अचेलकत्व: Difference between revisions
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<span class="GRef">भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1123, 1124/1130 </span><p class="PrakritText">देसमासियसुत्तं आचेलक्कंति तं खु ठिदिकप्पे लुत्तोत्थ आदिसद्दो जह तालपलं वसुत्तम्मि ।1123। णय होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं। तह्मा आचेलक्क चाओ सव्वेसिं होइ संगाणं ।1124। </p> | |||
<Span class="HindiText">= चेल शब्द परिग्रह का उपलक्षण है अतः चेल शब्द का अर्थ वस्त्र ही न समझकर उसके साथ अन्य परिग्रहों का भी ग्रहण करना चाहिए। इसके लिए आचार्य ने तालपलंब का उदाहरण दिया है। तालपलंब इस सामासिक शब्द में जो ताल शब्द है उसका अर्थ ताड का वृक्ष इतना ही नहीं अपितु वनस्पतियों का उपलक्षण रूप समझकर उससे संपूर्ण वनस्पतियों का ग्रहण करते हैं ।1123। वस्त्र मात्र का त्याग करने पर भी यदि अन्य परिग्रहों से मनुष्य युक्त है तो इसको संयत मुनि नहीं कहना चाहिए। अतः वस्त्र के साथ संपूर्ण परिग्रह त्याग जिसने किया है वही अचेलक माना जाता है। </span><br/> | |||
<span class="GRef"><span class="GRef">(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 30)</span>।</span> <br/> | |||
<Span class="HindiText">• पाँच प्रकार के वस्त्र - देखें [[ वस्त्र ]]।</span> <br/> | |||
<p class="HindiText"><b>1. नाग्न्य परिषह का लक्षण - </b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/9/422</span> <p class="SanskritText">जातरूपवन्निष्कलंकजातरूपधारणमशक्यप्रार्थनीयं याचनारक्षणहिंसनादिदोषविनिर्मुक्तं निष्परिग्रहत्वान्निर्वाणप्राप्तिं प्रत्येकं साधनमनन्यबाधनं नाग्न्यं विभ्रतो मनोविक्रियाविप्लुतिविरहात् स्त्रीरूपाण्यत्यंताशुचिकुणरूपेण भावयतो रात्रिंदिवं ब्रह्मचर्यमखंडमातिष्ठमानत्याचेलव्रतधारणमनवद्यमवगंतव्यम्। </p> | |||
<p class="HindiText">= बालक के स्वरूप के समान जो निष्कलंक जातरूप को धारण करने रूप है, जिसका याचना करने से प्राप्त होना अशक्य है, जो याचना, रक्षा करना और हिंसा आदि दोषों से रहित है, जो निष्परिग्रह रूप होने से निर्वाण प्राप्ति का अनन्य साधन है, जो अन्य बाधाकर नहीं है, ऐसे नाग्न्य को जो धारण करता है, जो मन के विक्रिया रूप उपद्रव से रहित होने के कारण स्त्रियों के रूप को अत्यंत अपवित्र बदबूदार अनुभव करता है, जो रात-दिन अखंड ब्रह्मचर्य को धारण करता है, उसके निर्दोष अचेलव्रत होता है। </p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/9/10/609/29)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 111/5)</span>।</p> | |||
<p class="HindiText">• द्रव्यलिंग की प्रधानता व भावलिंग के साथ समन्वय - देखें [[ लिंग#4 | लिंग - 4]]।</p> | |||
<p class="HindiText">• सवस्त्र मुक्ति का निषेध - देखें [[ वेद#7 | वेद - 7]]।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>2. अचेलकत्व के कारण व प्रयोजन</b></p> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/610-611/4</span> <p class="SanskritText">अचेलो यतिस्त्यागाख्ये धर्मे प्रवृत्तो भवति। आकिंचन्याख्ये अपि धर्मे समुद्यतो भवति....असत्यारंभे कुतोअसयमः। ....न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य। ....