अनेकांत: Difference between revisions
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<p class="HindiText">वस्तु में एक ही समय अनेकों क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों, गुणों, स्वभावों व पर्यायों के रूप में-भली प्रकार प्रतीति के विषय बन रहे हैं। जो वस्तु किसी एक दृष्टि से नित्य प्रतीत होती है वही किसी अन्य दृष्टि से अनित्य प्रतीत होती है, जैसे व्यक्ति वह का वह रहते हुए भी बालक से बूढ़ा और गँवार से साहब बन जाता है। यद्यपि विरोधी धर्मों का एक ही आधार में रहना साधारण जनों को स्वीकार नहीं हो सकता पर विशेष विचारक जन दृष्टि भेद की अपेक्षाओं को मुख्य गौण करके विरोध में भी अविरोध का विचित्र दर्शन कर सकते हैं। इसी विषय का इस अधिकार में कथन किया गया है।</p> | |||
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<li class="HindiText">[[ #1.1 | अनेकांत सामान्य का लक्षण।]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.2 | अनेकांत के दो भेद (सम्यक् व मिथ्या)।]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.3 | सम्यक् व मिथ्या अनेकांत के लक्षण।]]</li> | |||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
वस्तु में एक ही समय अनेकों क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों, गुणों, स्वभावों व पर्यायों के रूप में-भली प्रकार प्रतीति के विषय बन रहे हैं। जो वस्तु किसी एक दृष्टि से नित्य प्रतीत होती है वही किसी अन्य दृष्टि से अनित्य प्रतीत होती है, जैसे व्यक्ति वह का वह रहते हुए भी बालक से बूढ़ा और गँवार से साहब बन जाता है। यद्यपि विरोधी धर्मों का एक ही आधार में रहना साधारण जनों को स्वीकार नहीं हो सकता पर विशेष विचारक जन दृष्टि भेद की अपेक्षाओं को मुख्य गौण करके विरोध में भी अविरोध का विचित्र दर्शन कर सकते हैं। इसी विषय का इस अधिकार में कथन किया गया है।
- अनेकांत निर्देश
- अनेकांत छल नहीं है।
- अनेकांत संशयवाद नहीं है।
- अनेकांत के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं होती।
- किसी न किसी रूप में सब अनेकांत मानते हैं।
- अनेकांत भी अनेकांतात्मक है।
- अनेकांत में सर्व एकांत रहते हैं पर एकांत में अनेकांत नहीं रहता।
- निरपेक्ष नयों का समूह अनेकांत नहीं है।
- अनेकांत व एकांत का समन्वय।
- सर्व एकांतवादियों के मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं।
- अनेकांत का कारण व प्रयोजन
- अनेकांत के उपदेश का कारण।
- अनेकांत के उपदेश का प्रयोजन।
- अनेकांतवादियों को कुछ भी कहना अनिष्ट नहीं।
- अनेकांत की प्रधानता व महत्ता।
- वस्तुमें विरोधी धर्मों का निर्देश
- वस्तु अनेकों विरोधी धर्मों से गुंफित है।
- वस्तु भेदाभेदात्मक है।
- सत् सदा अपने प्रतिपक्षी की अपेक्षा रखता है।
- स्व सदा पर की अपेक्षा रखता है।
- विधि सदा निषेध की अपेक्षा रखती है।
- वस्तु में कुछ विरोधी धर्मों का निर्देश।
- वस्तु में कथंचित् स्व-पर भाव निर्देश।
- विरोध में अविरोध
- विरोधी धर्म रहने पर भी वस्तु में कोई विरोध नहीं पड़ता।
- सभी धर्मों में नहीं बल्कि यथायोग्य धर्मों में ही अविरोध है।
- अपेक्षाभेद से विरोध सिद्ध है।
- वस्तु एक अपेक्षा से एकरूप है और अन्य अपेक्षा से अन्यरूप है।
- नयों को एकत्र मिलाने पर भी उनका विरोध कैसे दूर होता है।
- विरोधी धर्मों में अपेक्षा लगाने की विधि।
- विरोधी धर्म बताने का प्रयोजन।
• अनेकांत प्रमाणस्वरूप है। - देखें नय - I.2।
• सर्व दर्शन मिलकर एक जैनदर्शन बन जाता है। - देखें अनेकांत - 2.6।
• एवकार का प्रयोग व कारण आदि। - देखें एकांत - 2।
• स्यात्कार का प्रयोग व कारण आदि। - देखें स्याद्वाद
• शब्द अल्प है और अर्थ अनंत।
• वस्तुके विरोधी धर्मों में कथंचित् विधि निषेध व भेदाभेद। - देखें सप्तभंगी - 5।
• अनेकांत के स्वरूप में कथंचित् विधि निषेध। - देखें सप्तभंगी - 3।
• अपेक्षा व विवक्षा प्रयोग विधि। - देखें स्याद्वाद ।
• नित्यानित्य पक्ष में विधि निषेध व समन्वय। - देखें उत्पाद , व्यय ध्रौव्य 2।
• द्वैत व अद्वैत अथवा भेद व अभेद अथवा एकत्व व पृथक्त्व पक्ष में विधि निषेध व समन्वय। - देखें द्रव्य - 4।
1. भेद व लक्षण
1. अनेकांत सामान्यका लक्षण
धवला पुस्तक 15/25/1
को अणेयंतो णाम। जच्चंतरत्तं।
= अनेकांत किसको कहते हैं? जात्यंतरभाव को अनेकांत कहते हैं (अर्थात् अनेक धर्मों या स्वादों के एकरसात्मक मिश्रण से जो जात्यंतरपना या स्वाद उत्पन्न होता है, वही अनेकांत शब्द का वाच्य है)।
समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ट
यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यसित्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकांतः।
= जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक वस्तुमें वस्तुत्वकी उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकांत है।
(और भी देखो आगे सम्यगनेकांतका लक्षण)।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$76
अनेके अंता धर्माः सामान्यविशेषपर्याया गुणा यस्येति सिद्धोऽनेकांतः।
= जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अंत या धर्म हैं, वह अनेकांत रूप सिद्ध होता है।
(सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 30/2)।
2. अनेकांत के दो भेद-सम्यक् व मिथ्या
राजवार्तिक अध्याय 1/6,7/35/23
अनेकांतोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकांतो मिथ्याऽनेकांत इति।
= अनेकांत भी दो प्रकार का है - सम्यगनेकांत व मिथ्या अनेकांत।
(सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 73/10)।
3. सम्यक् व मिथ्या अनेकांत के लक्षण
1. सम्यगनेकांत का लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/6,7/35/36
एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूपनिरूपणो युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धः सम्यगनेकांतः।
= युक्ति व आगम से अविरुद्ध एक ही स्थान पर प्रतिपक्षी अनेक धर्मों के स्वरूप का निरूपण करना सम्यगनेकांत है।
(सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 74/2)।
2. मिथ्या अनेकांतका लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/6,7/35/27
तदतत्स्वभाववस्तुशून्यं परिकल्पितानेकात्मकं केवलं वाग्विज्ञानं मिथ्यानेकांतः।
= तत् व अतत् स्वभाववस्तु से शून्य केवल वचन विलास रूप परिकल्पित अनेक धर्मात्मक मिथ्या अनेकांत है।
(सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 74/3)।
4. क्रम व अक्रम अनेकांत के लक्षण
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 141/200/9
तिर्यक्प्रचयाः तिर्यक्सामान्यमिति विस्तारसामान्यमिति अक्रमानेकांत इति च भण्यते। .....ऊर्ध्वप्रचय इत्यूद्र्ध्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकांत इति च भण्यते।
= तिर्यक्प्रचय, तिर्यक् सामान्य, विस्तार सामान्य और अक्रमानेकांत यह सब शब्द तिर्यक् प्रचय के नाम हैं और इसी प्रकार ऊर्ध्व प्रचय, ऊर्ध्व सामान्य, आयतसामान्य तथा क्रमानेकांत ये सब शब्द ऊर्ध्व प्रचय के वाचक हैं। (अर्थात् वस्तु का गुण समूह अक्रमानेकांत है, क्योंकि गुणों की वस्तु में युगपत् वृत्ति है और पर्यायों का समूह क्रमानेकांत है, क्योंकि पर्यायों की वस्तु में क्रम से वृत्ति है।
2. अनेकांत निर्देश
1. अनेकांत छल नहीं है
राजवार्तिक अध्याय 1/6,8/36/1
स्यान्मतम्-`तदेवास्ति तदेव नास्ति तदेव नित्यं तदेवानित्यम्' इति चानेकांतप्ररूपणं छलमात्रमिति, तन्नः, कुतः। छललक्षणाभावात्। छलस्य हि लक्षणमुक्तम्-"वचनाविधातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छलम् यथा नवकंबलोऽयं इत्यविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थांतरकल्पनम् नवास्य कंबला न चत्वारः इति, नवो वास्य कंबलो न पुराणः" इति नवकंबलः। न तथानेकांतवादः। यत उभयनयगुणप्रधानभावापादितार्पितानर्पितव्यवहारसिद्धिविशेषबललाभप्रापितयुक्तिपुष्कलार्थः अनेकांतवादः।
