घिरे एवं मदोन्मत्त हाथी के समान सुंदर गति से युक्त युवा नेमिकुमार, बलदेव तथा नारायण आदि कोटि-कोटि यादवों से भरी हुई कुसुमचित्रा नामक सभा में गये । राजाओं ने अपने-अपने आसन छोड़ सम्मुख जाकर उन्हें नमस्कार किया । श्रीकृष्ण ने भी आगे आकर उनकी अगवानी की । तदनंतर श्रीकृष्ण के साथ वे उनके आसन को अलंकृत करने लगे । श्रीकृष्ण और नेमिकुमार से अधिष्ठित हुआ वह सिंहासन, दो इंद्रों अथवा दो सिंह से अधिष्ठित के समान अत्यधिक शोभा को धारण करने लगा ॥1-3॥ सभा के बीच, सभ्यजनों की कथारूप अमृत का पान करने वाले एवं अत्यधिक शूर-वीरता और शारीरिक विभूति से युक्त अनेक राजा जिनकी उपासना कर रहे थे और अपनी कांति से जिन्होंने सबको आच्छादित कर दिया था ऐसे नेमिकुमार श्रीकृष्ण के साथ क्षण-भर क्रीड़ा करते रहे ॥4॥
तदनंतर बलवानों की गणना छिड़ने पर कोई अर्जुन की, कोई युद्ध में स्थिर रहने वाले युधिष्ठिर की, कोई पराक्रमी भीम की, कोई उद्धत सहदेव और नकुल को एवं कोई अन्य लोगों की, अत्यंत प्रशंसा करने लगे ॥5॥ किसी ने कहा बलदेव सबसे अधिक बलवान् हैं तो किसीने दुर्धर गोवर्धन पर्वत को उठाने वाले एवं अपना बल देखने में तत्पर राजाओं के समूह को अपने स्थान से विचलित करने के लिए बाण धारण करने वाले श्रीकृष्ण को सबसे अधिक बलवान् कहा ॥6॥ इस प्रकार कृष्ण की सभा में आगत राजाओं की तरह-तरह की वाणी सुनकर लीलापूर्ण दृष्टि से भगवान् नेमिनाथ की ओर देखकर कहा कि तीनों जगत् में इनके समान दूसरा बलवान् नहीं है ॥7॥ ये अपनी हथेली से पृथिवी तल को उठा सकते हैं, समुद्रों को शीघ्र ही दिशाओं में फेंक सकते हैं और गिरिराज को अनायास ही कंपायमान कर सकते हैं । यथार्थ में ये जिनेंद्र हैं, इनसे उत्कृष्ट दूसरा कौन हो सकता है ? ॥8॥ इस प्रकार बलदेव के वचन सुन कृष्ण ने पहले तो भगवान् की ओर देखा और तदनंतर मुस्कुराते हुए कहा कि हे भगवन् । यदि आपके शरीर का ऐसा उत्कृष्ट बल है तो बाहु-युद्ध में उसकी परीक्षा क्यों न कर ली जाये ? ॥9॥ भगवान् ने कुछ खास ढंग से मुख ऊपर उठाते हुए कृष्ण से कहा कि मुझे इस विषय में मल्लयुद्ध की क्या आवश्यकता है ? हे अग्रज ! यदि आपको मेरी भुजाओं का बल जानना ही है तो सहसा इस आसन से मेरे इस पैर को विचलित कर दीजिए ॥10॥ श्रीकृष्ण उसी समय कमर कसकर भुजबल से जिनेंद्र भगवान को जीतने की इच्छा से उठ खड़े हुए परंतु पैर का चलाना तो दूर रहा नखरूपी चंद्रमा को धारण करने वाली पैर की एक अंगुलि को भी चलाने में समर्थ नहीं हो सके ॥11॥ उनका समस्त शरीर पसीना के कणों से व्याप्त हो गया और मुख से लंबी-लंबी सांसें निकलने लगीं । अंत में उन्होंने अहंकार छोड़कर स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि हे देव ! आपका बल लोकोत्तर एवं आश्चर्यकारी है ॥12॥ उसी समय इंद्र का आसन कंपायमान हो गया और वह तत्काल ही देवों के साथ आकर भगवान की पूजा-स्तुति तथा नमस्कार कर अपने स्थान पर चला गया ॥13॥ उधर कृष्ण के अहंकार को नष्ट करने वाले जिनेंद्ररूपी चंद्रमा अनेक राजाओं से परिवृत हो अपने महल में चले गये और इधर कृष्ण भी अपने आपके विषय में शंकित होते हुए अपने महल में गये सो ठीक ही है क्योंकि संक्लिष्ट बुद्धि के धारक पुरुष जिनेंद्र भगवान् के विषय में भी शंका करते हैं । भावार्थ ― कृष्ण के मन में यह शंका घर कर गयी कि भगवान् नेमिनाथ के बल का कोई पार नहीं है अतः इनके रहते हुए हमारा राज्य-शासन स्थिर रहेगा या नहीं ? ॥14॥ उस समय से श्रीकृष्ण, उत्तम-अमूल्य गुणों से युक्त जिनेंद्ररूपी उन्नत चंद्रमा को बड़े आदर से प्रतिदिन सेवा-शुश्रूषा करते हुए प्रेम प्रदर्शनपूर्वक उनकी पूजा करने लगे ॥15॥ ।
अथानंतर विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी में श्रुतशोणित नाम का एक नगर है, उस समय उसमें बाण नाम का एक महा अहंकारी विद्याधर रहता था ॥ 16 ॥ राजा बाण के गुण और कला रूपो आभूषणों से युक्त तथा पृथिवी में सर्वत्र प्रसिद्ध उषा नाम की एक पुत्री थी जो अपने उदार गुणों से विख्यात प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को चिरकाल से अपने हृदय में धारण कर रही थी ॥17 ॥ यद्यपि कुमार अनिरुद्ध अत्यंत कोमल शरीर का धारक था तथापि कुटिल भौंहों वाली उषा के हृदय में वास करते हुए उसने कुटिल वृत्ति अंगीकृत की थी इसीलिए तो उसके शरीर में उसने भारी संताप उत्पन्न किया था ॥