लाघवं च अचेलस्य भवति। अदत्तविरतिरपि संपूर्णा भवति। ....रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशुद्धतमं भवति। ....चोत्तमाक्षमा व्यवतिष्ठते। ....मार्दवमपि तत्र सन्निहितं। .....आर्जवता भवति.... सोढाश्चोपसर्गाः निश्चेलतामभ्युपगच्छता। तपोअपि घोरमनुष्ठित भवति। एवमचेलत्वोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण। अन्यथा प्रकम्यते अचेलताप्रशंसा। संयमशुद्धिरेको गुणः। .....इंद्रियविजयो द्वितीयः। .....कषायाभावश्चगुणोअचेलतायाः। ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च। ....ग्रंथत्यागश्च गुणः। .....शरीर.....आदरस्त्यक्तः। ...स्ववशता च गुणः। ....चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोअचेलतायां....। निर्भयता च गुणः.....। अप्रतिलेखनता च गुणः। चतुर्दशविधं उपधिं, गृह्णतां बहुप्रतिलेखनता न तथाचेलस्य। परिकर्मवर्जनं च गुणः।....रंजनं इत्यादिकमनेकं परिकर्म सचेलस्य। स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालनं सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्च्छा च। लाघवं गुणः। अचेलोअल्पोपधिः स्थानासनगमनादिकासु क्रियासु वायुवदप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः। तीर्थकराचरितत्वं च गुणः ....जिनाः सर्व एवाचेलाभूता भविष्यंतश्च। ....प्रतिमास्तीर्थंकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेअप्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथैबेति सिद्धमचेलत्वम्। ....अतिगूढबलवीर्यता च गुणः।..... इत्थं चेले दोषा अचेलतायां अपरिमिता गुणा इति। </p> | |||
<p class="HindiText">= वस्त्र रहित यति सर्व परिग्रह का त्याग होने से त्याग नामक धर्म में प्रवृत्त होता है। ....आकिंचन्य धर्म में प्रवृत्त होता है। ....आरंभ का अभाव होने से असंयम भी नष्ट हो चुका है। ...असत्य भाषण का कारण ही नष्ट हो गया है। .....आचेलक्य से लाघवगुण प्राप्त होता है। अचौर्य महाव्रत की पूर्णावस्था प्राप्त होती है। ....रागादिक का त्याग होने से परिणामों में निर्मलता आती है, जिससे ब्रह्मचर्य का निर्दोष रक्षण होता है।....और उत्तमक्षमा गुण प्रगट होता है।.....मार्दव गुण प्राप्त होता है। आर्जव गुण की लब्धि होती है।....उपसर्ग व परिषह सहन करने की सामर्थ्य आत्मा में प्रगट होती है।.....घोर तप का पालन भी होता है। अचेलता की प्रशंसा अब दूसरे प्रकार से आचार्य कहते हैं - संयम शुद्धि होती है.....इंद्रियविजय नामक गुण प्रगट होता है। .....लोभादिक कषायों का अभाव होता है। ....ध्यान स्वाध्याय निर्विघ्न होते हैं। .....परिग्रहत्याग नाम का गुण प्रगट होता है। इससे आत्मा निर्मल होता है। ....शरीर पर अनादर करना यह गुण है। .....स्ववशता गुण प्रगट होता है। ....मन की विशुद्धि प्रगट होती है। ....निर्भयता गुण प्रगट होता है। ....अप्रतिलेखना नामक गुण भी निष्परिग्रहता से प्राप्त होता है। चौदह प्रकार की उपाधियों को ग्रहण करने वाले श्वेतांबर मुनियों को बहुत संशोधन करना पड़ता है, परंतु दिगंबर मुनियों को उसकी आवश्यकता नहीं। परिकर्मवर्जन नाम का गुण है। ...रंगाना इत्यादिक कार्य वस्त्र सहित मुनि को करने पड़ते हैं। ...स्व.