= प्रश्न - `वही वस्तु है और वही वस्तु नहीं है, वही वस्तु नित्य है और वही वस्तु अनित्य है, इस प्रकार अनेकांत का प्ररूपण छल मात्र है? = उत्तर-अनेकांत छल रूप नहीं है, क्योंकि, जहाँ वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वचन विघात किया जाता है, वहाँ छल होता है। जैसे `नवकंबलो देवदत्तः' यहाँ `नव' शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक 9 संख्या और दूसरा नया। तो `नूतन' विवक्षा कहे गये `नव' शब्द का 9 संख्या रूप अर्थ विकल्प करके वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना छल कही जाती है। किंतु सुनिश्चित मुख्य गौण विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन करने वाला अनेकांतवाद छल नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें वचन विघात नहीं किया गया है, अपितु यथावस्थित वस्तु तत्त्व का निरूपण किया गया है।
( सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 79/10)।
2. अनेकांत संशयवाद नहीं है
राजवार्तिक अध्याय 1/6,9-12/36/8
स्यान्मतम्-संशयहेतुरनेकांतवादः। कथम्। एकत्राधारे विरोधिनोऽनेकस्यासंभवात्। ....तच्च न; कस्मात्। विशेषलक्षणोपलब्धेः। इह सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशयः। ....न च तद्वदनेकांतवादे विशेषानुलब्धिः, यतः स्वरूपाद्यादेशवशीकृता विशेषा उक्ता वक्तव्याः प्रत्यक्षमुपलभ्यंते। ततो विशेषोपलब्धेर्न संशयहेतुः ॥9॥ विरोधाभावात् संशयाभावः ॥10॥ ....उक्तादर्पआभेदाद् एकत्राविरोधेनावरोधो धर्माणां पितापुत्रादिसंबंधवत् ॥11॥ सपक्षासपक्षापेक्षोपलक्षितसत्त्वासत्त्वादिभेदोपचितैकधर्मवद्वा ॥12॥
= प्रश्न - अनेकांतसंशय का हेतु है, क्योंकि एक आधारमें अनेक विरोधी धर्मों का रहना असंभव है? उत्तर - नहीं, क्योंकि यहाँ विशेष लक्षण की उपलब्धि होती है। ....सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होनेपर किंतु उभय विशेषों का स्मरण होने पर संशय होता है। जैसे धुँधली रात्रिमें स्थाणु और पुरुषगत ऊँचाई आदि सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होने पर, स्थाणुगत पक्षी-निवास व कोटर तथा पुरुषगत सिर खुजाना, कपड़ा, हिलना आदि विशेष धर्मों के न दिखने पर किंतु उन विशेषों का स्मरण रहने पर ज्ञान दो कोटि में दोलित हो जाता है, कि यह स्थाणु है या पुरुष। इसे संशय कहते हैं। किंतु इस भाँति अनेकांतवाद में विशेषों की अनुपलब्धि नहीं है। क्योंकि स्वरूपादि की अपेक्षा करके कहे गये और कहे जाने योग्य सर्व विशेषों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। इसलिए अनेकांत संशय का हेतु नहीं है ॥9॥ इन धर्मों में परस्पर विरोध नहीं है, इसलिए भी संशय का अभाव है ॥10॥ पिता-पुत्रादि संबंधवत् मुख्यगौण विवक्षा से अविरोध सिद्ध है (देखो आगे अनेकांत 5) ॥11॥ तथा जिस प्रकार वादी या प्रतिवादीके द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक हेतु स्वपक्षकी अपेक्षा साधक और परपक्षकी अपेक्षा दूषक होता है, उसी प्रकार एक ही वस्तुमें विविध अपेक्षाओंसे सत्त्व-असत्त्वादि विविध धर्म रह सकते हैं, इसलिए भी विरोध नहीं है ॥12॥
(सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 81-93। आठ दोषोंका निराकरण)।
3. अनेकांतके बिना वस्तुकी सिद्धि नहीं होती
व.स्ती./22,24,25
अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं, भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम्। मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे, तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥22॥ न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति, न च क्रियाकारकमत्र युक्तम्। नैवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ॥24॥ विधिर्निषेधश्चकथंचिदिष्टौ, विवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था ॥25॥
= वह सुयुक्तिनीतवस्तुतत्त्व भेद-अभेद ज्ञान का विषय है और अनेक तथा एक रूप है। भेद ज्ञान से अनेक और अभेद ज्ञान से एक है। ऐसा भेदाभेद ग्राहक ज्ञान ही सत्य है। जो लोग इनमें-से एक को ही सत्य मानकर दूसरे में उपचार का व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है, क्योंकि दोनों धर्मों में-से एक का अभाव मानने पर दूसरे का ही अभाव हो जाता है। दोनों का अभाव हो जाने पर वस्तु तत्त्व अनुपाख्य अर्थात् निःस्वभाव हो जाता है ॥22॥ यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्त को प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारक की ही योजना बन सकती है। जो सर्वथा असत है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। दीपक भी बुझने पर सर्वथा नाश को प्राप्त नहीं होता किंतु अंधकार रूप पर्याय को धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है ॥24॥ वास्तव में विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं। विवक्षावश उनमें मुख्यगौण की व्यवस्था होती है ॥25॥
( स्वयंभू स्त्रोत्र / श्लोक 42-44; 62/65), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 418-433)।
धवला पुस्तक 1/1,1,11/167/2
नात्मनोऽडनेकांतत्वमसिद्धमनेकांतमंतरेण तस्यार्थकारित्वानुपपत्तेः।
= आत्मा का अनेकांतपना असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनेकांत के बिना उसके अर्थक्रियाकारीपना नहीं बन सकता।
( श्लोकवार्तिक पुस्तक 1/1,1,127/597)।
4. किसी न किसी रूपमें सब अनेकांत मानते हैं
राजवार्तिक अध्याय 1/6,14/37
नात्र प्रतिवादिनो विसंवदंते एकमनेकात्मकमिति। केचित्तावदाहुः-`सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानम्' इति। तेषां प्रसादलाघवशोषतापावरणसादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मना मिथेश्च न विरोधः। अथ मन्येथाः `न प्रधानं नामैकं गुणेभ्योऽर्थांतरभूतमस्ति, किंतु त एव गुणाः साम्यापन्नाः प्रधानाख्यं लभंते' इति। यद्येवं भूमा प्रधानस्य स्यात्। स्यादेतत्-तेषां समुदयः प्रधानमेकमितिः अतएवाविरोधः सिद्धः गुणानामवयवानां समुदायस्य च। अपरे मंयंते-`अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्ध्यभिधानलक्षणः सामान्यविशेषः' इति। तेषां च सामान्यमेव विशेषः सामान्यविशेषः इत्येकस्यात्मन उभयात्मकं न विरुध्यते। अपरे आहुः-`वर्णादिपरमाणुसमुदयो रूपपरमाणुः' इति। तेषां कक्खडत्वादिभिन्नलक्षणानां रूपात्मना मिथश्चं न विरोधः। अथ मतम् `न परमाणुर्नामैकोऽस्ति बाह्यः, किंतु विज्ञानमेव तदाकारपरिणतं परमाणुव्यपदेशार्हम् इत्युच्यते; अत्रापि ग्राहकविषयाभाससंवित्तिशक्तित्रयाकाराधिकरणस्यैकस्याभ्युपगमान्न विरोधः। किं सर्वेषामेव तेषां पूर्वोत्तरकालभावावस्था विशेषार्पणाभेदादेवस्य कार्यकारणशक्तिसमन्वयो न विरोधस्यास्पदमित्यविरोधसिद्धिः।
