ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 3
From जैनकोष
-पदम पुराण तृतीय पर्व-
अथानंतर दूसरे दिन शरीर संबंधी समस्त क्रियाओं को पूर्ण कर सर्व आभरणों से सुशोभित महाराज श्रेणिक सभामंडप में आकर उत्तम सिंहासन पर विराजमान हुए ।।1।। उसी समय द्वारपालों ने जिन्हें प्रवेश कराया था ऐसे आये हुए सामंतों ने उन्हें नमस्कार किया। नमस्कार करते समय उन सामंतों के श्रेष्ठ वस्त्र, बाजूबंदों के अग्रभाग के संघर्षण से फट रहे थे, जिन पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे ऐसी मुकुट में लगी हुई श्रेष्ठ मालाएँ नीचे पड़ रही थीं, वलय की किरणों के समूह से आच्छादित पागितल से वे पृथ्वीतल का स्पर्श कर रहे थे, हिलती हुई माला के मध्य मणि संबंधी प्रभा के समूह से व्याप्त थे और महाराज के उत्तमोत्तम गुणों के समूह से उनके मन महाराज की ओर आसक्त हो रहे थे ।।2-4।। तदनंतर श्रेष्ठ वाहनों पर आरूढ़ हुए उन्हीं सब सामंतों से अनुगत महाराज श्रेणिक पीठ पर पड़ा झूल से सुशोभित उत्तम हथिनी पर सवार होकर श्री वर्धमान जिनेंद्र के समवसरण की ओर चले ।।5।। जिन्होंने अपने हाथ में तलवार ले रखी थी, कमर में छुरी बाँध रखी थी, जो बायें हाथ में सुवर्ण निर्मित कड़ा पहने हुए थे, बार-बार आकाश में दूर तक छलांग भर रहे थे और इसीलिए जो वायु के पीछे चलने वाले वात प्रेमी मृगों के झुंड के समान जान पड़ते थे तथा जो चलो-चलो, मार्ग छोड़ो, हटो आगे क्यों खड़े हो गये इस प्रकार के शब्दों का उच्चारण कर रहे थे ऐसे भृत्यों का समूह उनके आगे कोलाहल करता जाता था ।।6-8।। आगे-आगे वंदीजन सुभाषित पढ़ रहे थे सो महाराज उन्हें चित्त स्थिर कर श्रवण करते जाते थे। इस प्रकार नगर से निकलकर राजा श्रेणिक उस स्थान पर पहुँचे जहाँ गौतम गणधर विराजमान थे। गौतम स्वामी अनेक मुनियों से घिरे हुए थे, समस्त शास्त्ररूपी जल में स्नान करने से उनकी चेतना निर्मल हो गयी थी, शुद्ध ध्यान से सहित थे, तत्वों के व्याख्यान में तत्पर थे, सुखकर स्पर्श से सहित एवं लब्धियों के कारण प्राप्त हुए मयूराकार आसन पर विराजमान थे, कांति से चंद्रमा के समान थे, दीप्ति से सूर्य के सदृश थे, उनके हाथ और पैर अशोक के पल्लवों के समान लाल-लाल थे, उनके नेत्र कमलों के समान थे, अपने शांत शरीर से संसार को शांत कर रहे थे और मुनियों के अधिपति थे ।।9-13।। राजा श्रेणिक दूर से ही हस्तिनी से नीचे उतरकर पैदल चलने लगे। उनके नेत्र हर्ष से फूल गये और उनका शरीर विनय से झुक गया। वहाँ जाकर उन्होंने तीन प्रदक्षिणाएं दीं, हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर गणधर स्वामी का आशीर्वाद प्राप्त कर वे पृथ्वी पर ही बैठ गये ।।14-15।।
तदनंतर- दाँतों की प्रभा से पृथ्वीतल को सफेद करते हुए राजा श्रेणिक ने कुशल प्रश्न पूछने के बाद गणधर महाराज से यह पूछा ।।16।। उन्होंने कहा कि हे भगवन्! मैं रामचंद्रजी का वास्तविक चरित्र सुनना चाहता हूँ क्योंकि कुधर्म के अनुगामी लोगों ने उनके विषय में अन्य प्रकार की ही प्रसिद्धि उत्पन्न कर दी है ।।17।। लंका का स्वामी रावण, राक्षस वंशी विद्याधर मनुष्य होकर भी तिर्यंचगति के क्षुद्र वानरों के द्वारा किस प्रकार पराजित हुआ ।।18।। वह, अत्यंत दुर्गंधित मनुष्य शरीर का भक्षण कैसे करता होगा? रामचंद्रजी ने कपट से बालि को कैसे मारा होगा? देवों के नगर में जाकर तथा उसके उत्तम उपवन को नष्ट कर रावण इंद्र को बंदीगृह में किस प्रकार लाया होगा? उसका छोटा भाई कुंभकर्ण तो समस्त शास्त्रों के अर्थ जानने में कुशल था तथा नीरोग शरीर का धारक था फिर छह माह तक किस प्रकार सोता रहता होगा? जो देवो के द्वारा भी अशक्य था ऐसा बहुत ऊँचा पुल भारी-भारी पर्वतों के द्वारा वानरोंने कैसे बनाया होगा? ।।19-22।। हे भगवन्! मेरे लिए यह सब कहने के अर्थ प्रसन्न हूजिए और संशय रूपी भारी कीचड़ से अनेक भव्य जीवों का उद्धार कीजिए ।।23।।
इस प्रकार राजा श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर, अपने दाँतों की किरणों से समस्त मलिन संसार को धोकर फलों से सजाते हुए और मेघ गर्जना के समान गंभीर वाणी के द्वारा लता गृहों के मध्य में स्थित मयूरों को नृत्य कराते हुए कहने लगे ।।24-25।। कि हे आयुष्मन्! हे देवों के प्रिय! भूपाल! तू यत्नपूर्वक मेरे वचन सुन। मेरे वचन जिनेंद्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट हैं तथा पदार्थ का सत्यस्वरूप प्रकट करने में तत्पर हैं ।।26।। रावण राक्षस नहीं था और न मनुष्यों को ही खाता था। मिथ्यावादी लोग जो कहते हैं सो सब मिथ्या ही कहते हैं ।।27।। जिस प्रकार नींव के बिना भवन नहीं बनाया जा सकता है उसी प्रकार कथा के प्रस्ताव के बिना कोई वचन नहीं कहे जा सकते हैं क्योंकि इस तरह के वचन निर्मूल होते हैं और निर्मूल होने के कारण उनमें प्रामाणिकता नहीं आती है ।।28।। इसलिए सबसे पहले तुम क्षेत्र और काल का वर्णन सुनो। तदनंतर पापों को नष्ट करनेवाला महापुरुषों का चरित्र सुनो ।।29।।
अनंत अलोकाकाश के मध्य में तीन वातवलयों से वेष्टित तीन लोक स्थित हैं। अनंत अलोकाकाश के बीच में यह उन्नताकार लोक ऐसा जान पड़ता है मानो किसी उदूखल के बीच बड़ा भारी ताल का वृक्ष खड़ा किया गया हो ।।30।। इस लोक का मध्यभाग जो कि तिर्यग्लोक के नाम से प्रसिद्ध है चूड़ी के आकार वाले असंख्यात द्वीप और समुद्रों से वेष्टित है ।।31।। कुंभकार के चक्र के समान यह जंबूद्वीप है। यह जंबूद्वीप सब द्वीपों में उत्तम है, लवणसमुद्र के मध्य में स्थित है और सब ओर से एक लाख योजन विस्तार वाला है ।।32।। इस जंबूद्वीप के मध्य में सुमेरु पर्वत है। यह पर्वत कभी नष्ट नहीं होता, इसका मूल भाग वज्र अर्थात् हीरों का बना है और ऊपर का भाग सुवर्ण तथा मणियों एवं रत्नों से निर्मित है ।।33।। इसकी ऊँची चोटी संध्या के कारण लाल-लाल दिखने वाले मेघों के समूह के समान जान पड़ती है। सौधर्म स्वर्ग की भूमि और इस पर्वत के शिखर में केवल बाल के अग्रभाग बराबर ही अंतर रह जाता है ।।34।। यह निन्यानवे हजार योजन ऊपर उठा है और एक हजार योजन नीचे पृथिवी में प्रविष्ट है। पृथिवी के भीतर यह पर्वत वज्रमय है ।।35।। यह पर्वत पृथिवी पर दस हजार योजन और शिखर पर एक हजार योजन चौड़ा है और ऐसा जान पड़ता है मानो मध्यम लोक के आकाश को नापने के लिए एक दंड ही खड़ा किया गया है ।।36।। यह जंबूद्वीप भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत-इन सात क्षेत्रों से सहित है । तथा इसी के ???? क्षेत्र में देवकुरु और उत्तरकुरु नाम से प्रसिद्ध दो कुरु प्रदेश भी हैं । इन सात क्षेत्रों का विभाग करने वाले छह कुलाचल भी इसी जंबूद्वीप में सुशोभित हैं ।।37।। जंबू और शाल्मली ये दो महावृक्ष हैं। जंबूद्वीप में चौंतीस विजयार्ध पर्वत हैं और प्रत्येक विजयार्ध पर्वत पर एक सौ दस एक सौ दस विद्याधरों की नगरियाँ हैं ।।38।।