तः के पास वस्त्र प्रावरणादिक हो तो उसको धोना पड़ेगा, फटने पर सीना पड़ेगा, ऐसे कुत्सित कार्य करने पड़ेंगे तथा वस्त्र समीप होने से अपने को अलंकृत करने की इच्छा होती है। और इसमें मोह उत्पन्न होता है। अचेलता में लाघव नामक गुण है। निवस्त्र मुनि खड़े रहना, बैठना, गमन करना इत्यादिक कार्यों में वायु के समान अप्रतिबद्ध रहते हैं। तीर्थंकराचरित नाम का गुण भी अचेलता में रहता है। जितने तीर्थंकर हो चुके और होनेवाले हैं वे सब वस्त्ररहित होकर ही तप करते हैं। ....जिनप्रतिमाएँ और तीर्थंकरों के अनुयायी गणधर भी निर्वस्त्र ही हैं। उनके सर्व शिष्य भी वस्त्र रहित ही होते हैं। ....नग्नता में अपना बल और वीर्य प्रगट करना वह गुण है।....नग्नता में दोष तो है ही नहीं परंतु गुणमात्र अपरिमित हैं।</p> | |||
<p class="HindiText">• कदाचित् स्त्री को नग्न रखने की आज्ञा – देखें [[ लिंग#1.4 | लिंग - 1.4]]।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>3. कदाचित् परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहण की आज्ञा</b></p> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/611/18</span> <p class="SanskritText">अथैवं मन्य से पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम्। तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितम् - "प्रतिलिखेत्पात्रकंबलंध्रुवमिति। असत्सु पात्रादिपु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते।" ......वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्ये कथमेतानि सूत्राणि नीयंते। ....निषेधेअप्युक्तं-"कसिणाइं वत्थकंबलाइं जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिग लहुगं" इति। एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इत्यत्रोच्यते-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलंबमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति। .....हिमसमये शीतबाधासहः परिगृह्य चेलं तस्मिंनिष्क्रांते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति। कारणापेक्ष्यं ग्रहणमाख्यातम्। परिजीर्णविशेषोपादानाद्दृढानामपरित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः। प्रक्षालनादिकसंस्कारविरहात्परिजीर्णता वस्त्रस्य कथिता .....अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति। तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम्। यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव। तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारापेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम्। </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - पूर्वागमों में वस्त्र पात्रादिक के ग्रहण करने का विधान मिलता है। आचारप्रणिधि नामक ग्रंथ में लिखा है - "पात्र और कंबल को अवश्य शोधना चाहिए। अर्थात् उनका प्रतिलेखन आवश्यक है"। यदि वस्त्र पात्रादिक का विधान न होता तो प्रतिलेखना निश्चय से करने का विधान क्यों लिखा होता? (आचारांग आदि सूत्रों में भी इसी प्रकार के अनेकों उद्धरण उपलब्ध होते हैं) वस्त्र पात्र यदि `ग्राह्य नहीं हैं' ऐसा आगम में लिखा होता तो इन सूत्रों का उल्लेख कैसे होता? वस्त्र पात्र के संबंध में ऐसा प्रमाण है `सर्व प्रकार के वस्त्र कंबलों को ग्रहण करने से मुनिको लघुमासिक नामक प्रायश्चित्त विधि करनी पड़ती है। इस प्रकार सूत्रों में ग्रहण का विधान है, इसलिए अचेलता या नग्नता का आपका विवेचन कैसे योग्य