= `एक वस्तु अनेक धर्मात्मक है' इसमें किसी वादी को विवाद भी नहीं है। यथा सांख्य लोग सत्त्व रज और तम इन भिन्नस्वभाव वाले धर्मों का आधार एक प्रधान मानते हैं। उनके मत में प्रसाद, लाघव, शोषण, अपवरण, सादन आदि भिन्न-भिन्न गुणों का प्रधान से अथवा परस्पर में विरोध नहीं है। वह प्रधान नामक वस्तु उन गुणों से पृथक् ही कुछ हो सो भी नहीं है, किंतु वे ही गुण साम्यावस्था को प्राप्त करके `प्रधान' संज्ञा को प्राप्त होते हैं और यदि ऐसे हों तो प्रधान भूमा (व्यापक) सिद्ध होता है। यदि यहाँ यह कहो कि उनका समुदाय प्रधान एक है तो स्वयं ही गुणरूप अवयवों के समुदायमें अविरोध सिद्ध हो जाता है। वैशेषिक पृथिवीत्व आदि सामान्य विशेष स्वीकार करते हैं। एक ही पृथिवी स्वव्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्यत्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति कराने के कारण विशेष कहा जाता है। उनके यहाँ `सामान्य ही विशेष है' इस प्रकार पृथिवीत्व आदि को सामान्य विशेष मान गया है। अतः उनके यहाँ भी एक आत्मा के उभयात्मकपन विरोध को प्राप्त नहीं होता। बौद्ध जन कर्कश आदि विभिन्न लक्षण वाले परमाणुओं के समुदाय को एकरूप स्वलक्षण मानते हैं। इनके मत में भी विभिन्न परमाणुओं में रूप की दृष्टि से कोई विरोध नहीं है। विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्ध एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार त्रयाकार स्वीकार करते ही हैं। सभी वादी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं, अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्यायों की दृष्टि से कारण-कार्य व्यवहार निर्विरोध रूप से होता है। उसी तरह सभी जीवादि पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक धर्मों के आधार सिद्ध होते हैं।
(गीता/13/14-16) (ईशोपनिषद्/8)।
5. अनेकांत भी अनेकांतात्मक है
स्वयंभू स्त्रोत्र / श्लोक 103
ननुभगवन्मते येन रूपेण जीवादि वस्तु नित्यादिस्वभावं तेन किं कथं चित्तथा सर्वथा वा। यदि सर्वथा तदेकांतप्रसंगादनेकांतक्षतिः, अथ कथंचित्तदानवस्थेत्याशंक्याह-अनेकांतोऽप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः अनेकांतः प्रमाणात्ते तदेकांतोऽर्पितात्रयात्।
= प्रश्न-भगवान के मत में जीवादि वस्तु का जिस रूप से नित्यादि स्वभाव बताया है, वह कथंचित् रूप से है या सर्वथा रूप से। यदि सर्वथा रूपसे है तब तो एकांत का प्रसंग आने के कारण अनेकांत की क्षति होती है और यदि कथंचित् रूप से है तो अनवस्था दोष आता है। इसी आशंका के उत्तर में आचार्यदेव कहते हैं। उत्तर-आपके मत में अनेकांत भी प्रमाण और नय साधनों को लिये हुए अनेकांत स्वरूप है। प्रमाण की दृष्टि से अनेकांतरूप सिद्ध होता है और विवक्षित नय की अपेक्षा से अनेकांत में एकांतरूप सिद्ध होता है।
राजवार्तिक अध्याय 1,6/7/35/28
नयार्पणादेकांतो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात्; प्रमाणार्पणादनेकांतो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्।
= एक अंग का निश्चय कराने वाला होने के कारण नय की मुख्यता से एकांत होता है और अनेक अंगों का निश्चय करानेवाला होने के कारण प्रमाण की विवक्षा से अनेकांत होता है।
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1,6,56/474
न चैवमेकांतोपगमे कश्चिद्दोषः सुनयार्पितस्यैकांतस्य समीचीनतया स्थितत्वात् प्रमाणार्पितस्यास्तित्वानेकांतस्य प्रसिद्धेः। येनात्मनानेकांतस्तेनात्मनानेकांत एवेत्येकांतानुषंगोऽपि नानिष्टः। प्रमाणसाधनस्यैवानेकांतत्वसिद्धेः नयसाधनस्यैकांतव्यवस्थितरेकांतोऽप्यनेकांत इति प्रतिज्ञानात्। तदुक्तम्-"अनेकांतोऽप्यनेकांतः.....(देखो ऊपर नं. 1)"
= इस प्रकार एकांत को स्वीकार करने पर भी हमारे यहाँ कोई दोष नहीं है, क्योंकि श्रेष्ठ नय से विवक्षित किये गये एकांत की समीचीन रूप से सिद्धि हो चुकी है और प्रमाण से विवक्षित किये गये अस्तित्व के अनेकांत की प्रसिद्धि हो रही है। `जिस विवक्षित प्रमाण स्वरूप से अनेकांत है, उस स्वरूप से अनेकांत ही है', ऐसा एकांत होने का प्रसंग भी अनिष्ट नहीं है, क्योंकि प्रमाण करके साधे गये विषय को ही अनेकांतपना सिद्ध है, और नय के द्वारा साधन किये गये विषय को एकांतपना व्यवस्थित हो रहा है। हम तो सबको अनेकांत होने की प्रतिज्ञा करते हैं, इसलिए अनेकांत भी अनेक धर्मवाला होकर अनेकांत है। श्री 108 समंतभद्राचार्यने कहा भी है, कि अनेकांत भी अनेकांतस्वरूप है...इत्यादि
(देखो ऊपर नं.1 स्व.स्त./103)।
नयचक्रवृहद्/181
एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो।
= एकांत एक नयरूप होता है और अनेकांत नयों का समूह होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 261
जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं। सुयणाणेण णएहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥261॥
= जो वस्तु अनेकांतरूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकांतरूप भी है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा अनेकांतरूप है और नयों की अपेक्षा एकांतरूप है ॥261॥
6. अनेकांत में सर्व एकांत रहते हैं पर एकांत में अनेकांत नहीं रहता
नयचक्रवृहद् गाथा 57 में उद्धृत
"नित्यैकांतमतं यस्य तस्यानेकांतता कथम्। अनेकांतमतं यस्य तस्यैकांतमतं स्फुटम्।
= जिसका मत नित्य एकांत स्वरूप है उसके अनेकांतता कैसे हो सकती है। जिसका मत अनेकांत स्वरूप है उसके स्पष्ट रूप से एकांतता होती है।
नयचक्रवृहद् गाथा 176
जह सद्धाणमाई सम्मत्तं जह तवाइगुणणिलए। धाओ वा एयरसो तह णयमूलं अणेयंतो ॥176॥
= जिस प्रकार तप ध्यान आदि गुणों में, श्रद्धान, सम्यक्त्व, ध्येय आदि एक रसरूप से रहते हैं, उसी प्रकार नयमूलक अनेकांत होता है। अर्थात् अनेकांत में सर्व नय एक रसरूप से रहते हैं।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 30/336/11
सर्वनयात्मकत्वादनेकांतवादस्य। यथा विशकलितानां मुक्तामणीनामेकसूत्रानुस्यूताना हारव्यपदेशः, एव पृथगभिसंबंधिनां नयनां स्याद्वादलक्षणैकसूत्रप्रीतानां श्रुताख्यप्रमाणव्यपदेश इति।
= अनेकांतवाद सर्वनयात्मक है। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुंदर हार बन जाता है उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वादरूपी सूत में पिरो देने से संपूर्ण नय `श्रुत प्रमाण' कहे जाते हैं।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 30/336/29
न च वाच्यं तर्हि भगवत्समयस्तेषु कथं नोपलभ्यते इति। समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु तासु अनुपलंभात्। तथा च वक्तृवचनयोरैक्यमध्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादा (ई. 550) उदधाविव सर्वसिंधवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः।
= प्रश्न-यदि भगवान का शासन सर्वदर्शन स्वरूप है, तो यह शासन सर्वदर्शनों में क्यों नहीं पाया जाता? उत्तर-जिस प्रकार समुद्र के अनेक नदी रूप होने पर भी भिन्न-भिन्न नदियों में समुद्र नहीं पाया जाता उसी प्रकार भिन्न-भिन्न दर्शनों में जैन दर्शन नहीं पाया जाता। वक्ता और उसके वचनों से अभेद मानकर श्री सिद्धसेन दिवाकर (ई. 550) ने कहा है, `हे नाथ' जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती हैं वैसे ही संपूर्ण दृष्टियों का आप में समावेश होता है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों में सागर नहीं रहता उसी प्रकार भिन्न-भिन्न दर्शनो में आप नहीं रहते।
7. निरपेक्ष नयों का समूह अनेकांत नहीं है
आप्तमीमांसा श्लोक 108
मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकांततास्ति नः। निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकृत ॥108॥
= मिथ्या नयों का समूह भी मिथ्या ही है, परंतु हमारे यहाँ नयों का समूह मिथ्या नहीं है, क्योंकि परस्पर निरपेक्ष नय मिथ्या हैं, परंतु जो अपेक्षा सहित नय हैं वे वस्तुस्वरूप हैं।
परीक्षामुख/6/61-62
विषयाभासं सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतंत्रम् ॥61॥ तथा प्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च ॥62॥
= वस्तु के सामान्य व विशेष दोनों अंशों को स्वतंत्र विषय मानना विषयाभास है ॥61॥ क्योंकि न तो ऐसे पृथक् सामान्य या विशेषों की प्रतीति है और न ही पृथक्-पृथक् इन दोनों से कोई अर्थक्रिया संभव है।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$86