जंबूद्वीप में बत्तीस विदेह, एक भरत और एक ऐरावत ऐसे चौंतीस क्षेत्र हैं और एक-एक क्षेत्र में एक-एक राजधानी है इस तरह चौंतीस राजधानियाँ हैं, चौदह महानदियाँ हैं, जंबू वृक्ष के ऊपर अकृत्रिम जिनालय है ।।31।। हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यवत, देवकुरु और उत्तरकुरु इस प्रकार छह भोगभूमियां हैं। मेरु, गजदंत, कुलाचल, वक्षारगिरि, विजयार्ध, जंबू वृक्ष और शाल्मली वृक्ष, इन सात स्थानों पर अकृत्रिम तथा सर्वत्र कृत्रिम इस प्रकार आठ जिनमंदिर हैं। बत्तीस विदेह क्षेत्र के तथा भरत और ऐरावत के एक-एक इस प्रकार कुल चौंतीस विजयार्ध पर्वत हैं। उनमें प्रत्येक में दो-दो गुफाएँ हैं इस तरह अड़सठ गुफाएँ हैं और इतने ही भवनों की संख्या है ।।40।। बत्तीस विदेह क्षेत्र तथा एक भरत और एक ऐरावत इन चौंतीस स्थानों में एक साथ तीर्थंकर भगवान् हो सकते हैं इसलिए समवसरण में भगवान के चौंतीस सिंहासन हैं। विदेह के सिवाय भरत और ऐरावत क्षेत्र में रजत मय दो विजयार्ध पर्वत कहे गये हैं ।।41।। वक्षारगिरियों से युक्त समस्त पर्वतों पर जिनेंद्र भगवान के मंदिर हैं जो कि रत्नों की राशि से सुशोभित हो रहे हैं ।।42।। जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र की दक्षिण दिशा में जिन प्रतिमाओं से सुशोभित एक बड़ा भारी राक्षस नाम का द्वीप है ।।43।। महा विदेह क्षेत्र की पश्चिम दिशा में जिनबिंबों से देदीप्यमान किन्नर द्वीप नाम का विशाल शुभद्वीप है ।।44।। ऐरावत क्षेत्र की उत्तरदिशा में गंधर्व नाम का द्वीप है जो कि उत्तमोत्तम चैत्यालय विभूषित है ।।45।। मेरु पर्वत से पूर्व की ओर जो विदेह क्षेत्र है उसकी दिशा में धरण द्वीप सुशोभित हो रहा है। यह धरण द्वीप भी जिन मंदिरों से व्याप्त है ।।46।। भरत और ऐरावत ये दोनों क्षेत्र वृद्धि और हानि से सहित हैं। अन्य क्षेत्रों की भूमियां व्यवस्थित हैं अर्थात् उनमें काल चक्का परिवर्तन नहीं होता ।।47।। जंबू वृक्ष के ऊपर जो भवन है उसमें अनावृत नाम का देव रहता है। यह देव किल्पिष जाति के अनेक शत देवों से आवृत रहता है ।।48।। इस भरत क्षेत्र में जब पहले सुषमा नाम का पहला काल था तब वह उत्तरकुरु के समान कल्पवृक्षों से व्याप्त था अर्थात् यहां उत्तम भोगभूमि की रचना थी ।।41।। उस समय यहां के लोग मध्याह्न के सूर्य के समान देदीप्यमान, दो कोश ऊँचे और सर्व लक्षणों से पूर्ण-सुशोभित होते थे ।।50।। यहाँ स्त्रीपुरुष का जोड़ा साथ-साथ उत्पन्न होता था तीन पल्य की उनकी आयु होती थी और प्रेम बंधनबद्ध रहते हुए साथ-ही-साथ उनकी मृत्यु होती थी ।।51।। यहाँ की भूमि सुवर्ण तथा नाना प्रकार के रत्नों से खचित थी और काल के प्रभाव से सबके लिए मनोवांछित फल प्रदान करने वाली थी ।।52।। सुगंधित, निर्मल तथा कोमल स्पर्श―वाली, चतुरंगुल प्रमाण घास से वहाँ की भूमि सदा सुशोभित रहती थी ।। 53 ।। वृक्ष सब ऋतुओं के फल और फूलों से सुशोभित रहते थे तथा गाय, भैंस, भेड़ आदि जानवर स्वतंत्रता पूर्वक सुख से निवास करते थे ।।54।। वहाँ के सिंह आदि जंतु कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए मनवांछित अन्न को खाते हुए सदा सौम्य- शांत रहते थे। कभी किसी जीव की हिंसा नहीं करते थे ।।55।। वहाँ की वापिकाएं पथ आदि कमलों से आच्छादित, सुवर्ण और मणियों से सुशोभित तथा मधु, क्षीर एवं पूत आदि से भरी हुई अत्यधिक शोभायमान रहती थीं ।।56।। वहाँ के पर्वत अत्यंत ऊंचे थे, पाँच प्रकार के वर्णों से उज्जवल थे, नाना प्रकार के रत्नों की कांति से व्याप्त थे तथा सर्व―प्राणियों को सुख उपजाने वाले थे ।।57।। वहाँ की नदियां मगरमच्छादि जंतुओं से रहित थीं, सुंदर थीं, उनका जल दूध, घी और मधु के समान था, उनका आस्वाद अत्यंत सुरस था और उनके किनारे रत्नों से देदीप्यमान थे ।।58।। वहाँ न तो अधिक शीत पड़ती थी, न अधिक गर्मी होती थी, न तीव्र वायु चलती थी। वह सब प्रकार के भयों से रहित थी और वहाँ निरंतर नये―नये उत्सव होते रहते थे ।।59।। वहाँ ज्योति रंग जाति के वृक्षों की कांति के समूह से सूर्य और चंद्रमा के मंडल छिपे रहते थे- दिखाई नहीं पड़ते थे तथा सर्व इंद्रियों को सुखा स्वाद के देने वाले कल्पवृक्ष सुशोभित रहते थे ।60।। वहाँ बड़े-बड़े बागबगीचे और विस्तृत भूभाग से सहित महल, शयन, आसन, मद्य, इष्ट और मधुर पेय, भोजन, वस्त्र, अनुलेपन, तुरही के मनोहर शब्द और दूर तक फैलने वाली सुंदर गंध तथा इनके सिवाय और भी अनेक प्रकार की सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त होती थी ।।61।। इस प्रकार वहाँ के दंपती, दस प्रकार के सुंदर कल्पवृक्षों के नीचे देवदंपती के समान रात-दिन क्रीड़ा करते रहते थे ।।62-63।।
इस तरह गणधर भगवान के कह चुकने पर राजा श्रेणिक ने उनसे भोगभूमि में उपजने का कारण पूछा ।।64।। उत्तर में गणधर भगवान् कहने लेंगे कि जो सरलचित्त के धारी मनुष्य मुनियों के लिए आहार आदि दान देते हैं वे ही इन भोग-भूमियों में उत्तम मनुष्य होते हैं ।।65।। तथा जो भोगों की तृष्णा से कुपात्र के लिए दान देते हैं वे भी हस्ती आदि की पर्याय प्राप्त कर दान का फल भोगते हैं ।।66।। जिस प्रकार हल की नोक से दूर तक जुते और अत्यंत कोमल क्षेत्र में बोया हुआ बीज अनंतगुणा धान्य प्रदान करता है अथवा जिस प्रकार ईखों में दिया हुआ पानी मधुरता को प्राप्त होता हैं और गायों के द्वारा पिया हुआ पानी दूध रूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार तप के भंडार और व्रतों से अलंकृत शरीर के धारक सर्व―परिग्रह रहित मुनि के लिए दिया हुआ दान महाफल को देनेवाला होता है ।।67-69।। जिस प्रकार ऊषर क्षेत्र में बोया हुआ बीज अल्प फल देता है अथवा नीम के वृक्षों में दिया हुआ पानी जिस प्रकार कडुआ हो जाता है और साँपों के द्वारा पिया हुआ पानी जिस प्रकार विष रूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार कुपात्रों में दिया हुआ दान कुफल को देनेवाला होता है ।।70-71।।
गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन्! जो जैसा दान देता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। दर्पण के सामने जो-जो वस्तु रखी जाती है वही-वही दिखाई देती है ।।72।। जिस प्रकार शुक्ल और कृष्ण के भेद से दो पक्ष एक के बाद एक प्रकट होते हैं उसी प्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये दो काल क्रम से प्रकट होते हैं ।।73।। अथानंतर तृतीय काल का अंत होने के कारण जब क्रम से कल्पवृक्षों का समूह नष्ट होने लगा तब चौदह कुलकर उत्पन्न हुए। उस समय की व्यवस्था कहता हूँ सो हे श्रेणिक! सुन ।।74।। सबसे पहले प्रतिश्रुति नाम के प्रथम कुलकर हुए। उनके वचन सुनकर प्रजा आनंद को प्राप्त हुई ।।75।। वे अपने तीन जन्म पहले की बात जानते थे, शुभचेष्टाओं के चलाने में तत्पर रहते थे और सब प्रकार की व्यवस्थाओं का निर्देश करने वाले थे ।।76।। उनके बाद अनेक करोड़ हजार वर्ष बीतने पर सन्मति नाम के द्वितीय कुलकर उत्पन्न हुए ।।77।। उनके बाद क्षेमंकर, फिर क्षेमंधर, तत्पश्चात् सीमंकर और उनके पीछे सीमंधर नाम के कुलंकर उत्पन्न हुए ।।78।। उनके बाद चक्षुष्मान् कुलंकर हुए। उनके समय प्रजा सूर्य चंद्रमा को देखकर भयभीत हो उनसे पूछने लगी कि हे स्वामिन्! आकाशरूपी समुद्र में ये दो पदार्थ क्या दिख रहे हैं? ।।79।। प्रजा का प्रश्न सुनकर चक्षुष्मान् को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। उस समय उन्होंने विदेह क्षेत्र में भी जिनेंद्रदेव के मुख से जो कुछ श्रवण किया था वह सब स्मरण में आ गया। उन्होंने कहा कि तृतीय काल का क्षय होना निकट है इसलिए ज्योति रंग जाति के कल्प वृक्षों की कांति मंद पड़ गयी है और चंद्रमा तथा सूर्य की कांति प्रकट हो रही है। ये चंद्रमा और सूर्य नाम से प्रसिद्ध दो ज्योतिषी देव आकाश में प्रकट दिख रहे हैं ।।80-81।। ज्योतिषी, भवनवासी, व्यंतर और कल्पवासी के भेद से देव चार प्रकार के होते हैं। संसार के प्राणी अपने-अपने कर्मों की योग्यता के अनुसार इनमें जन्म ग्रहण करते हैं ।।82।। इनमें जो शीत किरणों वाला है वह चंद्रमा है और जो उष्ण किरणों का धारक है वह सूर्य है। काल के स्वभाव से ये दोनों आकाशगामी देव दिखाई देने लगे हैं ।।83।। जब सूर्य अस्त हो जाता है तब चंद्रमा की कांति बढ़ जाती है। सूर्य और चंद्रमा के सिवाय आकाश में यह नक्षत्रों का समूह भी प्रकट हो रहा है ।।84।। यह सब काल का स्वभाव है ऐसा जानकर आप लोग भय को छोड़ें। चक्षुष्मान् कुलकर ने जब प्रजा से यह कहा तब वह भय छोड़कर पहले के समान सुख से रहने लगी ।।85।। जब चक्षुष्मान् कुलकर स्वर्गगामी हो गये तो उनके बाद यशस्वी नामक कुलकर उत्पन्न हुए। उनके बाद विपुल, उनके पीछे अभिचंद्र, उनके पश्चात् चंद्राभ, उनके अनंतर मरुदेव, उनके बाद प्रसेनजित् और उनके पीछे नाभि नामक कुलकर उत्पन्न हुए। इन कुलकरों में नाभिराज अंतिम कुलकर थे ।।86-87।। ये चौदह कुलकर प्रजा के पिता के समान कहे गये हैं, पुण्य कर्म के उदय से इनकी उत्पत्ति होती है और बुद्धि की अपेक्षा सब समान होते हैं ।।88।।