माना जायेगा? <b>उत्तर</b> - आगम में आर्यिकाओं को वस्त्र ग्रहण करने की आज्ञा है। और कारण की अपेक्षा से भिक्षुओं को वस्त्र धारण की आज्ञा है। जो साधु लज्जालु हैं, जिसके शरीर के अवयव अयोग्य हैं अर्थात् जिसके पुरुषलिंग पर चर्म नहीं हैं, जिसका लिंग अति दीर्घ है। <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/77 )</span> जिसके अंडकोश दीर्घ है, अथवा जो परिषह सहन करने में असमर्थ है वह वस्त्र ग्रहण करता है। जाड़े के दिनों में जिससे सर्दी सहन होती नहीं है ऐसे मुनि को वस्त्र ग्रहण कर के जाड़े के दिन समाप्त होने पर जीर्ण वस्त्र (पुराने वस्त्र) छोड़ देना चाहिए। कारण की अपेक्षा से वस्त्र ग्रहण करने का विधान है (निरर्गलतावश नहीं)। <b>प्रश्न</b> - जीर्ण वस्त्र का त्याग करने का विधान आगम में है इसलिए दृढ़ (मजबूत) या जो अभी फटा नहीं है, वस्त्र का त्याग नहीं करना चाहिए, ऐसा आगम से सिद्ध होता है? <b>उत्तर</b> - ऐसा कहना अयोग्य है क्योंकि इससे आचार्य के मूल वचन (मूल गाथा में कथित) अचेलता के साथ विरोध आता है। प्रक्षालन आदि संस्कार न होने से वस्त्र में जीर्णता आती ही है। इसी अपेक्षा से जीर्णता का कथन किया है। अचेलता शब्द का अर्थ सर्व परिग्रह त्याग है। पात्र भी परिग्रह है, इसलिए उसका भी त्याग करना अवश्य सिद्ध होता है। अतः कारण की अपेक्षा से वस्त्र पात्र का ग्रहण करना सिद्ध होता</p> | |||
<p class="HindiText">जो उपकरण कारण की अपेक्षा से ग्रहण किया जाता है उसका त्याग भी अवश्य करना चाहिए। इसलिए वस्त्र और पात्र का अर्थाधिकार की अपेक्षा से सूत्रों में बहुत स्थानों में विधान आया है, वह सब कारण की अपेक्षा से ही है, ऐसा समझना चाहिए।</p> | |||
<p class="HindiText">नोट :- [इस वाद में सभी उद्धरण श्वेतांबर साहित्य में से लिये गये हैं अतः ऐसा प्रतीत होता है कि विजयोदया टीकाकार आचार्य को श्वेतांबरों को प्रेमपूर्वक समझाना इष्ट था। वास्तव में दिगंबर आम्नाय में परिषहादि के कारण भी वस्त्रादि के ग्रहण की आज्ञा नहीं है। यदि ऐसा करना ही पड़े तो मुनिपद छोड़कर नीचे आ जाना पड़ता है।] (और भी देखें [[ प्रव्रज्या#1.4 | प्रव्रज्या - 1.4]])।</p> | |||
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Latest revision as of 22:14, 17 November 2023
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1123, 1124/1130
देसमासियसुत्तं आचेलक्कंति तं खु ठिदिकप्पे लुत्तोत्थ आदिसद्दो जह तालपलं वसुत्तम्मि ।1123। णय होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं। तह्मा आचेलक्क चाओ सव्वेसिं होइ संगाणं ।1124।
= चेल शब्द परिग्रह का उपलक्षण है अतः चेल शब्द का अर्थ वस्त्र ही न समझकर उसके साथ अन्य परिग्रहों का भी ग्रहण करना चाहिए। इसके लिए आचार्य ने तालपलंब का उदाहरण दिया है। तालपलंब इस सामासिक शब्द में जो ताल शब्द है उसका अर्थ ताड का वृक्ष इतना ही नहीं अपितु वनस्पतियों का उपलक्षण रूप समझकर उससे संपूर्ण वनस्पतियों का ग्रहण करते हैं ।1123। वस्त्र मात्र का त्याग करने पर भी यदि अन्य परिग्रहों से मनुष्य युक्त है तो इसको संयत मुनि नहीं कहना चाहिए। अतः वस्त्र के साथ संपूर्ण परिग्रह त्याग जिसने किया है वही अचेलक माना जाता है।
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 30)।
• पाँच प्रकार के वस्त्र - देखें वस्त्र ।