18॥ यद्यपि कुमारी उषा अपने मन की महाव्यथा दूसरे से कहती न थी तथापि भीतर ही भीतर वह अत्यंत दुर्बल हो गयी थी । एक दिन उसकी सखी ने अपना हित करने वाली उस उषा से पूछकर सब कारण जान लिया और वह रात्रि के समय अनिरुद्ध को विद्याधरियों से श्रेष्ठ विद्याधर लोक में ले गयी ॥19॥ प्रातःकाल के समय जब सहसा युवा अनिरुद्ध की नींद खुली तब उसने अपने आपको रत्नों की किरणों से व्याप्त महल में कोमल शय्या पर सोता हुआ पाया । जागते ही उसने एक कन्या को देखा ॥20॥ वह कन्या स्थूल नितंब और निविड़ स्तनों के भार से युक्त थी, पतली कमर और त्रिबलि से सुशोभित थी, सत्पुरुषों के मन को हरण करने वाली थी और काम अथवा रोमांचों को धारण करने वाली थी । उसे देख अनिरुद्ध विचार करने लगा कि यह यहाँ कौन उत्तम स्त्री मेरा मन हरण कर रही है ? क्या यह इंद्राणी है ? अथवा नाग-वधू है ? क्योंकि ऐसी मनुष्य की स्त्री तो मैंने कभी भी कहीं भी नहीं देखी है ॥21-22॥ इंद्र के स्थान के समान नेत्रों को हरण करने वाला यह स्थान भी तो अपूर्व ही दिखाई देता है । यहाँ दिखाई देने वाला यह सत्य है ? या असत्य है ? यथार्थ में सोने वालों का मन संसार में भ्रमण करता रहता है ॥23 ॥ अतर्कित वस्तुओं को देखकर कुमार इस प्रकार विचार कर हो रहा था कि इतने में चित्रलेखा सखी आयी और सब समाचार बता एकांत में कंकण बंधन कराकर उस कन्या के साथ मिला गयी ॥24॥ तदनंतर देव-देवांगनाओं के समान निरंतर सुरतरूपी अमृत का पान करने वाले उन दोनों स्त्री-पुरुषों का समय सुख से व्यतीत होने लगा । इधर श्रीकृष्ण को जब अनिरुद्ध के हरे जाने का वृत्तांत विदित हुआ तब वे बलदेव, शंब और प्रद्युम्न आदि यादवों के साथ मिलकर अनिरुद्ध को लाने के लिए आकाशमार्ग से विद्याधरों के राजा बाण की नगरी पहुंचे ॥25-26॥ और मनुष्य,घोड़े, रथ और हाथियों से व्याप्त युद्ध में विद्याधरों के अधिपति बाण को जीतकर उषासहित अनिरुद्ध को अपने नगर वापस ले आये ॥27॥ तदनंतर अनिरुद्ध के समागम से समुत्पन्न सुख को पाकर सब लोगों का विरह जन्य दुःख दूर हो गया और समस्त सुखों के आधारभूत स्वजन और पुरंजन सुख से क्रीड़ा करने लगे ॥28॥
अथानंतर एक समय वसंत ऋतु के आने पर श्रीकृष्ण, अपनी स्त्रियों से लालित भगवान् नेमिनाथ, राजा महाराजा और नगरवासी रूपी सागर के साथ, जहाँ उपवन फूल रहे थे ऐसे गिरनार पर्वत पर क्रीड़ा करने की इच्छा से गये ॥29॥ जो धारण किये हुए सफेद छत्रों से सुशोभित थे तथा बैल, ताल और गरुड़ की ध्वजाओं से युक्त थे ऐसे सुंदर भूषणों से विभूषित भगवान् नेमिनाथ, बलदेव और श्रीकृष्ण पृथक्-पृथक् बड़े-बड़े घोड़ों के रथों पर सवार हो एक के बाद एक जा रहे थे ॥30॥ उनके पीछे समुद्रविजय आदि दश यादवों के कुमारों से परिवृत प्रद्युम्न, मार्ग में फूलों के बाण, धनुष तथा मकर चिह्नांकित ध्वजा से मनुष्यों को आनंदित करता हुआ हाथी और घोड़ों के रथों पर सवार हो जा रहा था ॥31॥ उसके पीछे नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से विभूषित नगरवासी लोग यथायोग्य उत्तमोत्तम वाहनों पर सवार होकर चल रहे थे और इनके बाद कृष्ण आदि राजाओं को स्त्रियां पालकी आदि पर सवार हो मार्ग में प्रयाण कर रही थीं ॥32॥ उस समय जन-समूह से व्याप्त और उपवनों से सुशोभित गिरनार पर्वत, देव-देवियों से व्याप्त एवं नाना वनों से युक्त सुमेरु पर्वत की शोभा को धारण कर रहा था ॥33 ॥ समीप पहुंचने पर सब लोग यथायोग्य अपने-अपने वाहन छोड़, पर्वत के नितंब पर स्थित वनों में शीघ्र ही इच्छानुसार विहार करने लगे ॥34॥ उस समय वसंति फूलों की पराग से सुगंधित, श्रम को दूर करने वाली, ठंडी दक्षिण की वायु सब दिशाओं में बह रही थी इसलिए मनुष्यों के कामभोग-संबंधी श्रम ही शेष रह गया था शेष सब श्रम दूर हो गया था ॥35॥ आम्रलताओं के रस का आस्वादन करने वाली, सुंदर कंठ से मनुष्यों का मन हरण करने में अत्यंत दक्ष और काम को उत्तेजित करने में निपुण मधुरभाषी कोकिलाएं उस समय पर्वतपर चारों ओर कुह-कुह कर रही थीं ॥36 ॥ मधुपान करने में लीन भ्रमरों के समूह से कुरवक और मौलिश्री के वृक्ष तथा द्विपद अर्थात् स्त्री-पुरुष अथवा कोकिल आदि पक्षी और षट्पद अर्थात् भ्रमरों के शब्द से वन के प्रदेश, अत्यंत मनोहर हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि आश्रय, आश्रयी-अपने ऊपर स्थित पदार्थ के गुण ग्रहण करता ही है ॥