अथानंतर चौदहवें कुलकर नाभिराज के समय में सब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये। केवल इन्हीं के क्षेत्र के मध्य में स्थित एक कल्पवृक्ष रह गया जो प्रासाद अर्थात् भवन के रूप में स्थित था और अत्यंत ऊँचा था ।।81।। उनका वह प्रासाद मोतियों की मालाओं से व्याप्त था, सुवर्ण और रत्नों से उसकी दीवालें बनी थीं, वापी और बगीचा से सुशोभित था तथा पृथिवी पर एक अद्वितीय ही था ।।90।। नाभिराज के हृदय को हरने वाली मरुदेवी नाम की उत्तम रानी थी। जिस प्रकार चंद्रमा की भार्या रोहिणी प्रचलत्तारका अर्थात् चंचल तारा रूप होती है उसी प्रकार मरुदेवी भी प्रचलत्तारका थी अर्थात् उसकी आंखों की पुतली चंचल थी ।।91।। जिस प्रकार समुद्र की स्त्री गंगा महा भूभृत्कुलोद्गता है अर्थात् हिमगिरि नामक उच्च पर्वत के कुल में उत्पन्न हुई है उसी प्रकार मरुदेवी भी महा भूभृत्कुलोद्गता अर्थात् उत्कृष्ट राजवंश में उत्पन्न हुई थी और राजहंस की स्त्री जिस प्रकार मानसानुगमक्षमा अर्थात् मानस सरोवर की ओर गमन करने में समर्थ रहती है उसी प्रकार मरुदेवी भी मानसानुगमक्षमा अर्थात् नाभिराज के मन के अनुकूल प्रवृत्ति करने में समर्थ थी ।।92।। जिस प्रकार अरुंधती सदा अपने पति के पास रहती थी उसी प्रकार मरुदेवी भी निरंतर पति के पास रहती थी। वह गमन करने में हंसी के समान थी और मधुर वचन बोलने में कोयल के अनुरूप थी ।।93।। वह पति के साथ प्रेम करने में चकवी के समान थी इत्यादि जो कहा जाता है वह सब मरुदेवी के प्रति हीनोपमा दोष को प्राप्त होता है ।।94।। जिस प्रकार तीनों लोकों के द्वारा वंदनीय धर्म की भार्या श्रुतदेवता के नाम से प्रसिद्ध है उसी प्रकार नाभिराज की वह भार्या मरुदेवी नाम से प्रसिद्ध थी तथा समस्त लोकों के द्वारा पूजनीय थी ।।95।। उसमें रंच मात्र भी तस्मा अर्थात् क्रोध या अहंकार की गर्मी नहीं थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो चंद्रमा की कलाओं से ही उसका निर्माण हुआ हो। उसे प्रत्येक मनुष्य अपने हाथ में लेना चाहता था- स्वीकृत करना चाहता था इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो दर्पण की शोभा को जीतना चाहती हो ।।96।। वह दूसरे के मनोगत भाव को समझने वाली थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो आत्मा से ही उसके स्वरूप की रचना हुई हो। उसके कार्य तीनों लोकों में व्याप्त थे इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो मुक्त जीव के समान ही उसका स्वभाव था ।।97।। उसकी प्रवृत्ति पुण्यरूप थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनवाणी से ही उसकी रचना हुई हो। वह तृष्णा से भरे भृत्यों के लिए धन वृष्टि के समान थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो अमृत स्वरूप ही हो ।।98।। सखियों को संतोष उपजाने वाली थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो निर्वृति अर्थात् मुक्ति के समान ही हो। उसका शरीर महाश्वास, विलास से सहित था इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो मदिरा स्वरूप ही हो। वह सौंदर्य की परम काष्ठा को प्राप्त थी अर्थात् अत्यंत सुंदरी थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो रति की प्रतिमा ही हो ।।99।। उसके मस्तक को अलंकृत करने के लिए उसके नेत्र ही पर्याप्त थे, नील कमलों की मालाएँ तो केवल भार स्वरूप ही थीं ।।100।। भ्रमर के समान काले केश ही उसके ललाट के दोनों भागों के आभूषण थे तमाल पुष्प की कलिकाएँ तो केवल भार मात्र थीं ।।101।। प्राण वल्लभ की कथा-वार्ता सुनना ही उसके कानों का आभूषण था, रत्न तथा सुवर्ण के कुंडल आदि का धारण करना आडंबर मात्र था ।।102।। उसके दोनों कपोल ही निरंतर स्पष्ट प्रकाश के कारण थे, रत्नमय दीपकों की प्रभा केवल वैभव बतलाने के लिए ही थी ।।103।। उसकी मंद मुसकान ही उत्तम गंध से युक्त सुगंधित चूर्ण थी, कपूर की सफेद रज केवल कांति को नष्ट करने वाली थी ।।104।। उसकी वाणी ही मधुर वीणा थी, परिकर के द्वारा किया हुआ जो बाजा सुनने का कौतूहल था वह मात्र तारों के समूह को ताड़न करना था ।।105।। उसके अधरोष्ठ से प्रकट हुई कांति ही उसके शरीर का देदीप्यमान अंग राग था। कुंकुम आदि का लेप गुणरहित तथा सौंदर्य को कलंकित करनेवाला था ।।106।। उसकी कोमल भुजाएँ ही परिहास के समय पति पर प्रहार करने के लिए पर्याप्त थीं, मृणाल के टुकड़े निष्प्रयोजन थे ।।107।। यौवन की गरमी से उत्पन्न हुई पसीने की बूँदें ही उसके दोनों स्तनों का आभूषण थीं, उनपर हार का बोझ तो व्यर्थ ही डाला गया था ।।108।। शिलातल के समान विशाल उसकी नितंबस्थली ही आश्चर्य का कारण थी, महल के भीतर जो मणियों की वेदी बनायी गयी थी वह बिना कारण ही बनायी गयी थी ।।109।। कमल समझकर बैठे हुए भ्रमर ही उसके दोनों चरणों के आभूषण थे, उनमें जो इंद्रनील मणि के नूपुर पहनाये गये थे वे व्यर्थ थे ।।110।। नाभिराज के साथ, कल्पवृक्ष से उत्पन्न हुए भोगों को भोगने वाली मरुदेवी के पुण्य वैभव का वर्णन करना करोड़ों ग्रंथों के द्वारा भी अशक्य है ।।111।।
जब भगवान् ऋषभदेव के गर्भावतार का समय प्राप्त हुआ तब इंद्र की आज्ञा से संतुष्ट हुई दिक्कुमारी देवियाँ बड़े आदर से मरुदेवी की सेवा करने लगीं ।।112।। वृद्धि को प्राप्त होओ, आज्ञा देओ, चिरकाल तक जीवित रहो इत्यादि शब्दों को संभ्रम के साथ उच्चारण करने वाली लक्ष्मी, श्री, धृति और कीर्ति आदि देवियाँ उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगीं ।।113।। उस समय कितनी ही देवियाँ हृदयहारी गुणों के द्वारा उसकी स्तुति करती थीं और उत्कृष्ट विज्ञान से संपन्न कितनी ही देवियाँ वीणा बजाकर उसका गुणगान करती थीं ।।114।। कोई कानों के लिए अमृत के समान आनंद देनेवाला आश्चर्यकारक उत्तम गान गाती थीं और कोमल हाथों वाली कितनी ही देवियाँ उसके पैर पलोटती थीं ।।115।। कोई पान देती थी और कोई आसन देती थी और कोई तलवार हाथ में लेकर सदा रक्षा करने में तत्पर रहती थी ।।116।। कोई महल के भीतरी द्वार पर और कोई महल के बाहरी द्वार पर भाला, सुवर्ण की छड़ी, दंड और तलवार आदि हथियार लेकर पहरा देती थी ।।117।। कोई चमर ढोलती थीं, कोई वस्त्र लाकर देती थी और कोई आभूषण लाकर उपस्थित करती थी ।।118।। कोई शय्या बिछाने के कार्य में लगी थी, कोई बुहारने के कार्य में तत्पर थी, कोई पुष्प बिखेरने में लीन थी और कोई सुगंधित द्रव्य का लेप लगाने में व्यस्त थी ।।119।। कोई भोजन पान के कार्य में व्यग्र थी और कोई बुलाने आदि के कार्य में लीन थी। इस प्रकार समस्त देवियाँ उसका कार्य करती थीं ।।120।। इस प्रकार नाभिराज की प्रिय वल्लभा मरुदेवी को किसी बात की चिंता का क्लेश नहीं उठाना पड़ता था अर्थात् बिना चिंता किये ही समस्त कार्य संपन्न हो जाते थे। एक दिन वह चीनवस्त्र से आच्छादित तथा जिसके दोनों और तकिया रखे हुए थे, ऐसी अत्यंत कोमल शय्या पर सो रही थी और उसके बीच अपने पुण्यकर्म के उदय से सुख का अनुभव कर रही थी ।।121-122।। निर्मल शस्त्र लेकर देवियाँ उसकी सेवा कर रही थीं उसी समय उसने कल्याण करने वाले निम्नलिखित सोलह स्वप्न देखे। ।123।।
