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| <h2><b>हिंसा और अहिंसा</b><b> </b></h2>
| | [[ ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 1#50 | पद्मपुराण पर्व 1, श्लोक 50]] |
| <p>"प्रमत्त योगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इस सूत्रमें प्रमत्तयोगसे प्राणोंको विनाश करनेको हिंसा बतलाया है। इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि प्राणोंका विनाश करना हिंसा है, पर वह प्रमत्तयोगसे किया हुआ होना चाहिए । जो प्राणोंका विनाश प्रमत्त योगसे अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रवृत्तिके कारण होता है वह तो हिंसा है शेष नहीं, यह इस सूत्रका तात्पर्य है। यहाँ प्रमत्त योग कारण है और प्राणोंका विनाश कार्य है। आगममें प्राण दो तरहके बतलाये हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । प्रमत्तयोगके होनेपर द्रव्यप्राणोंका विनाश होता ही है ऐसा कोई नियम नहीं है, हिंसाके अन्य निमित्त मिल जानेपर द्रव्यप्राणोंका विनाश होता भी है और नहीं मिलनेपर नहीं भी होता है । इसी प्रकार कभी-कभी प्रमत्तयोगके नहीं रहने पर भी द्रव्यप्राणोंका विनाश देखा जाता है। उदाहरणार्थ-साधु ईयर्यासमितिपूर्वक गमन करते हैं। उनके रंचमात्र भी प्रमत्त योग नहीं होता, तथापि कदाचित् गमन करनेके मार्गमें अचानक क्षुद्र जन्तु आकर और पैरसे दबकर मर जाता है। यहाँ प्रमत्तयोगके नहीं रहनेपर भी प्राण व्यपरोपण है, इसलिए मुख्यतया प्रमत्तयोगसे जो भाव प्राणोंका विनाश होता है वह हिंसा है, ऐसा यहाँ तात्पर्य समझना चाहिए । <br /><b>हिंसाका मथितार्थ</b> <br /> जैन आगममें हिंसा विकारका पर्यायवाची माना गया है । जीवनमें जो भी विकार विद्यमान है उससे प्रतिक्षण आत्मगुणोंका ह्रास हो रहा है। वह विकारभाव कभी-कभी भीतर ही भीतर काम करता रहता है और कभी-कभी बाहर प्रस्फुटित होकर उसका काम दिखाई देने लगता है। किसी पर क्रोध करना, उसको मारनेके लिए उद्यत होना, गाली देना, अपमान करना, झूठा लांछन लगाना, सन्मार्गके विरुद्ध साधनोंको जुटाना आदि उस विकारके बाहरी रूप हैं और आत्मोन्नति या आत्मोन्नतिके साधनोंसे विमुख होकर रागद्वेष रूप परिणतिका होना, उसका आभ्यान्तर रूप है। ऐसे विकार भावसे आत्मगुणोंका हनन होता है, इसलिए तत्त्वतः इसीका नाम हिंसा है। </p>
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| <p>मुख्यतया प्रत्येककी दृष्टि अपने जीवनके संशोधनकी न होकर बाहरकी ओर जाती है। वह इतना ही विचार करता है कि मैंने अन्य जीवोंपर दया की, उन्हें नहीं मारा तो मेरे द्वारा अहिंसाका पालन हो गया । वह अपने जीवनका रंचमात्र भी संशोधन नहीं करता, भीतर छिपे हुए विकारभावको नहीं देखता । इससे वह हिंसाको करते हए भी अपनेको अहिंसक समझ बैठता है। जगतमें जो विशृंखलता फैली हुई है वह इसका प्रांजल उदाहरण है । तत्त्वतः भूल कहाँ हो रही है उसकी खोज होनी चाहिए। इसके बिना हिंसासे अपनी रक्षा नहीं हो सकती और न अहिंसाका मर्म ही समझमें आ सकता है। </p>