37॥ मदपायी भ्रमर, सप्तपर्ण पुष्प के समान गंध वाले हाथियों के गंडस्थलों पर स्थिति को छोड़कर आम्र और देवदारु की मंजरियों पर जा बैठी सो ठीक ही है क्योंकि नवीन वस्तुओं से अल्पाधिक प्रीति होती ही है ॥38॥ फूलों के भार को धारण करने वाले वृक्ष अत्यंत नम्रीभूत हो रहे थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो स्नेह-भंग के भय से ही नम्रीभूत हो रहे थे । वे ही वृक्ष पुष्पावचयन के समय जब युवतियों के हाथों से कंपित होते थे तब तरुण पुरुषों के समान अनत-बहुत भारी अथवा काम संबंधी सुख को प्राप्त होते थे ॥39 ॥ फूल चुनते समय वृक्षों की ऊंची शाखाओं को किया किसी तरह अपने हाथ से पकड़कर नीचे की ओर खींच रही थीं उससे वे नायक के समान स्त्री द्वारा केश खींचने के सुख का अनुभव कर रहे थे ॥ 40॥ तरुण पुरुष, स्त्रियों के साथ चिरकाल तक जहाँ-तहाँ वन-भ्रमण के सुख का उपभोग कर फूलों के समूह से निर्मित शय्याओं पर संभोगरूपी अमृत का सेवन करने लगे ॥41꠰। उस वसंत ऋतु में सुख से युक्त समस्त यादव, प्रत्येक वन, प्रत्येक झाड़ी, प्रत्येक लतागृह, प्रत्येक वृक्ष और प्रत्येक वापी में विहार करते हुए विषय-सुख का सेवन कर रहे थे ॥42॥ सोलह हजार स्त्रियों के द्वारा अनेक रूपता को प्राप्त भोगरूपी आकाश में विद्यमान एवं सौंदर्य को धारण करने वाले श्रीकृष्ण रूपी चंद्रमा ने भी वसंतऋतु के उस चैत्र-वैशाख मास को बहुत अच्छा माना था ॥43॥ मनुष्य की मनोवृत्ति को हरण करने वाली श्रीकृष्ण की स्त्रियाँ, पति की आज्ञा पाकर वृक्षों और लताओं से रमणीय वनों में भगवान् नेमिनाथ के साथ क्रीड़ा करने लगीं ॥44॥ मधु के मद से जिसका हृदय और नेत्र अलसा रहे थे ऐसी किसी स्त्री को वन-लताओं के फलों के गुच्छे तोड़ते समय मुख की सुगंधि से प्रेरित गुनगुनाते हुए भ्रमरों ने घेर लिया इसलिए उसने भयभीत हो देवर नेमिनाथ को पकड़ लिया ॥45॥ कोई कठिन स्तनी वक्षःस्थल पर उनका चुंबन करने लगी, कोई उनका स्पर्श करने लगी, कोई उन्हें सूंघने लगी, कोई अपने कोमल हाथ से उनका हाथ पकड़ चंद्रमा के समान मुख के धारक भगवान् नेमिनाथ को अपने सम्मुख करने लगी ॥46॥ कितनी ही स्त्रियां साल और तमालवृक्ष की छोटी-छोटी टहनियों से पंखों के समान उन्हें हवा करने लगीं । कितनी ही अशोकवृक्ष के नये-नये पल्लवों से कर्णाभरण अथवा सेहरा बनाकर उन्हें पहनाने लगीं ॥47॥ कोई अपने आलिंगन की इच्छा से नाना प्रकार के फूलों से निर्मित माला उनके सिर पर पहनाने लगी, कोई गले में डालने लगी और कोई उनके सिर को लक्ष्य कर कुरवक के पुष्प फेंकने लगी ॥48॥ इस प्रकार युवा नेमिनाथ कृष्ण को स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उस वसंत को ऐसा समझ रहे थे जैसे उसका कभी अंत ही आने वाला न हो । तदनंतर वसंत के बाद आने वाली ग्रीष्म ऋतु सेवक की तरह भगवान् की सेवा करने लगी ॥49 ॥
उस समय तीक्ष्ण गरमी से युक्त ग्रीष्म ऋतु को अच्छा मानते हुए श्रीकृष्ण उसी गिरनार पर्वतपर प्रतिदिन निवास करने लगे क्योंकि वह उन्हें बहुत ही आनंद का कारण था और ठंडे-ठंडे जलकणों से युक्त निर्झरों से मनोहर था ॥50॥ यद्यपि भगवान् नेमिनाथ स्वभाव से ही रागरूपी पराग से पराङ्मुख थे तथापि श्रीकृष्ण के स्त्रियों के उपरोध से वे शीतल जल से भरे हुए जलाशय में जलक्रीड़ा करने लगे ॥51॥ यदु नरेंद्र की उत्तम स्त्रियां कभी तैरने लगती थीं, कभी लंबी-लंबी डुबकियां लगाती थीं; कभी हाथ में पिचकारियां ले हर्षपूर्वक परस्पर एक-दूसरे के मुखकमल पर पानी उछालती थीं ॥52॥ वे अपनी हथेली की अंजलियों और पिचकारियों से जब भगवान के ऊपर जल उछालने लगी तो उन्होंने भी जल्दी-जल्दी पानी उछालकर उन सबको उस तरह विमुख कर दिया जिस तरह कि समुद्र अपने जल की तीव्र ठेल से जब कभी नदियों को विमुख कर देता है-उलटा लोटा देता है ॥53॥ उनका वह ऐसा अनुपम स्नान न केवल जनरंजन-मनुष्यों को राग-प्रीति उत्पन्न करने वाला हुआ था किंतु फैलती हुई सुगंधि से युक्त नाना प्रकार के विलेपनों से जल रंजन-जल को रंगने वाला भी हुआ था ॥54॥ जिस प्रकार कमलों के समूह को मदन करने वाली एक चंचल सूंड से युक्त हस्तिनियों का समूह जलाशय में किसी महाहस्ती के साथ चिरकाल तक तैरता रहता है उसी प्रकार वह तरुण स्त्रियों का समूह अपने हाथ चलाता और कमलों के समूह को मर्दित करता हुआ चिर काल तक तैरता रहा । इस जल-क्रीड़ा से उनका ग्रीष्मकालीन घाम से उत्पन्न समस्त भय दूर हो गया था ॥ 55 ॥ उस समय स्त्रियों के कर्णाभरण गिर गये थे, तिलक मिट गये थे, आकुलता बढ़ गयी थी, दृष्टि चंचल हो गयी थी, ओठ धूसरित हो गये थे, मेखला ढीली हो गयी थी और केश खुल गये थे इसलिए वे संभोगकाल-जैसी शोभा को प्राप्त हो रही थीं ॥56 ॥ तदनंतर परिजनों के द्वारा लाये हुए वस्त्राभूषणों से विभूषित स्त्रियों ने, संतुष्ट होकर वस्त्रों से भगवान का शरीर पोंछा और उन्हें दूसरे वस्त्र पहनाये ॥57॥