पहले स्वप्न में गंडस्थल से च्युत मदजल की गंध से जिस पर भ्रमर लग रहे थे ऐसा तथा चंद्रमा के समान सफेद और गंभीर गर्जना करने वाला हाथी देखा ।।124 ।। दूसरे स्वप्न में ऐसा बैल देखा जिसका कि स्कंध दुंदुभि नामक बाजे के समान था, जो शुभ कांदील को धारण कर रहा था और शरद्ऋतु के मेघ समूह के समान आकार को धारण करने वाला था ।।125।। तीसरे स्वप्न में चंद्रमा की किरणों के समान धवल सटाओ के समूह से सुशोभित एवं चंद्रमा की रेखा के समान दोनों दाँड़ों से युक्त सिंह को देखा ।।126।। चौथे स्वप्न में हाथी, सुवर्ण तथा चाँदी के कलशों से जिसका अभिषेक कर रहे थे तथा जो फूले हुए कमल पर निश्चय बैठी हुई थी ऐसी लक्ष्मी देखी ।।127।। पाँचवें स्वप्न में पुन्नाग, मालती, कुंद तथा चंपा आदि के फूलों से निर्मित और अपनी सुगंधि से भ्रमरों को आकृष्ट करने वाली दो बहुत बड़ी मालाएँ देखी ।।128।। छठवें स्वप्न में उदयाचल के मस्तक पर स्थित, अंधकार के समूह को नष्ट करने वाला एवं मेघ आदि के उपद्रवों से रहित, निर्भय दर्शन को देने वाला सूर्य देखा ।।129।। सातवें स्वप्न में ऐसा चंद्रमा देखा कि जो कुमुदों के समूह का बंधु था― उन्हें विकसित करने वाला था, रात्रिरूपी स्त्री का मानो आभूषण था, किरणों के द्वारा समस्त दिशाओं को सफेद करने वाला था और ताराओं का पति था ।।130।। आठवें स्वप्न में जो परस्पर के प्रेम से संबद्ध थे, निर्मल जल में तैर रहे थे, बिजली के दंड के समान जिनका आकार था ऐसे मीनों का शुभ जोड़ा देखा ।।131।।
नौवे स्वप्न में जिसकी ग्रीवा हार से सुशोभित थी, जो फूलों की मालाओं से सुसज्जित था और जो पंचवर्ण के मणियों से भरा हुआ था, ऐसा उज्ज्वल कलश देखा ।।132।। दसवें स्वप्न में कमलों और नील कमलों से आच्छादित, निर्मल जल से युक्त, नाना पक्षियों से व्याप्त तथा सुंदर सीढ़ियों से सुशोभित विशाल सरोवर देखा ।।133।। ग्यारहवें स्वप्न में चलते हुए मीन और बड़े-बड़े नक्रों से जिनमें ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं, जो मेघों से युक्त था तथा आकाश के समान जान पड़ता था ऐसा सागर देखा ।।134।। बारहवें स्वप्न में बड़े-बड़े सिंहों से युक्त, अनेक प्रकार के रत्नों से उज्ज्वल, सुवर्ण निर्मित, बहुत ऊँचा सुंदर सिंहासन देखा ।।135।। तेरहवें स्वप्न में ऐसा विमान देखा कि जिसका आकार सुमेरु पर्वत के शिखर के समान था, जिसका विस्तार बहुत था, जो रत्नों से सुशोभित था तथा गोले दर्पण और चमर आदि से विभूषित था ।।136।। चौदहवें स्वप्न में ऐसा भवन देखा कि जिसका आकार कल्पवृक्ष निर्मित प्रासाद के समान था, जिसके अनेक खंड थे, मोतियों की मालाओं से जिसकी शोभा बढ़ रही थी और जो रत्नों की किरणों के समूह से आवृत था ।।137।। पंद्रहवें स्वप्न में, परस्पर की किरणों के प्रकाश से इंद्रधनुष को उत्पन्न करने वाली, अत्यंत ऊँची पाँच प्रकार के रत्नों की राशि देखी ।।138।। और सोलहवें स्वप्न में ज्वालाओं से व्याप्त, धूम से रहित, दक्षिण दिशा की ओर आवर्त ग्रहण करने वाली एवं ईंधन में रहित अग्निदेखी ।।139।।
स्वप्न देखने के बाद ही सुंदरांगी मरुदेवी वंदीजनों की मंगलमय जय-जय ध्वनि से जाग उठी ।।140।। उस समय वंदीजन कह रहे थे कि हे देवि! यह चंद्रमा तुम्हारे मुख की कांति से उत्पन्न हुई लज्जा के कारण ही इस समय छाया अर्थात् कांति से रहित हो गया है ।।141।। उदयाचल के शिखर पर यह सूर्य ऐसा जान पड़ता है मानो मंगल के लिए सिंदूर से अनुरंजित कलश ही हो ।।142।। इस समय तुम्हारी मुस्कान से ही अंधकार नष्ट हो जायेगा इसलिए दीपक मानो अपने आपकी व्यर्थता का अनुभव करते हुए ही निष्प्रभ हो गए हैं ।।143।। यह पक्षियों का समूह अपने घोसलों में सुख से ठहरकर जो मनोहर कोलाहल कर रहा है, सो ऐसा जान पड़ता है मानो तुम्हारा मंगल ही कर रहा है ।।144।। ये घर के वृक्ष प्रात:काल की शीतल और मंद वायु से संगत होकर ऐसे जान पड़ते हैं मानो अवशिष्ट निद्रा के कारण ही झूम रहे हैं ।।145।। घर की बावड़ी के समीप जो यह चकवी खड़ी है वह सूर्य का बिंब देखकर हर्षित होती हुई मधुर शब्दों से अपने प्राणवल्लभ को बुला रही है ।।146।। ये हंस तुम्हारी सुंदर चाल को देखने के लिए उत्कंठित हो रहे हैं इसलिए मानो इस समय निद्रा दूर करने के लिए मोहर शब्द कर रहे हैं ।।147।। जिसकी तुलना उकेरे जाने वाले काँसे से उत्पन्न शब्द के साथ ठीक बैठती है ऐसे यह सारस पक्षियों का क्रेंकार शब्द अत्यधिक सुशोभित हो रहा है ।।148।। हे निर्मल चेष्टा की धारक देवि! अब स्पष्ट ही प्रात:काल हो गया है इसलिए इस समय निद्रा को छोड़ो। इस तरह वंदीजन जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसी मरुदेवी ने, जिस पर चद्दर की सिकुड़न से मानो लहरें उठ रही थीं तथा जो फूलों से व्याप्त होने के कारण मेघ और नक्षत्रों से युक्त आकाश के समान जान पड़ती थी, ऐसी शय्या छोड़ दी ।।149-150।। निवासगृह से निकलकर जिसने समस्त कार्य संपन्न किये थे ऐसी मरुदेवी नाभिराज के पास इस तरह पहुँची जिस तरह कि दिन की लक्ष्मी सूर्य के पास पहुँचती है ।।151।। वहाँ जाकर वह नीचे आसन पर बैठी और उत्तम सिंहासन पर आरूढ़ हृदयवल्लभ के लिए हाथ जोड़कर क्रम से स्वप्न निवेदित करने लगी ।।152।। इस प्रकार रानी के स्वप्न सुनकर हर्ष से विवश हुए नाभिराज ने कहा कि हे देवि! तुम्हारे गर्भ में त्रिलोकीनाथ ने अवतार ग्रहण किया है ।।153।। नाभिराज के इतना कहते ही कमललोचना मरुदेवी परम हर्ष को प्राप्त हुई और चंद्रमा की उत्कृष्ट मूर्ति के समान कांति के समूह को धारण करने लगी ।।154।।
जिनेंद्र भगवान् के गर्भस्थ होने में जब छह माह बाकी थे तभी से इंद्र की आज्ञानुसार कुबेर से बड़े आदर के साथ रत्नवृष्टि करना प्रारंभ कर दिया था ।।155।। चूँकि भगवान् के गर्भस्थित रहते हुए यह पृथिवी सुवर्णमयी हो गयी थी इसलिए इंद्र ने ‘हिरण्यगर्भ’ इस नाम से उनकी स्तुति की थी ।।156।। भगवान्, गर्भ में भी मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से युक्त थे तथा हमारे हलन-चलन से माता को कष्ट न हो इस अभिप्राय से वे गर्भ में चल-विचल नहीं होते थे ।।157।। जिस प्रकार दर्पण में अग्निकी छाया पड़ने से कोई विकार नहीं होता है उसी प्रकार भगवान् के गर्भ में स्थित रहते हुए भी माता मरुदेवी के शरीर में कुछ भी विकार नहीं हुआ था ।।158।। जब समय पूर्ण हो चुका तब भगवान् मल का स्पर्श किये बिना ही गर्भ से इस प्रकार बाहर निकले जिस प्रकार कि किसी स्फटिकमणि निर्मित घर से बाहर निकले हों ।।159।।
तदनंतर― नाभिराज ने पुत्रजन्म का यथोक्त महोत्सव किया, जिससे समस्त लोग हर्षित हो गये।।160।। तीन लोक क्षोभ को प्राप्त हो गये, इंद्र का आसन कंपित हो गया और समस्त सूर तथा असूर ‘क्या है?’ यह शब्द करने लगे ।।161।। उसी समय भवनवासी देवों के भवनों में बिना बजाये ही शंख बजने लगे, व्यंतरों के भवनों में अपने आप ही भेरियो के शब्द होने लगे, ज्योतिषी देवों के घर में अकस्मात् सिंहों की गर्जना होने लगी और कल्पवासी देवों के घरों में अपने-अपने घंटा शब्द करने लगे ।।162-163।। इस प्रकार के शुभ उत्पातों से तथा मुकुटों के नम्रीभूत होने से इंद्रों ने अवधिज्ञान का उपयोग किया और उसके द्वारा उन्हें तीर्थंकर के जन्म का समाचार विदित हो गया ।।164।। तदनंतर जो बहुत भारी उत्साह से भरे हुए थे तथा जिनके शरीर आभूषणों से जगमगा रहे थे ऐसे इंद्र ने गजराज― ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर नाभिराज के घर की ओर प्रस्थान किया ।।165।। उस समय काम से युक्त कितने ही देव नृत्य कर रहे थे, कितने ही तालियाँ बजा रहे थे, कितने ही अपनी सेना को उन्नत बना रहे थे, कितने ही समस्त लोक में फैलने वाला सिंहनाद कर रहे थे, कितने ही विक्रिया से अनेक वेष बना रहे थे, और कितने ही उत्कृष्ट गाना गा रहे थे ।।166-167।। उस समय बहुत भारी शब्दों से भरा हुआ यह संसार ऊपर जाने वाले और नीचे आने वाले देवों से ऐसा जान पड़ता था मानो स्वकीय स्थान से भ्रष्ट ही हो गया हो ।।168।।