| | [[ ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 3#25 | पद्मपुराण पर्व 3, श्लोक 25]] |
| <p><b>जीवनकी सबसे बड़ी भूल ही हिंसाका कारण है</b> </p>
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| <p>मनुष्यके जीवनमें यह सबसे बड़ी भूल है, जिससे वह ऐसा मान बैठा है कि दूसरेका हिताहित करना मेरे हाथमें है । जिसने जितने अधिक बाहरी साधनोंका संचय कर लिया है वह उतना अधिक अपनेको शक्तिमान् अनुभव करता है । साम्राज्य-लिप्सा, पूँजीवाद, वर्गवाद और संस्थावाद इसका परिणाम है । ईश्वरवादको इसी मनोवृत्तिने जन्म दिया है। जगत्में बाहरी विषमताका बीज यही है। अतीत कालमें जो संघर्ष हुए या वर्तमानमें जो भी संघर्ष हो रहे हैं उन सबका कारण यही है। जब मनुष्य अपने जीवनमें इस तत्त्वज्ञानकोस्वीकार कर लेता है कि अन्यसे अन्यका हित या अहित होता है तब उसकी अंतर्मुखी दृष्टि फिर कर बहिर्मुखी हो जाती है। वह बाह्य साधनोंके जटाने में लग जाता है. उनके जटानेमें सफल होने पर उसे अ मानता है । जीवनमें बाह्य साधनोंको स्थान नहीं है यह बात नहीं है किन्तु इसकी एक मर्यादा है । दृष्टिको अन्तर्मुखी रखते हुए अपने जीवनकी कमजोरीके अनुसार बाह्य साधनोंका आलम्बन लेना एक बात है किन्तु इसके विपरीत बाह्य साधनोंको ही सब कुछ मान बैठना दूसरी बात है। </p>
| | [[ ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 3#51 | हरिवंश पुराण सर्ग 3, श्लोक 51]] |
| <p>तत्त्वतः प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र और अपनेमें परिपूर्ण है। उसमें जो भी परिवर्तन होता है वह उसकी अपूर्णताका द्योतक न होकर उसकी योग्यतानुसार ही होता है, इसलिए किसी भी पदार्थको शक्तिका संचय करनेके लिए किसी दूसरे पदार्थकी आवश्यकता नहीं लेनी पड़ती। निमित्त इतना बलवान नहीं होता कि वह अन्य द्रव्यमें कुछ निकाल दे या उसमें कुछ मिला दे। द्रव्यमें न कुछ आता है और न उसमेंसे कुछ जाता ही है । अनन्तकाल पहले जिस द्रव्यका जो स्वरूप था आज भी वह जहाँका तहाँ और आगामी कालमें भी वह वैसा ही बना रहेगा। केवल पर्याय क्रमसे बदलना उसका स्वभाव है, इसलिए इतना परिवर्तन इसमें होता रहता है। माना कि यह परिवर्तन सर्वथा अनिमित्तक नहीं होता है, किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं कि निमित्ताधीन होता है । जैसे वस्तुकी कार्यमर्यादा निश्चित है, वैसे सब प्रकारके निमित्तोंकी कार्यमर्यादा निश्चित नहीं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और आकाशद्र व्य--ये ऐसे निमित्त है जो सदा एक रूपमें कार्य के प्रति निमित्त होते हैं। धर्मद्रव्य सदा गतिमें निमित्त होता है। अधर्मद्रव्य स्थितिमें निमित्त होता है। कालद्रव्य प्रति समयकी होनेवाली पर्यायमें निमित्त होता है और आकाश द्रव्य अवगाहनामें निमित्त होता है। इन द्रव्योंके निमित्तत्वकी यह योग्यता नियत है। इसमें त्रिकालमें भी अन्तर नहीं आता। इन द्रव्योंका अस्तित्व भी इसी आधारपर माना गया है। किन्तु इनके सिवा प्रत्येक कार्यके प्रति जो जुदे-जुदे निमित्त माने गये हैं, वे पदार्थके स्वभावगत कार्यके अनुसार ही