1. नाग्न्य परिषह का लक्षण -
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/9/422
जातरूपवन्निष्कलंकजातरूपधारणमशक्यप्रार्थनीयं याचनारक्षणहिंसनादिदोषविनिर्मुक्तं निष्परिग्रहत्वान्निर्वाणप्राप्तिं प्रत्येकं साधनमनन्यबाधनं नाग्न्यं विभ्रतो मनोविक्रियाविप्लुतिविरहात् स्त्रीरूपाण्यत्यंताशुचिकुणरूपेण भावयतो रात्रिंदिवं ब्रह्मचर्यमखंडमातिष्ठमानत्याचेलव्रतधारणमनवद्यमवगंतव्यम्।
= बालक के स्वरूप के समान जो निष्कलंक जातरूप को धारण करने रूप है, जिसका याचना करने से प्राप्त होना अशक्य है, जो याचना, रक्षा करना और हिंसा आदि दोषों से रहित है, जो निष्परिग्रह रूप होने से निर्वाण प्राप्ति का अनन्य साधन है, जो अन्य बाधाकर नहीं है, ऐसे नाग्न्य को जो धारण करता है, जो मन के विक्रिया रूप उपद्रव से रहित होने के कारण स्त्रियों के रूप को अत्यंत अपवित्र बदबूदार अनुभव करता है, जो रात-दिन अखंड ब्रह्मचर्य को धारण करता है, उसके निर्दोष अचेलव्रत होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/9/10/609/29) ( चारित्रसार पृष्ठ 111/5)।
• द्रव्यलिंग की प्रधानता व भावलिंग के साथ समन्वय - देखें लिंग - 4।
• सवस्त्र मुक्ति का निषेध - देखें वेद - 7।
2. अचेलकत्व के कारण व प्रयोजन
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/610-611/4
अचेलो यतिस्त्यागाख्ये धर्मे प्रवृत्तो भवति। आकिंचन्याख्ये अपि धर्मे समुद्यतो भवति....असत्यारंभे कुतोअसयमः। ....न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य। ....लाघवं च अचेलस्य भवति। अदत्तविरतिरपि संपूर्णा भवति। ....रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशुद्धतमं भवति। ....चोत्तमाक्षमा व्यवतिष्ठते। ....मार्दवमपि तत्र सन्निहितं। .....आर्जवता भवति.... सोढाश्चोपसर्गाः निश्चेलतामभ्युपगच्छता। तपोअपि घोरमनुष्ठित भवति। एवमचेलत्वोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण। अन्यथा प्रकम्यते अचेलताप्रशंसा। संयमशुद्धिरेको गुणः। .....इंद्रियविजयो द्वितीयः। .....कषायाभावश्चगुणोअचेलतायाः। ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च। ....ग्रंथत्यागश्च गुणः। .....शरीर.....आदरस्त्यक्तः। ...स्ववशता च गुणः। ....चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोअचेलतायां....। निर्भयता च गुणः.....। अप्रतिलेखनता च गुणः। चतुर्दशविधं उपधिं, गृह्णतां बहुप्रतिलेखनता न तथाचेलस्य। परिकर्मवर्जनं च गुणः।....रंजनं इत्यादिकमनेकं परिकर्म सचेलस्य। स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालनं सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्च्छा च। लाघवं गुणः। अचेलोअल्पोपधिः स्थानासनगमनादिकासु क्रियासु वायुवदप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः। तीर्थकराचरितत्वं च गुणः ....जिनाः सर्व एवाचेलाभूता भविष्यंतश्च। ....प्रतिमास्तीर्थंकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेअप्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथैबेति सिद्धमचेलत्वम्। ....अतिगूढबलवीर्यता च गुणः।..... इत्थं चेले दोषा अचेलतायां अपरिमिता गुणा इति।