तदनंतर कुबेर ने अयोध्या नगरी की रचना की। वह अयोध्या नगरी विजयार्ध पर्वत के समान आकार वाले विशाल कोट से घिरी हुई थी ।।169।। पाताल तक गहरी परिखा उसे चारों ओर से घेरे हुए थी और ऊँचे-ऊँचे गोपुरों के शिखरों के अग्रभाग से वहाँ का आकाश दूर तक विदीर्ण हो रहा था ।।170।। महाविभूति से युक्त इंद्र क्षणभर में नाभिराज के उस घर जा पहुँचे जो कि नाना रत्नों की किरणों के प्रकाशरूपी वस्त्र से आवृत था ।।171।। इंद्र ने पहले देवों के साथ-साथ नगर की तीन प्रदक्षिणाएँ दी। फिर नाभिराज के घर में प्रवेश किया और तदनंतर इंद्राणी के द्वारा प्रसूतिका-गृह से जिन-बालक को बुलवाया ।।172।। इंद्राणी ने प्रसूतिका-गृह में जाकर पहले जिन-माता को नमस्कार किया। फिर माता के पास मायामयी बालक रखकर जिन-बालक को उठा लिया और बाहर लाकर इंद्र के हाथों में सौंप दिया ।।173।। यद्यपि इंद्र हजार नेत्रों का धारक था तथापि तीनों लोकों में अतिशय पूर्ण भगवान् का रूप देखकर वह तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ था ।।174।।
तदनंतर― सौधर्मेंद्र भगवान् को गोद में बैठाकर ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हुआ और श्रेष्ठ भक्ति से सहित अन्य देवों ने चमर तथा छत्र आदि स्वयं ही ग्रहण किये ।।175।। इस प्रकार इंद्र समस्त देवों के साथ चलकर वैडूर्य आदि महारत्नों की कांति के समूह से उज्ज्वल सुमेरु पर्वत के शिखर पर पहुँचा ।।176।। वहाँ पांडुकंबल नाम की शिला पर जो अकृत्रिम सिंहासन स्थित है उस पर इंद्र ने जिन-बालक को विराजमान कर दिया और स्वयं उनके पीछे खड़ा हो गया ।।177।। उसी समय देवों ने क्षुभित समुद्र के समान शब्द करने वाली भेरियाँ बजायी, मृदंग और शंख के जोरदार शब्द किये ।।178।। यक्ष, किन्नर, गंधर्व, तुंबुरु, नारद और विश्वावसु उत्कृष्ट मूर्च्छनाएँ करते हुए अपनी-अपनी पत्नियों के साथ मन और कानों को हरण करने वाले सुंदर गीत गाने लगे। लक्ष्मी भी बड़े आदर के साथ वीणा बजाने लगी ।।179-180।। हाव-भावों से भरी एवं आभूषणों से सुशोभित अप्सराएँ यथायोग्य अंगहार करती हुई उत्कृष्ट नृत्य करने लगी ।।181।। इस प्रकार जब वहाँ उत्तमोत्तम देवों के द्वारा गायन-वादन और नृत्य हो रहा था तब सौधर्मेंद्र ने अभिषेक करने के लिए शुभ कलश हाथ में लिया ।।182।। तदनंतर जो क्षीरसागर के जल से भरे थे, जिनकी अवगाहना बहुत भारी थी, जो सुवर्ण निर्मित थे, जिनके मुख कमलों से आच्छादित थे तथा लाल-लाल पल्लव जिनकी शोभा बढ़ा रहे थे, ऐसे एक हजार आठ कलशों के द्वारा इंद्र ने विक्रिया के प्रभाव से अपने अनेक रूप बनाकर जिन-बालक का अभिषेक किया ।।183-184।। यम, वैश्रवण, सोम, वरुण आदि अन्य देवों ने और साथ ही शेष बचे समस्त इंद्रों ने भक्तिपूर्वक जिन-बालक का अभिषेक किया ।।185।। इंद्राणी आदि देवियों ने पल्लवों के समान कोमल हाथों के द्वारा समीचीन गंध से युक्त अनुलेपन से भगवान् को उद्वर्तन किया ।।186।। जिस प्रकार मेघों के द्वारा किसी पर्वत का अभिषेक होता है उसी प्रकार विशाल कलशों के द्वारा भगवान् का अभिषेक कर देव उन्हें आभूषण पहनाने के लिए तत्पर हुए ।।187।। इंद्र ने तत्काल ही वज्र की सूची से विभिन्न किये हुए उनके कानों में चंद्रमा और सूर्य के समान कुंडल पहनाये ।।188।। चोटी के स्थान पर ऐसा निर्मल पद्मरागमणि पहनाया कि जिसकी किरणों से भगवान् सिर जटाओं से युक्त के समान जान पड़ने लगा ।।189।। भाल पर चंदन के द्वारा अर्धचंद्राकार ललाटिका बनायी। भुजाओं के मूलभाग उत्तम सुवर्णनिर्मित केयूरों से अलंकृत किये ।।190।। श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित वक्ष:स्थल को नक्षत्रों के समान स्थूल मुक्ताफलों से निर्मित एवं किरणों से प्रकाशमान हार से अलंकृत किया ।।191।। हरितमणि और पद्मरागमणियों की बड़ी मोटी किरणों से जिसमें मानो पल्लव ही निकल रहे थे ऐसी बड़ी माला से उन्हें अलंकृत किया था ।।192।। लक्षणरूपी आभरणों से श्रेष्ठ उनकी दोनों भरी कलाइयाँ रत्नखचित सुंदर कड़ों से बहुत भारी शोभा को धारण कर रही थी ।।193।। रेशमी वस्त्र के ऊपर पहनायी हुई करधनी से सुशोभित उनका नितंबस्थल ऐसा जान पड़ता था मानो संध्या की लाल-लाल रेखा से सुशोभित किसी पर्वत का तट ही हो ।।194।। उनकी समस्त अंगुलियों में नाना रत्नों से खचित सुवर्णमय अँगूठियाँ पहनायी गयी थी ।।195।। देवों ने भगवान् के लिए जो सब प्रकार के आभूषण पहनाये थे वे भक्तिवश ही पहनाये थे, वैसे भगवान् स्वयं तीन लोक के आभरण थे अन्य पदार्थ उनकी क्या शोभा बढ़ाते? ।।196।।उनके शरीर पर चंदन का लेप लगाकर जो रोचन के पीले-पीले बिंदु रखे गये थे, वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्फटिक की भूमि पर सुवर्ण कमल ही रखे गये हों ।।197।। जिस पर कसीदा से अनेक फूल बनाये गये थे ऐसा उत्तरीय वस्त्र उनके शरीर पर पहनाया गया था और वह ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओं से सुशोभित निर्मल आकाश ही हो ।।198।। पारिजात और संतान नामक कल्पवृक्षों के फूलों से जिसकी रचना हुई थी तथा जिस पर भ्रमरों के समूह लग रहे थे ऐसा बड़ा सेहरा उनके सिर पर बाँधा गया था ।।199।। चूँकि सुंदर चेष्टाओं को धारण करने वाले भगवान् तीन लोक के तिलक थे इसलिए उनकी दोनों भौंहों का मध्यभाग सुगंधित तिलक से अलंकृत किया गया था ।।200।। इस प्रकार तीन लोक के आभरण स्वरूप भगवान् जब नाना अलंकारों से अलंकृत हो गये तब इंद्र आदि देव उनकी इस प्र कार स्तुति करने लगे ।।201।।
हे भगवन्! धर्मरहित तथा अज्ञान रूपी अंधकार से आच्छादित इस संसार में भ्रमण करने वाले लोगों के लिए आप सूर्य के समान उदित हुए हो ।।202।। हे जिनराज! आप चंद्रमा के समान हो सो आपके उपदेशरूपी निर्मल किरणों के द्वारा अब भव्य जीवरूपी कुमुदिनी अवश्य ही विकास को प्राप्त होगी ।।203।। हे नाथ! आप इस संसाररूपी घर में भव्य जीवों को जीव-अजीव आदि तत्वों का ठीक-ठीक दर्शन हो इस उद्देश्य से स्वयं ही जलते हुए वह महान् दीपक हो कि जिसकी उत्पत्ति केवलज्ञानरूपी अग्नि से होती है ।।204।। पापरूपी शत्रुओं को नष्ट करने के लिए आप तीक्ष्ण बाण हैं तथा आप ही ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा संसाररूपी अटवी का दाह करेंगे ।।201।। हे प्रभो! आप दुष्ट इंद्रियरूप नागों का दमन करने के लिए गरुड के समान उदित हुए हो तथा आप ही संदेह रूपी मेघों को उड़ाने के लिए प्रचंड वायु के समान हो ।।206।। हे नाथ! आप अमृत प्रदान करने के लिए महामेघ हो इसलिए धर्मरूपी जल की बूँदों की प्राप्ति के लिए तृषातुर भव्य जीवरूपी चातक ऊपर की ओर मुख कर आपको देख रहे हैं ।।207।। हे स्वामिन्! आपकी अत्यंत निर्मल कीर्ति तीनों लोकों के द्वारा गायी जाती है इसलिए आपको नमस्कार हो। हे नाथ! आप गुणरूपी फूलों से सुशोभित तथा मनोवांछित फल प्रदान करने वाले वृक्ष स्वरूप हैं अत: आपको नमस्कार हो ।।208।। आप कर्म रूपी काष्ठ को विदारण करने के लिए तीव्र धार वाली कुठार के समान हैं अत: आपको नमस्कार हो। इसी प्रकार आप मोहरूपी उन्नत पर्वत को भेदने के लिए वज्रस्वरूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो ।।209।। आप दु:खरूपी अग्नि को बुझाने के लिए जल स्वरूप रज के संगम से रहित आकाश स्वरूप हो अत: आपको नमस्कार हो ।।210।।