निमित्त कारण होते हैं। वे अमुक ढंगसे कार्यके प्रति निमित्त हैं ऐसी व्यवस्था उनकी निश्चित नहीं है । उदाहरणार्थ एक युवती एक ही समयमें साधुके लिए वैराग्यके होने में निमित्त होती है और रागीके लिए रागके होने में निमित्त होती है । इसका यही अर्थ है कि जिस पदार्थकी जिस काल में जिस प्रकारके स्वभावगत कार्यमर्यादा होती है, उसीके अनुसार अन्य पदार्थ उसके होने में निमित्त कारण होता है। इसलिए जीवनमें निमित्तका स्थान होकर भी वस्तुकी परिणतिको उसके आधीन नहीं माना जा सकता। यह तात्त्विक मीमांसा है, जिसका सम्यग्दर्शन न होनेके कारण ही जीवनमें ऐसी भूल होती है जिससे यह दूसरेके बिगाड़-बनावका कर्ता अपनेको मानता है और बाह्य साधनोंके जुटानेमें जुटा रहता है । तात्त्विक दृष्टिसे विचार करनेपर इस परिणतिका नाम ही हिंसा है । हमें जगत्में जो विविध प्रकार मूलक वृत्तियाँ दिखलाई देती हैं वे सब इनके परिणाम हैं। जगत्की अशान्ति और अव्यवस्थाका भी यही कारण है । एक बार जीवनमें भौतिक साधनोंने प्रभुता पाई कि वह बढ़ती ही जाती है । धर्म और धर्मायतनोंमें भी इसका साम्राज्य दिखलाई देने लगा है। </p>
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| <p>अधिकतर पढ़े-लिखे या त्यागी लोगोंका मत है कि वर्तमानमें जैनधर्मका अनुयायी राजा न होने के कारण अहिंसा धर्मकी उन्नति नहीं हो रही है। मालूम पड़ता है कि उनका यह मत आन्तरिक विकारका ही द्योतक है। तीर्थंकरोंका शारीरिक बल ही सर्वाधिक माना गया है, किन्तु उन्होंने स्वयं अपने जीवनमें ऐसी असत्कल्पना नहीं की थी और न वे शारीरिक बल या भौतिक बलके सहारे धर्मका प्रचार करनेके लिए उद्यत ही हुए थे । भौतिक साधनोंके प्रयोग द्वारा किसीके जीवन की शुद्धि हो सकती है यह त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है । उन्मादसे उन्मादकी ही वृद्धि होती है । यह भौतिक साधनोंका उन्माद ही अधर्म है। इससे आत्माकी निर्मलताका लोप होता है और वह इन साधनोंके बलपर संसारपर छा जाना चाहता है। उत्तरोत्तर उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जाती हैं जिससे संसारमें एकमात्र घृणा और द्वेषका ही प्रचार होता है। वर्तमान कालमें जो विविध प्रकारके वाद दिखलाई देते हैं वे इसीके परिणाम हैं । संसारने भीतरसे अपनी दृष्टि फेर ली है। सब बाहरकी ओर देखने लगे हैं । जीवनकी एक भूलसे कितना बड़ा अनर्थ हो रहा है यह समझने और अनुभव करनेकी वस्तु है । यही वह भूल है जिसके कारण हिंसा पनपकर फूल-फल रही है । </p>
| | [[ ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 40#11 | हरिवंश पुराण सर्ग 40, श्लोक 11]] |
| <p><b>हिंसाके भेद व उसके कारण</b> </p>