ननु प्रतिनियताभिप्रायगोचरतया पृथगात्मनां परस्पर साहचर्यानपेक्षायां मिथ्याभूतानामेकत्वादीनां धर्माणां साहचर्यलक्षणसमुदायोऽपि मिथ्यैवेति चेत्तदंगीकुर्महे, परस्परोपकार्योपकारकभावं विना स्वतंत्रतया नैरपेक्ष्यापेक्षायां परस्वभावविमुक्तस्य तंतु समूहस्य शीतनिवारणाद्यर्थक्रियावदेकत्वानेकत्वानामर्थक्रियायां सामर्थ्याभावात्कथंचिन्मिथ्यात्वस्यापिसंभवात्।
= प्रश्न - एक-एक अभिप्राय के विषयरूप से भिन्न-भिन्न सिद्ध होने वाले और परस्पर में साहचर्य की अपेक्षा न रखने पर मिथ्याभूत हुए एकत्व अनेकत्व आदि धर्मोंका साहचर्य रूप समूह भी जो कि अनेकांत माना जाता है, मिथ्या ही है। तात्पर्य यह कि परस्पर निरपेक्ष एकत्वादि एकांत जब मिथ्या हैं तो उनका समूहरूप अनेकांत भी मिथ्या ही कहलायेगा? उत्तर-वह हमें दृष्ट है। जिस प्रकार परस्पर के उपकार्य-उपकारक भाव के बिना स्वतंत्र होने से एक दूसरे की अपेक्षा न करनेपर वस्त्ररूप अवस्थासे रहित तंतुओंका समूह शीत निवारण आदि कार्य नहीं कर सकता है, उसी प्रकार एक दूसरेकी अपेक्षा न करनेपर एकत्वादिक धर्म भी यथार्थ ज्ञान कराने आदि अर्थक्रिया में समर्थ नहीं है। इसलिए उन परस्पर निरपेक्ष धर्मों में कथंचित् मिथ्यापन भी संभव है।
8. अनेकांत व एकांत का समन्वय
राजवार्तिक अध्याय 1/6,7/35/29
यद्यनेकांतोऽनेकांत एव स्यांनैकांतो भवेत्; एकांताभावात् तत्समूहात्मकस्य तस्याप्यभावः स्यात्, शाखाद्यभावे वृक्षाद्यभाववत्। यदि चैकांत एव स्यात्; तदविनाभाविशेषनिराकरणादात्मलोपे सर्वलोपः स्यात्। एवम् उत्तरे च भंगा योजयितव्याः।
= यदि अनेकांत को अनेकांत ही माना जाये और एकांत का सर्वथा लोप किया जाये तो सम्यगेकांत के अभाव में, शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह तत्समुदायरूप अनेकांत का भी अभाव हो जायेगा। यदि एकांत ही माना जाये तो अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्व लोप का प्रसंग प्राप्त होता है। इसी प्रकार (अस्ति नास्ति भंगवत्) अनेकांत व एकांत में शेष भंग ही लागू कर लेने चाहिए।
( सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 75/4)।
9. सर्व एकांतवादियों के मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं
स्याद्वादमंजरी श्लोक 28/316/7
एत एव च परामर्शा अभिप्रेतधर्मावधारणात्मकतयाशेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नयसंज्ञामश्नुवते। तद्बलप्रभावितसत्ताका हि खल्वेते परप्रवादाः। तथाहि-नैगमनयदर्शनानुसारिणौ नैयायिक-वैशेषिकौ। संग्रहाभिप्रायवृत्ताः सर्वेऽप्यद्वैतवादा सांख्यदर्शनं च। व्यवहारनयानुपातिप्रायश्चार्वाकदर्शनम्। ऋजुसूत्राकूतप्रवृत्तबुद्धयस्तथागताः। शब्दादिनयावलंबिनो वैयाकरणादयः।
= जिस समय ये नय अन्य धर्मों का निषेध करके केवल अपने एक अभीष्ट धर्म का ही प्रतिपादन करते हैं, उस समय दुर्नय कहे जाते हैं। एकांतवादी लोग वस्तु के एक धर्म को सत्य मानकर अन्य धर्मों का निषेध करते हैं, इसलिए वे लोग दुर्नयवादी कहे जाते हैं। वह ऐसे कि-न्याय-वैशेषिक लोग नैगमनय का अनुसरण करते हैं, वेदांती अथवा सभी अद्वैतवादी तथा सांख्य दर्शन संग्रहनय को मानते हैं। चार्वाक लोग व्यवहारनयवादी हैं, बौद्ध लोग केवल ऋजुसूत्रनय को मानते हैं तथा वैयाकरण शब्दादि तीनों नय का अनुकरण करते हैं। नोट - [इन नयाभासों के लक्षण
(देखें नय - III)]।
3. अनेकांत का कारण व प्रयोजन
1. अनेकांत के उपदेश कारण
समयसार / परिशिष्ट
"ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽपि आत्मवस्तृनः स्वयमेवानेकांतः प्रकाशते तर्हि किमर्थमर्हद्भिस्तत्साधनत्वेनानुशास्यतेऽनेकांतः। अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्ध्यर्थमिति ब्रूमः। न खल्वनेकांतमंतरेण ज्ञानमात्रमात्ममवस्त्वेव प्रसिध्यति। तथा हि-इह स्वभावत एव बहुभावनिर्भरविश्वेसर्वभावानां स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निषेद्धुमशक्यत्वात् समस्तमेव वस्तु स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव।
= प्रश्न-यदि आत्मवस्तु को ज्ञानमात्रता होने पर भी, स्वयमेव अनेकांत प्रकाशता है, तब फिर अर्हंत भगवान् उसके साधन के रूप में अनेकांत का उपदेश क्यों देते हैं? उत्तर-अज्ञानियों के ज्ञानमात्र आत्मवस्तु की प्रसिद्धि करने के लिए उपदेश देते हैं, ऐसा हम कहते हैं। वास्तव में अनेकांत के बिना ज्ञानमात्र आत्म वस्तु ही प्रसिद्ध नहीं हो सकती। इसी को इस प्रकार समझाते हैं। स्वभाव से ही बहुत से भावों से भरे हुए इस विश्व में सर्व भावों का स्वभाव से अद्वैत होनेपर भी, द्वैत का निषेध करना अशक्य होने से समस्त वस्तु स्वरूप में प्रवृत्ति और पररूप से व्यावृत्ति के द्वारा दोनों भावों से अध्यासित है। (अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूप में प्रवर्तमान होने से और पर रूप से भिन्न रहने से प्रत्येक वस्तु में दोनों भाव रह रहे हैं)।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 10
अविशेषाद्द्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम्, न चानेकांतात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वरूपम्।
= सत्ता से द्रव्य अभिन्न होने के कारण सत् स्वरूप ही द्रव्य का लक्षण है, परंतु अनेकांतात्मक द्रव्यका सन्मात्र ही स्वरूप नहीं है।
और भी दे नय I/2/5-(अनेक धर्मों को युगपत् जानने वाला ज्ञान ही प्रमाण है।)
और भी दे नय I/2/8 (वस्तु में सर्व धर्म युगपत् पाये जाते हैं।)
2. अनेकांत के उपदेश का प्रयोजन
नयचक्रवृहद् गाथा 260-261
तच्चं पि हेयमियरं हेयं खलु भणिय ताण परदव्वं। णिय दव्वं पि य जाणसु हेयाहेयं च णयजोगे ॥260॥ मिच्छासरागभूयो हेयो आदा हवेई णियमेण। तव्विवरीओ झेआ णायव्वो सिद्धिकामेन ॥261॥
= तत्त्व भी हेय और उपादेय रूप से दो प्रकार का है। तहाँ परद्रव्य रूप तत्त्व तो हेय है और निजद्रव्य रूप तत्त्व उपादेय है। ऐसा नय योग से जाना जाता है ॥260॥ नियम से मिथ्यात्व व राग सहित आत्मा हेय है और उससे विपरीत ध्येय है ॥261॥
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 311-312
जो तच्चमणेयंतं णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं। लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणट्ठ च ॥311॥ जो यायरेण मण्णदि जीवाजीवादि णवविहं अत्थं। सुदणाणेण णएहि य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥312॥
= जो लोगों के प्रश्नों के वश से तथा व्यवहार चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा नियम से अनेकांत तत्त्व का श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है ॥311॥ जो श्रुतज्ञान तथा नयों के द्वारा जीव-अजीव आदि नव प्रकार के पदार्थों को आदर पूर्वक मानता है, वह शुद्ध सम्यक्दृष्टि है ॥312॥
3. अनेकांतवादियों को कुछ भी कहना अनिष्ट नहीं
लो.वा.2/5,2-14/180
व्यक्तिरपि तथा नित्या स्यादिति चेत् न किंचिदनिष्टं, पर्यायार्थादेशावदेवविशेषपर्यायस्य सामान्यपर्यायस्यवानित्यत्वोपगमात्।
= प्रश्न-यदि कोई कहे कि इस प्रकार तो द्रव्यकी व्यक्तियें अर्थात् घट पट आदि पर्यायें भी नित्य हो जायेंगी? उत्तर-हो जाने दो। हम स्याद्वादियों को कुछ भी अनिष्ट नहीं है। हमने पर्यायार्थिक नय से ही सामान्य व विशेष पर्यायों को अनित्य स्वीकार किया है, द्रव्यार्थिक नय से तो संपूर्ण पदार्थ नित्य हैं ही।
4. अनेकांत की प्रधानता व महत्ता
स्वयंभू स्त्रोत्र / श्लोक 98
अनेकांतात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः। ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥98॥
= आपकी अनेकांत दृष्टि सच्ची है। विपरीत इसके जो एकांत मत है वह शून्यरूप असत् है, अतः जो कथन अनेकांत दृष्टि से रहित है, वह सब मिथ्या है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/222/2