= वस्त्र रहित यति सर्व परिग्रह का त्याग होने से त्याग नामक धर्म में प्रवृत्त होता है। ....आकिंचन्य धर्म में प्रवृत्त होता है। ....आरंभ का अभाव होने से असंयम भी नष्ट हो चुका है। ...असत्य भाषण का कारण ही नष्ट हो गया है। .....आचेलक्य से लाघवगुण प्राप्त होता है। अचौर्य महाव्रत की पूर्णावस्था प्राप्त होती है। ....रागादिक का त्याग होने से परिणामों में निर्मलता आती है, जिससे ब्रह्मचर्य का निर्दोष रक्षण होता है।....और उत्तमक्षमा गुण प्रगट होता है।.....मार्दव गुण प्राप्त होता है। आर्जव गुण की लब्धि होती है।....उपसर्ग व परिषह सहन करने की सामर्थ्य आत्मा में प्रगट होती है।.....घोर तप का पालन भी होता है। अचेलता की प्रशंसा अब दूसरे प्रकार से आचार्य कहते हैं - संयम शुद्धि होती है.....इंद्रियविजय नामक गुण प्रगट होता है। .....लोभादिक कषायों का अभाव होता है। ....ध्यान स्वाध्याय निर्विघ्न होते हैं। .....परिग्रहत्याग नाम का गुण प्रगट होता है। इससे आत्मा निर्मल होता है। ....शरीर पर अनादर करना यह गुण है। .....स्ववशता गुण प्रगट होता है। ....मन की विशुद्धि प्रगट होती है। ....निर्भयता गुण प्रगट होता है। ....अप्रतिलेखना नामक गुण भी निष्परिग्रहता से प्राप्त होता है। चौदह प्रकार की उपाधियों को ग्रहण करने वाले श्वेतांबर मुनियों को बहुत संशोधन करना पड़ता है, परंतु दिगंबर मुनियों को उसकी आवश्यकता नहीं। परिकर्मवर्जन नाम का गुण है। ...रंगाना इत्यादिक कार्य वस्त्र सहित मुनि को करने पड़ते हैं। ...स्व.तः के पास वस्त्र प्रावरणादिक हो तो उसको धोना पड़ेगा, फटने पर सीना पड़ेगा, ऐसे कुत्सित कार्य करने पड़ेंगे तथा वस्त्र समीप होने से अपने को अलंकृत करने की इच्छा होती है। और इसमें मोह उत्पन्न होता है। अचेलता में लाघव नामक गुण है। निवस्त्र मुनि खड़े रहना, बैठना, गमन करना इत्यादिक कार्यों में वायु के समान अप्रतिबद्ध रहते हैं। तीर्थंकराचरित नाम का गुण भी अचेलता में रहता है। जितने तीर्थंकर हो चुके और होनेवाले हैं वे सब वस्त्ररहित होकर ही तप करते हैं। ....जिनप्रतिमाएँ और तीर्थंकरों के अनुयायी गणधर भी निर्वस्त्र ही हैं। उनके सर्व शिष्य भी वस्त्र रहित ही होते हैं। ....नग्नता में अपना बल और वीर्य प्रगट करना वह गुण है।....नग्नता में दोष तो है ही नहीं परंतु गुणमात्र अपरिमित हैं।
• कदाचित् स्त्री को नग्न रखने की आज्ञा – देखें लिंग - 1.4।
3. कदाचित् परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहण की आज्ञा
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/611/18
अथैवं मन्य से पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम्। तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितम् - "प्रतिलिखेत्पात्रकंबलंध्रुवमिति। असत्सु पात्रादिपु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते।" ......वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्ये कथमेतानि सूत्राणि नीयंते। ....निषेधेअप्युक्तं-"कसिणाइं वत्थकंबलाइं जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिग लहुगं" इति। एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इत्यत्रोच्यते-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलंबमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति। .....हिमसमये शीतबाधासहः परिगृह्य चेलं तस्मिंनिष्क्रांते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति। कारणापेक्ष्यं ग्रहणमाख्यातम्। परिजीर्णविशेषोपादानाद्दृढानामपरित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः। प्रक्षालनादिकसंस्कारविरहात्परिजीर्णता वस्त्रस्य कथिता .....अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति। तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम्। यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव। तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारापेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम्।