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| <p>शास्त्रकारोंने इस हिंसाके दो भेद किये हैं-भावहिंसा और द्रव्यहिंसा। भावहिंसा वही है जिसका हम ऊपर निर्देश कर आये हैं। द्रव्यहिंसामें अन्य जीवका विघात लिया गया है। यह भावहिंसाका फल है इसलिए इसे हिंसा कहा गया है। कदाचित् भावहिंसाके अभावमें भी द्रव्यहिंसा होती हुई देखी जाती है, पर उसकी परिगणना हिंसाकी कोटिमें नहीं की जाती है । हिंसाका ठीक अर्थ आत्म-परिणामोंकी कलुषता ही है। कदाचित् कोई जड़ पदार्थको अपकारी मानकर उसके विनाशका भाव करता है और उसके निमित्तसे वह नष्ट, भी हो जाता है, वहाँ यद्यपि किसी अन्य जीवके द्रव्यप्राणोंका नाश नहीं हुआ है तो भी जड़-पदार्थको छिन्न-भिन्न करने में निमित्त होनेवाला व्यक्ति हिंसक ही माना जायगा, क्योंकि ऐसे भावोंसे जो उसके आत्माकी हानि होती है, उसीका नाम हिंसा है। </p>
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| <p>संसारी जीवके कषायमूलक दो प्रकारके भाव होते हैं-रागरूप और द्वेषरूप। इनमेंसे द्वेषमूलक जितने भी भाव होते हैं उन सबकी परिगणना हिंसामेंकी जाती है। कदाचित् ऐसा होता है, जहाँ विद्वेषकी ज्वाला भड़क उठनेका भय रहता है। ऐसे स्थलपर उपेक्षाभावके धारण करनेकी शिक्षा दी गयी है । उदाहरणार्थ--कोई व्यक्ति अपनी स्त्री, भगिनी, माता या कन्याका अपहरण करता है या धर्मायतनका ध्वंस क ता है तो बहुत सम्भव है कि ऐसा करने वाले व्यक्तिके प्रति विद्वेषभाव हो जाय । किन्तु ऐसे समयमें स्त्री आदि की रक्षाका भाव होना चाहिए, उसे मारनेका नहीं । हो सकता है कि रक्षा करते समय उस व्यक्तिकी मत्य हो जाय । यदि रक्षाका भाव हुआ तो वही आपेक्षिक अहिंसा है और मारनेका भाव हआ तो वही हिंसा. है । मुख्यतया ऐसी हिंसाको ही संकल्पी हिंसा कहते हैं । कहीं-कहीं यह हिंसा अन्य कारणोंसे भी होती है शिकार खेलना आदि । सो इसकी परिगणना भी संकल्पी हिंसामें होती है। संकल्पी हिंसा उसका नाम है जो इरादतन की जाती है । कसाई आदि जो भी हिंसा करते हैं उसे भी इसी कोटिकी हिंसा समझना चाहिये, मानाकि उनकी यह आजीविका है पर गाय आदिको मारते समय हिंसाका संकल्प किये बिना वध नहीं हो सकता, इसलिये वह संकल्पी हिंसा है । आरम्भी और संकल्पीहिंसामें इतना अन्तर है कि आरम्भमें गृह निर्माण करना, रसोई बनाना, खेती बाड़ी करना आदि कार्यकी मुख्यता रहती है। ऐसा करते हुए जीव मरते है अवश्य, पर इसमें सीधा जीवनको नहीं मारा जाता, पर संकल्पमें जीव-वधकी मुख्यता रहती है। यहाँ कार्यका श्रीगणेश जीव वधसे ही होता है। </p>
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| <p>रागभाव दो प्रकारका माना गया है-प्रशस्त और अप्रशस्त । जीवन शुद्धिके निमित्तभत पदार्थों में राग करना प्रशस्त राग है और शेष अप्रशस्त राग है। है तो यह दोनों प्रकारका रागभाव हिंसा ही, परन्तु जब तक रागभाव नहीं छूटा है तब तक अप्रशस्त रागसे प्रशस्त रागमें रहना उत्तम माना गया है । इसीसे शास्त्रकारोंने दान देना, पूजा करना, जिन मन्दिर बनवाना, पाठशाला खोलना, उपदेश करना, देशकी उन्नति करना आदि कार्योंका उपदेश दिया है । </p>