उत्सुत्तं लिहंता आइरियां कतं वज्जभीरुणो। इदि चे ण एस दोसो, दोण्हं मज्झे एकस्सेव संगहे कीरमाणे वज्जभीरुत्तं णिवट्टति। दोण्हं पि संगहं करेंताणमाइरियाणं वज्जभीरुत्ताविणासादो।
= प्रश्न-उत्सूत्र लिखने वाले आचार्य पापभीरु कैसे माने जा सकते हैं? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों प्रकार के वचनों से किसी एक ही वचन के संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात् उच्छृंखलता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकार के वचनों का संग्रह करने वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती है।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 895/1074
एकांतवादियों का सर्व कथन मिथ्या और अनेकांतवादियों का सर्व कथन सम्यक् है।
(देखें स्याद्वाद 5।)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 27
अनेकांतोऽत्र बलवान्।
= यहाँ अनेकांत बलवान् है।
पंचास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिका/21
स खल्वयं प्रसादोऽनेकांतवादस्य यदीदृशोऽपि विरोधी न विरुध्यते।
= यह प्रसाद वास्तव में अनेकांतवाद का है कि ऐसा विरोध भी विरोध नहीं है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 227
तत्र यतोऽनेकांतो बलवानिह खलु न सर्वथेकांतः। सर्व स्यादविरुद्धं तत्पूर्वं तद्विना विरुद्धं स्यात् ॥227॥
= जैन सिद्धांत में निश्चय से अनेकांत बलवान् है, सर्वथा एकांत बलवान् नहीं है। इसलिए अनेकांत पूर्वक सब ही कथन अविरुद्ध पड़ता है और अनेकांत के बिना सर्व ही कथन विरुद्ध हो जाता है।
4. वस्तु में विरोधी धर्मों का निर्देश
1. वस्तु अनेकों विरोधी धर्मों से गुंफित है
समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ट
"अत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तु वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमेकांतः।
= अनेकांत। 1/1
(समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ट)।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$57
सर्वस्मिन्नपि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नित्यानित्यरूपत्वमित्येवमादिकमनेकांतात्मकत्वम्।
= सर्व ही जीवादि वस्तुओं में भावपना-अभावपना, एकरूपपना-अनेकरूपपना, नित्यपना-अनित्यपना, इस प्रकार अनेकांतत्मकपना है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 262-263
स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं त्वनेकमेकं च। तदतच्चेति चतुष्ट्ययुग्मैरिव गुंफितं वस्तु ॥262॥ अथ तद्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तच्चतुष्कं च। द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाथवापि भावेन ॥263॥
= कथंचित् है और नहीं है यह तथा नित्य-अनित्य और एक-अनेक, तत्-अतत् इस प्रकार इन चारयुगलों के द्वारा वस्तु गूंथी हुई की तरह है ॥262॥ इसका खुलासा इस प्रकार है कि निश्चय से स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव इन चारों के द्वारा जो सत् है वही पर द्रव्यादि से असत् है। इस प्रकार से द्रव्यादि रूप से अस्ति-नास्ति का चतुष्टय हो जाता है ॥263॥
2. वस्तु भेदाभेदात्मक है।
युक्त्यनुशासन श्लोक 7
अभेदभेदात्मकमर्थतत्त्वं, तव स्वतंत्रांयतरत्खपुष्पम्॥
= हे प्रभु! आपका अर्थ तत्त्व अभेदभेदात्मक है। अभेदात्मक और भेदात्मक दोनों को स्वतंत्र स्वीकार करने पर प्रत्येक आकाश पुष्प के समान हो जाता है।
3. सत् सदा अपने प्रतिपक्षी की अपेक्षा रखता है
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 8
सत्तासव्वपयत्थासव्विस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥8॥
= सत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक, एक, सर्वपदार्थस्थित, सविश्वरूप, अनंतपर्यायमय और सप्रतिपक्ष
(कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1/1-1/6/53) ( धवला पुस्तक 14/5-6-128 18/234)।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 8
एवंभूतापि सा न खलु निरंकुशा किंतु सप्रतिपक्षा। प्रतिपक्षो ह्यसत्ता सत्तायाः, अत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः अनेकत्वमेकस्याः, एकपदार्थस्थितत्वं सर्वपदार्थस्थितायाः, एकरूपत्वं सविश्वरूपायाः, एकपर्यायत्वमनंतपर्याया इति।
= ऐसी होनेपर भी वह (सत्ता) वास्तव में निरंकुश नहीं है, किंतु सप्रतिपक्ष है। 1. सत्ता को असत्ता प्रतिपक्ष है; 2. त्रिलक्षण को अत्रिलक्षणपना प्रतिपक्ष है; 3. एक को अनेकपना प्रतिपक्ष है; 4. सर्वपदार्थस्थित को एकपदार्थ स्थितपना प्रतिपक्ष है; 5. सविश्वरूप को एकरूपपना प्रतिपक्ष है, 6. अनंतपर्यायमय को एकपर्यायमयपना प्रतिपक्ष है।
( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 15) (नयचक्र/श्रुतभवन/53)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 34
अस्तित्व नाम सत्ता। सा किंविशिष्टा। सप्रतिपक्षा, अवांतरसत्ता महासत्तेति।
= अस्तित्व नाम सत्ता का है। वह कैसी है? महासत्ता और अवांतरसत्ता-ऐसी सप्रतिपक्ष है।
सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 51/3
सत्ता सप्रतिपक्ष का इति वचनात्।
= संपूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, कालादि रूप जो एक महासत्ता है वही विकल द्रव्य, क्षेत्र आदिसे प्रतिपक्ष सहित है। ऐसा अन्यत्र आचार्य का वचन है।
4. स्व सदा पर की अपेक्षा रखता है
स्याद्वादमंजरी श्लोक 16/218/11
कथमन्यथा स्वशब्दस्य प्रयोगः। प्रतियोगीशब्दो ह्ययं परमपेक्षमाण एव प्रवर्तते।
= `स्व' शब्दका प्रयोग अन्यथा क्यों किया है? स्व-शब्द प्रतियोगी शब्द है। अतएव स्वशब्द से पर शब्द का भी ज्ञान होता है।
5. विधि सदा निषेध की अपेक्षा रखती है।
नयचक्रवृहद् गाथा 257,304
एक्कणिरुद्धे इयरी पडिवक्खो अणवरेइ सब्भावो। सव्वेसिं च सहावे कायव्वा होइ तह भंगी ॥257॥ अत्थित्तं णो णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्खं। णत्थी विय तह दव्वे मूढो मूढो दु सव्वत्थ ॥304॥
= एक स्वभाव का निषेध होने पर दूसरा प्रतिपक्षी स्वभाव अनुवृत्ति करता है, इस प्रकार सभी स्वभावों में सप्तभंगी करनी चाहिए ॥257॥ जो अस्तित्व को नास्तित्व सापेक्ष और नास्तित्व को अस्तित्व सापेक्ष नहीं मानता है, वह द्रव्य में मूढ़ और इसलिए सर्वत्र मूढ़ है।
राजवार्तिक अध्याय 1/6,13/37/9
यो हेतुरुपदिश्यते स साधको दूषकश्च स्वपक्षं साधयति परपक्षं दूषयति।
= जो हेतु कहा जाता है वह साधक भी होता है और दूषक भी, क्योंकि स्वपक्ष को सिद्ध करता है पर पक्ष में दोष निकालता है
(सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 90/3)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 665
विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः। मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम्।
= विधिपूर्वक प्रतिषेध और प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है, परंतु इन दोनों की मैत्री स्वपराकारग्राही ज्ञान रूप है। वही प्रमाण है।
6. वस्तु में कुछ विरोधी धर्मों का निर्देश
देखें अनेकांत शीर्षक "संख्या सत्-असत्; एक-अनेक; नित्य-अनित्य; तत्-अतत्। (4/1); भेद-अभेद (4/2)। सत्ता-असत्ता; त्रिलक्षणत्वअत्रिलक्षणत्व; एकत्व-अनेकत्व; सर्वपदार्थस्थित-एकपदार्थस्थित; सविश्वरूप-एकरूप; अनंतपर्यायमयत्व-एकपर्यायमयत्व; महासत्ताअवांतरसत्ता; स्व-पर; (4/3)।"
नयचक्रवृहद् गाथा 70/टीका
"सद्रूप-असद्रूप; नित्य-अनित्य; एक-अनेक; भेद-अभेद; भव्य-अभव्य; स्वभाव-विभाव; चैतन्य-अचैतन्य; मूर्त-अमूर्त; एकप्रदेशत्व-अनेकप्रदेशत्व; शुद्ध-अशुद्ध; उपचरित-अनुपचरित; एकांत-अनेकांत.....इत्यादि स्वभाव है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 25
अनित्य-नित्य; सदृश-विसदृश; वाच्य-अवाच्य; सत्-असत्।
ध/ पू./श्लोक नं.