भगवान् ने जो तत्काल गीला वस्त्र छोड़ा था उसे निचोड़ने के लिए उन्होंने कुछ विलास पूर्ण मुद्रा में कटाक्ष चलाते हुए कृष्ण की प्रेमपात्र एवं अनुपम सुंदरी जांबवती को प्रेरित किया ॥5॥ भगवान का अभिप्राय समझ शीघ्रता से युक्त तथा नाना प्रकार के वचन बनाने में पंडित जांबवती बनावटी क्रोध से विकारयुक्त कटाक्ष चलाने लगी, उसका ओष्ठ कंपित होने लगा एवं हाव-भाव पूर्वक भौंहें चलाकर नेत्र से भगवान् की ओर देखकर कहने लगी कि ॥59꠰꠰ जिनके शरीर और मुकुट के मणियों की प्रभा करोड़ों सर्पों के मणियों के कांति मंडल से दूनी हो जाती है, जो कौस्तुभ मणि से देदीप्यमान हैं, जो महानागशय्या पर आरूढ़ हो जगत् में प्रचंड आवाज से आकाश को व्याप्त करने वाला अपना शंख बजाते हैं, जो जल के समान नीली आभा को धारण करने वाले हैं, जो अत्यंत कठिन शांगनामक धनुष को प्रत्यंचा से युक्त करते हैं, जो समस्त राजाओं के स्वामी हैं और जिनकी अनेक शुभ-सुंदर स्त्रियाँ हैं वे मेरे स्वामी हैं किंतु वे भी कभी मुझे ऐसी आज्ञा नहीं देते फिर आप कोई विचित्र ही पुरुष जान पड़ते हैं जो मेरे लिए भी गीला वस्त्र निचोड़ने का आदेश दे रहे हैं ॥60-62॥ जांबवती के उक्त शब्द सुनकर कृष्ण को कितनी ही स्त्रियों ने उसे उत्तर दिया कि अरी निर्लज्ज ! इस तरह तीन लोक के स्वामी और अनंत गुणों के धारक भगवान् जिनेंद्र की तू क्यों निंदा कर रही है ? ॥63॥ जांबवती के वचन सुन भगवान् नेमिनाथ ने हंसते हुए कहा कि तूने राजा कृष्ण के जिस पौरुष का वर्णन किया है संसार में वह कितना कठिन है ? इस प्रकार कहकर वे वेग से नगर की ओर गये और शीघ्रता से राजमहल में घुस गये ॥64॥ वे लहलहाते सर्पों की फणाओं से सुशोभित श्रीकृष्ण को विशाल नागशय्या पर चढ़ गये । उन्होंने उनके शांग धनुष को दूना कर प्रत्यंचा से युक्त कर दिया और उनके पांचजन्य शंख को जोर से फूंक दिया ॥65 ॥ शंख के उस भयंकर शब्द से दिशाओं के मुख, समस्त आकाश, समुद्र, पृथिवी आदि सभी चीजें व्याप्त हो गयी और उससे ऐसी जान पड़ने लगी मानो शंख के शब्द से व्याप्त होने के कारण फट ही गयी हों ॥66॥ अत्यधिक मद को धारण करने वाले हाथियों ने क्षुभित होकर जहां-तहां अपने बंधन के खंभे तोड़ दिये । घोड़े भी बंधन तुड़ाकर हिनहिनाते हुए नगर में इधर-उधर दौड़ने लगे ॥67॥ महलों के शिखर और किनारे टूट-टूटकर गिरने लगे । श्रीकृष्ण ने अपनी तलवार खींच ली । समस्त सभा क्षुभित हो उठी, और नगरवासी जन प्रलयकाल के आने की शंका से अत्यंत आकुलित होते हुए भय को प्राप्त हो गये ॥68॥ जब कृष्ण को विदित हुआ कि यह तो हमारे ही शंख का शब्द है तब वे शीघ्र ही आयुधशाला में गये और नेमिकुमार को देदीप्यमान नागशय्या पर अनादर पूर्वक खड़ा देख अन्य राजाओं के साथ आश्चर्य करने लगे ॥69 ॥ ज्यों ही कृष्ण को यह स्पष्ट मालूम हुआ कि कुमार ने यह कार्य जांबवती के कठोर वचनों से कुपित होकर किया है त्यों ही बंधुजनों के साथ उन्होंने अत्यधिक संतोष का अनुभव किया । उस समय कुमार की वह क्रोधरूप विकृति भी कृष्ण के लिए अत्यंत संतोष का कारण हुई थी ॥70 ॥
अपने स्वजनों के साथ कृष्ण ने युवा नेमिकुमार का आलिंगन कर उनका अत्यधिक सत्कार किया और उसके बाद वे अपने घर गये । घर जाने पर जब उन्हें विदित हुआ कि अपनी स्त्री के निमित्त से उन्हें कामोद्दीपन हुआ है तब वे अधिक हर्षित हुए ॥71॥ श्रीकृष्ण ने नेमिनाथ के लिए विधिपूर्वक भोजवंशियों की कुमारी राजीमती की याचना की, उसके पाणिग्रहण संस्कार के लिए बंधुजनों के पास खबर भेजी और स्त्रियोंसहित समस्त राजाओं को बड़े सम्मान के साथ बुलाकर अपने निकट किया ॥72॥ उस समय के योग्य जिनका स्नपन किया गया था, जो परम रूप को धारण कर रहे थे, जिन्होंने उत्तमोत्तम आभूषण धारण किये थे और जो अपने-अपने नगर में अपने-अपने घर स्थित थे ऐसे उत्तम वधू और वर मनुष्यों का मन हरण कर रहे थे ॥73॥