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| <p>जीवनमें जिसने पूर्ण स्वावलम्बनको उतारनेकी अर्थात् मुनि धर्मकी दीक्षा ली है, उसे बुद्धिपूर्वक सब प्रकारके रागद्वेषके त्याग करनेका विधान है । क्योंकि बुद्धिपूर्वक किसी भी प्रकारका रागद्वेष बना रहना जीवन की बड़ी भारी कमजोरी है। इस दृष्टिसे तो सब प्रकारके विकार भावहिंसा ही माने गये हैं । यही कारण है कि मुनिको सब प्रकारकी प्रवृत्तिके अन्तमें प्रायश्चित करना पड़ता है। किन्तु गृहस्थकी स्थिति इससे भिन्न हैं । उसका अधिकतर जीवन प्रवृत्तिमूलक ही व्यतीत होता है । वह जीवनकी कमजोरीको घटाना चाहता है । जो कमजोरी शेष है उसे बुरा भी मानता है, पर कमजोरीका पूर्णतः त्याग करने में असमर्थ रहता है, इसलिये वह जितनी कमजोरीके त्यागकी प्रतिज्ञा करता है उतनी उसके अहिंसा मानी गयी है और जो कमजोरी शेष है वह हिंसा मानी गई है। किन्तु यह हिंसा व्यवहारमूलक ही होती है, अतः इससे इसका निषेध नहीं किया गया है । पहले जिस आपेक्षिक अहिंसाकी या आरम्भजन्य हिंसाकी हम चर्चा कर आये हैं वह गृहस्थकी इसी वृत्तिका परिणाम है, यह हिंसा संकल्पी हिंसाकी कोटिको नहीं मानी गयी है। </p>
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| <p><b>अहिंसाके ऊपर किये गये आपेक्षका निषेध</b> </p>
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| <p>कुछ लोग हिन्दुस्तानकी परतन्त्रताका मुख्य कारण बौद्ध और जैनोंकी अहिंसाको बतलाते हैं। भा० वा० सन्त सा० लिखते हैं कि-"आज यदि संसारकी प्रवत्तिका स्थल रूपसे अवलोकन किया जावे तो बौद्ध और लोगों के द्वारा मानी हुई अहिंसाको कहीं भी स्थान नहीं मिल सकता है यह स्वीकार करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं मालूम पड़ती है। प्रसंग आनेपर समरांगणमें अपने शत्रु के साथ युद्ध करते हए अपने देश और धर्मकी रक्षा करने के लिए यदि हजारों मनुष्योंकी हिंसा हुई तो भी वह क्षात्र धर्मके विरुद्ध नहीं है। जबतक क्षत्रिय और वीर जातियोंकी ऐसी कल्पना थी तबतक विदेशी लोगोंके द्वारा अपने देशके ऊपर आक्रमण होनेपर अपने देशके वीर लोग उनके साथ युद्ध करके जय संपादन करते थे, इतना ही नहीं यदि आपसमें वैमनस्य भी हुआ तो भी देशके ऊपर आपत्ति आनेपर वे लोग वैमनस्यको भूलकर देशका रक्षण करते थे । परन्तु जैसे-जैसे बौद्धधर्मका प्रसार बढ़ता गया वैसे-वैसे क्षत्रिय और दूसरी जातियोंकी वीरवृत्ति कम होती गई और उसका यह परिणाम हुआ कि अशोकादिक राजाओंके द्वारा अहिंसाकी घोषणा सम्पूर्ण देशोंमें करनेपर शत्रुओंके साथ लड़ते हुए हिन्दू राजाओंका एकसरीखा पराभव होता गया जिसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण देश परतन्त्र हो गया । अपनी खुशी. से स्वीकार किये हुए इस निःशस्त्रीकरणके लिये जैनधर्मका प्रसार भी कारण हुआ। परमेश्वरने मनुष्यके शरीरमें जो तामसवृत्ति निर्माणकी है उसका योग्य प्रमाणमें और योग्य समयके ऊपर यदि उपयोग नहीं किया तो तामसी जगतमें आत्मसंरक्षण करना अत्यन्त कठिन हो जायगा ।' </p>