"देश-देशांश ॥74॥; स्व द्रव्य=महासत्ता-अवांतरसत्ता ॥264॥; स्वक्षेत्र=सामान्य-विशेष; अर्थात् अखंड द्रव्य तथा उसके प्रदेश; स्व काल=सामान्य-विशेष अर्थात् अखंड द्रव्यकी एक पर्याय तथा पृथक्-पृथक् गुणों को पर्याय; स्वभाव=सामान्य व विशेष अर्थात् द्रव्य तथा गुण व पर्याय ॥270-280॥
(और भी देखें जीव - 3.4)
7. वस्तुमें कथंचित् स्वपर भाव निर्देश
राजवार्तिक अध्याय 1/6,5/34/39
चैतन्यशक्तेर्द्वाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च.....तत्रज्ञेयाकारः स्वात्मातन्मूलत्वाद् घटव्यवहारस्य। ज्ञानाकारः परात्मा सर्वसाधारणत्वात्।
= चैतन्य शक्ति में दो आकार रहते हैं - ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार। तहाँ ज्ञानाकार तो घटव्यवहारका मूल होनेके कारण स्वात्मा है तथा सर्वसाधारण होनेके कारण ज्ञेयाकार परमात्मा है।
राजवार्तिक अध्याय 1/6,5/33/39,40,41,43
घटत्व नामक धर्म `घट' का स्वरूप है और पटत्वादि पररूप है।....नाम, स्थापना, द्रव्य, भावादिकोंमें जो विवक्षित है, वह स्वरूप है और जो अविवक्षित है, वह पररूप है। घट विशेषके अपने स्थौल्यादि धर्मोंसे विशिष्ट घटत्व तो उसका स्वरूप है और अन्य घटोंका घटत्व उसका पररूप है। और उस ही घट विशेषमें पूर्वोत्तरकालवर्ती पिंड कुशूलादि उसका पररूप है और उन पिंड कुशूलादिमें अनुस्यूत एक घटत्व उसका स्वरूप है। ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा वर्तमान घटपर्याय स्वरूप है और पूर्वोत्तर कालवर्ती घटपर्याय पररूप है। उस क्षणमें भी तत्क्षणवर्ती रूपादि समुदायात्मक घटमें रहनेवाले पृथुबुध्नोदरादि आकार तो उसके स्वरूप हैं और इसके अतिरिक्त अन्य आकार उसके पररूप हैं। तत्क्षणवर्ती रूपादिकोंमें भी रूप उसका स्वरूप है और अन्य जो रसादि वे उसके पर रूप हैं, क्योंकि चक्षु इंद्रिय द्वारा रूपमुखेन ही घटका ग्रहण होता है। समभिरूढ़ नयसे घटनक्रिया विषयक कर्तृत्व ही घटका स्वरूप है और अन्य कौटिल्यादि धर्म उसके पररूप हैं। मृत द्रव्य उसका स्व-द्रव्य है और अन्य स्वर्णादि द्रव्य उसके परद्रव्य हैं। घटका स्वक्षेत्र भूतल आदि है और परक्षेत्र भीत आदि हैं। घटका स्वकाल वर्तमानकाल है और परकाल अतीतादि है।
( सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 39-45)।
सप्तभंग तरंंगिनी पृष्ठ 49-51
प्रमेयका प्रमेयत्व उसका स्वरूप है घटत्वादिक ज्ञेय उसका पररूप है। अथवा प्रमेयका स्वरूप तो प्रमेयत्व है और पररूप अप्रमेयत्व है ॥49-50॥ छहों द्रव्योंका शुद्ध अस्तित्व तो उनका स्वरूप है और उनका प्रतिपक्षी अशुद्ध अस्तित्व उनका पररूप है। शुद्ध द्रव्यमें भी उसका सकल द्रव्य क्षेत्र काल भावकी उपेक्षा सत्त्व है और विकल्प द्रव्य क्षेत्रादिकी अपेक्षा असत्त्व है ॥51॥
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 398
ज्ञानात्मक आत्माका एक ज्ञान गुण स्वार्थ है और शेष सुख आदि गुण परार्थ है।
राजवार्तिक अध्याय 1/6,5/35/11
एवमियं सप्तभंगी जीवादिषु सम्यग्दर्शनादिषु च द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयार्पणाभेदाद्योजयितव्या।
= इस प्रकार यह सप्तभंगी जीवादिक व सम्यग्दर्शनादिक सर्व विषयोंमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद करके लागू कर लेनी चाहिए।
5. विरोध में अविरोध
1. विरोधी धर्म रहनेपर भी वस्तु में कोई विरोध नहीं पड़ता
धवला पुस्तक 1/1,1,11/166/9
अक्रमेण सम्यग्गिथ्यारुच्यात्मको जीवः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति प्रतिजानीमहे। न विरोधोऽप्यनेकांते आत्मनि भूयसां धर्माणां सहानवस्थालक्षणविरोधासिद्धेः।
= युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि है, ऐसा मानते हैं और ऐसा मानने में विरोध भी नहीं आता, क्योंकि आत्मा अनेकधर्मात्मक है, इसलिए उसमें अनेक धर्मोंका सहानवस्थालक्षण विरोध असिद्ध है।
पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 8/13/151
यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शूंयमुत्पद्यंते, नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च। एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्ते प्रतीतिं दृढां, सिद्धज्योतिरमूर्ति चित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते ॥13॥
पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 10/14/172
निर्विनराशमपि नाशमाश्रितं शून्यमत्यतिशयेन संभृतम्। एकमेव गतमप्यनेकतां तत्त्वमीदृगपि नो विरुध्यते ॥14॥
= जो सिद्धज्योति सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है, शून्य भी है और परिपूर्ण भी है, उत्पाद-विनाशशाली भी है और नित्य भी है, सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है तथा एक भी है और अनेक भी है, ऐसा वह दृढ़ प्रतीति को प्राप्त हुई अमूर्तिक चेतन एव सुखस्वरूप सिद्ध ज्योति किसी बिरले ही योगी पुरुष के द्वारा देखी जाती है ॥13॥ वह आत्मतत्त्व विनाश से रहित होकर भी नाश को प्राप्त है, शून्य होकर भी अतिशय से परिपूर्ण है तथा एक होकर भी अनेकता को प्राप्त है। इस प्रकार नय विवक्षा से ऐसा मानने में कुछ भी विरोध नहीं आता है
(गीता/13/14-16) (ईशोपनिषद्/8) (और भी देखें अनेकांत - 2.5 )।
2. सभी धर्मों में नहीं बल्कि यथायोग्य धर्मों में ही अविरोध हैं
धवला पुस्तक 1/1/1,1,11/167/3
अस्त्वेकस्मिन्नात्मनि भूयसां सहावस्थानां प्रत्यविरुद्धानां संभवो नाशेषाणामिति चेत्क एवमाह समस्तानाप्यवस्थितिरिति चैतन्याचैतन्यभव्याभव्यादिधर्माणामप्यक्रमणैकात्मन्यवस्थितिप्रसंगात्। किंतु येषां धर्माणां नात्यंताभावो यस्मिन्नात्मनि तत्र कदाचित्कवचिदक्रमेण तेषामस्तित्वं प्रतिजानीमहे।
= प्रश्न-जिन धर्मों का एक आत्मा में एक साथ रहने में विरोध नहीं है, वे रहें, परंतु संपूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मा में रह नहीं सकते हैं? उत्तर-कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ आत्मा में रहना संभव है? यदि संपूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ एक आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिए संपूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मा में रहे हैं, अनेकांत का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए। किंतु जिन धर्मों का जिस आत्मा में अत्यंत अभाव नहीं (यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व भाव का प्रकरण है) वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं।
3. अपेक्षा भेद से अविरोध सिद्ध है
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/32/303