इस तरह देवों ने विधि पूर्वक भगवान् की स्तुति की, बारबार प्रणाम किया और तदनंतर उन्हें ऐरावत हाथी पर सवार कर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया ।।211।। अयोध्या आकर इंद्र ने जिन-बालक को इंद्राणी के हाथ से माता की गोद में विराजमान करा दिया, आनंद नाम का उत्कृष्ट नाटक किया और तदनंतर वह अन्य देवों के साथ अपने स्थान पर चला गया ।।212।। अथानंतर दिव्य वस्त्रों और अलंकारों से अलंकृत तथा उत्कृष्ट सुगंधि के कारण नासिका को हरण करने वाले विलेपन से लिप्त एवं अपनी कांति के संपर्क से दिशाओं के अग्रभाग को पीला करने वाले अंकस्थ पुत्र को देखकर उस समय माता मरुदेवी बहुत ही संतुष्ट हो रही थी ।।213-214।। जिसका हृदय कौतुक से भर रहा था ऐसी मरुदेवी कोमल स्पर्श वाले पुत्र का आलिंगन करती हुई वर्णनातीत सुखरूपी सागर में जा उतरी थी ।।215।। वह उत्तम नारी मरुदेवी गोद में स्थित जिन-बालक से इस प्रकार सुशोभित हो रही थी जिस प्रकार कि नवीन उदित सूर्य के बिंब से पूर्व दिशा सुशोभित होती है ।।216।। नाभिराज ने दिव्य अलंकारों को धारण करने वाले एवं उत्कृष्ट कांति से युक्त उस पुत्र को देखकर अपने आपको तीन लोक के ऐश्वर्य से युक्त माना था ।।217।। पुत्र के शरीर के संबंध से जिन्हें सुखरूप संपदा उत्पन्न हुई है तथा उस सुख का आस्वाद करते समय जिनके नेत्र का तृतीय भाग निमीलित हो रहा है ऐसा नाभिराज का मन उस पुत्र को देखकर द्रवीभूत हो गया था ।।218।। चूँकि वे जिनेंद्र इंद्र के द्वारा की हुई पूजा से प्रधानता को प्राप्त हुए थे इसलिए माता-पिता ने उनका ऋषभ यह नाम रखा ।।219।। माता―पिता का जो परस्पर संबंधी प्रेम वृद्धि को प्राप्त हुआ था वह उस समय बालक ऋषभदेव में केंद्रित हो गया था ।।220।। इंद्र ने भगवान के हाथ के अँगूठे में जो अमृत निक्षिप्त किया था उसका पान करते हुए वे क्रमश: शरीर संबंधी वृद्धि को प्राप्त हुए थे ।।221।। तदनंतर, इंद्र के द्वारा अनुमोदित समान अवस्था वाले देव कुमारों से युक्त होकर भगवान् माता-पिता को सुख पहुँचाने वाली निर्दोष क्रीड़ा करने लगे ।।222।। आसन, शयन, वाहन, भोजन, वस्त्र तथा चारण आदिक जितना भी उनका परिकर था वह सब उन्हें इंद्र से प्राप्त होता था ।।223।। वे थोड़े ही समय में परम वृद्धि को प्राप्त हो गये। उनका वक्षःस्थल मेरु पर्वत की भित्ति के समान चौड़ा और उन्नत हो गया ।।224।। समस्त संसार के लिए कल्पवृक्ष के समान जो उनकी भुजाएँ थीं, वे आशा―रूपी दिग्गजों को बाँधने के लिए खंभों का आकार धारण कर रही थीं ।।225।। उनके दोनों ऊरु―दंड अपनी निज की कांति के द्वारा किये हुए लेपन को धारण कर रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो तीन लोकरूपी घर को धारण करने के लिए दो खंभे ही खड़े किये गये हों ।।226।। उनके मुख ने कांति से चंद्रमा को जीत लिया था और तेज ने सूर्य को परास्त कर दिया था इस तरह वह परस्पर के विरोधी दो पदार्थों- चंद्रमा और सूर्य को धारण कर रहा था ।।227।। यद्यपि लाल-लाल कांति के धारक उनके दोनों हाथ पल्लव से भी अधिक कोमल थे तथापि वे समस्त पर्वतों को चूर्ण करने में (पक्ष में समस्त राजाओं का पराजय करन में) समर्थ थे ।।228।। उनके केशों का समूह अत्यंत सघन तथा सचिक्कण था और ऐसा जान पड़ता था मानो मेरु पर्वत के शिखर पर नीलांजन की शिला ही रखी हो ।।229।। यद्यपि वे भगवान् धर्मात्मा थे, हरण आदि को अधर्म मानते थे तथापि उन्होंने अपने अनुपम रूप से समस्त लोगों के नेत्र हरण कर लिये थे। भावार्थ― भगवान का रूप सर्वजन नयनाभिराम था ।।230।। उस समय कल्पवृक्ष पूर्णरूप से नष्ट हो चुके थे इसलिए समस्त पृथिवी अकृष्टपच्य अर्थात् बिना जोते, बिना बोये ही अपने आप उत्पन्न होनेवाली धान्य से सुशोभित हो रही थी ।।231।। उस समय की प्रजा वाणिज्य- लेनदेन का व्यवहार तथा शिल्प से रहित थी और धर्म का तो नाम भी नहीं था इसलिए पाखंड से भी रहित थी?।।232।। जो छह रसों से सहित था, स्वयं ही कटकर शाखा से झड़ने लगता था और बल-वीर्य आदि के करने में समर्थ था ऐसा इक्षुरस ही उस समय की प्रजा का आहार था ।।233।। पहले तो वह इक्षुरस अपने आप निकलता था पर काल के प्रभाव से अब उसका स्वयं निकलना बंद हो गया और लोग बिना कुछ बताये यंत्रों के द्वारा ईख को पेलने की विधि जानते नहीं थे ।।234।। इसी प्रकार सामने खड़ी हुई धान को लोग देख रहे थे पर उसके संस्कार की विधि नहीं जानते थे इसलिए भूख से पीड़ित होकर अत्यंत व्याकुल हो उठे ।।235।।
तदनंतर बहुत भारी पीड़ा से युक्त वे लोग इकट्ठे होकर नाभिराज की शरण में पहुँचे और स्तुति तथा प्रणाम कर निम्नलिखित वचन कहने लगे ।।236।। हे नाथ! जिनसे हमारा भरण-पोषण होता था वे कल्पवृक्ष अब सब के सब नष्ट हो गये हैं इसलिए भूख से संतप्त होकर आपकी शरण में आये हुए हम सब लोगों की आप रक्षा कीजिए ।।237।। पृथिवी पर उत्पन्न हुई यह कोई वस्तु फलों से युक्त दिखाई दे रही है, यह, वस्तु संस्कार किये जाने पर खाने के योग्य हो सकती है पर हम लोग इसकी विधि नहीं जानते ।।238।। स्वच्छंद विचरने वाली गायों के स्तनों के भीतर से यह कुछ पदार्थ निकल रहा है वह भक्ष्य है या अभक्ष्य है? हे स्वामिन्! यह बतलाइए ।।239।। ये सिंह, व्याघ्र आदि जंतु पहले क्रीड़ाओं के समय आलिंगन करने योग्य होते थे पर अब ये कलह में तत्पर होकर प्रजा को भयभीत करने लगे हैं ।।240।। और ये आकाश, स्थल तथा जल में उत्पन्न हुए कितने ही महामनोहर पदार्थ दिख रहे हैं सो इनसे हमें सुख किस तरह होगा यह हम नहीं जानते हैं ।।241।। इसलिए हे देव! हम लोगों को इनके संस्कार करने का उपाय बतलाइए जिससे कि प्रसाद से सुरक्षित होकर हम लोग सुख से जीवित रह सकें ।।242।। प्रजा के ऐसा कहने पर नाभिराज का हृदय दया से भर गया और वे आजीविका के उपाय दिखलाने के लिए धीरता के साथ निम्न प्रकार वचन कहने लगे ।।243।। जिनकी उत्पत्ति के समय चिरकाल तक रत्न-वृष्टि हुई थी और लोक में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला देवों का आगमन हुआ था ।।244।। महान् अतिशयों से संपन्न ऋषभदेव के पास चलकर हम लोग उनसे आजीविका के कारण पूछें ।।245।। इस संसार में उनके समान कोई मनुष्य नहीं है। उनकी आत्मा सर्व-प्रकार के अज्ञानरूपी अंधकारों से परे है ।।246।।
नाभिराज ने जब प्रजा से उक्त वचन कहे तो वह उन्हीं को साथ लेकर ऋषभनाथ भगवान के पास गयी। भगवान ने पिता को देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ।।247।। तदनंतर नाभिराज और भगवान ऋषभदेव जब अपने-अपने योग्य आसनों पर आरूढ़ हो गये तब प्रजा के लोग नमस्कार कर भगवान की इस प्रकार स्तुति करने के लिए तत्पर हुए ।।248।। हे नाथ! समस्त लक्षणों से भरा हुआ आपका यह शरीर तेज के द्वारा समस्त जगत् को आक्रांत कर देदीप्यमान हो रहा है ।।249।। चंद्रमा की किरणों के समान आनंद उत्पन्न करने वाले आपके अत्यंत निर्मल गुणों से समस्त संसार व्याप्त हो रहा है ।।250।। हम लोग कार्य लेकर आपके पिता के पास आये थे परंतु ये ज्ञान से उत्पन्न हुए आपके गुणों का बखान करते हैं ।।251।। जबकि ऐसे विद्वान् महाराज नाभिराज भी आपके पास आकर पदार्थ का निश्चय कर देते हैं तब यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आप अतिशयों से सुशोभित, धैर्य को धारण करने वाले कोई अनुपम महात्मा हैं ।।252।। इसलिए आप, भूख से पीड़ित हुए हम लोगों की रक्षा कीजिए तथा सिंह आदि दुष्ट जंतुओं से जो भय हो रहा है उसका भी उपाय बतलाइए ।।253।।