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| <p>इस प्रकार श्री सन्तके लिखे हुए लेखका अच्छी तरहसे मनन करनेपर यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दुस्तानकी परतन्त्रताका और कायरताका कारण जैनधर्म द्वारा स्वीकार की हुई अहिंसा भी है । उनके मतसे अहिंसा और कायरतामें कुछ भी अन्तर नहीं मालूम पड़ता है। यदि एक मनुष्य आपत्तिके समय किसी दूसरे मनुष्यकी रक्षा करता है अथवा वह विना कारण किसीको संकटमें नहीं डालता है तो उनके मतसे वह सबसे बड़ी भयंकर कायरता करता है। यदि श्री सन्त सा० का लिखनेका यह अभिप्राय न होकर किसीके विना कारण अपने देशके ऊपर आक्रमण करनेपर स्वतःके और देशके रक्षण करने के लिये हमें घोरतम हिंसा भी करनी पड़े तो भी वह क्षम्य है यह हो तो इससे जैनधर्मके अहिंसातत्त्वका ही समर्थन होता है। जैनधर्ममें अहिंसाका प्रतिपादन करते हुए यही तत्त्व आगे रक्खा गया है-इससे आत्मसंरक्षण भी होता है और बिना कारण दूसरेकी हानि भी नहीं होती है । परन्तु सन्त सा०का इस साधारणसे तत्त्वके ऊपर ध्यान नहीं गया हो यह बात नहीं, परन्तु उनके इस आक्षेपका अर्थ अपने पड़ोसीके ऊपर दोषारोपण करनेके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । यदि वे निष्पक्षताके साथ अपने देशके पूर्वेतिहासका निरीक्षण करें तो यह सिद्ध करने में थोड़ी भी कठिनता नहीं हो सकती है कि हमारे देशके पतन और परतन्त्रताका कारण अहिंसा न होकर कुछ देशद्रोही जयचन्द सरीखे मनुष्योंकी काली करतूत ही है । इस काम में संस्कृतिके संघर्ष और ईश्वरवादने भी बहुत कुछ मदद की है । जिस संस्कृति ने "मूर्ख यह प्राणी अपने सुख और दुःखका स्वामी न होकर उसके सुख और दुःखका स्वामित्व ईश्वरकी मर्जी के ऊपर है" इस सिद्धान्त की घोषणा को और संसारको उसीका पाठ पढ़ाया । लेखक महाशय उस संस्कृतिको तो आँखें मींचकर स्वीकार करते हैं परन्तु विकारी भावोंका विश्लेषण करके तात्त्विक आत्मवृत्तिकी द्योतक स्वतन्त्रारूप अहिंसाके ऊपर इस पापके घड़ेके फोड़नेका व्यर्थ ही असफल प्रयत्न करते हैं । फिर भी यह निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्मकी अहिंसा यदि उसका पालन करनेवाला विजेता हो तभी उसको अहिंसककी कोटिमें स्वीकार करती है उसे परचक्रका आक्रमण थोड़ा भी सहन नहीं होता है । परचक्रका अतत्व और अहिंसकभाव इन दोनों विरोधी तत्त्वोंके लिये जैनधर्म में प्रतिपादनकी हुई अहिंसा में स्थान नहीं है जो कायर होकर दूसरेकी स्वाधीनता स्वीकार करता है वह अपने विरोधी शत्रुओं को कैसे जीत सकता है, इसके लिए तो उसे पूर्ण स्वतन्त्रताका भोक्ता ही होना पड़ेगा । हाँ ! यह सत्य है कि जैनधर्मकी असा शत्रुके ऊपर विजय तामसिक वृत्तिसे न स्वीकार करके पूर्ण सात्त्विक वृति से संपादन करनेका पाठ पढ़ाती है । उसका यह सबसे प्रथम पाठ है कि तुम अपने विकारी स्वार्थोकी पुष्टिके लिए दूसरोंके ऊपर आक्रमण न करके विकारी स्वार्थोके नाश करनेके लिए दूसरोंके ऊपर आक्रमण करके विजय संपादन करो । ऐसा करते हुए कभी-कभी अपने आत्मीयजनोंके साथ भी विरोध करना पड़ता है, परन्तु वहाँपर भी हमें अपने आत्मीयजनोंको भूलकर विकारी भावोंको ही अपने विरोधका लक्ष्य बनाना चाहिए। इस तरह यदि पूर्ण सात्विकभावों से विरोधी शक्ति के साथ संघर्ष करते हुए हम व्यवहारी जगत्में एक बार असफल हुए भी दीखें तो भी हमारी उस असफलतामें ही सफलताका तत्त्व छिपा हुआ है, यह बात संसारके किसी भी न्याय्ययुद्ध सिद्धकी जा सकती है । </p>
