अलाभ परिषह: Difference between revisions
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/425</span> <p class="SanskritText">वायुवदसंगादनेकदेशचारिणोऽभ्युपगतैककालसंभोजनस्य वाचयमस्य तत्ससमितस्य वा सकृत्स्वतनुदर्शनमात्रतंत्रस्य पाणिपुटमात्रपात्रस्य बहुषु दिवसेषु बहुषु च गृहेषुभिक्षामनवाप्याप्यसंक्लिष्टचेतसी दातृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्यलाभादप्यलाभो मे परमं तप इति संतुष्टस्यालाभविजयोऽवसेयः।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/425</span> <p class="SanskritText">वायुवदसंगादनेकदेशचारिणोऽभ्युपगतैककालसंभोजनस्य वाचयमस्य तत्ससमितस्य वा सकृत्स्वतनुदर्शनमात्रतंत्रस्य पाणिपुटमात्रपात्रस्य बहुषु दिवसेषु बहुषु च गृहेषुभिक्षामनवाप्याप्यसंक्लिष्टचेतसी दातृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्यलाभादप्यलाभो मे परमं तप इति संतुष्टस्यालाभविजयोऽवसेयः।</p> | ||
<p class="HindiText">= वायु के समान निःसंग होने से जो अनेक देशों में विचरण करता है, जिसने दिन में एक बार के भोजन को स्वीकार किया है, जो मौन रहता है या भाषा समिति का पालन करता है, एक बार अपने शरीर को दिखलाना मात्र जिसका सिद्धांत है, पाणीपुट ही जिसका पात्र है, बहुत दिनों तक या बहुत घरों में भिक्षा के न प्राप्त होने पर जिसका चित्त संक्लेश से रहित है, दाता विशेष की परीक्षा करने में जो निरुत्सुक है, तथा लाभ से भी अलाभ मेरे लिए परम तप है, इस प्रकार जो संतुष्ट है, उसके अलाभ परिषहजय जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= वायु के समान निःसंग होने से जो अनेक देशों में विचरण करता है, जिसने दिन में एक बार के भोजन को स्वीकार किया है, जो मौन रहता है या भाषा समिति का पालन करता है, एक बार अपने शरीर को दिखलाना मात्र जिसका सिद्धांत है, पाणीपुट ही जिसका पात्र है, बहुत दिनों तक या बहुत घरों में भिक्षा के न प्राप्त होने पर जिसका चित्त संक्लेश से रहित है, दाता विशेष की परीक्षा करने में जो निरुत्सुक है, तथा लाभ से भी अलाभ मेरे लिए परम तप है, इस प्रकार जो संतुष्ट है, उसके अलाभ परिषहजय जानना चाहिए।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/9/20/611/18)</span> <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 123/4)</span>।</p> | ||
Latest revision as of 22:15, 17 November 2023
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/425
वायुवदसंगादनेकदेशचारिणोऽभ्युपगतैककालसंभोजनस्य वाचयमस्य तत्ससमितस्य वा सकृत्स्वतनुदर्शनमात्रतंत्रस्य पाणिपुटमात्रपात्रस्य बहुषु दिवसेषु बहुषु च गृहेषुभिक्षामनवाप्याप्यसंक्लिष्टचेतसी दातृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्यलाभादप्यलाभो मे परमं तप इति संतुष्टस्यालाभविजयोऽवसेयः।
= वायु के समान निःसंग होने से जो अनेक देशों में विचरण करता है, जिसने दिन में एक बार के भोजन को स्वीकार किया है, जो मौन रहता है या भाषा समिति का पालन करता है, एक बार अपने शरीर को दिखलाना मात्र जिसका सिद्धांत है, पाणीपुट ही जिसका पात्र है, बहुत दिनों तक या बहुत घरों में भिक्षा के न प्राप्त होने पर जिसका चित्त संक्लेश से रहित है, दाता विशेष की परीक्षा करने में जो निरुत्सुक है, तथा लाभ से भी अलाभ मेरे लिए परम तप है, इस प्रकार जो संतुष्ट है, उसके अलाभ परिषहजय जानना चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 9/9/20/611/18) (चारित्रसार पृष्ठ 123/4)।