ताभ्यां सिद्धेरर्पितानर्पितासिद्धेर्नास्ति विरोधः। तद्यथा-एकस्य देवदत्तस्य पिता पुत्रो भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः संबंधा जनकत्वजन्यत्वादिनिमित्ता न विरुध्यंते; अर्पणभेदात्॥ पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादिः। तथा द्रव्यमपि सामान्यार्पणया नित्यम्, विशेषार्पणयानित्यमिति नास्ति विरोधः।
= इन दोनों की अपेक्षा एक वस्तु में परस्पर विरोधी वो धर्मों की सिद्धि होती है, इसलिए कोई विरोध नहीं है। -जैसे देवदत्त के पिता, पुत्र, भाई और भानजे, इसी प्रकार और भी जनकत्व और जन्यत्वादि के निमित्त से होनेवाले संबंध विरोध को प्राप्त नहीं होते। जब जिस धर्म की प्रधानता होती है उस समय उसमें वही धर्म माना जाता है। उदाहरणार्थ-पुत्रकी अपेक्षा वह पिता है और पिताकी अपेक्षा वह पुत्र है आदि। उसी प्रकार द्रव्य भी सामान्य की अपेक्षा नित्य है और विशेष की अपेक्षा अनित्य है, इसलिए कोई विरोध नहीं है।
(राजवार्तिक अध्याय 1/6,11/36/22)।
राजवार्तिक अध्याय 5/31, 2/497/4
वियदेव न व्येति, उत्पद्यमान एव नोत्पद्यते इति विरोधः, ततो न युक्तमिति; तन्नः किं कारणम्। धर्मांतराश्रयणात्। यदि येन रूपेण व्ययोदयकल्पना तेनैव रूपेण नित्यता प्रतिज्ञायेत स्याद्विरोधः जनकत्वापेक्षयैव पितापुत्रव्यपदेशवत्, नंतु धर्मांतरसंश्रयणात्।
= प्रश्न-`जो नष्ट होता है वही नष्ट नहीं होता और जो उत्पन्न होता है वही उत्पन्न नहीं होता,' यह बात परस्पर विरोधी मालूम होती है? उत्तर-वस्तुत विरोध नहीं है, क्योंकि जिस दृष्टि से नित्य कहते हैं यदि उसी दृष्टि से अनित्य कहते तो विरोध होता जैसे कि एक जनकत्व की ही अपेक्षा किसी को पिता और पुत्र कहने में। पर यहाँ द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य कहा जाता है, अतः विरोध नहीं है। दोनों नयों की दृष्टि से दोनों धर्म बन जाते हैं।
नय चक्र/श्रुतभवन/पृष्ठ 65
यथा स्वस्वरूपेणास्तित्वं तथा पररूपेणाप्यस्तित्वं माभूदिति स्याच्छब्द।....यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्वं तथा पर्यायरूपेण (अपि) नित्यत्वं माभूदिति स्याच्छब्दः।
= जिस प्रकार वस्तु का स्वरूप से अस्तित्व है, उसी प्रकार पररूप से भी अस्तित्व न हो जाये, इसलिए स्यात् शब्द या अपेक्षा का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार द्रव्यरूप से वस्तु नित्य है, उसी प्रकार पर्यायरूप से भी वह नित्य न हो जाये इसलिए स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता है।
( स्याद्वादमंजरी श्लोक 23/279/7)।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 18/38
ननु यद्युत्पादविनाशौ तर्हि तस्यैव पदार्थस्य नित्यत्वं कथम्। नित्यं तर्हि तस्यैवोत्पादव्ययद्वयं च कथम्। परस्परविरुद्धमिदं शीतोष्णवदिति पूर्वपक्षे परिहारमाहुः। येषां मते सर्वथैकांतेन नित्यं वस्तु क्षणिकं वा तेषां दूषणमिदम्। कथमिति चेत्। येनैव रूपेण नित्यत्वं तेनैवानित्यत्वं न घटते, येन च रूपेणानित्यत्वं तेनैव न नित्यत्वं घटते। कस्मात्। एकस्वभावत्वाद्वस्तुनस्तन्मते। जैनमते पुनरनेकस्वभावं वस्तु तेन कारणेन द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यरूपेण नित्यत्वं घटते पर्यायार्थिकनयेन पर्यायरूपेणानित्यत्वं च घटते। तौ च द्रव्यपर्यायौपरस्परं सापेक्षौ-तेन कारणेन....एकवेदत्तस्य जन्यजनकादिभाववत् एकस्यापि द्रव्यस्य नित्यानित्यत्वं घटते नास्ति विरोधः।
= प्रश्न-यदि उत्पाद और विनाश है तो उसी पदार्थ में नित्यत्व कैसे हो सकता है? और यदि नित्य है तो उत्पाद-व्यय कैसे हो सकते हैं? शीत व उष्ण की भाँति ये परस्पर विरुद्ध हैं? उत्तर-जिनके मत में वस्तु सर्वथा एकांत नित्य या क्षणिक है उनको यह दूषण दिया जा सकता है। कैसे? वह ऐसे कि जिस रूप से नित्यत्व है, उसी रूप से अनित्यत्व घटित नहीं होता और जिस रूप मे अनित्यत्व है, उसी रूप से नित्यत्व घटित नहीं होता। क्योंकि उनके मत में वस्तु एक स्वभावी है। जैन मत में वस्तु अनेकस्वभावी है। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से नित्यत्व और पर्यायार्थिकनय से अनित्यत्व घटित हो जाता है और क्योंकि ये द्रव्य व पर्याय परस्पर सापेक्ष है, इसलिए एक देवदत्त के जन्य-जनकत्वादि भाववत् एक ही द्रव्य के नित्यामित्यत्व घटित होने में कोई विरोध नहीं है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 24/290/8
तदा हि विरोधः स्याद्वयद्येकोपाधिकं सत्त्वमसत्त्वं च स्यात्। न चैवम्। यतो न हि येनैवांशेन सत्त्वं तेनैवासत्त्वमपि। किंत्वन्योपाधिकं सत्त्वम्, अन्योपाधिकं पुनरसत्त्वम्। स्वरूपेण सत्त्वं पररूपेण चासत्त्वम्।
= सत्त्व असत्त्व धर्मों में तब तो विरोध हुआ होता जब दोनों को एक ही अपेक्षा से माना गया होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि जिस अंश से सत्त्व है उसी अंश से असत्त्व नहीं है। किंतु अन्य अपेक्षा से सत्त्व है और किसी अन्य ही अपेक्षा से असत्त्व है। स्वरूप से सत्त्व है और पररूप से असत्त्व है।
4. वस्तु एक अपेक्षा से एकरूप है और अन्य अपेक्षा से अन्यरूप
राजवार्तिक अध्याय 1/6/12/37/1
सपक्षासपक्षापेक्षयोपलक्षितानां सत्त्वासत्त्वादीनां भेदानामाधारेण पक्षधर्मेणैकेन तुल्यं सर्वद्रव्यम्।
= जैसे एक ही हेतु सपक्ष में सत् और विपक्ष में असत् होता है उसी तरह विभिन्न अपेक्षाओं से अस्तित्व आदि धर्मों के रहनेमें भी कोई विरोध नहीं है। (तथा इसी प्रकार अन्य अपेक्षाओं से भी कथन किया है)।
नयचक्रवृहद् गाथा 58
भावा णेयसहावा पमाणगहणेण होंति णिप्वत्ता। एक्कसहावा वि पूणो ते चिय णयभेयगहणेण ॥58॥
= प्रमाण की अपेक्षा करने पर भाव अनेकस्वभावों से निष्पन्न भी हैं और नय भेद की अपेक्षा करनेपर वे एक स्वभावी भी हैं।
समयसार / आत्मख्याति परिशिष्ट
"अत्र स्वात्मवस्तुज्ञानमात्रतया अनुशात्यमानेऽपि न तत्परिकोपः, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वमेवानेकांतत्वात्।....अंतश्वकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वाद् बहिरुंमिषदनंतज्ञेयतापंनस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात्। सहक्रमप्रवृत्तानंतचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात्। अविभागैकद्रव्यप्राप्तसहक्रमप्रवृत्तानंतचिदंशरूपपर्यायैरनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेन सत्त्वात्, परद्रव्यक्षेत्रकालभावाभवनशक्तिस्वभाववत्वेनासत्त्वात्, अनादिनिधनाविभागैकवृत्तिपरिणत्वेन नित्यत्वात्, क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्तदत्त्वमेक्कानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव।....