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| <p>जैनधर्मकी अहिंसाकी इस प्रकार तात्त्विक भूमिका होनेपर भी हमें संत सा० के इस आक्षेपका कि "जैनधर्मकी अहिंसा देशकी पराधीनताका कारण हुई" उत्तर उसके व्यवहारी रूपको सामने रख कर दे देना और भी उचित प्रतीत होता है । कारण किसी भी सिद्धान्तके कितने ही सुन्दर होनेपर उसके अनुयायी यदि उसका उचित पालन न करके विकृत तत्त्वको स्वीकार करलें तो उससे लाभके स्थानमें हानिकी अधिक संभावना रहती है । परन्तु इस प्रश्नके उत्तरके लिए हमें अतीत भारतको सम्पन्न भारत और आपत्तिग्रस्त भारत - इस प्रकार दो अवस्थाओं में विभाजित करना होगा । सम्पन्न भारत से मतलब स्वशासित भारत से है और आपत्तिग्रस्त भारत से मतलब परशासित अथवा दूसरे देशों में उत्पन्न हुई संस्कृतिके द्वारा शासित भारत मे है । इनमे से भारत जिस समय स्वशासित था उस समय हिन्दुस्तानमें उत्पन्न हुई दूसरी संस्कृतियाँ इस देशके वैभवको बढ़ाने में जितनी कारण हुई उससे कहीं अधिक जैन संस्कृति इस देशकी अभिवृद्धिका कारण हुई । स्वशासित भारतमें दूसरी संस्कृतियोंके लांछनरूप कारनामें जिस प्रकार प्रकट किये जा सकते हैं वह बात जैन संस्कृति में ढूंढ़नेको भी नहीं मिल सकती । इसकी आध्यात्मिक भूमिका स्वतन्त्र होते हुए भी अपनी संस्कृति की रक्षाके लिये इसने दूसरी संस्कृतियोंके ऊपर कभी भी आक्रमण नहीं किया । परन्तु यह बात दूसरोंके सम्बन्धमें नहीं कही जा सकती है इसके लिये साक्षी इतिहास है । रह गई आपत्ति ग्रस्त भारतकी बात सो हमारे देशके ऊपर आपत्ति कैसे आई उसमें हाथ किसका था इस बातका यदि सन्त सा० विचार करें तो उन्हें जैनधर्मकी अहिंसाके ऊपर आक्षेप करनेके लिये स्थान ही नहीं रहता है । आज ऐसे भी ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि जैनेतर संस्कृतिमें उत्पन्न हुए और उसीके अभिमानी मनुष्य जिस समय हिन्दुत्वकी विरोधी संस्कृतिका सब तरहसे सहायता कर रहे थे उसी समय जैन संस्कृतिमें उत्पन्न हुए और उसीके अभिमानी नरश्रेष्ठ केवल जैन संस्कृति के लिये नहीं किन्तु अपनी पड़ोसिनी दूसरी संस्कृतियोंकी रक्षाके लिये भी सहायक हुए। सहायक हुए इतना ही नहीं उनके सत्प्रयत्न और सर्वस्व अर्पण करनेसे उनकी रक्षा हुई । रह गई बौद्धोंके अहिंसाके ऊपर आक्षेप करने की बात सो इसका बौद्धधर्मनुयायी जितना उचित उत्तर दे सकते हैं उतना यद्यपि में नहीं दे सकता है। फिर भी अपने देशकी पूर्व परंपराका अध्ययन करनेसे इतना हम भी लिख सकते हैं कि हमारे देश में एक ऐसा वर्ग था जो बौद्ध संस्कृति नाश करनेके लिये जी जानसे प्रयत्न करता रहा । जिससे देशकी संपूर्ण शक्ति गृहकलहमें वट जानेके कारण ही भारतको परतन्त्रताके दिन देखने पड़े । रह गई उनकी अहिंसासे कायरताकी बात सो इसके लिये हम सन्त सा०को जापानकी याद दिला देना ही पर्याप्त समझते हैं। संभव है सन्व सा० जापानके बढ़ते हुए वैभव और कीर्तिका स्मरण करके व्यर्थ ही अहिंसाके ऊपर संस्कृति भेदसे उत्पन्न हुई अपनी मानसिक कलुपताको नहीं प्रकट करेंगे</p>
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