तदनंतर अब पृथिवी पर वर्षाकाल आने वाला है इस भय से ही मानो ग्रीष्म ऋतु कहीं चली गयी । आकाश में मेघमाला छा गयी और उसे मरुस्थल के पथिक प्यासे होने पर भी बड़ी दीनता से देखने लगे ॥74॥ मेघों की प्रथम गर्जना के जो शब्द और शीतल जल के छींटे क्रम से मयूरों तथा चातकों को सुखदायी थे वे ही पृथिवी पर दूने संताप को प्राप्त समस्त विरही मनुष्यों के लिये अत्यंत दुःसह हो रहे थे ꠰꠰75॥ सावन के महीने में जब मेघों के समूह बरसने लगे तब दावानल और सूर्य के कारण दग्ध वनपंक्ति से जो सर्वप्रथम वाष्प (भाप) और सोंदी-सोंदी सुगंधि निकली वह ऐसी जान पड़ने लगी मानो मेघरूपी मित्र के दिखने से ही वनावली के वाष्प-हर्षाश्रु और सुखोच्छ्वास की सुगंधि निकलने लगी हो ॥76॥ चंचल बिजली और बलाकाओं से सहित, मेघ जब इंद्रधनुषरूपी धनुष को धारण कर शर अर्थात् बाण (पक्ष में जल) की वर्षा करने लगे तब सैकड़ों इंद्रगोपों से व्याप्त पृथिवी ऐसी जान पड़ने लगी मानो जहां-तहाँ पथिक जनों के गिरे हुए अनुरागी हृदयों से ही व्याप्त हो रही हो ॥77॥ समस्त दिशाएं फूले हुए कुटज, कदंब और कोहा के वृक्षों से मनोहर दिखने लगी तथा वन, गतं और पर्वतों से सहित समस्त भूमि शिलींध्र के नये-नये दलों से सुशोभित हो उठी ॥78॥ मेघों की घनघोर गर्जना से डरी हुई युवतियाँ, भुजाओं की खनकती हुई चूड़ियों के शब्द से युक्त पतियों के कंठ के दृढालिंगन से अपने तीव्र भयरूपी पिशाच का निग्रह करने लगीं । भावार्थ― मेघगर्जना से भयभीत स्त्रियाँ पतियों के कंठ का दृढालिंगन करने लगीं ॥79॥ आतापन, वर्षा और शिसिर के भेद से तीन प्रकार के योग को धारण करने वाले मुनियों का उस समय पर्वत को शिलाओं पर होने वाला आतापन योग छूट गया था इसलिए वे वन में शीत, वायु और वर्षा को बाधा सहन करते हुए वृक्ष और लताओं के नीचे स्थित हो गये । भावार्थ―मुनिगण वृक्षों के नीचे बैठकर वर्षायोग धारण करने लगे ॥ 80॥ ऐसी हो वर्षाऋतु में एक दिन युवा नेमिकुमार, ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित सूर्य के रथ के समान
देदीप्यमान एवं चार घोड़ों से जुते रथ पर सवार हो अनेक राजकुमारों के साथ वन भूमि की ओर चल दिये ॥ 81॥ प्रसन्नता से युक्त राजीमती तथा नगर की स्त्रियों ने अपने प्यासे नेत्रों से जिनके शरीररूपी जल का पान किया था एवं जिसका दर्शन मन को हरण कर रहा था ऐसे नेमिनाथ भगवान्, उन राजकुमारों के साथ विशाल राज-मार्ग से दर्शकों पर दया करते हुए के समान धीरे-धीरे गमन कर रहे थे ॥ 82 ॥ उस समय समुद्र, सुंदर नृत्य में व्यस्त भुजाओं के समान अपनी चंचल तरंगों से शब्दायमान हो रहा था और भगवान के समीप आने पर नाना प्रकार के नृत्यों को धारण करने वाले नर्तक के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।꠰83॥ उपवन में पहुंचकर युवा नेमिकुमार शीघ्र ही वन की लक्ष्मी को देखने लगे और वन के नाना वृक्षों की पंक्तियां अपनी शाखारूप भुजाएँ फैलाकर नम्रीभूत हो उन पर फूलों की अंजलियां बिखेरने लगीं ॥84॥ उसी समय उन्होंने वन में एक जगह, भय से जिनके मन और शरीर कांप रहे थे, जो अत्यंत विह्वल थे, पुरुष जिन्हें रोके हुए थे और जो नाना जातियों से युक्त थे ऐसे तृण भक्षी पशुओं को देखा ॥85 ॥ यद्यपि भगवान्, अवधिज्ञान से उन पशुओं को एकत्रित करने का कारण जानते थे तथापि उन्होंने शीघ्र ही रथ रोककर अपने शब्द से मेघध्वनि को जीतते हुए, सारथि से पूछा कि ये नाना जाति के पशु यहाँ किसलिए रो के गये हैं ? ॥86॥ सारथी ने नम्रीभूत हो हाथ जोड़कर कहा कि हे विभो ! आपके विवाहोत्सव में जो मांसभोजी राजा आये हैं उनके लिए नाना प्रकार का मांस तैयार करने के लिए यहाँ पशुओं का निरोध किया गया है ॥ 87 ॥ इस प्रकार सारथि के वचन सुन कर ज्यों ही भगवान् ने मृगों के समूह की ओर देखा त्यों ही उनका हृदय प्राणिदया से सराबोर हो गया । वे अवधिज्ञानी थे ही इसलिए राजकुमारों की ओर देखकर इस प्रकार कहने लगे कि वन ही जिनका घर है, वन के तृण और पानी ही जिनका भोजन-पान है और जो अत्यंत निरपराध हैं ऐसे दोन मृगों का संसार में फिर भी मनुष्य वध करते हैं । अहो ! मनुष्यों की निर्दयता तो देखो ॥88-89॥ रण के अग्रभाग में जिन्होंने कीर्ति का संचय किया है ऐसे शूरवीर मनुष्य हाथी, घोड़े और रथ आदि पर सवार हो निर्भयता के साथ मारने के लिए सामने खड़े हुए लोगों पर ही उनके सामने जाकर प्रहार करते हैं अन्य लोगों पर नहीं ॥90 ॥ जो पुरुष अत्यधिक क्रोध से युक्त शरभ, सिंह तथा जंगली हाथियों आदि को दूर से छोड़ देते हैं और मृग तथा खरगोश आदि क्षुद्र प्राणियों पर प्रहार करते हैं उन्हें लज्जा क्यों नहीं आती ? ॥91 ॥ अहा ! जो शूरवीर पैर में कांटा न चुभ जाये इस भय से स्वयं तो जूता पहनते हैं और शिकार के समय कोमल मृगों को सैकड़ों प्रकार के तीक्ष्ण शस्त्रों से मारते हैं यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥92॥ यह निंद्य मृग-समूह का वध प्रथम तो विषयसुखरूपी फल को देता है परंतु जब इसका अनुभाग अपना रस देने लगता है तब उत्तरोत्तर छह काय का विघात सहन करना पड़ता है । भावार्थ― हिंसक प्राणी छहकाय के जीवों में उत्पन्न होता है और वहाँ नाना जीवों के द्वारा मारा जाता है ॥ 93 ॥ यह मनुष्य चाहता तो यह है कि मुझे विशाल राज्य की प्राप्ति हो, पर करता है समस्त प्राणियों का वध, सो यह विरुद्ध बात है क्योंकि प्राणिवध का फल तो निश्चय ही पापबंध है और उसके फलस्वरूप कटुक फल की ही प्राप्ति होती है राज्यादिक मधुर फल की नहीं ॥94॥ प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकार के बंध के वशीभूत हआ यह प्राणियों का समूह क्रम-क्रम से दुर्गतियों में परिभ्रमण करता हआ नाना प्रकार के दुःख भोगता रहता है ॥95॥ यह प्राणी प्रत्येक भव में भय और दुःख को खान से युक्त विषय-संबंधी खोटे सुखों से प्रभावित रहा है और आज मनुष्य भव में भी इतना अधिक मोहित हो रहा है कि संसार-संबंधी दुःख को दूर करने के लिए यत्न ही नहीं करता ॥96॥
जिस प्रकार सैकड़ों नदियां समुद्र के संतोष के लिए नहीं हैं उसी प्रकार बाह्य विषयों से उत्पन्न, संततिबद्ध, बहुत भारी संसारसुख भी प्राणी के संतोष के लिए नहीं हैं ॥97॥
औरों की बात जाने दो मैंने स्वयं सागरों पर्यंत विद्याधरेंद्र, देवेंद्र और नरेंद्र के जन्म में राजाओं तथा जयंत विमान में समुत्पन्न सुख का उपभोग किया है पर वह मेरी तृप्ति के लिए नहीं हुआ ॥98॥ यद्यपि मुझे लोकोत्तर सुख सुलभ है तथापि वह कुछ ही दिन ठहरने वाला है, निःसार है और मेरी आयु भी असार है अतः वह मेरे लिए तृप्ति करने वाला कैसे हो सकता है ? ॥99॥ इसलिए मैं इस विनाशीक एवं संतापकारी विषयजन्य सुख को छोड़कर महान् उद्यम करता हुआ अत्यधिक तप से अविनाशी, असंताप से उत्पन्न आत्मोत्थ मोक्ष सुख का उपार्जन करता हूँ ॥100॥ भगवान् उस समय मन-वचन से इस प्रकार का विचार कर ही रहे थे कि उसी समय पंचम स्वर्ग में उत्पन्न, चंद्रमा के समान श्वेतवर्ण तुषित, वह्नि, अरुण, आदित्य आदि लौकांतिक देव शीघ्र ही आ पहुंचे और मस्तक झुकाकर तथा हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे कि हे प्रभो ! इस समय भरतक्षेत्र में तीर्थ प्रवर्ताने का समय है इसलिए तीर्थ प्रवृत्त कीजिए ॥101-102॥ भगवान् स्वयं ही मार्ग को जानते थे इसलिए लोकांतिक देवों के उक्त वचन यद्यपि पुनरुक्त बात का ही कथन करते थे तथापि अवसर पर पुनरुक्तता भी फलीभूत होती है ॥ 103 ॥ मृगों के हितैषी भगवान् ने शीघ्र ही मृगों को छोड़ दिया और राजकुमारों के साथ स्वयं नगरी में प्रवेश किया । नगरी में जाकर वे राज्यसिंहासन को अलंकृत करने लगे और इंद्रों ने पहले के समान आकर उनकी स्तुति की ॥104॥ तदनंतर इंद्रों ने उन्हें स्नानपीठ पर विराजमान कर देवों के द्वारा लाये हुए क्षीरोदक से उनका अभिषेक किया और देवों के योग्य माला, विलेपन, वस्त्र एवं आभूषणों से विभूषित किया ॥105॥ उत्तम सिंहासन के ऊपर विराजमान भगवान् को घेरकर खड़े हुए कृष्ण, बलभद्र आदि अनेक राजा और सुर-असुर ऐसे जान पड़ते थे जैसे प्रथम सुमेरु को घेरकर स्थित कुलाचल ही हों ॥ 106॥ जिस प्रकार पिंजरे को तोड़कर निकलने वाले बलवान सिंह को कोई अनुनय-विनय के द्वारा रोकने में समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार तप के लिए जाने के इच्छुक भगवान को श्रीकृष्ण भोजवंशी तथा यदुवंशी आदि कोई भी रोकने में समर्थ नहीं हो सके ॥107॥