= इसलिए आत्मवस्तु को ज्ञानमात्रता होने पर भी, तत्त्व-अतत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, सत्त्व-असत्त्व और नित्यत्वपना प्रकाशता ही है, क्योंकि उसके अंतरंग में चकचकित ज्ञानस्वरूप के द्वारा तत्पना है; और बाहर प्रगट होते, अनंत ज्ञेयत्व को प्राप्त, स्वरूप से भिन्न ऐसे पररूप के द्वारा अतत् पना है। सहभूत प्रवर्तमान और क्रमशः प्रवर्तमान अनंत चैतन्य अंशों के समूदायरूप अविभाग द्रव्य के द्वारा एकत्व है और अविभाग एक द्रव्य में व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमशः प्रवर्तमान अनंत चैतन्य अंशरूप पर्यायों के द्वारा अनेकत्व है। अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप में होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा सत्त्व है और पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप न होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है, उस स्वभाववानपने के द्वारा असत्त्व है, अनादि निधन अविभाग एक वृत्तिरूप से परिणतपने के द्वारा नित्यत्व है; और क्रमशः प्रवर्त्तमान एक समय की मर्यादा वाले अनेक वृत्ति अंशीरूप से परिणतपने के द्वारा अनित्यत्व है। - देखें नय X/9/5।
5. नयों को एकत्र मिलाने पर भी उनका विरोध कैसे दूर होता है
स्वयंभू स्त्रोत्र / श्लोक 61
य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः। त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः, परस्परेक्षाः स्वपरोपकारि।
= जो ही ये नित्य क्षणिकादि नय परस्पर में अनपेक्ष होनेसे स्व-पर प्रणाशी हैं, वे ही नय हैं प्रत्यक्षज्ञानी विमल जिन! आपके मत में परस्पर सापेक्ष होनेसे स्व-पर उपकारी है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 60/336/13
ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वं कथं समुदितानां निर्विरोधिता। उच्यते। यता हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णीतारमासाद्य परस्परं विवदमाना अपि वादिनो दिवादाद् विरमंति, एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः संतः परस्परमत्यंतं सुहृद्भूयावतिष्ठंते।
= प्रश्न-यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं तो उन नयों के एकत्र मिलाने से उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है? उत्तर-परस्पर वाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बंद करके आपस में मिल जाते हैं, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान के शासन की शरण लेकर `स्याद्' शब्द से विरोध के शांत हो जानेपर मैत्री भाव से एकत्र रहने लगते है।
(स्याद्वाद/5 में देखो स्यात् पद प्रयोगका महत्त्व)।
6. विरोधी धर्मों में अपेक्षा लगाने की विधि
1. सत् असत् धर्मों की योजना विधि-
- (देखें सप्तभंगी - 4)।
2. एक अनेक धर्मों की योजना विधि-
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक सं./केवल भावार्थ-
"द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा वह सत् अखंड या एक कैसे सिद्ध होता है, इसका निरूपण करते हैं ॥437॥ 1. द्रव्य की अपेक्षा-गुणपर्यायवान् द्रव्य कहने से यह अर्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए कि उस सत के कुछ अंश गुण रूप हैं और कुछ अंश पर्याय रूप हैं, बल्कि उन गुणपर्यायों का शरीर वह एक सत् है ॥438॥ तथा वही सत् द्रव्यादि चतुष्टय के द्वारा अखंडित होते हुए भी अनेक है, क्योंकि व्यतिरेक के बिना अन्वय भी अपने पक्ष की रक्षा नहीं कर सकता है ॥494॥ द्रव्य, गुण व पर्याय इन तीनों में संज्ञा लक्षण प्रयोजन की अपेक्षाभेद सिद्ध होने पर वह सत् अनेक रूप क्यों न होगा ॥495॥ 2. क्षेत्र की अपेक्षा-क्षेत्र के द्वारा भी अखंडित होने के कारण सत् एक है ॥495॥ 2. क्षेत्र की अपेक्षा-क्षेत्र के द्वारा भी अखंडित होनेके कारण सत् एक है ॥454॥ अखंड भी उस द्रव्य के प्रदेशों को देखनेपर-जो सत् एक प्रदेश में है वह उसी में है उससे भिन्न दूसरे प्रदेश में नहीं। अर्थात् प्रत्येक प्रदेश की सत्ता जुदा-जुदा दिखाई देती है। इसलिए कौन क्षेत्रसे भी सत को अनेक नहीं मानेगा ॥496॥ 3. काल की अपेक्षा-वह सत् बार बार परिणमन करता हुआ भी अपने प्रमाण के बराबर रहने से अथवा खंडित नहीं होनेसे काल की अपेक्षा से भी एक है ॥478॥ क्योंकि सत की पर्यायमाला को स्थापित करके देखें तो एक समय की पर्याय में रहनेवाला जो जितना व जिस प्रकार का सत् है, वही उतना तथा उसी प्रकार का संपूर्ण सत् समुदित सब समयों में भी है। कहीं काल की वृद्धि-हानि होने से शरीर की भाँति उसमें वृद्धि-हानि नहीं हो जाती ॥472-474॥ पृथक्-पृथक् पर्यायों को देखनेपर जो सत् एक काल में है, वह सत् अर्थात् विवक्षित पर्याय विशिष्ट द्रव्य उससे भिन्न काल में नहीं है। इसलिए काल से वह सत् अनेक हैं ॥497॥ 4. भाव की अपेक्षा-(यदि संपूर्ण सत को गुणों की पंक्तिरूप से स्थापित करके केवल भावसुखेन देखो तो इन गुणों में सब सत् ही है और यहाँ पर कुछ भी नहीं है। इसलिए वह सत् एक है ॥481॥ जिस-जिस भावमुख से जिस-जिस समय सत की विवक्षा की जायेगी, उस-उस समय वह सत् उस-उस भावभय ही कहा जायेगा या प्रतीति में आयेगा अन्य भावरूप नहीं। इस प्रकार भाव की अपेक्षा वह सत् अनेक भी है ॥498॥
3. अनित्य व नित्य धर्मों की योजना विधि
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक सं.
"जिस समय केवल वस्तु दृष्टिगत होती है और परिणाम दृष्टिगत नहीं होता उस समय द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सर्व वस्तु नित्य है ॥339॥ जिस समय यहाँ केवल परिणाम दृष्टिगत होता है और वस्तु दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से, नवीन पर्याय रूप से उत्पन्न और पूर्व पर्यायरूप से विनष्ट होने से सब वस्तु अनित्य है।
4. तत् व अतत् धर्मों की योजना विधि
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लो.सं.
"परिणमन करते हुए भी अपने संपूर्ण परिणमनों में तज्जातीयपना उल्लंघन न करने के कारण वह सत् तत् रूप है ॥312॥ परंतु सत् असत की तरह पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा देखने पर प्रत्येक पर्याय में वह सत् अन्य अन्य दिखने के कारण असत् रूप भी है ॥333॥
7. विरोधी धर्म बताने का प्रयोजन
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 332,442
अयमर्थः सदसद्वत्तदतदपि च विधिनिषेधरूपं स्यात्। न पुनर्निरपेक्षतया तद्द्वयमपि तत्त्वमुभयतया ॥332॥ स्यादेकत्वं प्रति प्रयोजक स्यादखंडवस्तुत्वम्। प्रकृतं यथासदेकं द्रव्येणाखंडितं मतं तावत्॥
= सत्-असत की तरह तत्-अतत् भी विधि निषेध रूप होते हैं, किंतु निरपेक्षपने नहीं क्योंकि परस्पर सापेक्षपने से वे दोनों तत्-अतत् भी तत्त्व हैं ॥332॥ कथंचित् एकत्व बताना वस्तु की अखंडता का प्रयोजक है।
नयचक्र/श्रुतभवन/पृष्ठ 65-67/ भावार्थ
"स्यात् नित्य का फल चिरकाल तक स्थायीपना है। स्यादनित्य का फल निज हेतुओं के द्वारा अनित्य स्वभावी कर्म के ग्रहण व परित्यागादि होते हैं।"