तदनंतर- जिनका हृदय दया से युक्त था ऐसे भगवान् वृषभदेव हाथ जोड़कर चरणों में पड़ी हुई प्रजा को उपदेश देने लगे ।।254।। उन्होंने प्रजा को सैकड़ों प्रकार को शिल्पकलाओं का उपदेश दिया। नगरों का विभाग, ग्राम आदि का बसाना और मकान आदि के बनाने की कला प्रजा को सिखायी ।।255।। भगवान ने जिन पुरुषों को विपत्तिग्रस्त मनुष्यों की रक्षा करने में नियुक्त किया था वे अपने गुणों के कारण लोक में क्षत्रिय इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए ।।256।। वाणिज्य, खेती, गोरक्षा आदि के व्यापार में जो लगाये गये थे वे लोक में वैश्य कहलाये ।।257।। जो नीच कार्य करते थे तथा शास्त्र से दूर भागते थे उन्हें शूद्र संज्ञा प्राप्त हुई। इनके प्रेष्य दास आदि अनेक भेद थे ।।258।। इस प्रकार सुख को प्राप्त कराने वाला वह युग भगवान् ऋषभदेव के द्वारा किया गया था तथा उसमें सब प्रकार की संपदाएँ सुलभ थीं इसलिए प्रजा उसे कृतयुग कहने लगी थी ।।259।। भगवान् ऋषभदेव के सुनंदा और नंदा नाम की दो स्त्रियाँ थीं। उनसे उनके भरत आदि महा प्रतापी पुत्र उत्पन्न हुए थे ।।260।। भरत आदि सौ भाई थे तथा गुणों के संबंध से अत्यंत सुंदर थे इसलिए यह पृथ्वी उनसे अलंकृत हुई थी तथा निरंतर ही अनेक उत्सव प्राप्त करती रहती थी ।।261।। अपरिमित कांति को धारण करने वाले जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेव को अनुपम ऐश्वर्य का उपभोग करते हुए जब बहुत भारी काल व्यतीत हो गया ।।262।। तब एक दिन नीलांजना नामक देवी के नृत्य करते समय उन्हें वैराग्य की उत्पत्ति में कारणभूत निम्न प्रकार को बुद्धि उत्पन्न ।।263।। वे विचारने लगे कि अहो! संसार के ये प्राणी दूसरों को संतुष्ट करने वाले कार्यों से विडंबना प्राप्त कर रहे हैं। प्राणियों के ये कार्य पागलों की चेष्टा के समान हैं तथा अपने शरीर को खेद उत्पन्न करने के लिए कारणस्वरूप हैं ।।264।। संसार की विचित्रता देखो, यहाँ कोई तो पराधीन होकर दास वृत्ति को प्राप्त होता है और कोई गर्व से स्खलित वचन होता हुआ उसे आज्ञा प्रदान करता है ।।265।। इस संसार को धिक्कार हो कि जिसमें मोही जीव दुःख को ही, सुख समझकर, उत्पन्न करते हैं ।।266।। इसलिए मैं तो इस विनाशीक तथा कृत्रिम सुख को छोड़कर सिद्ध जीवों का सुख प्राप्त करने के लिए शीघ्र ही प्रयत्न करता हूँ ।।267।। इस तरह यहाँ भगवान का चित्त शुभ विचार में लगा हुआ था कि वहाँ उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर निम्न प्रकार निवेदन करना प्रारंभ कर दिया ।।268।।
वे कहने लगे कि हे नाथ! आपने जो तीन लोक के जीवों का हित करने का विचार किया है सो बहुत ही उत्तम बात है। इस समय मोक्ष का मार्ग बंद हुए बहुत समय हो गया है ।।269।। ये प्राणी उपदेश दाता के बिना संसाररूपी महासागर में गोता लगा रहे हैं ।।270।। इस समय प्राणी आपके द्वारा बतलाये हुए मार्ग से चलकर अविनाशी सुख से युक्त तथा लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्त जीवों के पद को प्राप्त हों ।।271।। इस प्रकार देवों के द्वारा कहे हुए वचन स्वयं बुद्ध भगवान् आदिनाथ के समक्ष पुनरुक्तता को प्राप्त हुए थे ।।272।। ज्यों ही भगवान ने गृहत्याग का निश्चय किया त्यों ही इंद्र आदि देव पहले की भाँति आ पहुँचे ।।273।। आकर समस्त देवों ने नमस्कार पूर्वक भगवान की स्तुति की और हे नाथ! आपने बहुत अच्छा विचार किया है, यह शब्द बार-बार कहे ।।274।।
तदनंतर, जिसने रत्नों की कांति के समूह से दिशाओं के अग्रभाग को व्याप्त कर रखा था, जिसके दोनों ओर चंद्रमा की किरणों के समूह के समान सुंदर चमर ढोलें जा रहे थे, पूर्ण चंद्रमा के समान दर्पण से जिसकी शोभा बढ़ रही थी, जो बुद्बुद के आकार मणिमय गोलकों से सहित थी, अर्द्धचंद्राकार से सहित थी, पताकाओं के वस्त्र से सुशोभित थी, दिव्य मालाओं से सुगंधित थी, मोतियों के हार से विराजमान थी, देखने में बहुत सुंदर थी, विमान के समान जान पड़ती थी, जिसमें लगी हुई छोटी-छोटी घंटियाँ रुन-झुन शब्द कर रही थीं और इंद्र ने जिस पर अपना कंधा लगा रखा था ऐसी देवरूपी शिल्पियों के द्वारा निर्मित पालकी पर सवार होकर भगवान् अपने घर से बाहर निकले ।।275-278।।
तदनंतर बजते हुए बाजों और नृत्य करते हुए देवों के प्रतिध्वनि पूर्ण शब्द से तीनों लोकों का अंतराल भर गया ।।279।। बहुत भारी वैभव और भक्ति से युक्त देवों के साथ भगवान् तिलक नामक उद्यान में पहुँचे ।।280।। भगवान् वृषभदेव प्रजा अर्थात् जन समूह से दूर हो उस तिलक नामक उद्यान में पहुँचे थे इसलिए उस स्थान का नाम ‘प्रजाग्’ प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने उस स्थान पर बहुत भारी याग अर्थात् त्याग किया था, इसलिए उसका नाम प्रयाग भी प्रसिद्ध हुआ ।।281।। वहाँ पहुँचकर भगवान ने माता-पिता तथा बंधुजनों से दीक्षा लेने की आज्ञा ली और फिर नम: सिद्धेभ्य:- सिद्धों के लिए नमस्कार हो यह कह दीक्षा धारण कर ली ।।282।। महामुनि वृषभदेव ने सब अलंकारों के साथ ही साथ वस्त्रों का भी त्याग कर दिया और पंचमुष्टियों के द्वारा केश उखाड़कर फेंक दिये ।।283।। इंद्र ने उन केशों को रत्नमयी पिटारे में रख लिया और तदनंतर मस्तक पर रखकर उन्हें क्षीर―सागर में क्षेप आया ।।284।। समस्त देव दीक्षाकल्याणक संबंधी उत्सव कर जिस प्रकार आये थे उसी प्रकार चले गये, साथ ही मनुष्य भी अपना हृदय हराकर यथास्थान चले गये ।।285।। उस समय चार हजार राजाओं ने जो कि भगवान के अभिप्राय को नहीं समझ सके थे केवल स्वामी―भक्ति से प्रेरित होकर नग्न अवस्था को प्राप्त हुए थे ।।286।। तदनंतर इंद्रियों की समान अवस्था धारण करने वाले भगवान् वृषभदेव छह माह तक कायोत्सर्ग से सुमेरु पर्वत के समान निश्चल खड़े रहे ।।287।। हवा से उड़ी हुई उनकी अस्त-व्यस्त जटाएँ ऐसी जान पडती थीं मानो समीचीन ध्यानरूपी अग्नि से जलते हुए कर्म के घूम की पंक्तियाँ ही हों ।।288।।
तदनंतर छह माह भी नहीं हो पाये थे कि साथ-साथ दीक्षा लेने वाले राजाओं का समूह परीषहरूपी महा योद्धाओं के द्वारा परास्त हो गया ।।289।। उनमें से कितने ही राजा दु:खरूपी वायु से ताड़ित होकर पृथिवी पर गिर गये और कितने ही कुछ सबल शक्ति के धारक होने से पृथिवी पर बैठ गये ।।290।। कितने ही भूख से पीड़ित हो कायोत्सर्ग छोड़कर फल खाने लगे। कितने ही संतप्त शरीर होने के कारण शीतल जल में जा घुसे ।।291।। कितने ही चारित्र का बंधन तोड़ उन्मत्त हाथियों की तरह पहाड़ों की गुफाओं में घुसने लगे और कितने ही फिर से मन को लौटाकर जिनेंद्रदेव के दर्शन करने के लिए उद्यत हुए ।।292।। उन सब राजाओं में भरत का पुत्र मरीचि बहुत अहंकारी था इसलिए वह गेरुआ वस्त्र धारण कर परिव्राजक बन गया तथा वल्कलों को धारण रहनेवाले कितने ही लोग उसके साथ हो गये ।।293।। वे राजा लोग नग्नरूप में ही फलादिक ग्रहण करने के लिए जब उद्यत हुए तब अदृश्य देवताओं के निम्नांकित वचन आकाश में प्रकट हुए। हे राजाओं! तुम लोग नग्न वेष में रहकर यह कार्य न करो क्योंकि ऐसा करना तुम्हारे लिए अत्यंत दुःख का कारण होगा ।।294-295।। देवताओं के वचन सुनकर कितने ही लोगों ने वृक्षों के पत्ते पहन लिये, कितने ही लोगों ने वृक्षों के वल्कल धारण कर लिये, कितने ही लोगों ने चमड़े से शरीर आच्छादित कर लिया और कितने ही लोगों ने पहले छोड़े हुए वस्त्र फिर से ग्रहण कर लिये ।।296।। अपने नग्न वेष से लज्जित होकर कितने ही लोगों ने कुशाओं का वस्त्र धारण किया। इस प्रकार पत्र आदि धारण करने के बाद वे सब फलों तथा शीतल जल से तृप्ति को प्राप्त हुए ।।297।।