= प्रश्न - पूर्वागमों में वस्त्र पात्रादिक के ग्रहण करने का विधान मिलता है। आचारप्रणिधि नामक ग्रंथ में लिखा है - "पात्र और कंबल को अवश्य शोधना चाहिए। अर्थात् उनका प्रतिलेखन आवश्यक है"। यदि वस्त्र पात्रादिक का विधान न होता तो प्रतिलेखना निश्चय से करने का विधान क्यों लिखा होता? (आचारांग आदि सूत्रों में भी इसी प्रकार के अनेकों उद्धरण उपलब्ध होते हैं) वस्त्र पात्र यदि `ग्राह्य नहीं हैं' ऐसा आगम में लिखा होता तो इन सूत्रों का उल्लेख कैसे होता? वस्त्र पात्र के संबंध में ऐसा प्रमाण है `सर्व प्रकार के वस्त्र कंबलों को ग्रहण करने से मुनिको लघुमासिक नामक प्रायश्चित्त विधि करनी पड़ती है। इस प्रकार सूत्रों में ग्रहण का विधान है, इसलिए अचेलता या नग्नता का आपका विवेचन कैसे योग्य माना जायेगा? उत्तर - आगम में आर्यिकाओं को वस्त्र ग्रहण करने की आज्ञा है। और कारण की अपेक्षा से भिक्षुओं को वस्त्र धारण की आज्ञा है। जो साधु लज्जालु हैं, जिसके शरीर के अवयव अयोग्य हैं अर्थात् जिसके पुरुषलिंग पर चर्म नहीं हैं, जिसका लिंग अति दीर्घ है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/77 ) जिसके अंडकोश दीर्घ है, अथवा जो परिषह सहन करने में असमर्थ है वह वस्त्र ग्रहण करता है। जाड़े के दिनों में जिससे सर्दी सहन होती नहीं है ऐसे मुनि को वस्त्र ग्रहण कर के जाड़े के दिन समाप्त होने पर जीर्ण वस्त्र (पुराने वस्त्र) छोड़ देना चाहिए। कारण की अपेक्षा से वस्त्र ग्रहण करने का विधान है (निरर्गलतावश नहीं)। प्रश्न - जीर्ण वस्त्र का त्याग करने का विधान आगम में है इसलिए दृढ़ (मजबूत) या जो अभी फटा नहीं है, वस्त्र का त्याग नहीं करना चाहिए, ऐसा आगम से सिद्ध होता है? उत्तर - ऐसा कहना अयोग्य है क्योंकि इससे आचार्य के मूल वचन (मूल गाथा में कथित) अचेलता के साथ विरोध आता है। प्रक्षालन आदि संस्कार न होने से वस्त्र में जीर्णता आती ही है। इसी अपेक्षा से जीर्णता का कथन किया है। अचेलता शब्द का अर्थ सर्व परिग्रह त्याग है। पात्र भी परिग्रह है, इसलिए उसका भी त्याग करना अवश्य सिद्ध होता है। अतः कारण की अपेक्षा से वस्त्र पात्र का ग्रहण करना सिद्ध होता
जो उपकरण कारण की अपेक्षा से ग्रहण किया जाता है उसका त्याग भी अवश्य करना चाहिए। इसलिए वस्त्र और पात्र का अर्थाधिकार की अपेक्षा से सूत्रों में बहुत स्थानों में विधान आया है, वह सब कारण की अपेक्षा से ही है, ऐसा समझना चाहिए।
नोट :- [इस वाद में सभी उद्धरण श्वेतांबर साहित्य में से लिये गये हैं अतः ऐसा प्रतीत होता है कि विजयोदया टीकाकार आचार्य को श्वेतांबरों को प्रेमपूर्वक समझाना इष्ट था। वास्तव में दिगंबर आम्नाय में परिषहादि के कारण भी वस्त्रादि के ग्रहण की आज्ञा नहीं है। यदि ऐसा करना ही पड़े तो मुनिपद छोड़कर नीचे आ जाना पड़ता है।] (और भी देखें प्रव्रज्या - 1.4)।