तदनंतर संसार की स्थिति के जानकार जिनेंद्र भगवान् पिता आदि परिवार के लोगों को अच्छी तरह समझाकर कुबेर रूप शिल्पी के द्वारा निर्मित उत्तरकुरु नाम की पालकी की ओर पैदल ही चल पड़े ॥ 108॥ वह पाल की ध्वजाओं और सफेद छत्र से मंडित थी, उत्तम मणिमय दीवालों से युक्त थी । उत्तमोत्तम बेल-बूटों से सहित थी और विविध रूप को धारण कर रही थी । जिस प्रकार उदयाचल की भित्ति पर चंद्रमा आरूढ़ होता है उसी प्रकार भगवान् भी उस पालकी पर आरूढ़ हो गये ॥109 ॥ तदनंतर सबसे पहले कुछ दूर तक पृथिवी पर तो श्रेष्ठ राजा लोगों ने उस कल्याणकारिणी पाल की को उठाया और उसके बाद इंद्र आदि उत्तमोत्तम देव उसे बड़े हर्ष से आकाश में ले गये ॥110॥ उस समय आकाश में तो अत्यधिक आनंद से देवों के द्वारा किया हुआ वह शब्द व्याप्त हो रहा था जो श्रीहीन मनुष्यों के लिए हितकारी नहीं था और नीचे पृथिवी पर दुःख से पीडित भोजवंश के लोगों का जोरदार करुण कंदन मुख से रुदन करने वाले जगत के जीवों के कर्ण-विवर को प्राप्त कर रहा था ॥111 ॥ जिनके शरीर को देवों का समूह नमस्कार कर रहा था तथा जो निविडता को प्राप्त हुए शांत रस के, समान जान पड़ते थे ऐसे उन भगवान् नेमिनाथ के सम्मुख, जिस प्रकार जल के सरोवर के निकट मयूर और सारस नृत्य करते हैं उसी प्रकार अप्सराओं का समूह नाना रसों को प्रकट करता हुआ बड़ी शीघ्रता से नृत्य कर रहा था ॥112॥ इस प्रकार जो पापों की सेना को जीत रहे थे वे जिनेंद्र भगवान् कमल के समान कांति की धारक हितकारी देवसेना के साथ सुमेरुपर्वत के समान कांति वाले गिरनार पर्वत पर पहुंचे ॥113॥
जिस पर्वत पर रात्रि और दिन के अंत में अर्थात् प्रातःकाल और सायंकाल के समय आकाश में विचरने वाले एवं अंधकार से होने वाले विशाल भय का अंत करने वाले सूर्य और चंद्रमा के महान् स्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता उस गिरनार पर्वत का यहाँ ऊँचाई में उदाहरण ही क्या हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । भावार्थ― यह पर्वत इतना ऊँचा है कि उस पर प्रातःकाल और सायंकाल के समय सूर्य और चंद्रमा का दर्शन ही नहीं हो पाता । वह गिरनार पर्वत कुत्सित फूलों से रहित था और शब्दायमान किरणों के गिरने के स्थान में उड़ने वाले पक्षियों, मुख में मधुर रस को देने वाले आम्रलता के फलों एवं फूलों से लदे नाना प्रकार के वृक्षों से अत्यंत सुशोभित हो रहा था ॥114-115 ॥
तदनंतर जो मणियों और सुवर्ण के कारण सुमेरु गिरि के समान जान पड़ता था, जो नाना प्रकार की धातुओं के रंग के समूह से उपलक्षित भूमि को धारण कर रहा था, जो अपने शिखरों से किन्नर देवों को अनुरक्त कर रहा था और जो वन की वसुधा से मनुष्य तथा देवों की बुद्धि को हरण कर रहा था ऐसे गिरनार पर्वत के उस निष्कलंक उपवन में जिसमें कि वानर से रहित एकाकी सिंह विचरण करता था विष्णु-कृष्ण सहित इंद्र ने वीतराग जिनेंद्र की सम्मति पाकर वह पालकी रख दी ॥116-117॥ उस उपवन में पहुँचकर भगवान् ने विशाल तप धारण करने के उद्देश्य से देवों को हर्षित करने वाले पृथ्वी पर विद्यमान पालकी रूपी आसन को छोड़ दिया और स्वयं पृथ्वी तल की माया का परित्याग करने के लिए नमिनाथ भगवान् के समान शिलातल पर जा पहुंचे ॥118॥ तदनंतर जो अतिशय बुद्धिमान् थे, जिनकी पद्मासन और धीरता अत्यंत शोभायमान थी तथा जो प्रिय स्त्री एवं राज्यलक्ष्मी के त्याग की बुद्धि में रतलीन थे ऐसे भगवान् नेमिनाथ ने परदा के अंदर माला, वस्त्र और सब अलंकार उतारकर परिग्रह से रहित तथा दया से युक्त होकर कोमल अंगुलियों से युक्त सुदृढ़ पंचमुट्ठियों से उन सघन केशों को तत्काल उखाड़कर फेंक दिया जो अत्यंत सुंदर और काले थे एवं अतिशय भीरु मनुष्य ही अपने शरीर में जिनका चिरकाल तक स्थान बनाये रखते हैं ॥119-120॥ भगवान् नमिनाथ ने जिस तप को धारण किया था उसी तप को एक हजार राजाओं ने भी भगवान् नेमिनाथ के साथ धारण किया था उस समय मानरहित भगवान को सूर्य का आताप संतप्त नहीं कर सका था क्योंकि इंद्र के द्वारा लगाये हुए छत्र से वह रुक गया था अथवा छत्ररूपी जल वहाँ पड़ रहा था उसके प्रभाव से सूर्य जन्य आताप उन्हें दु:खी करने में समर्थ नहीं हो सका था ॥121 ॥ उस समय क्रोधरहित इंद्रिय-दमन से युक्त अपने आपके द्वारा सिर पर बद्ध कुटिल केशों को उखाड़ता हुआ राजाओं का समूह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो चिरकाल से साथ लगी हुई कुटिल शल्यों की परंपरा को ही उखाड़कर फेंक रहा हो ॥122॥ इंद्र ने भगवान् के केशों को इकट्ठा कर मणिसमूह की किरणों से सुशोभित पिटारे में रखकर उन्हें क्षीरसागर में क्षेप दिया । उस समय भगवान् अतिशय तेज से युक्त शरीर धारण कर रहे थे ॥123 ॥ भगवान नेमिनाथ ने जिस स्थान पर जीवदया की रक्षा करने वाला, एवं अत्यंत पवित्र, वस्त्ररूप परिग्रह का त्याग किया था वह शीघ्र ही संसार में शास्त्र-सम्मत प्रसिद्ध तीर्थस्थान बन गया ॥124 ॥ उस समय चार ज्ञान से सुशोभित, करोड़ों देवरूपी महा कवियों से विभूषित और परिग्रहरहित मनुष्यों को संसार से तारने वाले भगवान् अनेक मुनियों के बीच, ग्रहों और ताराओं के मध्य में स्थित चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥15॥ अतिथि भगवान् ने सावन सुदी चौथ के दिन बेला का नियम लेकर दीक्षा धारण की थी इसलिए उस दिन अनेक उत्तम वस्तुओं का त्याग करने वाले मनुष्य, देव तथा असुरों ने दीक्षा कल्याणक का उत्सव किया था ॥ 126॥
तदनंतर सुर और असुर भगवान् की इस प्रकार स्तुति करने लगे― हे भगवन् ! आप कामदेव का पराजय करने में समर्थ हैं, हितकारी चेष्टाओं से युक्त संसारो प्राणियों के शरण भूत हैं― रक्षक हैं, क्रोध से रहित हैं, तृष्णा से रहित हैं, उत्तम नय में स्थित हैं― नय का पालन करने वाले हैं और मुनि हैं― मनन-शील हैं अतः आपको नमस्कार हो । इस प्रकार साथ-साथ स्तुति कर तथा सब ओर से नमस्कार कर अपने हृदयों में तपस्वी नेमिनाथ भगवान् को धारण करने वाले एवं चक्र में स्थित नेमि-चक्रधारा के समान प्रवर्तक राजा तथा सुर-असुर अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥ 127-128 ॥
तदनंतर जब पापरहित भगवान् आहार लेने के लिए द्वारिकापुरी में आये तब उत्तम तेज के धारक प्रवरदत्त ने उन्हें उत्तम खीर का आहार देकर देवसमूह के द्वारा महिमा से युक्त, हित कारी अद्भुत महिमा-प्रतिष्ठा प्राप्त को ॥129 ॥ जब भगवान् नेमिनाथ किये हुए उस हितकारी मार्ग में तपस्या करने लगे तब अपार वियोग से युक्त राजपुत्री राजीमती अपने लज्जा पूर्ण चेष्टा से युक्त मन में दिन के समय सूर्य के संयोग से सहित कुमुदिनी के समान संताप को धारण करने लगी ॥130॥ राजीमती, प्रबल शोक के वशीभूत थी, निरंतर विलाप करती रहती थी, उसके आभूषण और केशों का समूह शिथिल हो गया था तथा वह करुण शब्दों से आकाश और पृथ्वी के विशाल अंतराल को व्याप्त करने वाले परिजनों से घिरकर अत्यधिक रोती रहती थी ॥131॥ नितंब और स्थूल स्तनों से सुंदर तथा अश्रु कणों से व्याप्त हार को धारण करने वाली वह राजीमती कभी तो वर को हरने वाले अपने दुर्दैव को उलाहना देती थी और कभी अत्यंत मनोहर वर को दोष देती थी ॥132 ॥ तदनंतर तप धारण करने की प्रेरणा देने वाले गुरुजनों के उन हितकारी वचनों से जब उसके शोक का भार शांत हो गया तब उसने अपाय-बाधा से रहित, शांतिरूप सुख के दायक, एवं दुर्भाग्य को दूर करने वाले तप में बुद्धि लगायी― तप धारण करने का विचार किया ॥133॥ हाथों और पांवों की कांति से सुंदर कमल संबंधी शोभा के समूह को धारण करने वाली राजमती ने जो वृत्त-चारित्र धारण किया है वह उसके ताप दुःख को अंत करने वाला है ऐसा जानकर अंत में उसके कुटुंबीजन मानसिक संताप के अंत को प्राप्त हुए ॥134॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि ये स्त्रियां नाना दुःख उठाती हैं । सबसे पहले तो इन्हें परतंत्रता का विशिष्ट दुःख है, फिर पति के दुर्लभ होने पर शरीर को शून्य― व्यर्थ समझती हैं । फिर सपत्नी के होने का, ऋतुमती होने का, वंध्या होने का, विधवा होने का, प्रसूति काल में रोग हो जाने का, अंधा होने का, दुर्भाग्य होने का, भाग्यहीन पति के मिलने का, लड़की लड़की ही गर्भ में आने का, बार-बार मृत संतान के होने का, बिल्कुल अनाथ हो जाने का, गर्भ धारण करने का, पति के जीवित रहते हुए भी उसके साथ वियोग होने का अथवा किसी मर्मांतक रोग के हो जाने का दुःख सहन करती है ॥135-136॥ जिस प्रकार आतान-वितान भूत तंतु वस्त्र के स्वतंत्र कारण हैं, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन स्त्री पर्याय का स्वतंत्र कारण हैं, इसलिए सेवनीय शक्ति के धारक भव्य-जीवों को स्त्री-संबंधी दुःखों का अंत करने वाले सम्यग्दर्शन की सेवा करनी चाहिए ॥137॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में भगवान् के दीक्षा-कल्याण का वर्णन करने वाला पचपनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥55 ॥