तदनंतर जिनकी बुरी हालत हो रही थी ऐसे भ्रष्ट हुए सब राजा लोग एकत्रित हो दूर जाकर निशंक भाव से परस्पर में सलाह करने लगे ।।298।। उनमें से किसी राजा ने अन्य राजाओं को संबोधित करते हुए कहा कि आप लोगों में से किसी से भगवान ने कुछ कहा था ।।299।। इसके उत्तर में अन्य राजाओं ने कहा कि उन्होंने हम लोगो में से किसी से कुछ भी नहीं कहा है। यह सुनकर भोगों की अभिलाषा रखनेवाले किसी राजा ने कहा कि तो फिर यहाँ रुकने से क्या लाभ है? उठिए, हम लोग अपने-अपने देश चलें और पुत्र तथा स्त्री आदि का मुख देखने से उत्पन्न हुआ सुख प्राप्त करें ।।300-301।। उन्ही में से किसीने कहा कि चूँकि हम लोग दुखी हैं अत: चलने के लिए तैयार हैं। इस समय ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे दुःख के कारण हम कर न सकें परंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि हम लोगों को स्वामी के बिना अकेला ही वापिस आया देखकर भरत मारेगा और अवश्य ही हम लोगों के देश छीन लेगा ।।302-303।। अथवा भगवान् ऋषभदेव जब फिर से राज्य प्राप्त करेंगे- वनवास छोड़कर पुन: राज्य करने लगेंगे तब हम लोग निर्लज्ज होकर इन्हें मुख कैसे दिखावेंगे? ।।304।। इसलिए हम लोग फलादि का भक्षण करते हुए यहीं पर रहें और इच्छानुसार सुखपूर्वक भ्रमण करते हुए इन्हीं की सेवा करते रहें ।।305।।
अथानंतर- भगवान् ऋषभदेव प्रतिमायोग से विराजमान थे कि भोगों की याचना करने में तत्पर नमि और विनमि उनके चरणों में नमस्कार कर वहीं पर खड़े हो गये ।।306।। उसी समय आसन के कंपायमान होने से नागकुमारों के अधिपति धरणेंद्र ने यह जान लिया कि नमि और विनमि भगवान से याचना कर रहें हैं। यह जानते ही वह शीघ्रता से वहाँ आ पहुँचा ।।307।। धरणेंद्र ने विक्रिया से भगवान का रूप धरकर नमि और विनमि के लिए दो उत्कृष्ट विद्याएँ दीं। उन विद्याओं को पाकर वे दोनों उसी समय विजयार्ध पर्वत पर चले गये ।।308।। समान भूमितल से दश योजन ऊपर चलकर विजयार्ध पर्वत पर विद्याधरों के निवास-स्थान बने हुए हैं। उनके वे निवास-स्थान नाना देश और नगरों से व्यास हैं तथा भोगों से भोगभूमि के समान जान पड़ते हैं ।।309।। विद्याधरों के निवास-स्थान से दश योजन ऊपर चलकर गंधर्व और किन्नर देवों के हजारों नगर बसे हुए हैं ।।310।। वहाँ से पांच योजन और ऊपर चलकर वह पर्वत अरहंत भगवान के मंदिरों से आच्छादित है तथा नंदीश्वर द्वीप के पर्वत के समान जान पड़ता है ।।311।। अर्हंत भगवान के उन मंदिरों में स्वाध्याय के प्रेमी, चारणऋद्धि के धारक परम तेजस्वी मुनिराज निरंतर विद्यमान रहते हैं ।।312।। उस विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर रथनूपुर तथा संध्याभ्र को आदि लेकर पचास नगरियाँ हैं और उत्तर श्रेणी पर गगनवल्लभ आदि साठ नगरियाँ हैं ।।313-314।। ये प्रत्येक नगरियां एक से एक बढ़कर हैं, नाना देशों और गाँवों से व्याप्त हैं, मटंबों से संकीर्ण हैं, खेट और कर्वटों के विस्तर से युक्त हैं ।।315।। बड़े―बड़े गोपुरों और अट्टालिकाओं से विभूषित हैं, सुवर्णमय कोटों और तोरणों से अलंकृत हैं, वापिकाओं और बगीचों से व्याप्त हैं, स्वर्ग संबंधी भोगों का उत्सव प्रदान करने वाली हैं, बिना जोते ही उत्पन्न होनेवाले सर्व प्रकार के फलों के वृक्षों से सहित हैं, सर्व प्रकार की औषधियों से आकीर्ण हैं, और सबके मनोरथों को सिद्ध करने वाली हैं ।।316-317।। उनका पृथ्वीतल हमेशा भोगभूमि के समान सुशोभित रहता है, वहाँ के निर्झर सदा मधु, दूध, घी आदि रसों को बहाते हैं, वहाँ के सरोवर कमलों से युक्त तथा हंस आदि पक्षियों से विभूषित हैं। वहाँ की वापिकाओ की सीढ़ियाँ मणियों तथा सुवर्ण से निर्मित हैं, उनमें मधु के समान स्वच्छ और मीठा पानी भरा रहता है तथा वे स्वयं कमलों की पराग से आच्छादित रहती हैं। वहाँ की शालाओं में बछड़ों से सुशोभित उन कामधेनुओं के झुंड के झुंड बँधे रहते हैं जिनकी कि कांति पूर्ण चंद्रमा के समान है, जिनके खुर और सींग सुवर्ण के समान पीले हैं तथा जो नेत्रों को आनंद देने वाली है ।।318-321।। वही वे गायें रहती हैं जिनका कि गोबर और मूत्र भी सुगंधि से युक्त है तथा रसायन के समान कांति और वीर्य को देनेवाला है, फिर उनके दूध की तो उपमा ही किससे दी जा सकती है? ।।322।। उन नगरियों में नील कमल के समान श्यामल तथा कमल के समान लालकांति को धारण करने वाली भैंसों की पंक्तियाँ अपने बछड़ों के साथ सदा विचरती रहती है।।323।। वहाँ पर्वतों के समान अनाज की राशियाँ हैं, वहाँ की खत्तियों (अनाज रखने की खोडियों) का कभी क्षय नहीं होता, वापिकाओं और बगीचों से घिरे हुए वहाँ के महल बहुत भारी कांति को धारण करने वाले हैं ।।324।। वहाँ के मार्ग धूलि और कंटक से रहित, सुख उपजाने वाले हैं। जिन पर बड़े-बड़े वृक्षों की छाया हो रही है तथा जो सर्वप्रकार के रसों से सहित हैं ऐसी वहाँ की प्याऊ हैं ।।325।। जिनकी मधुर आवाज कानों को आनंदित करती है ऐसे मेघ वहाँ चार मास तक योग्य देश तथा योग्य काल में अमृत के समान मधुर जल की वर्षा करते हैं ।।326।। वहाँ की हेमंत ऋतु हिममिश्रित शीतल वायु से रहित होती है तथा इच्छानुसार वस्त्र प्राप्त करने वाले सुख के उपभोगी मनुष्यों के लिए आनंददायी होती है ।।327।। वहाँ ग्रीष्म ऋतु में भी सूर्य मानो शंकित होकर ही मंद तेज का धारक रहता है और नाना रत्नों की प्रभा से युक्त होकर कमलों को विकसित करता है ।।328।। वहाँ की अन्य ऋतुएँ भी मनोवांछित वस्तुओं को प्राप्त कराने वाली हैं तथा वहाँ की निर्मल दिशाएँ नीहार (कुहरा) आदि से रहित होकर अत्यंत सुशोभित रहती हैं ।।329।।
वहाँ ऐसा एक भी स्थान नहीं है जो कि सुख से युक्त न हो। वहाँ की प्रजा सदा भोगभूमि के समान क्रीड़ा करती रहती है ।।330।। वहाँ की स्त्रियाँ अत्यंत कोमल शरीर को धारण करने वाली हैं, सब प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हैं, अभिप्राय के जानने में कुशल हैं, कीर्ति, लक्ष्मी, लज्जा, धैर्य और प्रभा को धारण करने वाली हैं ।।331।। कोई स्त्री कमल के भीतरी भाग के समान कांति वाली है, कोई नील कमल के समान श्यामल प्रभा की धारक है, कोई शिरीष के फूल के समान कोमल तथा हरित वर्ण की है और कोई बिजली के समान पीली कांति से सुशोभित है ।।332।। वे स्त्रियाँ सुगंधि से तो ऐसी जान पड़ती हैं मानो नंदन वन की वायु से ही रची गई हों और मनोहर फूलों के आभरण धारण करने के कारण ऐसी प्रतिभासित होती हैं मानो वसंत ऋतु से ही उत्पन्न हुई हों ।।333।। जिनके शरीर चंद्रमा की कांति से बने हुए के समान जान पड़ते थे ऐसी कितनी ही स्त्रियाँ अपनी प्रभारूपी चाँदनी से निरंतर सरोवर भरती रहती थीं ।।334।। वे स्त्रियों लाल, काले और सफेद इस तरह तीन रंगों को धारण करने―वाले नेत्रों से सुशोभित रहती हैं, उनकी चाल हंसियों के समान है, उनके स्तन अत्यंत स्थूल हैं, उदर कृश हैं और उनके हाव-भाव-विलास देवांगनाओं के समान हैं ।।335।। वहाँ के मनुष्य भी चंद्रमा के समान सुंदर मुख वाले हैं, शूरवीर हैं, सिंह के समान चौड़े वक्षःस्थल से युक्त हैं, लंबी भुजाओं से विभूषित हैं, आकाश में चलने में समर्थ हैं, उत्तम लक्षण, गुण और क्रियाओं से सहित हैं ।।336।। न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करने से सदा संतुष्ट रहते हैं, देवों के समान प्रभा के धारक हैं, काम के समान सुंदर हैं और इच्छानुसार स्त्रियों सहित जहाँ-तहां घूमते हैं ।।337।। इस प्रकार जिनका चित्त विद्यारूपी स्त्रियों में आसक्त रहता है ऐसे भूमि निवासी देव अर्थात् विद्याधर, अंतराय रहित हो विजयार्ध पर्वत की दोनों मनोहर श्रेणियों में धर्म के फलस्वरूप प्राप्त हुए मनोवांछित भोगों को भोगते रहते हैं ।।338।। इस प्रकार के समस्त भोग प्राणियों को धर्म के द्वारा ही प्राप्त होते हैं इसलिए हे भव्य जीवो! जिस प्रकार आकाश में सूर्य अंधकार को नष्ट करता है, उसी प्रकार तुम लोग भी अपने अंतरंग संबंधी अज्ञानांधकार को नष्ट कर एक धर्म को ही प्राप्त करने का प्रयत्न करो ।।339।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में
विद्याधर लोक का वर्णन करने वाला तीसरा पर्व पूर्ण हुआ ।।3।।